इतिहास

देश की आज़ादी के आंदोलन मे संघर्ष करने वाली महिला स्वतंत्रता सेनानी सुग़रा ख़ातून

Ataulla Pathan
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10 मई-यौमे वफात
देश की आजादी आंदोलन मे संघर्ष करनेवाली महिला स्वतंत्रता सेनानी सुग़रा ख़ातून

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देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली कुछ महिलाओं ने मैदाने जंग में उतर कर तलवार और बन्दुकों से फ़िरंगियों का मुक़ाबला किया। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी महिलाएं भी हुई जिन्होंने ग़ैर हिंसक आन्दोलनों में हिस्सा लेकर अंगरेजो का विरोध किया और विदेशी सामान का बायकाट करके उनको बड़ी आर्थिक हानि पहुंचाई। सुग़रा ख़ातून भी एक ऐसी ही देश प्रेमी मुसलमान महिला थीं,जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपना धन-दौलत निछावर कर दिया।

सुगरा ख़ातून सय्यिद हादी और सईदुन्न-निसा बेगम के घर उस्मानाबाद में पैदा हुयी। उस जमाने के चलन के अनुसार उनकी शादी कम उम्र में ही कर दी गई थी।उनके पति मुहम्मद ज़मीर एक धनवान व्यक्ति एवं बड़ी जायदाद के मालिक थे। उनका पारिवारिक जीवन हंसी-खुशी गुज़रता रहा। यहां तक कि उनके एक बेटी भी हो गई। मगर सुग़रा ख़ातून के ख़ुशियों भरे दिन व रात लम्बे समय तक नहीं चल सके। उनके पति मुहम्मद ज़मीर का अचानक इन्तिक़ाल हो गया। अकेली सुगरा खातून पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी। सुगरा खातून; सरोजिनी नायडू, श्रीमती मोतीलाल नेहरू और दूसरी औरतों के साथ जनाना जलसों में शरीक होती थीं। बुरख़ेपोशी के सत्याग्रहों में भी आप पेश रहती थीं। जब विलायती कपड़ों के ख़िलाफ तहरीक़ शुरू हुई तो आप भी दूसरी औरतों के साथ दुकानों के सामने रास्ता रोकने में शरीक रहीं। उस वक्त पुलिस ने औरतों पर कोड़े बरसाये,जिसमे सरोजिनी नायडू और सुग़रा ख़ातून ज्यादा जख़्मी हुई थीं। फिर सब औरतों को गिरफ्तार करके जंगल ले जाया गया और पेड़ों से बांध दिया गया। सुग़रा बेगम ने अपने सभी विलायती कपड़ों को आग लगा दी थी और खादी का लिबास पहनना शुरू कर दिया था। इससे उनके मामू, जो उनके बेवा होने के बाद उनके सरपरस्त थे, नाराज़ हो गये। सरकारी नौकर होने की वजह से वह भी ऐसा करने को मजबूर थे।

जब ख़िलाफ्त के जलसे में शिरकत के लिए बी अम्मा पहली बार लखनऊ आयी तो सुगरा भी उनके इस्तेकृबाल के लिए फिरंगी महल गर्यी और जल्दी ही
तहरीके-ख़िलाफ़त के जनाना जलसों की रूह बन गयीं । जब वहां चन्दा इकठ्ठा होना शुरू हुआ तो सबसे पहले सुगरा ने ही अपना पूरा ज़ेवर लाकर दिया, जिसमें तकरीबन 50 तोला सोना और कुछ ज़वाहारात भी थे। उसके बाद उन्होंने एक पुरजोश तकरीर

की, जिसकी वजह से सभी औरतों ने अपना सब कुछ लाकर दे दिया। सुगुरा फिर लखनऊ आ गयी और यहीं पर सन् 1968 में 10 मई को जुमे के दिन आपने वफात पायी, आप एक इंतिहाई बावकार ख़ातून थीं।

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संदर्भ- 1)लहू बोलता भी है
लेखक- सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी,कृष्ण कल्की
2)जंग ए आजादी और मुसलमान

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संकलन तथा अनुवादक लेखक *अताउल्ला खा रफिक खा पठाण सर टूनकी तालुका संग्रामपूर जिल्हा बुलढाणा महाराष्ट्र*
9423338726