साहित्य

दार्सनिक कुत्ता…मास्टर लड़की पर डोरे डाल रहा है…फिर छेदालाल ने सच जानने के लिए छुपकर…!!

Kavita Krishnapallavi
===================
( बेहद अँधेरे दिनों में भी हँसना ज़रूरी होता है I जीवन की विडम्बनाओं पर, त्रासदियों पर, अपने दुश्मनों पर, फ़ासिस्टों पर, नकली वामपंथियों पर, लिबलिब लिबरलों पर, कूपमंडूक “सद्गृहस्थों” पर दिल खोलकर हँसना चाहिए I हँसना ऊर्जस्वी और ताज़ादम बनाता है I इसलिए एकदम उन्मुक्तता और निर्मलचित्तता के साथ हँसना ज़रूरी है I

हाल के दिनों में बहुत सारे पाखंडियों, दुरंगे चरित्र के लोगों, अवसरवादियों, कैरियरवादियों पर शब्दों के चाबुक ख़ूब बरसाने पड़े हैं I और जैसे हालात हैं, आगे भी यह काम लगातार जारी रखना होगा I

तो इस बीच के समय में, थोड़ा विराम लेकर, आइए, निर्मल मन से थोड़ा हँस लिया जाये. आपको एक मज़ेदार किस्सा सुनाती हूँ, एकदम सच्चा! पहले कभी सुना चुकी हूँ, लेकिन फिर-फिर सुनाने लायक है!)
मधु मालती जी और ‘भूल-ग़लती’ का किस्सा

हमारे एक कामरेड हैं । छात्र जीवन में बजरिए साहित्य गली मार्क्सवादी मार्ग पर आये थे । पढ़ने में काफ़ी अच्छे थे, लेकिन कुछ कारणों से दूर गाँव में रहने वाला उनका परिवार आर्थिक संकट में आ गया । पढ़ाई जारी रखना मुश्किल हो गया, सो उन्होंने ट्यूशन से ख़र्च निकालने की सोची । काफ़ी ढूँढ़ने के बाद पंसारी छेदालाल साहू की इकलौती नखरीली महाभोंदू लड़की मधु मालती का ट्यूशन मिला जो इण्टरमीडिएट में दो बार फेल हो चुकी थी ।

कामरेड की एक ख़ास आदत यह थी कि वह जिस समय जो साहित्य पढ़ते होते थे उसमें एकदम डूब जाते थे । पात्र-कुपात्र की चिंता किये बिना सबको वही सुनाते रहते थे, उसके बारे में बताते रहते थे । उन्हें यह भी लगता था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को साहित्य-प्रेमी बना दिया जाये । साहित्य के जरिए मार्क्सवादी बना देने के बारे में भी वह उत्कट आशावादी हुआ करते थे ।

छेदालाल की सुकन्या मधु मालती को ट्यूशन देते एक महीने का समय बीत चुका था । इस बीच कोर्स की पढ़ाई से अधिक समय वह मधु मालती को बाल्ज़ाक, डिकेंस, चेख़ोफ़, गोर्की, प्रेमचंद, यशपाल, भीष्म साहनी, निराला, शमशेर, मुक्तिबोध आदि-आदि के बारे में बताते हुए और कविता-कहानी सुनाते हुए ख़र्च करते थे । निर्धारित समय से भी अधिक समय लगाते थे । कन्या जिस तल्लीनता से और मुग्ध भाव से साहित्य-चर्चा सुनती थी, उससे कामरेड को भरोसा भी हो चला था कि मधुमालती की बेल साहित्य के छज्जे चढ़ जायेगी ।

छेदालाल की पुश्तैनी किराने की दुकान उनके घर के ही बाहरी हिस्से में थी । पत्नी जन्मना मंदबुद्धि थीं और गठिया की मरीज़ भी । इसलिए ग्राहकों को निपटाते हुए वह घर के भीतर-बाहर भी निगाह रखते थे और लाडली बिटिया की चौकीदारी भी करते रहते थे जो उनके ख़याल से रूपवती होने के साथ ही कुछ चंचल-चित्त और भोली भी थी ।

इधर कुछ दिनों से छेदालाल के कान खड़े रहने लगे थे और नाक कुछ बुरी गंध महसूस करने लगी थी । ‘यह मास्टर एक घंटे के पैसे लेकर हमेशा डेढ़-दो घंटे क्यों पढ़ाता है?’ — इस प्रश्न का उनका दिमाग़ बस एक ही जवाब देता था और वो यह कि मास्टर लड़की पर डोरे डाल रहा है । फिर छेदालाल ने सच जानने के लिए छुपकर गुरु-शिष्या संवाद सुनने का फ़ैसला किया ।

जिस समय छेदालाल ने यह ऐतिहासिक, सनसनीखेज फ़ैसला लिया उनदिनों गुरूजी मुक्तिबोध की ‘भूल-ग़लती’ कविता में गले-गले तक डूबे हुए थे । उसदिन वह मधु मालती को भी वही कविता सुना रहे थे : “भूल-ग़लती / आज बैठी है / जिरहबख्तर पहनकर / तख़्त पर दिल के !” छेदालाल परदे के पीछे से सुन रहे थे । सहसा उनके सामने सारा रहस्य खुल गया । धड़धड़ाते हुए कमरे में घुसते हुए वह बोले, “मास्टर, मैं सब समझ रहा हूँ । कबित्त में मधु मालती को भूल गल्ती कहकर हमें उल्लू नहीं बना सकते ! हमने भी बहुत दुनिया देख रक्खी है । और मेरी राजकुमारी तुम्हारे दिल के तखत या खटिया पर बैठेगी जीराबस्तर पहनकर — यह तुमने सोच भी कैसे लिया ? इसकी शादी हम खेतान पेट्रोल पंप के मालिक के इकलौते बेटे से तय करने वाले हैं । हमारे सबकुछ की वारिस यही तो है । गहनों से लदी सोने के पलंग पर बैठी राज करेगी । तुम कंगाल आदमी ! अपनी औकात तो देखो ! बहुत पढ़ाई हो चुकी मास्टर ! अब इस महीने के चार दिन और बचे हैं । पाँचवे दिन आकर अपना हिसाब ले लेना!”

छेदालाल यह कहकर गुरूजी को कुछ कहने का मौक़ा दिये बग़ैर बाहर निकल गये । गुरूजी अपने को सम्हाल पाते, इसके पहले ही मधु मालती दाँत से नाखून चबाते हुए और अपने ख़याल से बिजली गिराती हुई बोल पड़ीं,”माट्साब ! बाबूजी की बात को दिल पर मत लीजिए ! अब चाहे भूल से कहिए चाहे गल्ती से! ऊ का है कि हम, का नाम कि का का पहिरके आपके दिल के तखत पर तो बइठिए गये हैं ! तो अब उतरेंगे थोरो न ! फिकिर मती कीजिए । हम अपनी सहेली का पता दें देंगे । उहाँ मिलते रहेंगे हमलोग । आ पइसा भी हम आपको महीने का देते रहेंगे, ऊ भी बिन पढ़ाये ! हाँ, भूल गल्ती हमको पढ़ाते रहिएगा !” कहकर मधु मालती अपने पीले दाँतों और कत्थई मसूड़ों का अकुण्ठ भाव से प्रदर्शन करते हुए हिल-हिलकर हँसने लगीं ।
(6 May 2021)


Kavita Krishnapallavi
===================
·
दार्सनिक कुत्ता…
प्रोफ़ेसरों और विद्वानों के बहुत सारे किस्से मेरे खजाने में हैं। चलिए, आज आपको ऐसा ही एक किस्सा फिर से सुनाती हूँ।
*
वह दर्शन शास्त्र के जाने-माने विद्वान थे । एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में प्रोफेसर थे । अरस्तू, सुकरात आदि से लेकर कांट, हेगेल, फायरबाख, मार्क्स आदि पर शानदार लेक्चर देते थे । विभाग में तो कभी-कभी ऐसी कुछ चंचल-चपल कन्याओं से मधुर वार्तालाप भी कर लेते थे जिनके मस्तिष्क में दर्शन का घुसना उतना ही असंभव होता था जितना सूई के छेद में ऊँट का प्रवेश करना, लेकिन दिनचर्या के शेष समय में केवल और केवल, दार्शनिक अध्ययन और चिंतन में ही निमग्न रहा करते थे ।

घर पर भी समस्त सांसारिक झंझटों से विरत वह दर्शन की अतल गहराइयों में गोते लगाते रहते थे । उन तमाम सांसारिक झंझटों में पत्नी को वह सर्वोपरि स्थान पर रखते थे । जवाबी कार्रवाई के तौर पर पत्नी ने उन्हें मानव जाति से ही बहिष्कृत कर दिया था । वह हमेशा उन्हें ‘कुत्ता’ कहकर ही सम्बोधित करती थीं और यदा-कदा उनपर मुष्टिका-प्रहार, दण्ड-प्रहार या उपानह-प्रहार भी कर दिया करती थीं ।

एक दिन आचार्य-श्रेष्ठ की व्यथा से व्यथित उनकी कुछ प्रिय शिष्याएँ गुरुपत्नी की सेवा में जा उपस्थित हुईं । उन्होंने भोले, विनम्र और कातर शब्दों में आचार्य श्री की भार्या को समझाने का प्रयास किया और अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग करते हुए बताया कि वह कितनी सौभाग्यशालिनी हैं कि उनके पति अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक महान दार्शनिक हैं और यह कि वह उनके किस असीम आदर और सेवा के अधिकारी हैं और यह कि, ऐसे मानव-श्रेष्ठ का अपनी ही अर्द्धांगिनी द्वारा ‘कुत्ता’ माना और कहा जाना कितना दुर्भाग्यपूर्ण और पीड़ादायी है !

प्रोफेसर साहब की पत्नी ने दर्शन की छात्राओं के निवेदन को सुनने के बाद अपनी तद्भव और देशज शब्द-बहुल अनागर-असम्भ्रान्त भाषा में कहा,”मुझे न समझाव छोरियो ! हम एकर मेहरारू हैं, भावज नाहीं हैं ! एकर सगरी रंग-ढंग जानित हैं । है तो ई कुत्ता ही ! अब तुम लोगन कहि रही हो तो चलो माने लेते हैं कि ई अभगवा दार्सनिक कुत्ता है, बहुते नामी दार्सनिक कुत्ता है !”

डिस्क्लेमर : लेखिका के निजी विचार हैं, तीसरी जंग हिंदी का कोई सरोकार नहीं है