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ज़ोमर आयतें 46-50
قُلِ اللَّهُمَّ فَاطِرَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ عَالِمَ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ أَنْتَ تَحْكُمُ بَيْنَ عِبَادِكَ فِي مَا كَانُوا فِيهِ يَخْتَلِفُونَ (46)
इस आयत का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ ख़ुदा (ऐ) सारे आसमान और ज़मीन पैदा करने वाले, ज़ाहिर व पोशीदा के जानने वाले तू ही अपने बंदों के दरमियान उन चीज़ों के बारे में फ़ैसला कर देगा जिन पर वे झगड़ रहे हैं। [39:46]
पिछले कार्यक्रम में हमने इस बात का ज़िक्र किया कि अनेकेश्वरवादी तौहीदी अर्थात एकेश्वरवादी नज़रिए से कितनी नफ़रत करते हैं और दुनयावी ख़ुदाओं और भ्रामक माध्यमों से उनका गहरा लगाव है। यह आयत इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम से कहती है कि उनकी तरफ़ से मुंह मोड़ लो और उस अल्लाह की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करो जो आसमानों और ज़मीनों का पैदा करने वाला है। वही क़यामत के दिन अपने बंदों के बीच उन चीज़ों का फ़ैसला करेगा जिनके बारे में वे झगड़ रहे होंगे।
क़यामत के दिन का हाकिम और मालिक तो ख़ुदा है और वह सारे राज़ जानता है। उसके फ़ैसले से सारे झगड़े और मतभेद ख़त्म होंगे। क़यामत के दिन की अदालत में ज़िद्दी गुमराहों के पास हक़ीक़त के इंकार का कोई बहाना नहीं होगा और वे अपनी कार्यशैली और रास्ते की ग़लती को स्वीकार करेंगे लेकिन यह स्वीकारोक्ति उस दिन उन्हें कोई फ़ायदा नहीं पहुंचाएगी।
इस आयत से हमने सीखाः
उन लोगों के विपरीत जो अल्लाह के अलावा दूसरों के लिए समर्पित हो गए हैं, हमें सारी कायनात को पैदा करने वाले अल्लाह की तरफ़ उन्मुख होना चाहिए।
जिसने आसमान और ज़मीन की रचना की वह अपनी पैदा की हुई चीज़ों के समस्त मामलों का अख़तियार रखता है।
इंसानों के बारे में अल्लाह का फ़ैसला उसके ज्ञान और जानकारी के आधार पर होता है इंसानों को निहित और विदित सारी चीज़ों की जानकारी के आधार पर।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 47 और 48 की तिलावत सुनते हैं,
وَلَوْ أَنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُوا مَا فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا وَمِثْلَهُ مَعَهُ لَافْتَدَوْا بِهِ مِنْ سُوءِ الْعَذَابِ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَبَدَا لَهُمْ مِنَ اللَّهِ مَا لَمْ يَكُونُوا يَحْتَسِبُونَ (47) وَبَدَا لَهُمْ سَيِّئَاتُ مَا كَسَبُوا وَحَاقَ بِهِمْ مَا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ (48)
इन आयतों का अनुवाद हैः
और जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है अगर उन्हें धरती पर मौजूद सब कुछ बल्कि उसका दुगना मिल जाए तो क़यामत के दिन ये लोग सख़्त अज़ाब से बचने के लिए वह सब देने को तैयार होंगे (उस वक्त) उनके सामने ख़ुदा की तरफ़ से वह बात पेश आएगी जिसकी उन्हें भनक भी न थी। [39:47] और जो बदकिरदारियाँ उन लोगों ने की थीं (वह सब) उनके सामने खुल जाएँगीं और जिस (अज़ाब) पर यह लोग क़हक़हे लगाते थे वह उन्हें घेरेगा। [39:48]
पिछली आयत क़यामत के दिन अल्लाह के फ़ैसले के बारे में बात करती है, अब यह आयत इसके बाद कहती है कि दुनिया में जिसने भी ज़ुल्म किया है वह कड़े अज़ाब की चपेट में आएगा बल्कि हो सकता है कि क़यामत में उनके सामने वह सज़ा भी आ जाए जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी न था।
क़ुरआनी ज़बान में ज़ुल्म से तात्पर्य वैचारिक और अक़ीदे के ज़ुल्म से भी है जैसे नास्तिकता और शिर्क। इसी तरह इससे तात्पर्य परिवार या समाज के भीतर दूसरों पर किए जाने वाले अत्याचार से भी है। लेकिन यह बात साफ़ है कि वैचारिक और सांस्कृतिक ज़ुल्म का ख़तरा और नुक़सान सामाजिक ज़ुल्म से कहीं ज़्यादा है। क्योंकि बहुत से अवसरों पर सामाजिक ज़ुल्म की भरपाई का रास्ता निकल आता है मगर वैचारिक और सांस्कृतिक ज़ुल्म का विध्वंस कई नस्लों और समाजों तक फैलता जाता है और त्रासदी पैदा कर देता है। इसलिए उसकी भरपाई बहुत कठिन है।
अलबत्ता बुरे कर्म करने वालों की सज़ा भी इंसाफ़ के आधार पर निर्धारित की जाएगी। अल्लाह किसी ज़ालिम को भी सज़ा देने में ज़र्रा बराबर नाइंसाफ़ी नहीं करता। इसीलिए आयत में आगे कहा गया है कि यह सज़ा दुनिया में उनके कुकर्मों का साक्षात रूप होगी जो जहन्नम की आग की शक्ल में ज़ाहिर होगी। वे जब तक दुनिया में थे धन दौलत बटोरने की फ़िक्र में लगे रहे और इस ग़लतफ़हमी में रहे कि ढेरों दौलत हासिल करके वे अपनी क़िस्मत सवांर सकते हैं। इसीलिए जब क़यामत के बारे में उन्हें कुछ बताया जाता या उन्हें सचेत किया जाता था तो वे मज़ाक़ उड़ाते थे। वे क़यामत के बारे में भले लोगों की चेतावनियों को असभ्य और अज्ञानी लोगों की भ्रांति क़रार देते थे।
इन आयतों से हमने सीखाः
दुनिया की ताक़त और दौलत परलोक में किसी काम नहीं आएगी अगर इंसान के पास सारी दुनिया की दौलत हो तब भी उसको कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा।
जहन्नम में मिलने वाली सज़ा दुनिया में इंसान के कुकर्मों की तसवीर होगी।
क़यामत का दिन सच्चाई के खुलकर सामने आने का दिन है उस दिन सारे राज़ खुल जाएंगे। क़यामत के दिन जन्नत और जहन्नम सहित बहुत सारे तथ्य सामने आ जाएंगे।
हम बहुत एहतियात करें कि धार्मिक आस्थाओं और मूल्यों का कभी मज़ाक़ न उड़ाएं कि फिर हमें क़यामत के दिन पछताना पड़े।
अब आइए सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 49 और 50 की तिलावत सुनते हैं,
فَإِذَا مَسَّ الْإِنْسَانَ ضُرٌّ دَعَانَا ثُمَّ إِذَا خَوَّلْنَاهُ نِعْمَةً مِنَّا قَالَ إِنَّمَا أُوتِيتُهُ عَلَى عِلْمٍ بَلْ هِيَ فِتْنَةٌ وَلَكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ (49) قَدْ قَالَهَا الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَمَا أَغْنَى عَنْهُمْ مَا كَانُوا يَكْسِبُونَ (50)
इन आयतों का अनुवाद हैः
इन्सान को तो जब कोई बुराई छू गयी बस वह लगा हमसे दुआएँ माँगने, फिर जब हम उसे अपनी तरफ़ से कोई नेअमत अता करते हैं तो कहने लगता है कि ये तो सिर्फ (मेरे) इल्म के ज़ोर से मुझे दिया गया है (ये ग़लती है) बल्कि ये तो एक परीक्षा है मगर उन में अक्सर नहीं जानते हैं। [39:49] जो लोग उनसे पहले थे वह भी ऐसी बातें बका करते थे फिर (जब हमारा अज़ाब आया) तो उनकी कारस्तानियाँ उनके कुछ भी काम न आईं। [39:50]
यह आयतें नाशुक्री करने वाले इंसानों की ख़ासियत के बारे में बताते हुए कहती हैं कि आम तौर पर इंसान कठिनाइयों और सख़्तियों के दौर में अल्लाह को याद करते और उसे पुकारते हैं। यह स्थिति अस्थायी होती है। जैसे ही उनकी मुश्किल दूर हुई वे अल्लाह को भूल जाते हैं और कहते हैं कि यह तो मेरे ज्ञान और महारत का नतीजा था कि मेरी कठिनाइंया दूर हो गईं और मैंने यह नेमतें और ख़ूबियां हासिल कीं।
क़ुरआन इन कम-ज़र्फ़ और आत्म मुग्ध लोगों के जवाब में कहता है कि जो कुछ तुम्हें दिया गया है वह तुम्हारी परीक्षा के लिए है ताकि यह पता चले कि अमल में तुम अल्लाह की नेमतों का शुक्र अदा करते हो या उसकी नेमतों पर नाशुक्री करते हो।
आयतें आगे कहती हैं कि इतिहास में पुराने समय से नेमतों के सिलसिले में यह रवैया रहा है। जो लोग दौलत या कोई पदवी हासिल करने में कामयाब हुए वह अल्लाह को भूल गए और उन्हें यह प्रतीत होने लगा कि उन्होंने सब कुछ अपनी क्षमता और महारत से हासिल किया है और यही परलोक में भी उनके लिए पर्याप्त होगी। जबकि उन्होंने जो कुछ हासिल किया है वह न तो दुनिया में अल्लाह के इरादे के सामने टिक सकता है और न ही आख़ेरत में उनके बारे में अल्लाह के फ़ैसले को लागू होने से बचा सकेगा।
उन्हें उनके कर्म का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा।
इन आयतों से हमने सीखाः
सख़्तियों और कठोर घटनाओं के समय इंसान को अपनी कमज़ोरियों और ख़ामियों का पता चलता है। कठिनाइयों से इंसान की आंखें खुलती हैं और अल्लाह से लगाव रखने वाली प्रवृत्ति हरकत में आ जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि इंसान अल्लाह को पुकारता है और उसकी ओर उन्मुख हो जाता है।
इंसान की सुख-सुविधा उसे अल्लाह से ग़ाफ़िल कर देती है और उसे ग़ुरूर हो जाता है।
कठनाइयां और नेमतें दोनों ही चीज़ें इंसान की परीक्षा का ज़रिया हैं ताकि उसकी असली प्रवृत्ति सामने आए और शुक्रगुज़ार और नाशुक्रे इंसानों का अंतर ज़ाहिर हो जाए।
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