साहित्य

——#टॉयलेट, एक प्रेम कथा ——-By-रविंद्र कांत त्यागी

Ravindra Kant Tyagi

From Ghaziabad, India
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—————— टॉयलेट, एक प्रेम कथा ——————
“चच्चा … ओ चच्चा मिया, सुनरिये हो क्या. अरे गजब हो गया चच्चा. वो जो तुमने मेरा घर बसाया था न छः मीने पैले. मलूक सी खातून दिलवाई थी, छत्तीस गढ़ की जाने बंगालन, उसे रफीक मसक्का ले उड़ा है”.
एक पैंतालीस साल के रंगे बाल, खिचड़ी दाढ़ी और पान में सने होंठ वाले खलीफा चैक का तहमद और जालीदार बनियान पहने आँख मींडते बहार निकले और अलसाये से बोले” अबे कल्लन कौन सा पहाड़ टूट पड़ा सरपर सुबेरे सुबेरे जो हल्ला काट रिया है”.
“चच्चा, मेरी बीवी रफीक सक्का के घर घुसी बैठी है. सरेआम रफीक ने मेरी जोरू को उड़ा लिया है चच्चा. मैं गया था अपनी लुगाई मांगने तो सुसरा लाठी लिए दरवाजे पर बैठा घुड़की दे रिया है. बोलता है जिसमें दम हो ले जाओ”.
“अबे बावले ऐसे कैसे रख लेगा तेरी बीवी को. छः बरस से बोल रखा था मेवाती हलीम को तब तो उसने चालीस हजार में ये मरघिल्लड़ सी लोंड़िया लाकर दी. अमा बाकायदा शरीयत के हिसाब से मजहब बदलवाया, निकाह करवाया तुझसै … फिर ऐसे कैसे रख लेगा. अरै गाँव समाज है, दीन है और … पंचायत क्या मर गई है”.
मदरसे में शाम को दीनी पंचायत का जुड़गुड़ा जमा हुआ. खलीफा अब्दुल गफ्फूर, मौलवी जब्बार खां, इमाम सिराजुद्दीन, मोमीन दरजी और चच्चा दीनू के साथ भतीजे कल्लन. सब मिलकर सक्का रफीक का इंतज़ार कर रहे थे.
एक घंटे बाद सक्का रफीक एक दुबली सी मटमैले से बुरखे में लिपटी पर्दानशीं के साथ पंचायत में नमूदार हुआ. वातावरण गंभीर हो गया. आखिर अदालत लगी थी.
“बता भाई रफीक, ये गुनाह तूने क्यों किया. कल्लन की बीवी को सरेआम अपने घर में बिठा रखा है. पता है न बिना निकाह इस्लाम में ये हराम है”.
“मैं ना लाया जी किसी को उठा – भगा कै. सुबह जंगल पानी गई थी. मैं तो बहार दातुन कर रिया था. बोली कल्लन से मेरी ना निभैगी. मैं तो तुम्हारे संग रहना चहुँ. अब बताओ, कोई पनाह मांगे तो उसे घर से निकाल दूँ. ये भी तो गुनाह है”.
पंचायत ने सवालिया निगाह से कल्लन की तरफ देखा. कल्लन नजरें चुरा रहा था. फिर धीरे से बोला “ऐसे कैसे रख लेगा जी. चालीस हजार दिए हैं मैंने मेवाती को”.
अब पंचायत ने रफीक की तरफ देखा.
“चालीस हजार दिए तो क्या हो गया. जब ऊ रहना ही नी चाती तो जोर जबरदस्ती थोड़े ही है. और छः महीने कल्लन का घर भी तो बसाया. बर्तन भांडे, हमबिस्तरी …”.
कुछ देर खामोशी रही. सभी एक दूसरे का मुँह देखते रहे. फिर रफीक सक्का कमर पर एक हाथ रखकर और दूसरा हवा में नाचकर बोला “हमारी तो पंचों से एक इल्तजा है जी. खातून सै ही पूछ लिया जावै अक वो किसली गैल रहना चावै”.
अब कल्लन मिया उखड़ गए। “मुफ्ती में ना मिली कहीं सै. दाम देके खरीदी है. फ़ोकट का माल है जो उस सै पूछ लो. अरे जंगल पानी (शौच) जाती बार जो देहली पर बैठकर फिल्मी गाने गा कै डोरे तू डालता था वो मुझे ना पता क्या. सरम ना आती. मेरी जोरू ही पटा ली बेसरम”.
“पर खातून की मर्जी भी मायने तो रखती है. अगर सब पंचों की राय होवै तो नूरी खातून से पूछ लिया जावै”.
दोनों फरीक नूरी बेगम के दोनों तरफ खड़े हो गए. पंचायत ने नूरी बेगम को फैसला लेने का हक़ दिया. कई मिनट शांति छाई रही.
खलीफा अब्दुल गफ्फूर ने सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए एक मुंसिफ मजिस्ट्रेट की सी गंभीरता से गुर्राती आवाज में दोबारा पुछा “अरे नूरी खातून, बताती क्यों नहीं है. तू दोनों मैं किसके साथ रहना चाहती है”.
कई पल सांस रोके पूरी पंचायत नूरी के निर्णय की प्रतीक्षा करती रही। अंत में नूरी ने बुरखे में लिपटा हुआ हाथ धीरे से रफीक की तरफ उठा दिया. रफीक तो उछल पड़ा और उत्साहित होकर बोला “हो गया जी फैसला. नूरी मेरी हुई. अब तो ले जा सकूं जी मैं इसे अपने घर”.
“अब्बा का माल है. घर ले जा सकूं. कोई मुर्गी ना है कि तेरे घर मेँ आ बड़ी तो तू हलाल कर कै हांडी पका लेगा. अबे मेरे चालीस हज्जार क्या तेरा अब्बा देवैगा”.
रफीक वहीं रुक गया. पंचायत में एक बार फिर गुतगू चालू हुई. गंभीर मंत्रणा में कई मिनट गुजर गए. तीनो फ़रीक़ों को अलग जाने को कहा गया. तीनो की धड़कने तेज हो गई थीं. अंत में मौलवी जब्बार खां ने हुक्के में एक लम्बा कश लिया. एक बार गाला साफ़ किया और फैसला सुनाया.
“देखो भई, जीती जागती औरत है. कोई जिंस तो है नहीं कि इसने लिया उसने दिया. मजहब और दीन नाम की भी कोई चीज होवै है”. फिर एक पौज लिया और हुक्के में एक कश और लगाया .
“अब ये तो पक्का है कि नूरी कल्लन के साथ रहना नी चाहती. तो बेहतर ये होगा कि कल्लन उसे यहीं इसी पंचायत में तीन बार तलाक बोलकर मामला ख़तम करे. ये बात भी पक्की है कि कल्लन ने रकम खर्च की है सो रफीक सक्के को रुपये चालीस हज्जार हर्जाने के रूप में कल्लन को देने पड़ेंगे”.
रफीक मिया बीच में ही गरज उठे “अब नाइंसाफी होरी जी मेरी गैल. चालीस में खरीदी तो क्या हुआ, छः महीने राखी भी तो. इत्ते दिनों बाद भी चालीस की …”.
काफी जिद्दोजहद के बाद सौदा तीस हजार में तय पाया गया. उसी समय मदरसे में तलाक और निकाह की रस्म पूरी हुई.
उदास निराश कल्लन बाहर जाते हुए बुदबुदा रहा था “गोरमिंट नै तो भतेरी कही शौचालय बनवाने कू. बनवा लेता तो आज बेरुआबिरान (बर्बाद) ना होना पड़ता”.
रविंद्र कांत त्यागी