साहित्य

तो आपके पास इतने पैसे कहाँ से आ जाते हैं?…BY-रमेश पटेल ‘स्माइल’

Ramesh Patel
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बचपन से ही मुझे किताबें पढ़ने का शौक रहा है। मैं जब जूनियर हाईस्कूल में था तो इन तीन सालों में मैंने लगभग 40 पुस्तकें पढ़ डालीं थी। उस समय आस-पास कोई लाइब्रेरी भी नहीं हुआ करती थी। मैं अपने पास के मार्केट में जाया करता था तो वहीं से साहित्य की किताबें खरीद लाया करता था। मुझे हिन्दी साहित्य की कहानियां पढ़ने का बहुत शौक था। मुंशी प्रेमचंद की लगभग सारी कहानियों का दीवाना बन चुका था। एक ही दुकान से जब मैं किताबें खरीदता था तो एक दिन दुकानदार वाले काका ने कहा,”आप इन किताबों को करते क्या हो?” उन्हें लगा कि शायद कोई मंगाता हो तभी ये बराबर किताबें ले जाया करता है।
मैंने कहा,”मैं पढ़ता हूं।
– ” अच्छा फिर पढ़ने के बाद?”
-“पढ़ने के बाद घर की दीवार पर रख देता हूँ।
– “क्यों?”
-“क्योंकि किताबें रखने के लिए कोई जगह ही नहीं है और एक मामा जी ने पेटी दिया था वो पहले ही भर चुकी है।”
-“इस तरह तो किताबें ख़राब हो जाती होंगी?”
-“नहीं, क्योंकि दीवार भले मिट्टी की है उसे अच्छे से साफ़ करके और सहेज कर रखते हैं। दीवार के ऊपर छप्पर भी तो है न?
-“अच्छा,आपको पैसे कौन देता है?”
-“कोई नहीं।”
-“तो आपके पास इतने पैसे कहाँ से आ जाते हैं?”
-“सब्जी बेचता हूँ, वहीं से कुछ पैसे बचाता हूँ और उसी पैसे से आपसे किताबें खरीदता हूँ।”
-“और आपके माता-पिता कुछ नहीं कहते?” आश्चर्य प्रकट करते हुए काका जी बोले।
-“नहीं, कुछ नहीं कहते।”
-“क्यों?”
-“क्यों क्या काका? अब मैं आपको क्या- क्या बताऊं ?” मैंने हंसते हुए कहा।
-“वही जो मैं पूछ रहा हूं।” मुस्कराते हुए उन्होंने आगे बोलने के लिए मेरी ओर निगाह किए।
-” देखिए काका! मेरे माता- पिता पढ़ने के लिए कभी मना नहीं किये, हमेशा से ही वो मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। प्यार भी ख़ूब करते हैं ये बात अलग है कि कभी-कभार कूट भी देते हैं;लेकिन कूटते तब हैं जब मैं कोई ग़लती करता हूँ।” इतना कहते हुए मैं हंसने लगता हूं।
दुकानदार वाले काका मेरी इस बात से सोच में पड़ गए कि अजीब लड़का है और इससे अजीब तो इसकी दास्तान है। अन्ततः मुझ पर वो तरस खाते हुए बोले,”देखो बेटा! तुम हर हफ़्ते कोई न कोई किताब ले ही जाते हो और तुम्हारे पास किताबें रखने के लिए कोई उचित जगह भी नहीं है। एक काम करोगे?”
-“हाँ बोलिये।”
-“देखो, आप इस प्रकार किताबें खरीदते हो तो हम आपसे पूरे पैसे लेते हैं और आप एकबार उस किताब को पढ़ लेते हो तो दोबारा उसे पढ़ते भी नहीं हो।”
“हां” मैंने हामी भरी।
उन्होंने कहा,”तो आप एक काम कीजिए,हम आपको दो किताबें दिया करेंगे और आप उसे एक हफ़्ते में पढ़कर मेरे पास ज़मा कर दिया करेंगे,आपका भी फ़ायदा हो जाएगा और हमारा भी और एक किताब के पीछे हम आपसे केवल 10₹ ही लिया करेंगें।”
अब ये सुनकर मेरा दिल खुशी से बाग़-बाग़ हो गया।मैं सोच रहा था कि वाह कितने अच्छे काका हैं जो मुझ पर विश्वास किये हैं। मैं उन्हें मन ही मन धन्यवाद दिया। मेरी आंखों में चमक थी कि अब खूब किताबें पढूंगा। तब से मैंने उनके यहाँ से 12वीं कक्षा तक लगभग 70 किताबें लाकर पढ़ी होंगी। कभी- कभी जब पैसा नहीं होता था तब भी वो किताबें दे दिया करते थे। आज भी उनकी याद आती है। उस समय उनका नाम भी हमें नहीं पता था और न ही मैंने कभी जानने की कोशिश ही की थी। क्योंकि मेरा केवल एक लक्ष्य था अधिक से अधिक पढ़ना। मैं 2014 के बाद से इलाहाबाद रहने लगा फिर गाज़ीपुर में पढ़ने गया। इसलिए जब से बाहर गया तब से दुकानदार वाले काका से संपर्क टूट गया और आज लगभग 10 साल हो गए हैं लेकिन वो काका तब से दिखे नहीं हैं।
आज अचानक ही काका की बरबस याद आ गई इसलिए लिखना ज़रूरी समझा। जल्द ही काका के बारे में पता लगाएंगे और फिर उनकी एक प्यारी सी तस्वीर आप सबके बीच साझा करेंगे।
दोस्तों, आज की ये स्मृति आपको कैसी लगी ज़रूर बताएं और हां पेज़ पर नए हों तो फॉलो करना न भूलें।
-रमेश पटेल ‘स्माइल’