साहित्य

फिर पूरे पुरुष ने पूरी स्त्री को भोगा और….

Prem anand
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स्त्री का पहला शरीर जब दूसरे से मिलेगा तो फिर एक नये अर्थों में स्त्री—जिसको हम पूर्ण स्त्री कहें—पैदा होगी। और पूर्ण स्त्री के व्यक्तित्व का हमें कोई अंदाज नहीं, क्योंकि हम जिस स्त्री को भी जानते हैं वे सभी अपूर्ण हैं; पूर्ण पुरुष का भी हमें कोई अंदाज नहीं है, क्योंकि जितने पुरुष हम जानते हैं वे सब अपूर्ण हैं, वे सब आधे—आधे हैं। जैसे ही यह इकाई पूरी होगी, एक परम तृप्ति इसमें प्रवेश कर जाएगी—जिसमें असंतोष जैसी चीज क्षीण होगी, विदा हो जाएगी।

यह जो पूर्ण पुरुष होगा या पूर्ण स्त्री होगी, पहले और दूसरे शरीर के मिलने से, अब इनके लिए बाहर से तो कोई भी संबंध जोड़ना मुश्किल हो जाएगा। इनके लिए बाहर से संबंध जोड़ना बिलकुल मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि बाहर अधूरे पुरुष और अधूरी स्त्रियां होंगी जिनसे इनका कोई तालमेल नहीं बैठ सकता। लेकिन अगर एक पूर्ण पुरुष, भीतर जिसके दोनों शरीर मिल गए हों, और एक स्त्री, जिसके दोनों शरीर मिल गए हैं—इनके बीच संबंध हो सकता है।

पूर्ण पुरुष और पूर्ण स्त्री के बीच बहिर्सभोग का तांत्रिक प्रयोग: और तंत्र ने इसी संबंध के लिए बड़े प्रयोग किए। इसलिए तंत्र बहुत परेशानी में पड़ा और बहुत बदनाम भी हुआ। क्योंकि हम नहीं समझ सके कि वे क्या कर रहे हैं। हमारी समझ के बाहर था। हमारी समझ के बाहर होना बिलकुल स्वाभाविक था। क्योंकि अगर एक स्त्री और एक पुरुष, तंत्र की दशा में, जब कि उनके भीतर के दोनों शरीर एक हो गए हैं, संभोग कर रहे हैं, तो हमारे लिए वह संभोग ही है। और हम सोच भी नहीं सकते कि यह क्या हो रहा है।

लेकिन यह बहुत ही और घटना थी। और यह घटना बड़ी सहयोगी थी साधक के लिए। इसके बड़े कीमती अर्थ थे। क्योंकि एक पूर्ण पुरुष, एक पूर्ण स्त्री का बाहर जो मिलन था, वह एक नये मिलन का सूत्रपात था, एक नये मिलन की यात्रा थी। क्योंकि अभी एक तरह से यात्रा खत्म हो गई— अधूरे पुरुष, अधूरी स्त्री पूरे हो गए; एक जगह पर जाकर चीज खड़ी हो गई और पठार आ जाएगा। क्योंकि अब हमें और कोई आकांक्षा का खयाल नहीं है।

अगर एक पूर्ण पुरुष और पूर्ण स्त्री इस अर्थों में मिलते, तो उनके भीतर पहली दफा अधूरे से बाहर एक पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष के मिलन का क्या रस और आनंद हो सकता है, वह उनके खयाल में आता। और उनको दूसरी बात भी खयाल में आती कि अगर ऐसा ही पूर्ण मिलन भीतर घटित हो सके, तब तो अपार आनंद की वर्षा हो जाएगी! क्योंकि आधे पुरुष ने आधी स्त्री को भोगा था। फिर उसने अपने भीतर की आधी स्त्री से अपने को जोड़ा, तब उसने पाया कि अपार आनंद मिला। फिर पूरे पुरुष ने पूरी स्त्री को भोगा और तब स्वभावत: बिलकुल तर्कसंगत उसको खयाल आएगा कि अगर मेरे भीतर भी एक पूर्ण स्त्री मुझे मिल सके! तो अपने भीतर वह पूर्ण स्त्री की खोज में तीसरे और चौथे शरीर का मिलन घटित होता है।

उनके बीच संभोग में ऊर्जा का स्‍खलन नहीं:

तीसरा शरीर पुरुष का फिर पुरुष है और चौथा स्त्री है; स्त्री का तीसरा शरीर स्त्री का है और चौथा शरीर पुरुष का है। तंत्र ने इस व्यवस्था को कि कहीं आदमी रुक न जाए एक शरीर की पूर्णता पर.. .क्योंकि बहुत तरह की पूर्णताएं हैं। अपूर्णता कभी नहीं रोकती, लेकिन बहुत तरह की पूर्णताएं हैं जो किसी आगे की पूर्णता की दृष्टि से अपूर्ण होंगी, लेकिन पीछे की अपूर्णता की दृष्टि से बड़ी पूरी मालूम पड़ती हैं। पीछे की अपूर्णता मिट गई है, आगे की पूर्णता का हमें, और बड़ी पूर्णता का कोई पता नहीं है—रुकाव हो सकता है। इसलिए तंत्र ने बहुत तरह की प्रक्रियाएं विकसित की, जो बड़ी हैरानी की थीं— और जिनको हम समझ भी नहीं सकते हैं एकदम से। जैसे अगर पूर्ण पुरुष और पूर्ण स्त्री का संभोग होगा, तो उसमें किसी की ऊर्जा का पात नहीं होगा। वह हो नहीं सकता; क्योंकि वे दोनों अपने भीतर कंप्लीट सर्किल हैं; उनसे कोई ऊर्जा का स्‍खलन नहीं होनेवाला। लेकिन बिना ऊर्जा—स्‍खलन के पहली दफा सुख का अनुभव होगा।

और मजे की बात यह है कि जब भी ऊर्जा—स्‍खलन से सुख का अनुभव होगा, तो पीछे दुख का अनुभव अनिवार्य है; क्योंकि ऊर्जा—स्खलन से जो विषाद, और जो फ्रस्ट्रेशन, और जो दुख, और जो पीड़ा, और जो संताप पैदा होगा, वह होगा। सुख तो क्षण भर में चला जाएगा, लेकिन जो ऊर्जा खोई है, उसको पूरा करने में चौबास घंटे, अड़तालीस घंटे, और ज्यादा वक्त भी लग सकता है। उतनी देर तक चित्त उस अभाव के प्रति दुखी रहेगा।

अगर बिना ऊर्जा—स्खलन के संभोग हो सके…… .इसके लिए तंत्र ने बड़ी आश्चर्यजनक दिशा में काम किया, और बड़ी हिम्मतवर दिशा में काम किया। उस पर तो पीछे कभी अलग बात करनी पड़े, क्योंकि उनका सारा प्रक्रिया का जाल है पूरा का पूरा। और वह जाल चूंकि टूट गया, और वह पूरा का पूरा विज्ञान धीरे— धीरे इसोटेरिक हो गया, फिर उसको सामने बात करना मुश्किल हो गई, क्योंकि हमारी नैतिक मान्यताओं ने हमें बड़ी कठिनाई में डाल दिया, और हमारे नासमझ समझदारों नें—जिनको कि कुछ भी पता नहीं होता, लेकिन जो कुछ भी कहने में समर्थ होते हैं—उन्होंने बहुत सी कीमती बातों को जिंदा रहना मुश्किल कर दिया। उनको विदा कर देना पड़ा, या वे छुप गईं और अंडरग्राउंड हो गईं, और भीतर छुपकर चलने लगीं, लेकिन उनकी धाराएं जीवन में स्पष्ट नहीं रह गईं।

ओशो
जिन खोजा तिन पाइयां प.18

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