Uncategorized

पत्रकारों को ‘डराने की कोशिश’ : योगी सरकार ने ‘नकारात्मक ख़बरों’ की जांच कराने का फ़ैसला किया : रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने मीडिया में आने वाली ऐसी ‘नकारात्मक ख़बरों’ की जांच कराने का फ़ैसला किया है जो उसकी ‘छवि पर असर’ डाल रही हैं.

मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से एक आदेश जारी किया गया है. इसमें मंडल आयुक्तों और जिलाधिकारियों से कहा गया है कि वो मीडिया संस्थान की ओर से प्रकाशित और प्रसारित ‘नकारात्मक’ ख़बरों की जांच के लिए इनके ब्योरे ऑनलाइन एकीकृत शिकायत निवारण प्रणाली यानी आईजीआरएस पर अपलोड करें.

आदेश के मुताबिक़ ऐसी ख़बरों को जिलाधिकारियों के ज़रिये संबंधित मीडिया संस्थानों को भेजकर पूछा जाएगा कि ये ख़बर क्यों छपी. इसके साथ ही इसकी एक कॉपी सूचना विभाग को भी भेजी जाएगी.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रमुख सचिव संजय प्रसाद की ओर से 16 अगस्त को ये सर्कुलर जारी किया गया है.

सर्कुलर में कहा गया है, “अगर राज्य सरकार को पता चला कि ग़लत तथ्यों के आधार पर तोड़-मरोड़ कर या नकारात्मक ख़बर प्रकाशित कर उसकी या जिला प्रशासन की छवि धूमिल करने की कोशिश की गई है तो संबंधित जिलाधिकारी मीडिया संस्थान को ये ख़बर भेज कर स्पष्टीकरण मांगेंगे.”

क्या कह रहे हैं पत्रकार?
सरकार के इस आदेश को राज्य के पत्रकार किस नज़रिये से देख रहे हैं हैं और इस आदेश का मकसद क्या है, इसे लेकर बीबीसी ने पत्रकारों और सरकार के मीडिया प्रतिनिधि से बात की.

वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश को पत्रकारों को ‘डराने की कोशिश’ के तौर पर देख रहे हैं.

उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, “मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तो पहले से ही बीजेपी के साथ खड़ा है. कुछ ही लोग बचे हुए हैं जो सवाल खड़े कर रहे हैं. वो सरकारों से सवाल कर रहे हैं. अब उनको भी डराने-धमकाने की तमाम कोशिश हो रही है.”\

आख़िर कथित नकारात्मक खबरों की जांच का मकसद क्या है?

इस सवाल पर अंबरीश कुमार कहते हैं, “ये बेहद वाहियात फ़ैसला है.ये सरकार कैसे तय कर सकती है कि क्या ख़बर है और क्या नहीं. एक तरह से ये दारोगा को न्यूज़ एडिटर बना देना है. मतलब ये है कि आप पत्रकारों की ख़बर चेक करेंगे और आपको कुछ गलत लगा तो उनके ख़िलाफ मुकदमा दर्ज करा देंगे. दो-चार पत्रकारों को जेल भेज देंगे ताकि पत्रकारों में डर पैदा हो जाए.”

इस आदेश का पत्रकारों के कामकाज पर क्या असर पड़ेगा, इस सवाल पर अंबरीश कुमार कहते हैं, “बीजेपी वालों की ट्रोल आर्मी होती है. पत्रकार अगर उनसे बच भी गया तो उनके सामने अब ये नई दिक्कत आ गई है. योगी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में भी पत्रकारों पर बंदिशें लगाई थीं. सरकार पर सवाल उठाने वाली ख़बरें लिखने या देने पर पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुकदमे हुए हैं.”

उनका कहना है, “योगी सरकार पत्रकारों को दबाने की कोशिश कर रही है और शर्मनाक ये है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस पर खामोश है. सरकार का ये कदम अघोषित इमरजेंसी की तरह हैं.”

‘पहले भी ऐसा होता रहा है’

हालांकि वरिष्ठ पत्रकार और न्यूज पोर्टल न्यूज़ट्रैक से जुड़े योगेश मिश्र का कहना है कि ये कोई नई बात नहीं है.

वो कहते हैं कि यूपी में मुलायम सिंह यादव से लेकर मायावती, अखिलेश यादव और योगी सरकार तक, पत्रकारों के साथ ये होता रहा है.

वो कहते हैं, “ऐसा पहले से होता रहा है. ये कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात ये कि सर्कुलर के अंतिम पैरा में ये लिखा है कि गलत ख़बरों पर सरकार एक्शन लेगी. लेकिन मेरा कहना है कि प्रशासन को यह अधिकार पहले से ही है. आज भी अगर हम कोई गलत ख़बर चलाते हैं तो फिर इसका खंडन छापा जाता है. इसके अलावा संबंधित पक्ष को कोर्ट जाने का अधिकार है. फिर अगर आज इस तरह के सर्कुलर आ रहे हैं तो इसका क्या मायने हैं. ये समझना होगा.”

सरकार की ओर से आईजीआरएस के ज़रिये ख़बर चेक कराने का क्या मकसद है?

योगेश मिश्र कहते हैं, “सरकार पत्रकारों और मीडिया संस्थान से कह रही है कि हम आईजीआरएस से आपकी ख़बरें चेक कराएंगे. अगर खब़र के जरिये कोई समस्या उठाई जा रही है तो इसका समाधान किया जाएगा. लेकिन ये पहले से होता रहा है.”

वो कहते हैं, “मायावती जी तो ख़बरों के आधार पर ही सरकार चलाती थीं. वो अख़बारों की कटिंग देखती थीं. ख़बरों की क्रॉस चेकिंग होती थी. अगर लगता था कि ख़बर सही है तो संबंधित दिक्कतों को दूर कराने के लिए वो वहां मौजूद प्रशासनिक अधिकारियों को फ़ोन करती थीं. अखिलेश यादव भी ऐसा करते थे. योगी आदित्यनाथ भी ऐसा करते होंगे. इसलिए सवाल ये है कि ऐसा सिस्टम पहले से है तो इस तरह का आदेश जारी करने का औचित्य क्या है?”

सरकार का पक्ष
बीबीसी हिंदी ने योगी सरकार के इस नए आदेश पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मीडिया सलाहकार मृत्युंजय कुमार से बात की.

उन्होंने कहा, “इसका मकसद मीडियाकर्मियों को डराना नहीं है. जिलों में कई ऐसी ख़बरें छपती हैं कि किसी विभाग में गड़बड़ी चल रही है. सड़क टूटी है. अस्पताल में ठीक से इलाज नहीं हो रहा है तो इस आदेश का इरादा ऐसी चीजों का संज्ञान लेना है.”

वो इसे एक सकारात्मक कदम बताते हैं.

वो कहते हैं, “एक तरह से ये सकारात्मक कदम है. आप अगर इस आदेश को पढ़ेंगे तो कहीं भी कोई कार्रवाई की बात नहीं की गई है. लेकिन इस आदेश की व्याख्या ऐसी की जा रही है जैसे सरकार पत्रकारों को दंडित करने की सोच रही है. हां, सरकार के इस कदम ये ज़रूर होगा कि फेक न्यूज़ पर रोक लगेगी.”

उन्होंने कहा, “सरकार के इस आदेश में कहीं भी ऐसा क़ानूनी पहलू नहीं डाला गया है, जिसके तहत पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो सकती है. इसका इरादा पत्रकारिता में ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करना है.”

यूपी में पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुकदमे और कार्रवाई
उत्तर प्रदेश में मीडिया संस्थानों की खबरों की जांच कराने के इस नए आदेश को सरकार और प्रशासन जिम्मेदार पत्रकारिता के लिए उठाया जा रहा कदम बता रहे हैं.

लेकिन ये भी सच है कि यूपी में पिछले कुछ वर्षों के दौरान पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कराई गई है और कुछ के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी की गई है.

लिहाज़ा कथित तौर पर गलत और तोड़-मरोड़ कर प्रकाशित और प्रसारित ख़बरों पर कार्रवाई के नए सर्कुलर ने मीडिया संस्थानों और मीडियाकर्मियों को चिंतित कर दिया है.

योगी सरकार के अब तक के कार्यकाल में पत्रकारों के ख़िलाफ़ सख्ती के कई मामले सामने आ चुके है. इनमें सबसे चर्चित मामला केरल के पत्रकार सिद्दिक कप्पन का रहा है.

अक्टूबर 2020 में हाथरस में एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार को कवर करने के लिए निकले सिद्दिक कप्पन को मथुरा के पास गिरफ़्तार कर लिया गया था. उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह और धर्म के आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी और धार्मिक भावनाएं भड़काने के मामले में आरोप दर्ज किए गए.

वो 28 महीने तक जेल में रहने के बाद रिहा हुए. पुलिस ने कहा कि सिद्दिक कप्पन के तार विवादित संगठन पीएफआई से जुड़े हैं और वो हाथरस दंगा फैलाने की साजिश के तहत जा रहे थे.

इससे पहले जून 2020 में एक वेबसाइट की पत्रकार सुप्रिया शर्मा के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया था.

उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी के गोद लिए गांव डोमरी में लोगों के भूखे रहने की ख़बर छापी थी. उनके ख़िलाफ एससी/एसटी एक्ट और मानहानि करने के आरोप में मामला दर्ज किया गया था.

पत्रकार सुप्रिया शर्मा के ख़िलाफ़ मामला

सुप्रिया शर्मा ने पीएम मोदी के गोद लिए गांव डोमरी में लॉकडाउन के दौरान लोगों की स्थिति का जायज़ा लेती हुई एक रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित की थी. इस दौरान उन्होंने कई लोगों का इंटरव्यू किया था जिनमें माला देवी नाम की एक महिला भी शामिल थीं.

वेबसाइट के मुताबिक, इंटरव्यू के दौरान माला देवी ने रिपोर्टर को बताया था कि वह लोगों के घरों में काम करती हैं और लॉकडाउन के दौरान उनकी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो गई कि उन्हें खाने तक के लाले पड़ गए.

रिपोर्ट के मुताबिक़ महिला ने रिपोर्टर को यह भी बताया था कि उनके पास राशन कार्ड नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें राशन भी नहीं मिल पा रहा था.

रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद में माला देवी ने कहा कि उन्होंने ये बातें रिपोर्टर को नहीं बताई थीं और रिपोर्टर ने उनकी ग़रीबी का मज़ाक उड़ाया है.

माला देवी की शिकायत पर वाराणसी में रामनगर थाने की पुलिस ने दिल्ली की पत्रकार सुप्रिया शर्मा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई थी.

हालांकि एफ़आईआर के बावजूद सुप्रिया शर्मा अपनी रिपोर्ट पर कायम रहीं और उनका दावा था कि उन्होंने कोई भी बात तथ्यों से परे जाकर नहीं लिखी है. एफ़आईआर में वेबसाइट की संपादक को भी नामज़द किया गया था.

सुप्रिया शर्मा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एफ़आईआर रद्द करने की अपील की थी. लेकिन हाईकोर्ट ने उनकी यह अपील ख़ारिज कर दी थी. यह ज़रूर है कि कोर्ट ने उनकी गिरफ़्तारी पर भी तब तक के लिए रोक लगा दी थी जब तक कि मामले की मुक़म्मल जांच न हो जाए.

‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ एफआईआर

वरिष्ठ पत्रकार और अंग्रेज़ी न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ भी उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दो एफ़आईआर दर्ज की गई थीं.

उन पर आरोप थे कि उन्होंने लॉकडाउन के बावजूद अयोध्या में होने वाले एक कार्यक्रम में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शामिल होने संबंधी बात छापकर अफ़वाह फ़ैलाई.

हालांकि ‘द वायर’ ने जवाब में कहा था कि इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री का जाना सार्वजनिक रिकॉर्ड और जानकारी का विषय है, इसलिए अफ़वाह फ़ैलाने जैसी बात यहां लागू ही नहीं होती.

राज्य सरकार की इस कार्रवाई का देश भर के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया और इस बारे में एक बयान जारी किया जिसमें कई जाने-माने क़ानूनविद, शिक्षाविद, अभिनेता, कलाकार और लेखक शामिल थे.

इन लोगों ने अपने बयान में कहा था कि यह प्रेस की आजादी पर सीधा हमला है. इस मामले में सिद्धार्थ वरदराजन को भी हाईकोर्ट से अग्रिम ज़मानत मिल गई थी.

कई स्थानीय पत्रकारों पर एफ़आईआर
इससे पहले भी यूपी में कई स्थानीय पत्रकारों के ख़िलाफ़ सरकार विरोधी ख़बरें छापने के आरोप में एफ़आईआर दर्ज हो चुकी हैं.

साल 2020 में लॉकडाउन के दौरान ही यूपी के फ़तेहपुर ज़िले के पत्रकार अजय भदौरिया पर स्थानीय प्रशासन ने एफ़आईआर दर्ज कराई थी. अजय भदौरिया ने रिपोर्ट लिखी थी कि एक नेत्रहीन दंपति को लॉकडाउन के दौरान कम्युनिटी किचन से खाना लेने में कितनी दिक्कतें हो रही हैं.

प्रशासन के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ ज़िले के पत्रकारों ने सत्याग्रह शुरू कर दिया था.

पिछले साल मिर्ज़ापुर में मिड डे मील में कथित धांधली की ख़बर दिखाने वाले पत्रकार पर दर्ज हुई एफ़आईआर के बाद सरकार से कड़े सवाल पूछे गए थे.

इस घटना का अहम पहलू ज़िले के कलेक्टर का वह बयान था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘प्रिंट मीडिया का पत्रकार वीडियो कैसे बना सकता है?’ इस मामले में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया को हस्तक्षेप करना पड़ा था.

मिड डे मील मामले में पत्रकार के ख़िलाफ़ एफआईआर

31 अगस्त 2019 को मिर्ज़ापुर में पत्रकार पंकज जायसवाल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई. पंकज जायसवाल ने सरकारी स्कूल में व्याप्त अनियमितता और मिड डे मील में बच्चों को नमक रोटी खिलाए जाने से संबंधित ख़बर छापी थी. काफ़ी हंगामा होने के बाद पंकज जायसवाल का नाम एफ़आईआर से हटा दिया गया और उन्हें इस मामले में क्लीन चिट दे दी गई.

मिर्ज़ापुर में मिड डे मील में कथित धांधली की ख़बर दिखाने वाले पत्रकार के ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि उसी समय बिजनौर में कथित तौर पर फ़र्ज़ी ख़बर दिखाने का आरोप लगाकर पांच पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करा दी गई.

वहीं आज़मगढ़ में एक पत्रकार पर प्रशासन ने धन उगाही का आरोप लगाकर एफ़आईआर दर्ज कराई और फिर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.

बिजनौर में जिन पत्रकारों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया था उन लोगों ने एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें दावा किया गया था कि एक गांव में वाल्मीकि परिवार के लोगों को सार्वजनिक नल से पानी भरने से रोका गया था. इस वजह से वाल्मीकि परिवारों ने पलायन का मन बना लिया है. प्रशासन का आरोप था कि पलायन की बात इन पत्रकारों ने कथित तौर पर गढ़ी थी.

बिजनौर के थाना मंडावर में पिछले साल सात सितंबर 2019 को उप निरीक्षक प्रमोद कुमार के प्रार्थना पत्र के आधार पर पांच पत्रकारों आशीष तोमर, शकील अहमद, लाखन सिंह, आमिर ख़ान तथा मोइन अहमद के ख़िलाफ आईपीसी की धारा 153A, 268 तथा 505 के तहत रिपोर्ट दर्ज की गई थी. बाद में कोर्ट ने इस मामले में त्रुटिपूर्ण विवेचना की बात कहते हुए संज्ञान लेने से इनकार कर दिया था.

दस सितंबर 2019 को आज़मगढ़ के एक स्कूल में छात्रों से झाड़ू लगाने की घटना को रिपोर्ट करने वाले छह पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई जिसमें से एक पत्रकार संतोष जायसवाल को गिरफ़्तार कर लिया गया. संतोष जायसवाल के ख़िलाफ़ सरकारी काम में बाधा डालने और रंगदारी मांगने संबंधी आरोप लगाए गए थे.

प्रशांत कनौजिया की गिरफ़्तारी
साल 2019 में यूपी के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर कथित तौर पर अशोभनीय टिप्पणी के मामले में पत्रकार प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ लखनऊ के हज़रतगंज कोतवाली में एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी और बाद में उनको गिरफ़्तार किया गया था.

पुलिस का आरोप था कि प्रशांत ने मुख्यमंत्री पर आपत्तिज़नक टिप्पणी करते हुए उनकी छवि ख़राब करने की कोशिश की थी.

बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रशांत कनौजिया को रिहा किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ़ प्रशांत कनौजिया की गिरफ़्तारी पर सवाल उठाते हुए काफ़ी सख़्त टिप्पणी की थी. कोर्ट ने उन्हें 11 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजने संबंधी मजिस्ट्रेट के फ़ैसले की भी आलोचना की थी.

प्रशांत कनौजिया पर एक ट्वीट की वजह से लखनऊ के ही हज़रतगंज कोतवाली में फिर से एफ़आईआर दर्ज हुई और उन्हें दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया था.

=========
दीपक मंडल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता