साहित्य

“बानो”/उर्दू उपन्यास : बंटवारे की सरहद पार की त्रासदी

Satya Vyas
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“बानो”/उर्दू उपन्यास
बंटवारे की सरहद पार की त्रासदी
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रजिया बट्ट लिखित उपन्यास “बानो” की शुरुआत सन 1952 में हसन और राबिया के सालों बाद की मुलाकात से होती है। हसन बारह साल की छोटी लड़की की जगह सत्रह साल की पुरकशिश राबिया को देखकर हैरान होता है। राबिया, हसन से मन ही मन प्यार करती है और उसकी नजदीकियां चाहती है।
मगर हसन अब भी पांच साल पहले बंटवारे में लापता अपनी मंगेतर बानो को भूल नहीं पाया है,जिसके बारे में सबका मानना यह है कि वह बंटवारे की त्रासदी में हलाक हो गई है।
आरंभिक ना-नुकुर के बाद हसन अपने परिवार वालों की मर्जी के आगे झुक जाता है और राबिया से निकाह की मंजूरी दे देता है। शादी की तैयारियों के बीच ही हसन को एक पत्र मिलता है जिससे उसे पता चलता है कि बानो जिंदा है और अभी लाहौर में हैं। हसन बानो को लेने लाहौर जाता है। बानो और उसका चार साल का बेटा हसन के घर पहुँचते हैं।
कहानी अब पांच साल पीछे 1947 की ओर मुड़ती है।
पाँच साल पहले, हसन की मौसी सुरैया और बानो के भाई सलीम की शादी में, दोनों एक-दूसरे के प्यार में पड़ जाते हैं और घरवाले उनकी सगाई कर देते हैं। हसन की नौकरी पिंडी में लग जाती है और वह अपनी मां के साथ पिंडी चला जाता है।
क्योंकि यह वर्ष 1947 था और मुसलमानों और हिंदुओं के बीच तनाव इस हद तक बढ़ जाता है कि दोनों तरफ से दंगे अक्सर होने लगते हैं। बानो के घर पर हमला किया जाता है। उसे और उसकी माँ को छोड़कर कोई भी जीवित नहीं बचता। दो पारिवारिक मित्र राजिंदर और ज्ञानलाल उन्हें बचाते हैं और पाकिस्तान जा रहे कारवां तक छोड़ आते हैं।
मगर कारवां पर हुए हमले में बानो की माँ भी मारी जाती है और बानो बलात्कार का शिकार होती है।एक सिख परिवार ही उसे फिर बचाता है और अपने घर लाकर स्वास्थ्य सुधार तक रखता है। स्वास्थ्य में सुधार के बाद, बानो लाहौर के लिए ट्रेन पकड़ती है जिस पर फिर दंगाइयों द्वारा हमला किया जाता है। बानो फिर बलात्कार का शिकार होती है और बेहोश हो जाती है। दंगाइयों में से एक, बसंत सिंह बेहोश बानो को घोड़ी पर लाद कर अपने घर ले जाता है और उससे जबरदस्ती शादी कर लेता है।


यह सब सहते हुए भी बानो पाकिस्तान जाने के अपने सपने को नहीं छोड़ती है, क्योंकि उसे उसके मुस्लिम लीगी मंगेतर हसन ने बताया था कि पाकिस्तान में सबकुछ अच्छा होगा। औरतों के हुकूक मिलेंगे। कोई जोर जुल्म नहीं होगा। सब राजी खुशी रहेंगे। वह अब भी पाकिस्तान जाने का सपना नहीं भूलती।उसे लगता है कि उस अभागी को छोड़कर सभी पाकिस्तान में राजी खुशी हैं।
बसंत और उसके परिवार के साथ कपूरथला में पाँच भयानक साल बिताने के बाद, बानो, जिसे अब सुंदर कौर कहा जाता है, को तब एक बार फिर जीने का मकसद मिलता है जब उसके ‘पति’ बसंत सिंह की मृत्यु हो जाती है।
बसंते की पड़ोसन और बानो की करीबी दोस्त गोविंदी, अपने भाई की सहायता से बानो और उसके चार साल बच्चे को पाकिस्तान भगा देती है। पाकिस्तान पहुंचकर सबसे पहले बानो अपने वतन की मिट्टी चूमती है।
कहानी फिर वर्तमान में लौटती है। बानो को हसन के घर आने पर उसकी राबिया से हो रही शादी के बारे में पता चलता है। वह अपराधबोध से ग्रसित होती है और हसन के घर से अपने बच्चे को लेकर निकल जाती है।
बंटवारे की आम कहानियां लगभग ऐसी स्थिति में ही खत्मशुद हो जाती हैं। मगर, यह उपन्यास इसीलिए विशेष है क्योंकि यह आगे की बात भी कहती है।
आगे की कहानी में हसन उसे अपने ही देश में ढूंढता फिरता है। मगर बानो उससे बचती है। बानो लाहौर में एक परिवार में नौकर का काम करते हुए भी खुश है क्योंकि वह अपने देश में है। लेकिन उसे बहुत ज़्यादा देशभक्त और बहुत ज़्यादा ईमानदार होने के कारण नौकरी से निकाल दिया जाता है। पाकिस्तान में आए दिन पेश आ रहे हादसे उसे सोचने पर मजबूर करते हैं। उसे उसके सपनों का पाकिस्तान पहली बार टूटता दिखता है।मगर फिर भी वह अपने बेटे गुलाम अहमद के लिए हिम्मत बांधती है।
उसे एक दूसरी नौकरी मिलती है। वह शांति और मेहनत से काम करती है और फिर एक दिन अपने कंपनी के मालिक द्वारा बलात्कार का शिकार होती है।
इस हादसे के बाद वह पूरी तरह से अपना होश खो देती है।उसका यह विश्वास टूटता है कि पाकिस्तान बनने के बाद किसी भी महिला का अपमान नहीं किया जाएगा। किसी भी कमजोर के साथ ज्यादती नहीं होगी, सब बराबर होंगे। उसे लीग की सारी नसीहतें ढोंग लगती हैं। वह अर्ध विक्षिप्त हो जाती है।
बानो अर्ध नग्न अवस्था में ही अपने घर लौटती है और अपने बेटे में अपने बलात्कारी बसंते को देखती है।वह अपने बेटे को मार देती है।
वह उसी अवस्था में हसन के घर की ओर भागती है जहाँ राबिया और हसन की शादी हो रही है। वह हसन पर भी हमला करती है और उससे स्पष्टीकरण माँगती है। वह पूछती है कि उसने बानो से यह झूठ क्यों बोला था कि पाकिस्तान एक पवित्र देश होगा जहाँ किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। उसके और उसके परिवार के बलिदान क्यों व्यर्थ गए? अर्ध विक्षिप्तता की इसी अवस्था में वह हसन की बाहों में मर जाती है।
हसन अपने होश खो देता है, जबकि राबिया को अप्रत्यक्ष रूप से उनके जीवन को बर्बाद करने के अपराध बोध के साथ जीना पड़ता है, और अपने मानसिक रूप से बीमार पति की देखभाल करनी पड़ती है।
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“बानो” एक त्रासदी की कारुणिक बयानगी है जो पढ़ी ही जानी चाहिए। बानो इस बात की तस्दीक करती कहानी है कि दंगों में औरतें हिंदू, सिख या मुसलमान नहीं होती। वह बस शिकार होती हैं।
सहमति, वक्त और प्रकाशन मिले तो मैं इसका अनुवाद करना जरूर चाहूंगा।
विशेष: बानो पर आधारित टेलीसीरियल “दास्तान” हम टीवी पर उपलब्ध है,मगर जैसा कि व्यावसायिक मजबूरियां होती है, एडप्टेशन में कई बातें हटा ली गई हैं और उसे ज्यादा से ज्यादा हिंदू -सिख विरोधी बनाया गया है। टीवी के हिसाब से विभीषिका को कम किया है।गलतियां एक पक्षीय दिखाई गईं हैं और सबसे बड़ी बात, इस बात पर जोर दिया गया है कि जो लीग के साथ न होकर कांग्रेस के साथ थे,उन्हीं पर अजाब बरसे। उन्ही पर तबाही नाजिल हुई। यदि वह लीग का साथ देते तो ऐसा न होता।