नई दिल्ली:सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 24 साल पुराने अपने 1994 के फैसले को पुनर्विचार के लिये संविधान पीठ को भेजने से इनकार कर दिया है,जिसमें कहा गया था कि “मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अनिवार्य हिस्सा नही है
इसके साथ ही राजनैतिक रूप से संवेदनशील अयोध्या भूमि मालिकाना हक से संबंधित मुख्य विवाद पर शीर्ष अदालत के 29 अक्तूबर से सुनवाई करने का रास्ता साफ हो गया है। न्यायालय ने कहा कि पहले की टिप्पणी अयोध्या मामले पर सुनवाई के दौरान ‘भूमि अधिग्रहण के सीमित संदर्भ में की गई थी। शीर्ष अदालत ने 2-1 से बहुमत के फैसले में साफ कर दिया कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मालिकाना हक विवाद पर फैसला करने के लिये यह प्रासंगिक नहीं है। इस मामले में फैसले का 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले काफी उत्सुकता से इंतजार रहेगा।
मस्जिद में नमाज-कब क्या हुआ
1992 में 6 दिसंबर को अयोध्या में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया।
1993 में 7 जनवरी को केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर अयोध्या में 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया था। इसमें विवादित जमीन का 120 गुणा 80 फीट हिस्सा भी अधिग्रहित कर लिया गया था जिसे बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि परिसर कहा जाता है।
1993 में ही केंद्र सरकार के इसी फैसले को इस्माइल फारूकी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए अपनी याचिका में कहा था कि किसी धार्मिक स्थल का सरकार कैसे अधिग्रहण कर सकती है।
1994 में 24 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस्माइल फारूकी मामले में फैसला सुनाया कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। हालांकि रामजन्मभूमि के बारे में यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया।
बाद में इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दायर की गई। अयोध्या मामले के एक मूल वादी एम सिद्दीकी ने इस्माइल फारूकी के मामले में 1994 के फैसले के खास निष्कर्षों पर ऐतराज जताया।
2017 में 5 दिसंबर को अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने कहा कि नमाज पढ़ने का अधिकार है उसे बहाल करना चाहिए। नमाज अदा करना धार्मिक प्रैक्टिस है उससे वंचित नहीं किया जा सकता।
20 जुलाई 2018 को प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली एक पीठ ने इस मामले पर सभी पक्षों की बहस सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा था।