नई दिल्ली: तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एर्दोगान इस्लामी दुनिया में अपने आपको बेबाकी और निडरता के साथ पेश करते रहे हैं,जिसके कारण उन्हें हीरो समझा जाने लगा है,उम्मत मुस्लिमा का दर्द महसूस करने वाले एर्दोगान ने हर मौके पर अपनी उपस्तिथि दर्ज कराई है।
तय्यब एर्दोगान तुर्की के 12वें राष्ट्रपति हैं. उनकी खास बात ये है कि एर्दोवान बीते 16 वर्षों से कोई चुनाव नहीं हारे हैं. फिलवक्त वो मुस्तफा कमाल पाशा के सेक्युलर तुर्की को इस्लामिक तुर्की बनाने की ओर अग्रसर हैं।
एर्दोगान कई दफे ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया को फिर से कायम करने की बात कह चुके हैं. हाल ही में इस्तांबुल के इमाम खतीब में तहरीर करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर मुसलमान सब्र का दामन थामे रखते हैं तो वो फिर से तुर्की सम्राज्य को स्थापित कर सकते हैं. इसके लिए वो लगातार कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि मदीना में जिस तरह से मुसलमानों ने सब्र बनाए रखा और बदले में अल्लाह ने उन्हें मक्का फ़तेह का इमान अता किया, ठीक उसी तरह इस वक्त भी सब्र की जरूरत है।
आज के दौर में एर्दोगान लगभग पूरे मुस्लिम उम्माह के सुप्रीम लीडर बन चुके हैं. पूरी दुनिया की मुस्लिम आवाम उन्हें उम्मीद भरी निगाहों से देखती है. यही वजह है कि आज वो मुसलमानों में सबसे मशहूर हैं. कुछ मौलवियों ने तो उन्हें ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया का अगला ख़लीफ़ा भी मान लिया है.
एर्दोवान अपनी तहरीरों में कई बार इजरायल और म्यांमार के ख़िलाफ़ अाक्रामक रवैया इख़्तियार कर चुके हैं. फिलिस्तीन और रोहिंग्या जैसे संवेदनशील मसले पर वो काफी सक्रिय नज़र आते हैं. जब भी मौका मिलता है वो दुनिया के सामने खुद को इकलौते इस्लामिक लीडर को तौर पर पेश करते हैं.
एर्दोगान का सियासी सफ़र
रजब तय्यब एर्दोगान का जन्म 1954 को तुर्की के इस्तांबुल शहर में हुआ. तुर्की के राष्ट्रपति बनने से पहले वो 1994 से 1998 तक इस्तांबुल के मेयर और 2003 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर चुके हैं. 2002, 2007 और 2011 के आम चुनावों में उन्होंने अपनी पार्टी ‘AKP’ को कामयाबी दिलाने में बड़ा किरदार निभाया था. तब वो तुर्की के राष्ट्रपति नहीं बने थे. ‘AKP’ का पूरा नाम ‘जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी’ (अदालत-वे-कलकिंसी पार्टी) है. इस पार्टी की पहचान तुर्की में इस्लामिक सियासी जमात के तौर पर होती है।
‘AKP’ से पहले एर्दोवान ‘इस्लामिस्ट वेलफेयर पार्टी’ के नेता थे. 1994 में वो इसा पार्टी से जीतकर इस्तांबुल के मेयर भी बने. 1998 में उन्हें इस्लामिक तहरीर देने और सेक्युलर ढांचे को कमजोर करने के जुर्म में चार महीने तक की कैद में रखा गया था. साल 2001 ने एक नए सियासी पारी की शुरुआत की और अपनी पार्टी ‘AKP’ की नींव रखी।
एर्दोवान ने अप्रैल 2017 में नए संविधान को लेकर तुर्की में जनमत संग्रह कराया था. साथ ही अपने अवाम के बीच नए संविधान को लेकर सहमति बनाने में कामयाबी हासिल की थी. इस फैसले को लेकर वहां के सेक्युलर और लिबरल तबके ने एर्दोवान का पुरजोर विरोध किया था.
पिछले महीने हुए तुर्की के राष्ट्रपति चुनाव में रेचेप तय्यप एर्दोवान को पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई. साथ ही वे दूसरी बार तुर्की के राष्ट्रपति बन गए. वो भी ऐसे वक्त जब एर्दोवान बीते साल तुर्की के संविधान में काफी तब्दीली ला चुके हैं. एर्दोवान ने तुर्की में प्रधानमंत्री के पद को खत्म कर दिया, साथ ही राष्ट्रपति की ताकतें बढ़ा दी है.
चुनाव को लेकर विपक्ष एर्दोवान पर तानाशाही से सत्ता हथियाने का आरोप रहा है, लेकिन इसके साथ ही सत्ता पर एर्दोवान की पकड़ दिनों-दिन मजबूत होती जा रही है. पिछले 15 सालों से वे ही सत्ता पर लगातार काबिज़ हैं. जबकि उनके मुख़ालिफ़ों का कहना है कि वे जम्हूरी हक़ूक़ की लड़ाई लड़ते रहेंगे।
सत्ता के तानाशाही निज़ाम की वजह से लोग लाखों की संख्या में दूसरे देशों की तरफ पलायन कर रहे हैं. जिसमें सबसे बड़ी संख्या पत्रकारों, सिविल सोसाइटी से जुड़े लोगों की और अल्पसंख्यकों की है. ज़ाहिर है कि तुर्की का बौद्धिक तबका नाखुश है. तुर्की की फौज़ और कट्टरपंथियों की तरफ से लगातार अल्पसंख्यक कुर्दों को निशाना बनाया जा रहा है. उनके ऊपर गोले-बारूद दागे जाते हैं. उनके ख़िलाफ़ जातीय हिंसा चरम पर है, जिस वजह से उन्हें तुर्की छोड़कर दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर रहना पड़ रहा है.
एर्दोवान ने अपने नए संविधान के तहत तुर्की की न्यायपालिका को पूरी तरह से अपने कब्ज़े में ले लिया है. नए संविधान के मुताबिक न्यायाधीशों और सरकारी वकीलों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के ही पास होगा. जबकि पहले ये अधिकार वरिष्ठ जजों की टीम के पास होता था. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए एर्दोवान ने तुर्की की न्यायिक व्यवस्था पर भी पूरी तरह से नकेल कस दी है।