साहित्य

बुआ जी….मुंडन संस्कार की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई थी, बस एक बुआ ही थीं, जो नहीं आईं थीं!

चित्र गुप्त
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बुआ जी
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घर में मध्यम दर्जे की गहमागहमी का माहौल था। उल्लास में फूला ने सुबह से ही पूरा घर सिर पर उठा रखा था। गिनती के कुछ रिश्तेदार दुआर पर खटिया डाले बैठे हुए थे। अखंड रामायण का पाठ थोड़ी देर पहले ही समाप्त हुआ था। हवन कराने के लिए बड़के पंडित जी को ढूढने गया था लेकिन काफी देर हो चुकी थी और वह लौटकर नहीं आया था। मझली बहू फूला काम करते हुए बडबडा रही थी।

“गिन-चुनकर एक तो लड़का है अब उसके भी मुंडन में कौनो कोर कसर बाकी रह गई तो गांव जेवार में कौन सा मुंह दिखाएंगे…? अब उसी में एक हमारी ननद रानी हैं… गुड़िया रानी जो पूरा किरला (नाटक) इसी में दिखा रही हैं। वो का सोंच रही हैं कि वो नहीं आएंगी तो मुंडनवै नहीं होगा… अरे होगा क्यों नहीं होगा… सब भाय बहिन एकै जैसे हैं। मुर्गा सोंचि रहा है कि वो नहीं बोलेगा तो सबेर ही नहीं होगा…।”

बड़ी बहू का नाम गेंदा था और छोटी का नाम रूपा। जो बीच में थी उसका नाम फूला था। लेकिन गांव वाले इन्हें इनके नाम से कम और बड़कना मझिलका और ननकनी के नाम से अधिक जानते थे।

बिना किसी किंतु परंतु के सीधे किसी का नाम लेकर बुलाने का आनंद कुछ अलग ही होता है। नाम के पहले श्री या श्रीमती लगाना फिर नाम के बाद जी लगाना ये सब आदरसूचक तो हो सकता है लेकिन इसमें अपनत्व की जगह औपचारिकता ज्यादा झलकती है। इसलिए गांवों में खासकर औरतें एक दूसरे का ऐसा नाम रख लेती हैं जिसे वे बेहिचक इस्तेमाल कर सकें और उन्हें सीधे नाम से संबोधित कर सकें। ये नाम कोई दस्तावेजी नाम तो नहीं होते लेकिन चलते ये असली नाम से ज्यादा हैं। अधेड़ उम्र की गेंदा और फूला को कोई कल का बोलना सीखा बच्चा भी मजे से ओ बड़कना या ओ मझिलका बुला सकता था। रूपा घर में सबसे छोटी थी उसे तो वैसे भी सभी नाम से बुला सकते थे लेकिन उनसे बड़ी दोनो बहुओं की तर्ज पर इनका भी नाम ननकना पड़ गया था।
मुंडन संस्कार की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई थी। बस एक बुआ ही थीं, जो नहीं आईं थीं।

वार्तालाप में गेंदा का प्रवेश हुआ “आपन काम करौ मझिलका… हमार देखो! पांच बहनों के बीच अकेला भाई है। लेकिन मज़ाल है कि कौनो नवा नोसर पर हम पांचों में से किसी को भुला दे… सबको बुलाता है पिंटुआ । कौनो टाटा बिड़ला नहीं है… लेकिन अपने भसोट भर देता ही है। अम्मा-बप्पा को गुजरे पाँच साल हो गए पर कभी पता नहीं चलने दिया हम बहनों को कि अम्मा बप्पा नहीं हैं। यहां इनके तीन भाइयों के बीच एक चवन्नी सी बहन है इनसे वो भी नहीं सम्हाली जा रही।”

दुलारे से जब रहा नहीं गया तो वो बीच में बोल पड़ा।
“हमहीं खराब हैं न? तो हम घर छोड़ के चले जाते हैं अउर का नंदू भैया गए तो थे बहिनी को लाने पर क्या करें? वो तेवारी ने बेइज्जती करके भगा दिया। वो बेचारे क्या करते? पैर में पड़ जाते …?”

“अरे पैर में ही पड़ जाते तो कौन सा जुलम हो जाता? तुम्हारे बहनोई हैं वो… और काहे नहीं करते बेइज्जती आखिर तुमने भी तो हाथ पकड़ कर उनको भगा दिया था… वो भी अपने दरवाजे से…”
फूला ने बोलना बंद किया तो गेंदा ने उसकी बात को उठा लिया। वो दुलारे को समझाने लगीं।

“जब तुम्हारा जनेऊ हो रहा था, वही तिवारी ही आचार्य बनकर बैठे थे। आखिर नेग न्यौछावर मांगने का भी समय होता है। उस समय नहीं मांगते तो कब मांगते…? भैंस ही तो मांग रहे थे वो… कौन सा घोड़ा हाथी मांग लिया था। आखिर इस घर के दामाद हैं वो तुम लोगों से नहीं मांगते तो किससे मांगते…नहीं ही देना था तो कोई बात नहीं कमसे कम सबके सामने हामी तो भर देते… समाज में उनकी भी इज्जत रह जाती। कौन सा वो जबरदस्ती खोलकर लिए जा रहे थे …।”

“अब बस भी करो भउजी… बड़के भैया क्या करते एक तो भैंस थी वह भी दे देते तो लरिके-बच्चे दूध किसका पीते…? तुम लोगों का तो उतरता नहीं…”
“हां हां हमको नहीं उतरता जैसे तुम लोग बड़े दुधारू खानदान के हो…?”

फूला ने गेंदा से आगे आकर दुलारे की बात का उत्तर दिया और फिर काम करने में लग गई। गेंदा अब भी बैठी दुलारे को समझा रही थी।

“अरे! भगाने की बात हो रही दुलारे! शादी बियाह में थोड़ा बहुत रुसा-रासी तो होता ही है। लेकिन तुम तीनो भाई एक जैसे ही हो जरा सी बात में पिनक गए। एक ठो तो बहन है और उसको भी हाथ पकड़ कर अपने दरवज्जे से भगा दिया। क्या गुजरी होगी उस बिचारी के दिल पर…अब वह क्यों आएगी भला तुम्हारे घर…?”

“मैं भगा रहा था तो भैया भी तो रोक सकते थे।”

“ऊ काहे रोक लेते, उनके कौन सा भदावर बंधी थी जो देते…”

“ओ ननकनिया देख कुछ जलने की खुशबू सी आ रही है। चूल्हे पर कुछ चढ़ा तो नहीं रखा तूने? ये तीनों भाई तो एक जैसे ही हैं। कौनो काज लायक नहीं… इनको समझाने का क्या क्या फायदा…?” गेंदा ने कहा और उठकर जाने लगी।

“हम भाई लोग कौनो काज लायक नहीं हैं तो का ई लड़िका-बच्चा अपने नैहर से लेकर आईं थीं भउजी…” ये कहते हुए दुलारे खी खी करके हँसने लगा।
“पतुरिया जैसे दांत मत चियारो दुलारे! खाली बच्चे ही पैदा करना जानते हो या इनको कैसे पालपोस कर बड़ा करना है इसके बारे में भी कुछ पता है?”
अपना आंचल कमर में बांधे फूला पूरी मर्दानगी से काम में जुटी थी और दुलारे की बातों का मुंहतोड़ जवाब भी दे रही थी।
“अब अस न कहौ भउजी …?”

“अब अस न कहें, तो कस कहें? तुमही बता दो फिर…।” फूला ने गर्दन मटकाते हुए उत्तर दिया और गेंदा का हाथ पकड़कर कहने लगी।

“अब बारह बाभन खवावे का टाइम हो रहा है। मझिलके निमंत्रण कहने गए थे जो अब तक नहीं आये। बड़े जने पंडित को बोलावे बदे गए रहे, वो भी अब तक नहीं लौटे और एक ई हैं दुलारे … इनका तो पूछो ही मत सुबह से ही बतगढ़ि कर रहे हैं बस… उठो बड़कनो चलो काम कराओ।”
“अरे मझिलकौ गुड़ीवा नाय आय का….?”

इस सवाल के साथ पड़ोस वाली चाची का आगमन हुआ था। पता उन्हें सब था फिर भी पुराने जख्म कुरेदकर उसमे जब तक मिर्च न लगा दिया जाय तब तक सच्चा पड़ोसी होने का एहसास की कहां होता है? इसी सिलसिले में थोड़ा भावविभोर होने के लिए वो भी आई थीं।

“आव चाची आव बैठो…” गेंदा ने मन ही मन गरियाते हुए उन्हें बैठने का आग्रह किया।

“अरे बैठब तो ठीक है मुला जब बुआ ही नहीं आई तो मुंडन की लोई कौन पकड़ी बहुरिया यही सोच सोच मुझे तीन दी से नींद नहीं आ रही?”

“अब का करें चाची? गए तो थे ही बुलाने पर तेवारी हाथ पकरि के भगाय दिये। बोले मेरा तुम्हारा रिश्ता खत्म…जब अपने जनेऊ मा भरे समाज के बीच से हमका भगा दिए थे तब का समझे थे…? अब कौन मुंह लेके हमका बुलावे बदे आये हो?” गेंदा ने कहा।

चाची ने अपनी भीतर की प्रसन्नता छुपाते हुए दो बूंद आंसू जमीन पर गिराए और अपनी धोती से मुंह ढक लिया। जिससे उन तीनों को इनके बेहद दुःखी होने का एहसास बना रहे और वो अपना मुंह ढककर इत्मीनान से हंस सकें।

तीनो बहुएं सुबह से ही काम में जुटीं थी। गेंदा अपना बडे होने का फर्ज निभा रही थी, फूला अपना बीच में होने का…। बची खुची एक रूपा ही थी जो सारे काम दौड़-दौड़कर कर रही थी। देखते देखते मुंडन का समय भी हो गया।

बुआ की अनुपस्थिति में लोई (सने आटे की बनी रोटी नुमा आकृति जिसमे बाल रखकर उसे गोल कर दिया जाता है फिर किसी पवित्र नदी या तालाब में फेका जाता है) ठकुराइन (नाई की पत्नी) को ही पकड़ा दिया गया। गोला पटाका दाग दिया गया। गांव की महिलाएं मउनी(मूज की बनी छोटी कटोरेनुमा टोकरी) में अनाज लेकर आना शुरू हो गई थीं। कुछ देर में ही गाना बजाना भी शुरू हो गया।

नाई, बच्चे के सिर पर उस्तरा रखने ही वाला था। कि बाहर से बच्चों के चिल्लाने की आवाज आई…।
बुआ आ गईं…बुआ आ गईं…।

अब कौन सी बुआ आ गईं? गेंदा ने गर्दन उठाकर देखा लेकिन गांव की औरतों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उन्हें कुछ दिखाई न दिया। तब तक भीड़ को चीरते हुए गुड़िया बेदी तक पहुँच गई थी।

“अरे भागउ नाउनि भउजी लोई इधर लाओ हमरे भतीज का मुण्डन है और बड़ी आईं ये लोई पकड़ने वाली…।”
“गुड़ीवा आय गय…” पीछे खड़े बड़के धीरे से बोले।

“तुम चुप्प साधे रहो भैया! अपने घर नहीं आऊंगी तो कहां जाऊंगी। तुम लोग का समझे रह्यो कि गुड़ीवा से फुरसत मिला, भतीज केर मुंडन है औ बुआ न आवें ऐसा कभी अपने खानदान में हुआ है क्या जो अब होगा?”

गुड़िया लड़के को गोदी में लेकर बैठ गई और ढोलक पकड़े बैठी औरतों की ओर मुंह घुमाकर बोली-
“गाओ भउजी तुम लोग…”

गुड़िया ने अपने आँचल के नीचे छुपाकर रखे मिठाई के डिब्बे को खोलकर लड़के के आगे रख दिया, नाई ने बाल बनाना शुरू किया और औरतों ने मंगल गाना। बच्चे के द्वारा डिब्बे में से मिठाई निकालकर खाना शुरू करते ही उसकी मिठास सबके दिलों में घुलने लगी। मुंडन शुरू हो चुका था।
#चित्रगुप्त
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