साहित्य

टुनटुन बाबु की कहानी !!अपने ज़िले की राजधानी का नाम बताइये!!

टुनटुन बाबु की कहानी !!
टुनटुन बाबु – गाँव के सबसे बड़े गृहस्थ के एकलौते बेटे ! कहते हैं – इनके यहाँ १९०७ से ही गाड़ी है ! सन १९५२ से ही रसियन ट्रेक्टर और अशोक लेलैंड की ट्रक ! जम के ईख की खेती होती ! खुद परिवार वालों को नहीं पता की कितनी ज़मीन होगी ! इलाके में नाम ! गांव बोले तो ‘टुनटुन बाबु’ के बाबा के नाम से ही जाना जाता था !

मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज से बी ए फिर एम ए पास करने के बाद – जब सभी दोस्त ‘दिल्ली’ जा कर ‘कलक्टर’ की तैयारी करने लगे तो ‘टुनटुन बाबु’ को भी मन किया ! अब बाबा और बाबु जी को बोले तो कैसे बोलें ? माँ को बोला – ‘दिल्ली’ जाना चाहता हूँ ! माँ ने बाबु जी को बोला – बाबु जी ने बाबा को बोला ! ‘कलक्टर’ बनने के नाम से इजाजत मिल गयी – पर् शर्त यह की – डेरा अलग लिया जायेगा – एक रसोइया साथ में रहेगा और एक नौकर भी !

दिल्ली के मुखर्जी नगर में डेरा हो गया ! गाँव से ‘मैनेजर’ जी आये थे – साथ में चावल -आटा – घी – करुआ तेल – शुद्ध खोवा का पेडा ! देखते देखते ढेर सारे ‘दोस्त’ बन गए ! सुबह उनके डेरा पर् दोस्त जमा हो जाते – गरम गरम पराठा और भुजिया खाने ! “टुनटुन बाबु’ को काहे को पढने में मन लगता 🙂 कई दोस्त उनका ही खा कर ‘कलक्टर’ बन निकल पड़े 🙂 कई पत्रकारिता की तरफ तो कई एक्सपोर्ट हॉउस में , कुछ एक वकील भी ! ३ साल बाद टुनटुन बाबु वापस लौट गए – गाँव ! जो गाँव के दोस्त थे – उनसे ‘दिल्ली’ का गप्प होता – वहाँ ये किया – वहाँ वो किया – हाव भाव भी बदले हुए !
शादी तय हो गयी ! तिलक के दिन – पूरा इलाका आया था ! टुनटुन बाबु के कई दोस्त भी ! लडकी वाले ने सिर्फ ‘चांदी’ का सामान चढ़ाया था ! कई ‘कलक्टर’ दोस्त भी आये थे – उनलोगों को ठहरने का अलग इंतज़ाम ! सब भौचक्क थे ! टुनटुन को इतना तिलक कैसे मिल रहा है ।

शादी के बाद – पहला होली आया ! माँ के कहने पर् १० दिन पहले ही ‘टुनटुन बाबु’ ससुराल पहुँच गए ! साथ में एक मुट्ठी बांध कर पनामा सिगरेट धुकने वाला एक मुंशी भी , एक नौकर भी ! हर रोज तरह तरह के पकवान बनते ! घर के सबसे छोटे दामाद थे – पूरा आवभगत हुआ ! होली के २ दिन पहले और भी बड़े ‘साढू-जेठ्सर’ आ गए ! कोई कहीं कैप्टन तो कोई कहीं अफसर ! पत्नी का जोर था – ‘जीजा जी’ लोग से मिक्स क्यों नहीं करते ? पत्नी के दबाब में – “टुनटुन बाबु” अपने साढू भाई लोग से गपिआने लगे ! कोई बंगलौर का कहानी सुनाता तो कोई दिल्ली का ! बात – बात में वो सभी अपनी ‘नौकरी’ के बारे में बात करते – और ‘चुभन’ टुनटुन बाबु को होती ! पत्नी भोलेपन में अपनी दीदी लोग के रहन सहन की बडाई कर देती ! होली का माहौल था ! सास सब समझ रही थीं ! छोटे दामाद की पीड़ा ! साढू भाई लोग की बोलियां और नौकरी की बडाई – टुनटुन बाबु के अंदर एक दूसरी होली जला दी थी ! खैर , पत्नी को मायके में छोड़ – होली के दो दिन बाद वो वापस अपने गाँव आ गए ! उदास थे ! सब कुछ था – पर् नौकरी नहीं थी ! अक्सर यह सोचते – नौकरी से क्या होता है ? पैसा ? पैसा से क्या ? घर – जमीन जायदाद ? परेशान हो गए ! सब कुछ तो पहले से था ही ।

जब परेशानी बढ़ गयी तो – माँ को बोले – मै नौकरी करने ‘दिल्ली’ जाना चाहता हूँ ! माँ ने बाबु जी को बोला – बाबु जी ने बाबा को बोला ! बाबा बोले – “क्या जरुरत है – नौकरी की ? हम गिरमिटिया मजदूर थोड़े ही हैं ? ” खैर किसी तरह इजाजत मिल गयी ! टुनटुन बाबु भी अपने एक दोस्त का पता ..पता किया ! पता चला की वो एक एक्सपोर्ट हॉउस में है – वो नौकरी दिलवा देगा !

जाने के दिन – माहौल थोडा अजीब हो गया ! माँ ने ‘अंचरा’ से कुछ हज़ार रुपये निकाल के दिए – बाबु जी से छुपा के दे रही हूँ ! जब दिक्कत होगा तो खर्च करना ! बाबु जी भी उदास थे …जाते वक्त ..’एक पाशमिना का शाल’ कंधे पर् डाल दिया ! बड़ा ही भावुक माहौल था ! जीप से स्टेशन तक आये ! ट्रेन पर् चढ ..दिल्ली पहुँच गए !

दिल्ली बदल चूका था – दोस्त बदल चुके थे ! इस बार ना तो रसोईया था और ना ही कोई नौकर ! कई ‘कलक्टर’ दोस्त जो दिल्ली में ही थे – सबको फोन लगाया – कुछ करो यार ! पहले तो सब हँसे – तुम और नौकरी ? जो पिछली बार तक इनके ‘पराठे – भुजिया’ खाने के लिए सुबह से ही इनके डेरा पर् जमे रहते थे – किसी ने घर तक नहीं बुलाया ! अंत में काम वही आया – एक्सपोर्ट हॉउस वाला – जिसको ‘टुनटुन बाबु’ कभी भाव नहीं दिए – अपनी शादी में भी नहीं बुलाया था ! एक सप्ताह में – नौकरी का इंतजाम हो गया ! एक दूसरे एक्सपोर्ट हॉउस में !

बड़ा मुश्किल था ! सुबह ८ बजे ही बस पकडो ! बस से ऑफिस पहुँचो ! फिर मैनेजर ! ढेर सारा काम ! बहस ! मालिक ! उफ्फ्फ्फ़ ! कभी कभी कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता ! पत्नी के साथ पटना में एक जूता ख़रीदे थे – वुडलैंड का ! अब वो जूता जबाब देने लगा ! माँ का भी दिया हुआ पैसा – खत्म होने के कगार पर् था ! सात तारीख को तनखाह मिलती !


सात तारीख आ गया ! मैनेजर ने बोला – कैश लोगे या चेक ! टुनटुन बाबु बोले – “कैश” ! ७ हज़ार रुपये ! कितने भारी थे ! माँ बाबु जी को याद किया ! बाबा को भी ! फिर ‘साढू भाई’ लोग याद आये 🙂
महंगे जूते खरीदने की हिम्मत नहीं हो रही थी – किसी तरह सब से सस्ता एक जूता ख़रीदा ! वैसा जूता उनके गाँव का उनका नौकर भी नहीं पहनता होगा !

अब घर याद आने लगा ! हर शाम वो बेचैन होने लगे ! मन में ख्याल आने लगा – कौन सा ‘सरकारी हाकीम” बन गया हूँ ! प्राइवेट नौकरी है ! जितना कमाएंगे नहीं – उससे ज्यादा तो गाँव में लूटा जायेगा ! ऐसी सोच हावी होने लगी ! एक दिन “सामान” पैक किया – मकानमालिक को कमरे का चावी पकडाया और स्टेशन की तरफ चल दिए !

आये थे – थ्री टायर एसी में ! वापसी जेनेरल में ! दिल्ली ने धक्कों से लड़ना सिखा दिया था ! सीट पकड़ ही ली ! सामने एक बुजुर्ग भी बैठे हुए थे ! ट्रेन खुल गयी !

अलीगढ में ट्रेन रुकी तो चाय वाला आया – चाय की कुछ बुँदे जुते पर् गिर गयी ! कंधे पर् रखे – “पाशमिना के शाल” से टुनटुन बाबु जूता पोंछने लगे ! फिर कुछ देर बाद एक – दो बार और पोछे !

सामने की सीट पर् बैठे – बुजुर्ग ने पूछा – “बेटा , इतने महंगे पाश्मीना शाल से इतने सस्ते “जूते” को क्यों पोंछ रहे हो ?

टुनटुन बाबु बोले – “ये कीमती पाश्मीना शाल – बाप दादा की कमाई का है और ये जूता भले ही सस्ता है – लेकिन “अपनी कमाई” का है 🙂
~ रंजन ऋतुराज – इंदिरापुरम / १०.०९.२०१०