साहित्य

#बड़ा_हुआ_सो_क्या_हुआ…..By – मनस्वी अपर्णा

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मनस्वी अपर्णा
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#बड़ा_हुआ_सो_क्या_हुआ
एक बात जो मैं इन दिनों बड़ी शिद्दत से महसूस कर रही हूॅं , भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में कमोबेश बुज़ुर्गियत को आदर देने की एक परंपरा सी है….. हम सब को अपनें से बड़े लोगों का आदर अपेक्षित रहता है…. इसी के साथ यह भी मान लिया जाता है एक उम्र दराज़ व्यक्ति अनुभवी व्यक्ति भी है और इस स्थिति में हम उनसे मार्गदर्शन, आशीर्वाद और बड़प्पन की उम्मीद रखते हैं, वो भी हमसे यही चाहते हैं कि उन्हें अनुभवी और बड़ा माना जाए और इस आधार पर उनके दिखाए मार्ग को ही एकमेव मार्ग मानकर उस पर चला जाए, ऐसा नहीं होने की दशा में अवहेलना, उपेक्षा और अनादर का रोना रोते बुज़ुर्गों की एक बड़ी तादाद हमें हर पीढ़ी में कमोबेश मिलती आई है। इसके विपरीत मैंने ऐसे भी कई लोग देखें हैं जो इतने grace fully age हुए हैं कि उनका मात्र साथ होना ही आपमें बहुत कुछ अच्छा करने में सक्षम होता हैं उनका aura आपको सीखने पर मजबूर कर देता है वो किसी पुरानी शराब की तरह कीमती से कीमती होते जाते हैं।
इस पूरे प्रकरण में मैं दो तीन बातों की वजह से ज़रा मतभिन्नता अनुभव करती हूं, इन दिनों मैं अपनें आस पास के लोगों को जो अधेड़ावस्था और वृद्धावस्था की संधि पर खड़े हैं, बहुत गौर से देख रही हूॅं और समझने की कोशिश कर रही हूॅं…. मैंने यह पाया है कि हम में से अधिकांश लोग by default बुजुर्ग हो रहें हैं, यानि उनकी सिर्फ़ उम्र बढ़ रही है, अनुभव और समझ की बढ़ोतरी लगभग शून्य है… एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन भर उलझा–उलझा सा जिया है, या ऐसा व्यक्ति जो जीवन भर बस खाने, कपड़े और सोने में रत रहा है या ऐसा कोई व्यक्ति जिसकी दुनिया घर से दफ्तर/दुकान तक सीमित रही है या फिर ऐसी महिलाएं जो ज़िंदगी भर चार दीवारी में दूसरों के दिशा निर्देश पर जी हैं, या कोई भी ऐसा जिसके पास बिलकुल मामूली सी समझदारी भी नहीं है… इन सभी लोगों ने अपनी समझ को, अपनी क्षमता को, अपनी सभी physical, mental और emotional approaches को बढ़ाने के लिए कोई यत्न–प्रयत्न नहीं किए, उनसे आप क्या उम्मीद कीजिएगा उनका बुढ़ापा क्या किसी जादू से धीर, बुद्धिमान और अनुभवसिद्ध हो जाएगा??? ये संभव नहीं है, हालांकि पता नहीं क्यूं ये पूर्वाग्रह हम सब पालें हुए रहते हैं और ये दोनों सिरों पर समान रूप से प्रभावी होता है, हम सोचते हैं घर के बड़ों से सलाह मशविरा करके ही कुछ करना चाहिए, अधिकांश ऐसा करते भी हैं लेकिन होता क्या है?? सलाह मशविरे की जगह पर एक विचित्र सी बहस शुरू हो जाती है और अंततः निर्णय उसका माना जाता है जो ज़्यादा अड़ियल और ज़िद्दी हो.. इस तरह के निर्णयों को आप परिवार की सलाह से किया हुआ निर्णय मानिएगा??? ऐसा होता इसलिए है कि जिनसे आप बड़े होने की उम्मीद लगाएं बैठें हैं वो दरअस्ल अपने वृथाभिमान की क्षुद्रता से बाहर ही नहीं आए हैं और अब उम्र ने उसमें और नए तुर्रे जोड़ दिए हैं। और जब उनकी कोई impractical बात या सलाह मानी नहीं जाती तो वो या बुरी तरह भड़क जाते हैं या अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।


मैंने अपने आस–पास ऐसे कई लोग देखें हैं जिनसे अपने जीवन के साधारण से निर्णय और सामान्य सी चुनौतियां नहीं संभाली जाती लेकिन वो परिवार के मसअलों में judge की भूमिका चाहते हैं और कई बार जाते भी हैं judgement करने और इस दुराग्रह के साथ कि उनका निर्णय माना जाए …. देखिए बहुत पहले जबकि हर परिवार में किसी एक परंपरा से काम होते थे तब वाकई बुजुर्ग अनुभवी और ज्ञानी हुआ करते थे और उनके निर्णय यथा योग्य भी…. लेकिन अब ऐसा नहीं है समय बदलने के साथ ज़रूरी नहीं रह गया है कि किसान का बेटा किसान ही बनें या बनिए का बेटा दुकान ही चलाए अब स्थिति ऐसी है कि किसी भी परिवार के बच्चे कोई भी व्यवसाय या नौकरी चुन सकते हैं इससे स्थिति complex हो गई है अब आपके अनुभव बेमानी हो गए हैं…. पहले महिला को केवल गृहस्थी और बच्चे पालने होते थे तो घर की बुज़ुर्ग महिलाओं के अनुभव बहुत काम के थे अब ऐसा नहीं है, लड़कियां पढ़ाई लिखाई करती हैं, विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियां करती हैं उनकी चुनौतियां बदल गई हैं ऐसे में आपका सीमित अनुभव बहुत महत्व का नहीं रहा।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आपने जो जीवन पूर्व में बिताया है उसकी छांव आपके चेहरे मोहरे से नज़र आ जाती है और उसकी सुगंध/दुर्गंध आपके इर्द गिर्द होती है, और वहीं हैं आप वास्तविकता में ….तो समय है तो ख़ुद पर काम शुरु कीजिए और नहीं है तो कम से कम अपना नैराश्य अपनी कुंठा किसी और बहाने से दूसरों पर मत थोपिए…. बड़ा कहलाए जाने से ज़्यादा ज़रूरी होता है बड़ा बन पाना और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी होता है बड़े बन पाने के लिए अपने छोटेपन को यथास्थिति स्वीकार कर लेना।

ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।
लेख ज़रा लंबा हो गया माफ़ी चाहती हूं।

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मनस्वी अपर्णा