साहित्य

#दिन_दिन_बढ़त_सवायो

मनस्वी अपर्णा
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#दिन_दिन_बढ़त_सवायो
लता जी गाया हुआ एक एलबम है “राम रतन धन पायो” श्री राम के भजनों का अद्भुत अद्वितीय संकलन है, मुझे दो कारणों से बेहद पसंद है, पहला कि ये सारे भजन मेरी आई गाया करती थी बड़े ही मधुर स्वर में और मुझे अच्छे से याद है बाबा ने ये कैसेट नागपुर से आई के लिए ख़ासतौर पर लाया था, दूसरा कारण है लता जी का गायन, हृदयनाथ जी कंपोजिशन के साथ तुलसी, मीरा और नरसी मेहता के बेजोड़ भजन…..मुझे लगता है इन्हें लता जी ही गा सकती थी, पंडित जसराज या गिरिजा देवी भी गाती तो वह बात नहीं बन पाती थी….मैं अक्सर सुनती हूं और हर बार उतनी ही अभिभूत होती हूं, आज फिर सुना और अचानक लगा कुछ नया सा अनुभव हुआ, अनुभव इसे कहूं या समझ इसमें ज़रा confusion है, पर जो भी हुआ नया था…..तुलसी की यह पंक्तियां अद्भुत है, तुलसी यूं भी मुझे किन्हीं कारणों से आजकल भा रहे हैं और मैं समझती हूं यह ठीक ठीक समय है जब उनको सही ढंग से समझा जा सकता है वरना अनाड़ी उम्र में हमने अगर पढ़ भी लिया था तो बेकार ही था।

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई।
प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई।
तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥
या मीरा बाई जब कहती हैं
खरच न फूटे चोर न लूटे
दिन दिन बढ़त सवायो

ये और इन जैसी और भी भक्ति रस में डूबी रचनाएँ असल में किसी एक ख़ास बात की ओर इशारा करती हैं, वह यह है कि भक्ति अगर मन में जागृत हुई है तो फिर यह फ़र्क नहीं पड़ता कि किसकी की जा रही है….तब ध्येय बस भक्ति होता है….मीरा कृष्ण की इक मूर्ति से आसक्त थी, साधारण सी मूर्ति से जो बचपन में ध्यान भटकाने के लिए पकड़ा दी गई थी, रामकृष्ण काली के दीवाने थे, तुलसी दशरथ पुत्र श्री राम के, सूरदास कृष्ण के बाल रुप के… इनको जब भी पढ़ा जाएगा तब सहज ही इनके आराध्य के अस्तित्व पर प्रश्न उठेंगे पर मुझे लगता है वो सब प्रश्न निरर्थक होगें क्यूंकि उनका वाकई कोई औचित्य नहीं है, आप बस भक्ति के भाव को समझने की कोशिश कीजिएगा तो कोई कोई कड़ी सामने आएगी.. फिर क्या फ़र्क पड़ता है राम, कृष्ण या काली सच में हुए या नहीं विषय उनके अस्तित्व का नहीं है विषय भक्ति का है और वो है साक्षात नज़र आ रही है अगर आप समझना चाहें तो उसे समझिए…

भक्ति तो चलिए बड़ी घटना है इसकी अनुभूति सहज नहीं है लेकिन प्रेम हमारे आपके आस पास का विषय है… प्रेम में यही फार्मूला लागू होता है, मजनू किसी लैला की वजह से मजनू नहीं बना… वो प्रेम था जिसने बना दिया, लैला संयोग से आ गई और भीतर जो प्रेम का निर्झर बह रहा था वह उसकी ओर divert हो गया। प्रेम बस ऐसे ही होता है, सुपात्र देखकर हुआ तो गहरा आकर्षण उससे ज़्यादा कुछ नहीं, लेकिन बस हो गया और फिर बाद में फ़र्क किया पात्र या सुपात्र का तो फिर प्रेम ही है….प्रेम में भी अगर नुक्ताचीनी संभव है तो वो कभी उस त्वरा को छू ही नहीं सकता जहां हृदय प्रतिपल चमत्कृत होता रहता है, आपके पास देने के लिए प्रेम है तो यह असंभव है कि कोई आपके संपर्क में आए और उससे अछूता रह जाए…..ये दीगर बात है कि लोग समझ ही नहीं पाते….लोग सिर्फ दुनियावी घटियापन को ढूंढते हैं, उनकी गलती नहीं है उन्होंने कुछ देखा ही नहीं है, बुध्दि क्षुद्र है।

प्रेम के शुरआती दिनों में जब दिमाग में कैमिकल लोचा अपने चरम पर होता है प्रेमियों को एक दूसरे की कमियां नज़र ही नहीं आती, दुनिया लाख दिखाए नहीं आती लेकिन नशा उतरते ही आसमान में उड़ रहा सर ज़मीन से टकराता है और फिर कोई लाख गिनाए उनको एक दूसरे में कोई खूबी नज़र नहीं आती….लेकिन प्रेम अगर इस कैमिकल लोचे से ज़रा ऊपरी तल पर हुआ तो सच में प्रेमी की कमियों या खूबियों से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता वो सब समाहित की जा सकती हैं…की जाती ही हैं।

बहरहाल विषय यह नहीं है कि प्रेम पात्र कौन है या आराध्य कौन है…विषय तो यह है कि भाव क्या हैं? किसको समर्पित है उससे क्या फ़र्क पड़ता है?? अगर भाव पर ध्यान केंद्रित कर पाइएगा तो प्रेम और भक्ति दोनों का संचारी भाव समझ आने लगेगा और यह वाकई कीमती समझ होगी।

ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।
मनस्वी अपर्णा