साहित्य

#तस्वीर_तेरी_दिल_में….By-मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा
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#तस्वीर_तेरी_दिल_में
इन दिनों facebook पर एक विशेष ढंग की आपत्ति जताई जा रही है, और वो है किसी भी post के साथ साझा की जा रही तस्वीर को लेकर…. कुछ समझदार लोग यह तर्क देते हैं कि post के साथ साझा की गई तस्वीर reach बढ़ाने या ज़्यादा likes और comments के लिए होती है, जबकि हम किसी की भी friend request में सबसे पहले उसकी तस्वीर ही देखते हैं…अच्छे से अच्छे लेख, बेहतरीन ग़ज़ल या कविताएं बिना पढ़े scroll कर दी जाती हैं और तस्वीर न लगाने के हिमायती भी यह हिमायत तस्वीर पर नज़रें ठिठका कर ही करते हैं, मुझे भी कई बार यह सलाह मिली है कि मैं अपने लेख या ग़ज़ल के साथ अपनी तस्वीर न लगाऊं ताकि कुछ बेहूदा लोगों के comments न आएं और साथ ही साथ मुझे अपने सुख़न की असली reach पता चले खैर मैं तो इस सलाह को हज़ार मुसीबतों के बावजूद नज़र अंदाज़ करती आई हूं।

लेकिन इस बात पर मुझे जानें क्यूं भारत का संविधान याद आ जाता है जिसमें एक राष्ट्र के रूप में धर्म निरपेक्षता साफ़–साफ़ रेखांकित है लेकिन पिछले दिनों पूरे देश ने आधे दिन का अवकाश लेकर जिस हर्षोल्लास से प्राण प्रतिष्ठा समारोह मनाया वो act सीधे–सीधे संवैधानिक धर्म निर्पेक्षता को नज़र अंदाज़ करता जान पड़ा यानि हमने अपनें ही संविधान की मूल भावना को नकारा वो भी बिना किसी हिचकिचाहट के बड़ी ख़ुशी बड़े उन्माद के साथ।

facebook पर photo लगाने वालों पर की जा रही आपत्ति भी facebook की मूल भावना को नज़र अंदाज़ करती जान पड़ती है, सोशल मीडिया का यह माध्यम ईजाद ही इसलिए किया गया था ताकि हम अपनें पुराने यार–दोस्तों, सहपाठियों और परिचितों को ढूंढ निकाले और उनसे फिर से राब्ता करें इसी के साथ कुछ नए दोस्त बनाएं और उनके साथ अपनें ग़म और ख़ुशी साझा करें, इसके लिए इकलौता ज़रिया तस्वीरें ही थी और हैं, फिर कालांतर में हमने इस platform को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया और अब हम अपने आप को हर ढंग से यहां अभिव्यक्त करने लगे हैं।

अब यहां कथा, लेख, शायरी , मनोविज्ञान, दर्शन, आध्यात्म, सिनेमा , नृत्य, गीत, अभिनय, धन, परिवार, शादी– ब्याह, जीवन –मरण शारीरिक सौष्ठव, यात्रा, गहने, कपड़े सब products की तरह साझा हो रहे हैं। अच्छी बात है यह नए ढंग का संचार माध्यम है और सबको हक़ है अपने हर गुण या अनुभव या जो भी वो ज़रूरी समझे उसको साझा करने का, पहले यह काम पत्र, पत्रिकाएं करते थे अब online platform करते हैं, मंशा और उद्देश्य दोनों समान है, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाना, फिर जब obituary तक में मृतात्मा की तस्वीर ज़रूरी है तो facebook post तो ज़िंदा लोगों की जगह है इसमें अपनी ही पोस्ट पर अपनी ही तस्वीर लगाने में क्या हिचकिचाना??? मुझे तो इन social media platforms की सबसे बड़ी खासियत यह लगती है कि यहां इतने मामूली से effort में इतने लोगों के बीच अपना हुनर साझा करने की सुविधा है जो पहले कभी नहीं थी, आज acting, dancing, singing और लेखन के शौकीन मुंबई में किसी producer के break के इंतज़ार में बूढ़े नहीं हो रहें हैं न ही frustration में अपनी ज़िंदगी तबाह कर रहे हैं बल्कि वो जहां हैं वहीं से अपना हुनर साझा कर रहे हैं और मशहूर हो रहें हैं जिसकी चाहत हर कलाकार को कमोबेश होती ही है।

दरअस्ल वजह तस्वीर नहीं है वजह हमारी दोहरी मानसिकता है हम गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज़ करने वाले लोग हैं , हम by default hypocrites हैं, हम देखना चाहते हुए भी देखना नहीं चाहते … हमने एक छद्म नैतिकता ओढ़ रखी है, जिसकी आड़ में हमारी कुंठाएं पनपती हैं और समय –समय पर, फन उठाती है ज़हर उगलती है। ये ठीक ढंग नहीं है, दिल थोड़े बड़े कीजिए और दिमाग़ थोड़े और खोलिए फिर देखिए कमाल ….ये सारा संसार भीतर समाने लगेगा, फिर नज़र और नज़रिया दोनों को विस्तार मिलेगा जो कि मनुष्यता की अहम ज़रूरत है।ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।

मनस्वी अपर्णा