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नया संघर्ष ”म्यांमार” को संकट और बिखराव की ओर धकेल रहा है : 30 लाख लोग अपने घर से भाग कर दूसरे इलाक़ों में जाने को मजबूर : रिपोर्ट

फ़रवरी 2024 में म्यांमार ने एक ऐसे पुराने क़ानून को दोबारा लागू कर दिया जो 14 साल से स्थगित था. इस क़ानून के तहत 35 वर्ष से कम आयु के पुरुषों और 27 वर्ष से कम आयु की महिलाओं के लिए कम से कम दो साल तक सेना में काम करना अनिवार्य कर दिया गया है.

इस अनिवार्य भर्ती से बचने का प्रयास करने वालों को जेल की सज़ा दी जा सकती है. इसका मक़सद सेना में साठ हज़ार नए सैनिकों की भर्ती करना है क्योंकि म्यांमार की सैन्य नेतृत्व वाली सरकार एक भयानक गृह युद्ध में फंस गयी है.

यह गृह युद्ध 2021 में तब शुरू हुआ था जब सेना ने लोकतांत्रिक तरीके़ से चुनी हुई सरकार का तख़्तापलट किया था. सैन्य प्रशासन की इस कार्यवाही के ख़िलाफ़ व्यापक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन शुरू हुए जिन्हें सरकार ने हिंसक रूप से कुचलने की कोशिश की.

इसके चलते कई ऐसे पुराने गुटों में नई जान आ गई जो म्यांमार में सैनिक शासन का अंत चाहते रहे हैं.

दक्षिण-पूर्वी एशिया के इस देश में आंतरिक कलह कोई नई बात नहीं है लेकिन यह नया संघर्ष देश को संकट की ओर धकेल रहा है.

तख़्ता पलटने के बाद

1999 में बर्मा का नाम आधिकारिक तौर पर बदल कर म्यांमार रख दिया गया था. बीबीसी की बर्मीज़ सेवा की पूर्व संपादक तिन तार स्वे अब म्यांमार संबंधी मामले की स्वतंत्र सलाहकार हैं.

वो कहती हैं कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गयी सरकार का तख़्ता पलटने के बाद म्यांमार की स्थिति पूरी तरह बदल गई है और सैन्य प्रशासन के ख़िलाफ़ देशव्यापी विद्रोह छिड़ गया है. “देश में 330 शहर हैं जिनमें से 230 शहरों में विद्रोह की शुरुआत के बाद से सशस्त्र संघर्ष चल रहा है.”

इस भयंकर लड़ाई और सैन्य सरकार के हवाई हमलों की वजह कई शहर और गांव ध्वस्त हो गए हैं.

तिन तार स्वे के अनुसार इन हमलों में आम नागरिक मारे जा रहे हैं और पूरे इलाक़ों का आग लगाई जा रही है. “म्यांमार में अब हवाई हमले बढ़ गए हैं. आने वाले समय में सरकार आम नागरिकों और विद्रोहियों को निशाना बनाने के लिए विमानों से ज़्यादा ड्रोन का इस्तेमाल कर सकती है. सेना और विद्रोही गुटों के सैनिक बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं.”

अनुमान है कि लगभग तीस लाख लोग अपने घर से भाग कर म्यांमार के दूसरे सुरक्षित इलाक़ों में जाने को मजबूर हो गए हैं.

तिन तार स्वे का कहना है कि देश में बड़े स्तर पर मानवाधिकार का संकट पैदा हो गया है. धन की कमी के कारण ज़रूरतमंद लोगों तक सहायता नहीं पहुंच पा रही है. कई कंपनियां देश छोड़ कर जा चुकी हैं. महंगाई आसमान छू रही है देश में बिजली और पानी की भारी किल्लत पैदा हो गयी है. कई लोग देश के सुरक्षित इलाक़ों का रुख़ कर रह हैं. मगर देश में हर जगह ऐसी स्थिति नहीं है.

तिन तार स्वे ने बताया कि यंगून में हालात सामान्य हैं. लोग पारिवारिक और सार्वजनिक समारोहों में शामिल होते हैं. लेकिन विद्रोहियों द्वारा नियंत्रित इलाक़ों में सैन्य प्रशासन के ख़िलाफ़ अक्सर विरोध प्रदर्शन होते हैं जो काफ़ी जोखिमभरा काम है क्योंकि अगले दिन सुरक्षाबल लोगों को पकड़ के पूछताछ करते हैं.

वो कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि हर जगह संकट और मातम है. बड़े शहरों में जनजीवन सामान्य भी नज़र आता है.

कृषि म्यांमार का मुख्य उद्योग है जो बुरी तरह प्रभावित हुआ है. तिन तार स्वे के अनुसार बड़ी संख्या में किसान विस्थापित होकर शिविरों में रह रहे हैं और खेती नहीं कर पा रहे जिससे खाद्यान्न की किल्लत और महंगाई और बढ़ जाएगी जिसकी सबसे ज़्यादा चोट देश के ग़रीब तबके पर पड़ेगी.

सैन्य प्रशासन द्वारा सेना में अनिवार्य भर्ती के क़ानून को लागू किए जाने के बाद शहरों में भी असुरक्षा का माहौल पैदा हो गया है. वहां युवा शाम के बाद घर से बाहर निकलने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि उन्हें पकड़ कर सेना में भेज दिया जाएगा.

तिन तार स्वे मानती हैं कि देश बिखरने की कगार पर पहुंच गया है और देश की कमान अभी भी 2021 में तख़्ता पलटने वाले नेता के हाथ में है. वरिष्ठ जनरल मिन आंग लाइंग सेना ही नहीं बल्कि सैनिक प्रशासन के प्रमुख भी हैं.

म्यांमार की राजनीति में हमेशा सेना की बड़ी भूमिका रही है और उसके पास कई प्रशासनिक अधिकार भी रहे हैं. सेना यह सुनिश्चित करती है कि म्यांमार की राजनीति पर उसकी पकड़ बरक़रार रहे. यह कैसे हुआ यह समझने के लिए उसके इतिहास में झांकने की ज़रूरत है.

सेना की चाल

1948 में ब्रिटेन से आज़ाद होने के समय म्यांमार बर्मा के नाम से जाना जाता था. लंदन यूनिवर्सिटी के सोएज़ (SOAS) में एशियाई और सैन्य इतिहास के प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी कहते हैं कि कई अन्य देशों की तरह म्यांमार को आज़ादी क्रांति के ज़रिए हासिल नहीं हुई थी और यह एक समस्या साबित हुई.

वो कहते हैं, “विएतनाम और दूसरे अन्य देशों की तरह बर्मा में भिन्न राजनीतिक गुटों ने मिलकर क्रांति के ज़रिए आज़ादी हासिल नहीं की. इसलिए आज़ादी के बाद दक्षिण पंथ से लेकर वामपंथी विचारधारा के कई गुट पनपे और बहुत जल्द गृह युद्ध छिड़ गया जिसकी वजह से सेना का प्रभाव बढ़ गया.”

सेना का प्रभाव उस समय और बढ़ गया जब 1958 में लोकतांत्रिक तरीके़ से चुनी गयी एएफ़पीएफ़एल (AFPFL) पार्टी के विभाजित होने के बाद एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ.

प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी ने कहा कि, “इस बात को लेकर विवाद है कि सेना ज़बरदस्ती सरकार में शामिल हो गई या उसे आमंत्रित किया गया. लेकिन कई सैनिक अफ़सरों ने मंत्रालयों का प्रशासन संभाल लिया. आज लोग भले ही सेना से नाराज़ हों लेकिन उस समय के दौरान सेना ने काफ़ी तत्परता से काम किया और अर्थव्यवस्था को फ़ायदा होने लगा.”

1960 में आम चुनाव के बाद एएफ़पीएफ़एल का एक धड़ा दोबारा सत्ता में आ गया. मगर सेना ने 1962 में उस सरकार का तख़्ता पलट कर सत्ता हथिया ली.

26 साल बाद 1988 में सेना के एक धड़े ने इस सैनिक सरकार का तख़्ता पलट दिया. 2008 में एक नये संविधान के तहत संसद के दोनों सदनों में पच्चीस प्रतिशत सीटें सेवारत सैनिक अधिकारियों के लिए आरक्षित कर दी गईं.

सैन्य समर्थन से चलने वाली सरकार का दौर 2015 में समाप्त हो गया जब आम चुनावों में आंग सांग सू ची के नेतृत्व में नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी पार्टी भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई. 2020 में उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी ने आम चुनावों में दोबारा जीत हासिल की.

प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी ने कहा कि संविधान के ज़रिए सेना का नियंत्रण संसद पर बरक़रार था लेकिन जब आंग सांग सू ची 2020 में दोबारा जीत कर आयीं तो सेना को चिंता हो गयी कि कहीं वो बहुमत के ज़रिए संविधान में संशोधन करके सेना का प्रभाव ख़त्म ना कर दें इसलिए जनरल हायेंग ने 1 फ़रवरी 2021 को सरकार का तख़्ता पलट दिया.

सेना ने आंग सांग सू ची पर भ्रष्टाचार और चुनाव में धोकाधड़ी के कई आरोप लगा कर उन्हें जेल में बंद कर दिया. पिछले साल उनकी सज़ा 33 साल से घटा कर 27 साल कर दी गई.

म्यांमार की सैनिक सरकार देश के बाहर अपने पड़ोसी देश, थाइलैंड ,लाओस, भारत, बांग्लादेश के साथ-साथ चीन में भी अपनी स्थिति मज़बूत करने की कोशिश कर रही है. चीन के सामरिक हित म्यांमार के साथ जुड़े हुए हैं इसलिए वो नहीं चाहेगा कि म्यांमार बिखर जाए.

प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी का कहना है कि चीन म्यांमार में दोनों ही पक्षों को समर्थन दे रहा है ताकि जो भी जीते उसके हित सुरक्षित रहें. चीन ने दोनों पक्षों से समझौते कर लिए हैं कि वो उसके गैस उत्पादन और पाइपलाइनों को निशाना ना बनाएं.

म्यांमार के रूस के साथ भी घनिष्ठ संबंध हैं. प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी कहते हैं कि म्यांमार की सेना को हथियारों की सप्लाई ज़्यादातर रूस से होती है. लेकिन 2021 के तख़्तापलट के बाद क्या सैनिक सरकार म्यांमार में चुनाव करवाने का कोई इरादा रखती है?

प्रोफ़ेसर माइकेल चार्नी कहते हैं कि वो तब तक चुनाव नहीं करवाना चाहेगी जब तक वो विद्रोहियों के ख़िलाफ़ बड़ी कामयाबी हासिल ना कर ले जो कि अब तक उसके हाथ नहीं लगी है. मगर कौन हैं सरकार के विरोधी?

युद्ध प्रतिद्वंदी

यूके की ससेक्स यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस के वरिष्ठ लेक्चरर डॉक्टर डेविड ब्रेनर कहते हैं कि म्यांमार की सैनिक सरकार के कई विरोधी हैं.

“2021 में लोकतांत्रिक तरीके़ से चुनी गई सरकार का तख़्तापलट दिए जाने के बाद कई लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था. बाद में उनमें से कई लोगों ने हथियार उठा लिए. इन लोगों के गुट को डिफ़ेंस फ़ोर्स भी कहा जाता है. इसके कई युवा शहरों से निकल कर सीमावर्ती इलाक़ों में कई सालों से सक्रिय सशस्त्र जातीय संगठनों में शामिल हो गए. इन इलाक़ों में चिन और अरकान जैसे जातीय गुट दशकों से लड़ रहे हैं. हमें याद रखना चाहिए कि यह गृहयुद्ध है. 1948 में देश की आज़ादी के साथ ही शुरू हो गया था जिसमें कई प्रकार के गुट शामिल हैं.”

यह भी ग़ौरतलब है कि सभी गुट विद्रोह का समर्थन नहीं करते. इनमें से कुछ गुटों के पास सैकड़ों की तो कुछ गुटों के पास हज़ारों की तादाद में सैनिक मौजूद हैं.

डॉक्टर डेविड ब्रेनर ने बताया कि आधाकारिक तौर पर तो वहां लगभग 18 सशस्त्र जातीय गुट हैं लेकिन उनमें से कुछ के नियंत्रण में बड़े इलाके़ हैं तो कुछ गुटों के नियंत्रण में कोई इलाक़ा नहीं है. ऐसे भी कुछ गुट हैं जिन्होंने कई सालों के दौरान अपने नियंत्रण वाले क्षेत्र में प्रशासन की व्यवस्था कायम कर ली है. वो दशकों से स्कूल और अस्पतालों से लेकर कई ढांचागत सुविधाएं अपने इलाक़ों में लोगों को दे पा रहे हैं.

डेविड ब्रेनर कहते हैं कि सभी गुट लोकतंत्र समर्थक नहीं हैं बल्कि अपने जातीय समुदाय के हितों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. लोकतंत्र का मुद्दा उनके लिए जातीय हितों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन क्या यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन गुटों के नियंत्रण में कितना इलाक़ा है और कितने इलाके़ पर सेना का क़ब्ज़ा है.

डॉक्टर डेविड ब्रेनर ने कहा कि, “वहां स्थिति तेज़ी से बदलती रहती है. मगर पिछले तीन सालों के दौरान अधिकाधिक इलाके़ सेना के हाथ से निकल गए हैं. पिछले अक्टूबर से तीन सशस्त्र जातीय गुटों के गठबंधन- थ्री ब्रदरहुड अलायंस ने सेना पर बड़े हमले किए हैं. ज़्यादातर हमले सीमावर्ती कचिन और शान राज्य में हुए हैं जो चीन और थाईलैंड के साथ होने वाले व्यापार का मार्ग भी हैं. मगर अभी भी यंगून और मंडाले जैसे बड़ी आबादी वाले शहर सेना के नियंत्रण में हैं.”

डेविड ब्रेनर कहते हैं कि अब बड़ी संख्या में लोग इन सशस्त्र गुटों के साथ जुड़ रहे हैं. वहीं ऐसी ख़बरें भी आ रही हैं कई जगहों पर की सेना की बड़ी टुकड़ियां सेना छोड़ कर आत्मसमर्पण कर रही हैं.

संयुक्त राष्ट्र की अदालत में में म्यांमार रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ जनसंहार के आरोपों का सामना कर रहा है.

बौद्ध धर्म बाहुल म्यांमार रोहिंग्या समुदाय के लोगों को अपना नागरिक नहीं मानता. 2017 में सेना ने रोहिंग्या समुदाय के हज़ारों लोगों की हत्या कर दी और लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया.


म्यांमार का भविष्य

म्यांमार इंस्टीट्यूट फ़ॉर पीस एंड सिक्योरिटी के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर मिन ज़ो ऊ की राय है कि अगर सेना हार गई तो म्यांमार में कोई सरकार नहीं रहेगी क्योंकि देश के हिस्सों पर भिन्न विद्रोही गुटों का नियंत्रण होगा और वो आपस में लड़ने लगेंगे. ऐसे में म्यांमार का भविष्य कैसा होगा?

उन्होंने कहा कि, “म्यांमार का भविष्य अंधकारमय लगता है. अगर विद्रोहियों की नज़र से देखें तो फ़िलहाल सेना हार रही है लेकिन म्यांमार में विपक्ष इस समय सरकार गिराने के पक्ष में नहीं है. लेकिन सरकार गिर भी जाए तो कोई ऐसा गठबंधन नहीं है जो विभिन्न गुटों का प्रतिनिधित्व कर पाए और बातचीत के ज़रिए समस्या का समाधान खोज पाए.”

दूसरी समस्या यह है कि विभिन्न सशस्त्र गुटों में कोई आपसी सहमति नहीं है.

डॉक्टर मिन ज़ो ऊ का कहना है कि कई सशस्त्र गुटों का नेतृत्व तानाशाही तरीके़ का है और लोकतंत्र का पक्षधर नहीं है. कई इलाक़ों पर विभिन्न गुटों के दावे हैं जिसे लेकर कुछ जगहों पर संघर्ष भी चल रहा है.

अगर सैनिक सरकार गिर भी जाती है तो कई जगहों पर जातीय संघर्ष भड़क सकता है. नज़दीकी भविष्य में इसका समाधान नज़र नहीं आता.

पीपल्स डिफ़ेंस फ़ोर्स जैसे विद्रोही गुटों को आपसी समन्वय बनाना पड़ेगा. मिन ज़ो ऊ कहते हैं कि इसमें से कई गुट एनयूजी यानी नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट के नेतृत्व के तहत हैं.

तख्ता पलटे जाने के बाद यह समानांतर सरकार बनी थी जिसे पश्चिमी देशों का समर्थन प्राप्त है और उसमें पूर्व सांसद शामिल हैं. लेकिन एनयूजी में भी सैकड़ों गुट हैं और वो किसका प्रतिनिधित्व करते हैं यह विवाद का मुद्दा है.

सेना की स्थिति इस समय काफ़ी कमज़ोर है मगर वो राजनीति में अपना प्रभाव बनाए रखना चाहती है लेकिन धीरे धीरे उसे इस मांग को छोड़ना पड़ेगा. लेकिन क्या सैनिक नेतृत्व में फूट पड़ने के संकेत नज़र आते हैं?

डॉक्टर मिन ज़ो ऊ ने कहा कि, “ इसकी संभावना है क्योंकि वर्तमान सेना प्रमुख जनरल लाइंग शायद अब तक के सबसे ज़्यादा अलोकप्रिय सेना प्रमुख हैं. मगर सवाल यह है कि उन्हें चुनौती कौन देगा? म्यांमार की सेना में यह धारणा है कि वरिष्ठ नेतृत्व का सम्मान करना चाहिए. अगर सेना में बग़ावत होती है तो संवाद का रास्ता खुल सकता है. मगर फ़िलहाल तो लोगों में सिर्फ़ गुस्सा और हताशा है.”

तो क्या म्यांमार पतन की कगार पर है? मौजूदा संघर्ष निश्चित ही उसे पतन की दिशा में धकेल रहा है. लेकिन कुछ बातें हैं जो इस प्रक्रिया को धीमा ज़रूर कर सकती हैं. चीन की कोशिश होगी कि म्यांमार में स्थिति को संभाला जाए ताकि वहां उसके ऊर्जा के हित सुरक्षित रहें. हो सकता है कि जिन विद्रोही गुटों ने अपने इलाक़ों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था बनायी है वो कायम रहे.

जाति आधारित मतभेद, विभाजित समाज और विद्रोह लंबे अरसे से म्यांमार के इतिहास का हिस्सा रहे हैं और जल्द इसका कोई हल नज़र नहीं आता और सेना भी राजनीति में अपनी भूमिका को आसानी से नहीं छोड़ेगी. इसलिए यह कहना मुश्किल है कि म्यांमार को पतन से दूर ले जाने वाला कोई रास्ता नज़दीकी भविष्य में खुलेगा.