साहित्य

बस इतना है अपराध मेरा…मनस्वी अपर्णा की कविता!

मनस्वी अपर्णा
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#कविता
बस इतना है अपराध मेरा
मैंने जीवन जीना चाहा
हंसना चाहा, रोना चाहा
अपने जैसा, होना चाहा
हिम्मत रक्खी सब खोने की
सब खोकर, कुछ पाना चाहा
इतनी कोशिश के बाद भी मैं
हाथों को खाली पाती हूॅं
मैं रोज़ यही दुहराती हूॅं
बस इतना है अपराध मेरा
मैंने जीवन जीना चाहा
अब मुझसे हैं नाराज़ सभी
क्यूॅं मैंने हक़ की बात कही
क्यूॅं उनकी सीमाऍं तोड़ी
क्यूॅं अपनें मन के साथ बही
क्यूॅं ज़ख़्मों को सीना चाहा
क्यूॅं जीवन रस पीना चाहा
सब सुनकर चुप रह जाती हूॅं
भीतर भीतर घबराती हूॅं
बस इतना है अपराध मेरा
मैंने जीवन जीना चाहा
है अपनेपन का रोग मुझे
छलते रहते हैं लोग मुझे
मैं आंचल मैला करती हूॅं
कैसे कैसों से डरती हूॅं
कितने दुःख मुझमें रहते हैं
अब तो अपनें भी कहते हैं
क्यूॅं विष तूने पीना चाहा
इस रुप में क्यूॅं जीना चाहा
ऑंसू अपनें पी जाती हूॅं
फिर मुश्किल से कह पाती हूॅं
बस इतना है अपराध मेरा
मैंने जीवन जीना चाहा
मैंने जीवन जीना चाहा…
मनस्वी अपर्णा