द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
Lives in Bilaspur, Chhattīsgarh, India
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बाग उजड़ गए :
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बाग उजड़ गए बिही के. बिही जिसे अमरूद भी कहा जाता है, मेरे बिलासपुर के आसपास इसकी बेतरह पैदावार हुई करती थी. बिलासपुर से तखतपुर तक हज़ारों एकड़ जमीन, जिसे स्थानीय बोलचाल की भाषा में ‘बिही बाड़ी’ या ‘बिही बगैचा” कहते थे, में बिही के बेशुमार पेड़ लगे हुए थे, जिनमेंं से कुछ रोपे हुए थे और अधिकतर अपनेआप उगे-बढ़े थे. अरपा, नर्मदा और मनियारी नदी की नज़दीकी इनकी पैदावार के लिए मुफीद थी. समशीतोष्ण जलवायु, रेतीली भूमि और पर्याप्त वर्षा के कारण इसके पौधों का उगना, बढ़ना और फलना सहज था. एक समय था जब ‘तखतपुर की बिही’ मैंने कलकत्ता के बाजार में देखी और खरीदी थी, अच्छी बड़ी और खूब मीठी बिही, तब मुझे दुख हुआ था कि ऐसी बिही हम लोगोंं को क्यों नहींं मिलती, तब मालूम हुआ था कि ‘एक नम्बर’ का माल पहले छंंटकर महानगरों को भेज दिया जाता है क्योंकि वहां अच्छा दाम मिलता है, बाकी बचाखुचा ‘लोकल’ में बेचा जाता है. फिर भी, जैसी भी मिलती थी, स्वादिष्ट हुआ करती थी. बिलासपुर से मुंगेली तक, बिलासपुर से रतनपुर तक और बिलासपुर से जांजगीर तक और बिलासपुर से नांदघाट तक सड़क के दोनों ओर गांव की औरतें और बच्चे बोरा बिछाकर बिही बेचा करते थे. अब ये दृश्य कहीं-कहीं ही दिखाई पड़ते हैं. बिही के बाग अब नष्ट हो रहे हैं. इनके विनाश की मुख्य वज़ह है, आर्थिक लोभ.
शहर की बसाहट बढ़ने लगी तो खेत-खलिहान और बगीचे उजड़ने लगे. जिस भूमि पर कभी हरियाली मुस्कुराती थी, उस पर मकान और दुकानें तन गई. शहर फैलते जा रहा है और कृषि भूमि सिमटती जा रही है. हमारा शहर चौतरफा बढ़ा, लिहाज़ा चारों तरफ की हरीतिमा को ग्रहण लग गया. बिलासपुर में बह रही अरपा नदी के उस पार जिसे अब पुराना सरकंडा कहते हैं, नदी के किनारे से लेकर मीलों तक बिही के बगीचे हुआ करते थे, अब एक पेड़ नहीं दिखाई पड़ता.
दूसरा कारण था, बिही की कीमत का कम होना. जो बिही सबसे अच्छी होती थी उसका निर्यात करके अच्छा मूल्य मिल जाता था लेकिन अधिकतर बिही जो मध्यम और छोटी होती थी, वे स्थानीय बाजार में मिट्टी के मोल में बिकती थी. इस बीच आधुनिक तकनीक के कारण धान की फसल में अभूतपूर्व वृद्धि होने लगी तथा धान की कीमत भी अच्छी मिलने लगी तो कृषकों ने बिही के पेड़ नष्ट कर दिए और उस जमीन पर धान उगाने लगे.
तीसरा कारण था, बंदरों का उत्पात. जंगल के बंदरों को जब बागोंं में आम, बिही और सब्जियां मिलने लगी तो वे जंगल से शहर की ओर मुड़ गए. बंदरों को भगाने के सारे उपाय जब असफल होने लगे, उनकी आबादी दिनों-दिन बढ़ती गई तो परेशान होकर लोगों ने फलोंं के वृक्ष कटवा दिए.
चौथा कारण है, छत्तीसगढ़ में आधुनिक तकनीक की बिही का बड़े पैमाने में उत्पादन. विगत दस वर्षों में बागवानी के उन्नत तरीकोंं से फलों के उत्पादन में अपूर्व वृद्धि हुई है. जब से पपीता, बिही, आंवला, चीकू, केला, सीताफल, कीनू, टमाटर, शिमला मिर्च आदि फलों और सब्जियोंं का ‘हायब्रिड’ उत्पादन शुरू हुआ, इन वस्तुओं का आकार और सुंदरता बढ़ गई लेकिन स्वाद और गुणवत्ता में बेहद कमी आई है. अब ठेलों में ‘हायब्रिड’ बिही की भरमार है और स्थानीय बिही के दर्शन दुर्लभ है. ‘हायब्रिड’ बिही की कीमत बाजार में औसतन 70 रुपए प्रति किलो है जिसमें विक्रेता को लगभग 30 रुपए किलो का मुनाफा मिल जाता है जबकि स्थानीय बिही 40 रुपए प्रति किलो मिलती है जिसमें केवल 10 रुपए किलो का मुनाफा होता है. स्वाभाविक रूप से विक्रेता उस ओर आकर्षित होता है जिस वस्तु में उसे अधिक मुनाफा है.
आज हम पुराने लोग उन पुरानी बातों को याद करते हैं जब बिही की मिठास हमारे तन और मन को संतुष्ट किया करती थी, अब केवल बातें रह गई हैं. ‘गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दोबारा, हाफिज़ खुदा तुम्हारा…’.
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल