साहित्य

बड़े ही दिनों से इसे ढूंढ़ रही थी लेकिन ये मेरे जानने वाले किसी के घर नहीं था….अरूणिमा सिंह

अरूणिमा सिंह
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बड़े ही दिनों से इसे ढूंढ़ रही थी लेकिन ये मेरे जानने वाले किसी के घर नहीं था। आज जाकर फेसबुक पर मिल गया।
ये ढेका है। ये वही उपकरण है जिससे धान से चावल बनते थे।
फिर धनकुट्टी मशीन आयी और इनकी जरूरत खत्म हो गयी और ये सबके घर से विलुप्त होते होते गायब हो गए। अब तो घर घर मशीन घूमने लगी है।
मुझे याद है मेरे नानी के घर पर ये ढेन्का था। बहुत भारी था मेरे जैसे मजबूत पहलवान से तो अकेले हिलता भी नहीं था।
चित्र में पीछे यानि पूछ की तरफ गड्ढा नहीं है हमारे घर पर एक गड्ढा बना रहता था। उसी गड्ढे की गहराई तक जब ढेके के एक सिरे को दबाया जाता था तब भारी वाला सिरा जिसके मुँह पर एक लकड़ी और उस लकड़ी में लोहे की नाल लगी होती थी वो बड़े ही प्रेशर से धम्म से नीचे गिरता था। नीचे जमीन पर पत्थर बैठाया रहता था जिसमे उथला सा गड्ढा बना रहता था। इसी गड्ढे में धान डाले जाते थे। इस पत्थर के गड्ढे को काड़, या काडी कहते थे।
हाथ को सहारा देने एवं थोड़ा आराम पहुंचाने के लिए दोनों तरफ से रस्सी लगा कर एक बांस के डंडे का झूला जैसा बनाया जाता था जो कूटते समय सहारा देता था बाकी समय कपड़े टांगने की अलगनी के रूप में प्रयोग हुआ करता था।
गांव की सब महिलाये रोज सुबह तीन बजे, चार बजे जग जाती थी और फिर धान कूटना शुरू करती थी। आगे पीछे थोड़ी देर के अंतराल पर सुबह हर घर से धान कूटने से ढेके के धम्म धम्म की आवाज आने लगती थी।
धान कूटने के बाद उसे और ज्यादा साफ करने के लिए, उसमें लगा कन छुड़ाने के लिए दुबारा उखल में मूशल से कूटा जाता था जिसे हमारे यहां चावल छांटना कहते थे।
मेरी दोनों मामी सुबह ढेके को उठाती थी और नानी आगे की तरफ बैठकर धान को चलाया करती थी ताकि सभी धान के छिलके अच्छी तरह से निकल जाये।
मै ने अपने घर में देखा था। मेरी अम्मा ढेका उठाती थी और आजी धान को चलाती थी। जब कभी आजी किसी और काम में लगी रहती थी तब अम्मा अकेले ढेका उठाती थी और वही से खड़ी होकर लाठी से धान को उल्टा पलटा करती थी।
मै कभी कभी शौक में कहती थी अम्मा हम धान को चलाते है तो अम्मा सख्ती से मना कर देती थी कि – नहीं! तुम्हारा हाथ कुचल जायेगा। दरअसल हाथ से धान को चलाने और ढेका के सिरे की टाइमिंग का हिसाब रखना रहता था। बड़े रख लेते थे बड़े आराम से धान चलाते थे लेकिन बच्चों को नहीं पता रहता था कि कब ऊपर से ढेके का भारी सिरा नीचे आ जायेगा और तब तक हाथ हटा लेना है। मेरी अम्मा यू अकेले किसी तरह से कूट लिया करती थी लेकिन हमें उधर बैठने की भी अनुमति नहीं देती थी।
अब तो चावल बनाने के लिए इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती और न ही घर में अब ये कही दिखाई देता है।
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अरूणिमा सिंह