प्रजनन दर में काफी ज्यादा गिरावट को देखते हुए, दक्षिण भारत के कुछ राज्य परिवार नियोजन की दिशा में बदलाव कर रहे हैं और अब लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.
पिछले साल भारत ने जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़ दिया और दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया. फिलहाल, भारत की आबादी करीब 145 करोड़ है. कई दशकों से भारत में जनसंख्या में तेज वृद्धि को एक बड़ी चुनौती के रुप में देखा जाता रहा है और सरकारों ने लगातार जनसंख्या नियंत्रण पर जोर दिया है. सन् 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बड़ी आबादी देश के विकास में बाधा बन रही है. उन्होंने राज्य सरकारों से इस समस्या को हल करने का आग्रह किया था.
वहीं अब, भारत के कुछ राजनेता जनसंख्या बढ़ने को लेकर नहीं, बल्कि प्रजनन दर में गिरावट और स्थिर जनसंख्या सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त जन्म दर न होने पर चिंतित हैं.
ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहन
हाल ही में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देने के बजाय, परिवारों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया. उन्होंने एक ऐसा कानून भी प्रस्तावित किया जिसके अनुसार सिर्फ दो या उससे ज्यादा बच्चे वाले लोग ही स्थानीय चुनावों में उम्मीदवार बन सकेंगे.
कुछ दिनों बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भी इसी तरह का विचार सामने रखा. उन्होंने भी वहां के लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आग्रह किया.
दरअसल, दशकों से आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और अन्य भारतीय राज्यों ने छोटे परिवार को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया है. लोगों को दो बच्चों तक सीमित रहने के लिए प्रोत्साहित किया है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि अब दक्षिण भारत के राजनेता ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को क्यों प्रोत्साहित कर रहे हैं?
जन्म दर में भारी गिरावट
भारत में जन्म दर में पिछली सदी में नाटकीय रूप से गिरावट आई है. यह आंकड़ा 1880 से 1970 तक स्थिर रहा. इसके मुताबिक, भारत में महिलाएं अपने जीवनकाल में औसतन 5.7 से 6 बच्चे पैदा करती थीं. साल 2022 तक यह आंकड़ा घटकर लगभग 2.01 बच्चे प्रति महिला पर आ गया. यह जनसंख्या को स्थिर रखने के लिए जरूरी दर यानी तथा-कथित रिप्लेसमेंट लेवल से कम है.
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज में जनसांख्यिकी के प्रोफेसर श्रीनिवास गोली ने डीडब्ल्यू को बताया, “फ्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देशों को अपनी प्रजनन दर कम करने में 200 साल से ज्यादा का समय लगा, जबकि अमेरिका को लगभग 145 साल लगे. हालांकि, भारत में यह बदलाव सिर्फ 45 साल में हुआ. चिंता की सबसे बड़ी वजह इस बदलाव की गति है.”
गोली ने आगे कहा कि जन्म दर में तेजी से गिरावट के कारण भारत में उम्मीद से कहीं ज्यादा तेजी से बुजुर्गों की आबादी बढ़ रही है. हालांकि, मौजूदा समय में कामकाजी लोगों की संख्या अधिक है, लेकिन वृद्धों की बढ़ती आबादी भविष्य में चुनौतियां पैदा कर सकती हैं.
उन्होंने बताया, “भारत के पास विकसित देश बनने का ‘मौका’ है. इसकी वजह यह है कि फिलहाल भारत की कामकाजी आबादी बुजुर्गों और बच्चों की संख्या से ज्यादा है. यह स्थिति 2005 में बनी थी और 2061 तक बनी रहेगी. सबसे ज्यादा फायदा 2045 तक मिलने की उम्मीद है. हमें युवा आबादी के फायदे मिल रहे हैं, लेकिन अभी भी बहुत संभावनाएं बाकी हैं.”
तमिलनाडु राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष और अर्थशास्त्री जे. जयरंजन ने बताया कि बढ़ती बुजुर्ग आबादी भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है और देश पर आर्थिक बोझ बढ़ा सकती है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, “बुजुर्ग आबादी की देखभाल करना परिवार और राज्य, दोनों के लिए एक चुनौती होगी. दुर्भाग्य से, हमने अभी तक इससे जुड़ी नीतियों पर पूरी तरह विचार-विमर्श नहीं किया है.”
नॉर्डिक देशों के बराबर है दक्षिण भारत में जन्म दर
कम जन्म दर पूरे भारत में चिंता का विषय है. हालांकि, दक्षिण भारत के राज्य विशेष रूप से चिंतित हैं. करीब 24 करोड़ की आबादी वाले इस इलाके के सभी पांच राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में जन्म दर में तेजी से गिरावट आयी है. यह राष्ट्रीय औसत 2.01 से भी कम हो चुका है.
भारत 1950 के दशक में अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय परिवार नियोजन नीति को अपनाने वाला पहला देश था. गोली कहते हैं, “दक्षिणी राज्यों ने इस नीति को बहुत सख्ती से अपनाया. आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अब प्रजनन दर यूरोप के नॉर्डिक देशों जैसी है. उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 2023 में फिनलैंड में जन्म दर 1.3 थी.”
हालांकि, इन इलाकों की आर्थिक स्थिति में काफी ज्यादा अंतर है. गोली ने कहा, “जब प्रति व्यक्ति आय या मानव विकास संकेतकों की बात आती है, तो भारत अन्य देशों से बहुत पीछे है. उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय स्वीडन की तुलना में 22 गुना कम है.”
राजनीतिक नुकसान
आर्थिक नतीजों के अलावा, दक्षिणी राज्य घटती जन्म दर के कारण राजनीतिक नुकसान से भी जूझ रहे हैं. जयरंजन ने कहा, “दक्षिण भारत में कम जन्म दर के कारण, दक्षिणी राज्यों की जनसंख्या की वृद्धि दर उत्तरी राज्यों की तुलना में कम है. इससे संसद में सीटें और केंद्र सरकार से मिलने वाले फंड पर भी असर पड़ सकता है, क्योंकि ये जनसंख्या के आधार पर तय किए जाते हैं.”
भारत में, राज्यों को केंद्र सरकार के द्वारा वसूले गए टैक्स, जैसे कि इनकम टैक्स और कॉर्पोरेट टैक्स का एक हिस्सा मिलता है. यह हिस्सा जनसंख्या, आर्थिक जरूरतों और प्रति व्यक्ति आय जैसी चीजों के आधार पर तय किया जाता है. इसका नतीजा यह होता है कि अपनी कम आबादी और प्रति व्यक्ति ज्यादा आय की वजह से दक्षिण के राज्यों को कम फंड मिलता है और वे नुकसान में रहते हैं.
उम्मीद की जा रही है कि अगले साल भारत सरकार जनगणना करा सकती है. इसके बाद, जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर संसद में सीटों का बंटवारा फिर से किया जा सकता है. दक्षिण भारत के कई राज्यों को डर है कि इससे संसद में उनके राज्यों की सीटें कम हो सकती हैं, क्योंकि अब उनकी जनसंख्या उत्तर भारत के कुछ राज्यों से कम है.