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पान खाए सैंया हमारे : कथा संग्रह ‘याद किया दिल ने’ का अंश!…BY-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
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पान खाए सैंया हमारे :
पान की दूकान में दो बातें ज़रूर होती हैं, एक उधारी का चलन और दूसरा ग्राहक की पहचान। उधारी वाली बात तो आसानी से समझ में आ जाती है अर्थात ग्राहक ने कहा- ‘लिख लेना’ याने उधारी हो गई। पान दूकान की दूसरी खासियत होती है, ग्राहक की पहचान। इसका अर्थ यह है कि पान खाने वाला यह उम्मीद करता है कि पान वाला उसे देखते ही समझ जाए कि उसके पान में क्या-क्या और कितना डालना है ? इस बात को ग्राहक अपने सम्मान से जोड़कर देखता है और मनचाहा पान तैयार हो जाने पर प्रसन्नता की अनुभूति करता है। सिगरेट पीनेवाला सिर्फ इतना कहेगा- ‘सिगरेट देना।’ अब यह पान वाले का परम कर्तव्य है कि वह ग्राहक की पसंद का ‘ब्रांड’ मुहैया करे। इन छोटी-छोटी बातों की सावधानी रखने से पान की दूकानें चलती हैं या असावधानी होने पर बैठ जाती हैं।

पान दूकानों के आसपास रोचकता और बेहूदगी का मिलाजुला माहौल रहता है। रोचक इस तरह कि देश-विदेश की समस्त घटनाओं का ‘आँखों देखा’ विवरण अनवरत उपलब्ध रहता है। इन घटनाओं के भीतर की अदृश्य बातें भी यहाँ दृश्यमान हो जाती हैं। गपोड़ी और आत्ममुग्ध लोग दिन भर आते रहते हैं, उनके चेहरे बदलते रहेंगे, मुद्दे बदल जाएंगे, बहस हो जाएगी, निर्णय सुना दिए जाएंगे। भीड़ छंट जाएगी फिर से लग जाएगी।

आती-जाती लड़कियों पर नयनों के बाण चलेंगे, वाक्प्रहार होंगे, रोमांटिक गाने गुनगुनाए जाएगे और फिर वीभत्स ठहाके। पान खाने वाले पान चबाएंगे, रस-पान करेंगे और वहीं ‘पिच-पिच’ करते हुए चित्रकारी का हुनर दिखाएंगे। सिगरेट पीने वाले आसमां की ओर देखते हुए कश खीचेंगे, थोड़ा सा धुआँ अपने सीने में रखेंगे और बाकी जनता-जनार्दन को अर्पित कर देंगे ताकि सिगरेट न पीनेवाले उस धुएँ की गंध का निःशुल्क आनंद ले सकें।

बिलासपुर में संतोष-भुवन होटल के पास एक ‘जायसवाल पान वाला’ था। वह अपने ग्राहकों का स्वागत सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए करता था इसलिए उसका आदरभाव स्वीकार करने के लिए सुबह से लेकर रात तक उसकी दूकान में भीड़ लगी रहती थी। घर में तो दो कौड़ी की इज्ज़त नहीं होती, शहर में कोई तो है जो इज्ज़त देता है और प्यार से पान भी खिलाता है !

इसी प्रकार गोलबाजार में भरतलाल ठाकुर की पान दूकान खूब चलती थी। वे दो भाई थे, भरत और शत्रुघन। भरत के रहते दूकान में भीड़ लगी रहती क्योंकि वह ग्राहकों की बात में शामिल होते थे, ठहाका मार कर हँसते थे और सुमधुर अपशब्दों का प्रयोग भी किया करते थे लेकिन शत्रुघन के सामने ग्राहक कम हो जाते थे क्योंकि वे धीर-गंभीर स्वभाव के थे, ग्राहक उनसे बिदकते थे।

गोलबाजार में सुरेश शुक्ला की पान दूकान हुआ करती थी जिसका नाम था- ‘बेगम पसंद पान की दूकान’ जहां महिलाओं की पसंद का ख्याल करते हुए मीठे स्वाद वाला पान बना कर उसके ऊपर चांदी का वर्क लपेटा जाता था जिसे विवाहित पुरुष अपनी पत्नी के लिए रात के समय ले जाते थे, उनकी रात खिलखिलाते हुए बीतती थी।

(कथा संग्रह ‘याद किया दिल ने’ का अंश)
यह फोटोग्राफ : हमारे बगीचे में आम के पेड़ में लिपटी हुई पान के पत्ते की लता।