साहित्य

पापा के चाचा के बेटे के बेटे की शादी थी…

सुनीता करोथवाल
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पापा के चाचा के बेटे के बेटे की शादी थी
पीहर के घर में बस एक दीवार बीच के परले पार
वही भाई जिसे गोद खिलाया
वही चाचा जिनकी पीठ चढ़ घूमती थी भतीजियाँ
वही चाची जिनकी छातियों पर बछड़ी सी मुंह मारती थी
वही आँगन जहाँ दूध लस्सी एक बाल्टी से जाते थे
एक खेत का गेहूँ
उसी खेत के आलू।
ब्याह से पहले तक सब साझा ही था
पर उस दिन ब्याह में बेटी घर की दहलीज न पार कर सकी
छज्जे से देखती रही बान- तेल
घुड़चढ़ी के ढोल, भाई के सेहरा।
चाचा-चाची से भी नहीं कहा गया
कि बेटी यहीं है, जीमने- जूठने आ जाना
आ जाना गीतों पर
बेटी तो सबकी साझली हैं।
ब्याह बाद बेटी की पत्तळ- नेग
सब भूलने लगा था कुनबा
बेटी को बिसरा देने का कई दिन दुख रहा।
जब- जब कुनबे में मौत हुई
दूर में, लंबे रिश्ते में, कभी बुआ के इधर
कभी मामा के उधर
कभी भाई, दादा, नानी
बेटियाँ दुख में भर गई
बहन से पूछा- चलेगी क्या
बुआ के बेटे की बहू गुजर गई
बहन बोली- आणा ना जाणा
क्या करेंगे जाकर।
माँ ने कहा बेटी तो सबकी साझली हैं
आ जाना।
बेटियाँ खुशी में सबसे पीछे खड़ी थी
न्योते का इंतजार में
और दुखों में आगे
जैसे सिर्फ रोने के लिए बची हैं ये।
सुनीता करोथवाल