इतिहास

पुर्व केंद्रीय मंत्री डॉ शकील अहमद के पिता बिहार विधानसभा के पूर्व उपसभापति शकूर अहमद के बारे में जानिये!

पुर्व केंद्रीय मंत्री डॉ शकील अहमद अपने पिता बिहार विधानसभा के पुर्व उपसभापति शकूर अहमद के साथ कहीं जा रहे थे। उन्हें रास्ते में एक साहब मिले। जिनसे शकूर अहमद बड़े लख़-लखे से मिले। और फिर उन्होंने अपने बेटे शकील अहमद से मुख़ातिब होकर पूछा, इन्हें पहचाने हो? ये हैं झब्सू ख़लीफ़ा के बेटा…! पर शकील अहमद न झब्सू ख़लीफ़ा को जानते थे और न ही उनके बेटे को। जिसके बाद शकूर अहमद ने अपने बेटे को अपने दादा ख़ुदाबख़्श के ख़्वाब के बारे में बताया।

ख़ुदाबख़्श साहब तिरहुत इलाक़े के बड़े कारोबारी थे। बड़ी ज़मीन के मालिक। काम भी अच्छा चल रहा था। मज़हबी आदमी थे, जैसा हर साहिब ए हैसियत मुसलमान की ख़्वाहिश होती है की अपनी ज़िम्मेदारी से फ़ारिग होकर हज ए बैतुल्लाह को जाए। वैसी ही ख़्वाहिश ख़ुदाबख़्श साहब की भी थी। पर उन्हें कारोबार की ज़िम्मेदारी से फ़ुरसत नहीं मिल रही थी, क्यूँकि उनकी एक ही औलाद अहमद गफ़ूर के रूप में थी जिनकी पैदाइश 1901 में हुई थी।

ये 1917-18 की बात है, ख़ुदाबख़्श साहब की पत्नी ने अपने शौहर से कहा के आप तो अपने कारोबार में मसरूफ़ हैं, लेकिन अगर मेरे क़िस्मत में हज है तो आप मुझे जाने कि इजाज़त दें। इजाज़त मिल गई। लेकिन हज पर जाने के लिए मेहरम की ज़रूरत थी, इसलिए उनके सगे भाई यानी ख़ुदाबख़्श साहब के साले अपनी बहन को लेकर हज के सफ़र निकले।

इसी तरह दिन गुज़रता गया, ख़ुदाबख़्श साहब अपने कारोबार में लगे रहे। लेकिन एक रात जब वो सोय हुए थे तब उन्होंने एक ख़्वाब देखा के “तुम वहाँ क्या कर रहे हो ? तुम्हारी क़ब्र तो यहाँ खुदी हुई है”…. जागने के बाद ख़ुदाबख़्श ने ख़्वाब को तवज्जो न दी, बात आई और गई। लेकिन इस तरह के ख़्वाब का सिलसिला शुरू हो गया। उन्हें अक्सर ख़्वाब में एक आवाज़ आती के “तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? तुम्हारी क़बर वहाँ खुदी हुई है”….

आख़िर ख़ुदाबख़्श साहब ने फ़ैसला कर लिया के उन्हें भी हज के सफ़र पर जाना है, और फिर उन्होंने इसका एलान किया। चूँकि ख़ुदाबख़्श साहब जानते थे के अब उन्हें लौट कर नहीं आना है, वहाँ उनकी मौत होगी, क्यूँकि ख़्वाब के अनुसार उनकी क़ब्र वहाँ खुदी हुई थी। इसलिए उन्होंने अपने मुंशी को बुलाया, अपने बेटे अहमद गफ़ूर को अपना वारिस बनाया, और सारी ज़िम्मेदारी उनके हवाले की। सफ़र पर निकलने से पहले उन्होंने अपने घर के सारे मुलाज़िम को उसकी हैसियत के अनुसार ज़मीन दी। किसी को दो कट्ठा, किसी को चार कट्ठा, किसी को एक बीघा ज़मीन दी।

चूँकि मैयत को कंधा देने के लिए चार आदमी की ज़रूरत होती है, इसलिए ख़ुदाबख़्श साहब ने तय किया के वो अपने साथ तीन और लोगों को लेकर जाएँगे क्यूँकि चौथे के रूप में उनके साले पहले से वहाँ मौजूद थे। उन्ही तीन लोग में से एक थे झब्सू ख़लीफ़ा, जिनके बेटे से शकूर अहमद मिल रहे थे। झब्सू ख़लीफ़ा मधुबनी के बिस्फ़ी ब्लॉक के राघेपूरा के मशहूर पहलवान थे। जिन्होंने महाराजा दरभंगा के पहलवान को कुश्ती में चित किया था। बाक़ी दो लोग में एक थे उनके घर के मुंशी मीर साहब और दूसरे मुंशी ग़ुलाम अली। इन तीनों के साथ ख़ुदाबख़्श साहब हज के सफ़र पर निकले। मक्का पहुँच कर उनकी मुलाक़ात उनकी बीवी और साले से हुई। वहीं हज से चार दिन पहले उनकी तबियत ख़राब हुई, उनको बुख़ार आया। और सुबह में उनका इंतक़ाल हो गया। साथ में गए लोगों ने उन्हें कंधा दिया। और उन्हें मक्का में दफ़न कर दिया गया। फिर हज कर सारे लोग वापस भारत लौट आए।

डॉ शकील अहमद कहते हैं की उन्हें ये बात नहीं पता थी, क्यूँकि उनकी पैदाइश से पहले ही उनके दादा गुज़र चुके थे और ये तो परदादा की कहानी है। पर इत्तिफ़ाक़ से वालिद शकूर अहमद के साथ उनकी मुलाक़ात झब्सू ख़लीफ़ा के बेटे से हो गई और बात निकली तो ये पता चला। डॉ शकील अहमद कहते हैं इस बात को और वज़न तब मिला जब उनकी मुलाक़ात बासो महाजन से हुई जो उनके घर भंडारी का काम करते थे और सीधा तौल कर अनाज बावर्चीख़ाने में भेजते थे। बासो महाजन ने ख़ुद डॉ शकील अहमद को बताया था के जब बड़ा मालिक यानी ख़ुदाबख़्श साहब हज पर जाने लगे तब उन्होंने उन्हें भी तीन बीघा खेत दिया था।

~ तस्वीर 1880 के एक भारतीय हाजी की है।

– Md Umar Ashraf