साहित्य

तुम्हारे आस-पास रोशनी के समुंदर हैं….फिर मेरे दिये की लौ क्यों पसंद है तुम्हें!!

नक़ाब के पार
कल अपनी महफ़िल में बुलाया तुमने
मुस्कुराहट तो तुम्हारी संजीदा थी
पर किसी से मिलाया नहीं तुमने
जहां मैं खड़ी थी, वहां आए तुम
मगर मुझसे मिलने का वक़्त बनाया नहीं तुमने
आँखों के कोनों से क्यों देखते रहे मुझे पूरी शाम
लिखा तो तुम्हीं ने था ना इनविटेशन पर मेरा नाम
तुम्हें कोई मुश्किल ज़रूर है
मुझे जानना चाहते हो पर डरते हो
कितनी झिलमिल है तो तुम्हारे इर्द-गिर्द
फिर मुझसे मिलने का दिल क्यों करते हो
मुझे लगता है अमीरी की आदत है तुम्हें
फिर मेरी ग़रीबी क्यों पसंद है तुम्हें
तुम्हारे आस-पास रोशनी के समुंदर हैं
फिर मेरे दिये की लौ क्यों पसंद है तुम्हें
या तो मान लो
कि झूठी दिखावट में फंसे हुए हो
तुम भी दिल से मासूम ही रहे हो
की बात करते हो सँभले हुए गुलिस्तान की तरह,
मगर तुम भी मेरी तरह कांटों में उलझे गुलाब ही रहे हो
चलो कोई बात नहीं आ जाओ महल से नीचे
कोने में ही मेरा घर है
जहां वक़्त है, फ़ुरसत है और जहां माहोब्बत है
मैं आऊँगी तो पता नहीं नक़ाब उतार पाओ या नहीं
उस दोहरी ज़िंदगी से बाहर आ पाओ या नहीं
तो तुम ही कोशिश करो
अपने मन की सुनो
क्योंकि तुम इतने ऊँचे आसमाँ से
मेरे छोटे से मकान को
घूरते अच्छे नहीं लगते
अच्छे लगते तो हो मुझे तुम
पर बनावटी अच्छे नहीं लगते
सारे मुखोटे उतार के आओ
ये अटखेलियों के बाहर जो संजीदगी है तुम्हारी
उससे फ़क़्र से अपना के आओ
जवाब लाओ चाहे फिर सवाल लाओ
मलाल हैं तो मलाल लाओ
वरना ये महफ़िल और ये नकाब ही रहेंगे
तुम्हारे मेरे दरमियाँ, फ़ासलों के ये हिसाब ही रहेंगे
रेशम से धागे सा है वक़्त फ़िसल जाएगा
और ख़वाब ख़्वाब ही रहेंगे
शिखा