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बनारस में पहले ठग बहुत थे, बनारस में बस एक बात मेरे मन को थोड़ी चुभी!

अजीत प्रताप सिंह
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कोई ढाई-तीन साल बाद बनारस गया और सच कहूँ तो बनारस को पहचानने में थोड़ा समय लगा। जो लोग वहाँ उसी शहर में रह रहे हैं, उन्होंने तो क्रमिक विकास देखा है। जो भी नया बना, वह उनकी आँखों के सामने बना, तो उन्हें इस बदलाव में कुछ नयापन, कोई आश्चर्यजनक बात नहीं दिखती होगी। जैसे आपके घर कोई बालक आपके सामने ही बड़ा होता है, तो आप उसमें हो रहे परिवर्तन को नोटिस ही नहीं करते। पर कोई रिश्तेदार चार साल के अंतराल पर आपके घर आये तो कहता है कि अरे, इतना बड़ा हो गया बालक!

ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। रेलवे स्टेशन उतरा तो सीढ़ियों से ऊपर गया। स्वचालित सीढ़ियां, एस्केलेटर। खड़े रहिए और ऊपर पहुंच गए। सामान ज्यादा था, पर कितना भी ज्यादा होता, कोई दिक्कत होती ही नहीं। तभी मुझे लिफ्ट भी दिख गई। मने मैं तो स्वचालित सीढ़ियों को ही देख ताज्जुब में था, यहां तो उससे भी आगे की चीज, लिफ्ट, रेलवे स्टेशन पर, वह भी सभी प्लेटफॉर्म के लिए!

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हर इक को भाती है दिल से फ़ज़ा बनारस की वो घाट और वो ठंडी हवा बनारस की वो मंदिरों में पुजारियों का हुजूम वो घंटियों की सदा वो फ़ज़ा बनारस की ~ अख़्तर शीरानी

रेलवे स्टेशन से बाहर निकला। और बचपन से जिस भीड़भाड़ को, पार्क हुई गाड़ियों को देखते रहने का अभ्यास था, वह एक झटके में गायब। कोई भीड़ नहीं, कोई रश नहीं। पार्किंग पर जो गुंडागर्दी होती थी कि भले गाड़ी खड़ी न की हो, एकबार पार्किंग की जमीन को छू भर लिया आपकी बाइक या कार ने, पैसा देना ही पड़ेगा, वैसा कुछ था ही नहीं।

सड़कों से होते घर आया और सोचता रहा कि ये सड़कें इतनी चौड़ी कैसे हो गई, आखिर सम्भव कैसे हुआ यह? न्यूनतम बीस मिनट का समय घटकर अधिकतम पाँच मिनट कैसे हुआ?

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यह 1914 का है, एशमोलियन संग्रहालय, ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से काशी के बारे में वुडब्लॉक प्रिंट जिसे तब बनारस कहा जाता था। काशी विश्वनाथ मंदिर का एक पुराना नक्शा।

अयोध्या जी जाना हुआ तो एयरपोर्ट वाले रास्ते से बनारस वापस आया। दिनभर की थकान बनारस प्रवेश के समय खुली, चौड़ी, जगमगाती सड़कों को देख पल भर में हवा हो गई।

बाबा विश्वनाथ के दर्शन को गए तो प्रोटोकॉल लगवा कर गए। अयोध्या जी में भी मित्र सिद्धार्थ सिंह जी ने प्रोटोकॉल लगवा दिया था। प्रोटोकॉल अर्थात प्रशासन द्वारा दी गई विशेष सुविधा, जिसमें आपको लंबी, भीड़भाड़ वाली लाइन नहीं, बल्कि छोटी, कम लोगों वाली लाइन में लगना होता है।

काशी कॉरिडोर बने समय हुआ, पर मैं तो पहली बार ही जा रहा था। चौक पर पता नहीं रोड चौड़ी हुई है या नहीं, पर भीड़ का दबाव कम लगा। हाँ, आसमान की ओर देखने पर जो लटकती हुई, एक-दूसरे से गड्डमड्ड बिजली वगैरह की असंख्य तारें और उनपर लटकते शरारती बंदर दिखते थे, वह वैसा कुछ नहीं दिखा। इन तारों की वजह से एक घुटन सी होती थी, कॉम्पैक्ट सा, पिजरें में बन्द होने का, सांस अवरुद्ध होने का अहसास होता था।

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मन्दिर में प्रवेश किया और मन ऐसा प्रसन्न हुआ कि कह नहीं सकते। बाबा का जो मन्दिर हमें पतली, संकरी, गीली, गंदगी, गोबर, कुत्तों की पोट्टी वाली गलियों को पार करने, उन गलियों की दुकानों के दुकानदारों द्वारा इरिटेट किये जाने के बाद, बस दो हाथ की दूरी पर पहुंचने पर, और ज्ञानवापी मस्जिद के सम्मुख बड़ा असहाय सा दिखता था, वह दूर से ही अपनी पूरी धमक पूरी चमक से प्रकाशित होता हुआ दिखा। लगा कि बाबा अपनी बाहें फैलाये बुला रहे हैं।
भक्तों का अथाह समुद्र, पर वैसी हबड़-तबड़ नहीं। जैसे समुद्र के हर मोती का, हर शंख का, रेत के हर कण का स्थान होता है, हर भक्त के लिए बाबा के प्रांगण में स्थान था। हालांकि पहले, काशी कॉरिडोर बनने से पहले हम गर्भ गृह में बाबा का स्पर्श कर गीली भभूत से अपने हाथ चुपड़ कर उसे अपने माथे पर लगाकर त्रिपुण्ड बना लेते थे, वैसा इस बार नहीं कर पाए। बहुत बाद में ज्ञात हुआ कि स्पर्श दर्शन का प्रोटोकॉल भी लगता है, अगली बार यही करेंगे।

पहले हम दर्शन इत्मीनान से करना चाहते थे, और दर्शन के बाद जितनी जल्दी हो, उतनी जल्दी मन्दिर से निकल जाते थे। इतनी भीड़ में, अव्यवस्था में कौन रुके, और क्यों ही रुके। पर अब दर्शन के बाद मन्दिर से निकलने की इच्छा नहीं होती। इतनी ज्यादा जगह है कि आप मजे से डांस कर लें और किसी से आपके कंधे नहीं भिड़ेंगे। सीढ़ियों पर बैठिए, बाबा का सोने से बना घर अर्थात मन्दिर निहारिये, सेल्फियां लीजिए। आगे बढिये तो तमाम वे मन्दिर दिखेंगे जो सदियों से विलुप्त थे। काशी की प्रजा ने कदाचित उनकी रक्षा हेतु, या लोभवश उस मंदिरों को अपने घरों में छुपा लिया था। अब वैसे कई मन्दिर अपनी पूरी भव्यता से आपके सम्मुख खड़े आपको आमंत्रित करते हैं।

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हिंदुओं की माता कही जा सकने वाली देवी अहिल्याबाई की मूर्ति लगी है। इन्होंने ही आतंकी औरंगजेब द्वारा तोड़े गए बाबा के मन्दिर का पुनर्निर्माण, भारत भर में अनेक मंदिरों का निर्माण/पुनर्निर्माण कराया था। सोचता हूँ कि जैसे हम आज अहिल्याबाई होलकर के सम्मुख नतमस्तक होते हैं, क्या उन्हीं की तरह हिंदुओं के मंदिरों को पुनः वैभवपूर्ण रीति से प्रतिस्थापित करने के लिए आने वाली पीढियां नरेंद्र मोदी को याद करेंगी?

तनिक आगे बढ़ने पर आदि शंकराचार्य की मूर्ति है और थोड़ा आगे बढ़ने पर माँ भारती, भारतवर्ष का शिला निर्मित चित्र। आगे बढिये तो मन्दिर के पिछले विशाल द्वार से माँ गंगा के दर्शन होते हैं। मेरे साथ मेरे दो छोटे भाई भी थे, अतः मैंने तो जैसे-तैसे खुद को सीमित किया था, पर मेरी पत्नी अपनी भावुकता को रोक नहीं पाई, और जब तक हम मन्दिर में रहे, उनके नेत्र अश्रुपूरित ही रहे।

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बनारस में बस एक बात मेरे मन को थोड़ी चुभी। बनारस में पहले ठग बहुत थे। आने वाले भक्तों को, दूर देश से, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम से आने वाले भक्तों को बहुत लूटते थे। अब यह सब सुव्यवस्था के कारण नगण्य है। पर पहले ‘मलैय्यो’ नामक एक व्यंजन बस दो-चार जगहों पर ही दिखता था। अब यह हर जगह, हर दस कदम पर बिक रहा है। ‘मलैय्यो’ हमेशा से स्कैम सा लगा मुझे। कुछ है ही नहीं, और धड़ल्ले से बिक रहा है। ठगी ही है।
बाकी,

मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
13 जनवरी 25

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