सेहत

बहुत ख़तरनाक़ है ”क्रॉनिक खुजली” : प्रतिरक्षा प्रणाली को नष्ट कर सकती है और सूजन अनियंत्रित ढंग से बढ़ सकती है!

खुजली या इचिंग को अक्सर गंभीर बीमारी की श्रेणी में नहीं गिना जाता है. अपने आस-पड़ोस में शायद ही आपको कोई ऐसा मिला हो जो इसे गंभीर बीमारी के तौर पर देखता हो. लेकिन अगर खुजली क्रॉनिक रूप ले ले, तो ये व्यक्ति के लिए परेशानी का सबब बन सकती है.

एक ख़ास तरह की खुजली भी होती है जिसे आप महज़ खुजली नहीं कह सकते, इस तरह की खुजली इंसान का सुख-चैन तक छीन सकती है.

जी हां, यक़ीन करना भले मुश्किल हो लेकिन खुजली का एक ऐसा रूप भी होता है जिसमें व्यक्ति को लगातार खुजली होती है और बार-बार खुजलाने के बावजूद यह कम नहीं होती. व्यक्ति को खून तक निकल आता है, लेकिन आराम महसूस नहीं होता.

दिल्ली-एनसीआर में मैक्स अस्पताल समूह में त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. सौरभ जिंदल इस बीमारी का जिक्र करते हुए कहते हैं, “वैसे तो इसके मामले कम देखने को मिलते हैं लेकिन हर केस अपने आप में गंभीर होता है.”

“हमारे पास आने वाले मरीज़ों में ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने खुजली कम करने के लिए शरीर के उस जगह को मोमबत्ती तक से जला लिया. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी गंभीर हो सकती है.”

चिकित्सकीय परिस्थितियों में इसे प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस (पीएन) कहा जाता है. ये आम तौर पर छह सप्ताह से लगातार गंभीर खुजली होने की स्थिति है.

इसमें खुजली के साथ-साथ शरीर पर दानेदार गांठें भी उभर आती हैं, जिन्हें नोड्यूल्स कहा जाता है. इन गांठों में नर्व बन जाते हैं जो खुजली करने की परिस्थितियों को बढ़ाते रहते हैं.

कई बार मरीज़ की हालत ऐसी हो जाती है कि वो दूसरा कोई काम नहीं कर पाता, न तो वो आराम से बैठ पाता है और न ही चैन से सो पाता है.

लगातार खुजलाने के कारण कई लोगों की त्वचा पर जख़्म हो जाता है और खून तक निकल आता है, लेकिन आराम महसूस नहीं होता है. खुजली इतनी तेज़ होती है कि व्यक्ति को जलन और चुभन भी महसूस होने लगती है.

संक्रामक बीमारी नहीं
प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस में खुजली करने वाले व्यक्ति को ऐसा लगता है कि कई चीटिंयों ने एक साथ उसे काटना शुरू कर दिया है. यह अचानक से महसूस होने वाली तेज़ खुजली से अलग स्थिति है क्योंकि इसमें खुजली लगातार महसूस होती है.

हालांकि ये राहत की बात है कि ये संक्रामक नहीं है, यानी किसी के छूने या पास आने से ये नहीं फैलता. इसकी वजह से भी इसे रेयर बीमारी के तौर पर देखा जाता है.

अमेरिकी नेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ रेयर डिसऑर्डर (एनओआरडी) के आंकड़ों के मुताबिक़, ये बीमारी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रति एक लाख लोगों में 22 से लेकर 72 लोगों में देखी गई है.

इसकी चपेट में आने वाले लोगों में ज़्यादातर 40 से 69 साल की उम्र के लोग होते हैं.

इतना ही नहीं इस तरह की खुजली की चपेट में महिलाएं भी आती हैं. एनओआरडी के मुताबिक़, इस बीमारी के हर 100 मामलों में क़रीब 54 महिलाएं होती हैं.

प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस के बारे में अधिक जानकारी मौजूद नहीं है. अभी तक इसके कारण का ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि ये संक्रामक नहीं है.

क्रॉनिक खुजली
हालांकि प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस, एक्ज़िमा और सिरोयसिस जैसी त्चचा संबंधी बीमारियों से थोड़ी गंभीर स्थिति है. इसके अलावा यह किडनी, लीवर और लिम्फोमा जैसी बीमारियों में भी उभर सकता है.

इस बीमारी के बारे में न्यूयार्क के माउंट सिनाई स्थित आइकान स्कूल ऑफ़ मेडिसिन के न्यूरो-इम्यूनोलॉजिस्ट ब्रायन किम ने बीबीसी फ्यूचर को बताया, “तेज़ और क्रॉनिक खुजली को लोग तेज़ दर्द जैसा मानते हैं, लेकिन यह उससे ज़्यादा है.”

“तेज़ दर्द की स्थिति में भी दस में से छह लोगों को नींद आ जाती है लेकिन प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस में एक पल का भी आराम नहीं मिलता. लोग पूरी-पूरी रात त्वचा खुजलाते रहते हैं.”

मेडिकल तौर पर पहली बार 360 साल पहले बीमारी के रूप में खुजली की पहचान की गई थी. लेकिन इतने सालों में इसके इलाज को लेकर कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई.

इसकी एक वजह तो यही रही कि विशेषज्ञ भी तेज़ खुजली और तेज़ दर्द को अलग-अलग करके नहीं देख पाते थे.

खुजली के लिए कौन-सी चीज़ ज़िम्मेदार?

1920 के दशक में पहली बार दोनों स्थितियों- तेज़ खुजली और तेज़ दर्द के अंतर के बारे में दुनिया को पता चला.

ऑस्ट्रियाई-जर्मन फ़िजियोलॉजिस्ट मैक्स वॉन फ्रॉय ने शरीर के उस छोटे से अवयव का पता लगाया जिससे यह पता चला कि खुजली महसूस होने के कुछ समय बाद दर्द महसूस होता है.

एक लंबे समय के अंतराल के बाद 2007 में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन के ज़ू फेंग शेन के नेतृत्व में एक टीम ने इंसानों के रीढ़ की हड्डी में मौजूद उन तंत्रिका कोशिकाओं का पता लगाया जो शरीर में खुजली की वजह होती है.

चूहों पर किए गए अध्ययन में देखा गया कि इन ख़ास कोशिकाओं को हटा देने पर वे किसी भी तरह से अपने शरीर को नहीं खुजलाते हैं, हालांकि उन्हें दर्द महसूस होता है.

दरअसल इसी प्रयोग के चलते वैज्ञानिकों ने उन न्यूरॉन्स का पता लगाया जिनसे खुजली का एहसास दिमाग़ तक पहुंचता है.

इसके बाद 2017 में डॉक्टर ब्रायन किम और वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ इच एंड सेंसरी डिसऑर्डर्स में काम कर रहे उनके सहयोगियों ने बताया कि जब त्वचा में सूजन की वजह से शरीर की प्रतिरोधी कोशिकाओं में आईएल-4 एवं आईएल-13 रसायन निकलते हैं (जिन्हें काइटोकाइन्स कहते है), तो इन संवेदनशील न्यूरॉन्स के चलते खुजली होती है.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया में त्वचा रोग विभाग के प्रोफ़ेसर मैरिल्स फासेट ने बीबीसी फ्यूचर को बताया है कि डॉ. ब्रायन किम के शोध ने इन न्यूरॉन्स की सक्रियता को कम करने वाले अणुओं का भी पता लगाया.

इन्हीं मुद्दों पर शोध करते हुए फासेट को 2023 में उल्लेखनीय कामयाबी मिली है. उनके शोध के मुताबिक़ आईएल-31 ऐसा ही रसायन है, जिसकी सक्रियता को कम करके खुजली को कम किया जा सकता है.

उनके एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि इस रसायन को शरीर में कम करके खुजली महसूस करने को कम किया जा सकता है.

फासेट अपने नए अध्ययन के बारे में बताती हैं, “आईएल-31 रसायन को नियंत्रित करने वाली मेडिसिन का एक असर ये हो सकता है कि वह प्रतिरक्षा प्रणाली को नष्ट कर सकती है और इससे भले खुजली महसूस न हो लेकिन सूजन अनियंत्रित ढंग से बढ़ सकती है.”

क्या है ऐसी खुजली का इलाज?

दरअसल इस तरह की खुजली पर काबू पाने के लिए दवाई विकसित करने की दिशा में वैज्ञानिक काम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, नेमोलिज़ुमैब के दूसरे और तीसरे चरण का ट्रायल हाल में पूरा हुआ है.

इस खुजली से पीड़ित लोगों के इलाज के लिए अमेरिका जैसे देशों में डुपिलुमैब का इस्तेमाल भी शुरू हो गया है. इसे हाल ही में लाइसेंस मिला है जो आईएल-4 और आईएल-13 दोनों ही रसायन को नियंत्रित करती है.

इसके अलावा ईपी262, एब्रोसिटिनिब और अपाडासिटिनिब के ज़रिए भी खुजली का उपचार करने को लेकर ट्रायल चल रहे हैं.

बीते साल यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिलर स्कूल ऑफ़ मेडिसिन में त्वचा विज्ञान के प्रोफे़सर और डॉक्टर गिल योसिपोविच ने डॉक्टर ब्रायन किम की टीम के साथ मिलकर प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस के इलाज के लिए डुपिलुमैब के उपयोग को लेकर दो चरणों में तीन परीक्षणों को पूरा किया.

24 सप्ताह तक चले प्रयोग में देखा गया कि डुपिलुमैब के इस्तेमाल से साठ प्रतिशत रोगियों में खुजली में कमी देखी गई. इस प्रयोग के बाद ही ट्रायल में हिस्सा लेने वालों में खुजली में काफी कमी देखी गई.

इसके बाद ही अमेरिकी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने अब प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस रोगियों के इलाज के लिए डुपिलुमैब को मंजूरी दी है.

योसिपोविच कहते हैं, “प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस सबसे अधिक खुजली वाली स्थितियों में से एक है. हाल तक इसका कोई कारगर इलाज नहीं था, इसलिए रोगियों को बहुत परेशानी हो रही थी. लेकिन अब उन्हें उम्मीद की किरण दिख रही है.”

वहीं इकान स्कूल ऑफ़ मेडिसिन में डॉ. ब्रायन किम की नई लैब नॉटाल्जिया पेरेस्टेटिका इसके इलाज के लिए डिफे़लिकेफ़ालिन दवा का परीक्षण कर रही है. इसे भी अमेरिकी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन की ओर से अनुमोदित किया गया है.

ज़ाहिर है इन दवाओं से उम्मीद जग रही है. लेकिन ये सब अभी प्रयोग के दौर से गुजर रही हैं. जैसा कि योसिपोविच कहते हैं इन दवाईयों के आम लोगों तक पहुंचने में अभी कम से कम पांच साल लगेंगे.

वहीं डॉ. सौरभ जिंदल कहते हैं, “इन दवाओं को अमेरिका में आम लोगों तक पहुंचने में पांच साल का वक्त लगेगा, तो भारत जैसे देशों में कम से कम दस साल मान कर चलना होगा. लेकिन चिकित्सा विज्ञान की नज़र से ये प्रयोग बेहद अहम हैं.”

किन बातों का रखें ध्यान

प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस के मरीज़ों का इलाज डॉ. सौरभ जिंदल किस तरह से करते हैं, इसके जवाब में वे त्वचा संबंधी देखभाल का ज़िक्र करते हैं. वो इसके लिए इन बातों की तरफ ध्यान दिलाते हैं-

1. पहले वो यह देखते हैं कि कहीं मरीज़ को खून, लीवर और किडनी संबंधी समस्या तो नहीं. वो ये भी देखते हैं कि उसे किन-किन चीज़ों से अलर्जी है.

2. खुजली को कम करने वाली दवाएं मौजूद हैं, लेकिन प्रुरिगो नोड्यूलएयरिस में ये अधिक प्रभावी नहीं होती. ऐसे में खुजली करने पर खुजली और बढ़ती है और एक तरह का साइकिल बन जाता है. वो मरीजों को समझाते हैं कि जितना हो सकें खुजली करने से बचें.

3. प्रुरिगो नोड्यूलाएरिस की एक और ख़ास बात ये होती है कि ये वहीं होती है जहां हाथ पहुंच सकता है, मतलब खुजली नाखून से शुरू होती है. पीठ के ऊपरी हिस्से पर हाथ नहीं पहुंचता तो ये वहां नहीं होती. वो मरीज़ों को समझाते हैं कि छोटे नाखून रखें और मुट्ठी बांध कर रखें.

4. वो खुजली होने वाली जगह में अच्छी क्वालिटी का मॉयश्चराइजर लगाते रहने की सलाह भी देते हैं. सूखी त्वचा में ये समस्या बढ़ सकती है.

5. इस बीमारी का कोई शर्तिया इलाज अब तक नहीं है, ऐसे में सावधानी के साथ लंबे समय तक उपचार करना होता है. कई बार ये मरीज़ों के लिए तकलीफ़ भरा हो सकता है, वो अवसाद से घिर सकते हैं. इसलिए उनके साथ उनके परिवार वालों की भी काउंसलिंग की जाती है.

6. पुरुषों की तुलना में मिडिल एज की महिलाओं की मुश्किलें ज़्यादा होती हैं. शारीरिक स्तर से लेकर भावनात्मक स्तर पर उनके शरीर को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इस बीमारी से उबरने की लंबी प्रक्रिया को देखते हुए भी महिलाएं इसके इलाज से बचती हैं, जबकि उन्हें डॉक्टरी सलाह की ज़्यादा ज़रूरत होती है.