Rajendra Pandey
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. ‘ जाते हुए कौवे ‘
कौवा हमारी जिंदगी से जितना जुड़ा रहा, शायद ही कोई पशु, पक्षी उतना नजदीक से जुड़ा रहा हो । कौवा आंगन में बोले तो प्रिय के आगमन की सूचना है। लेकिन कई कौवे एक साथ रात मेंबोलें तो अशुभ है। कुछ अनहोनी की आशंका है l
लोक साहित्य में, बच्चे के हाथ से रोटी छीनते हुए, विरहिणी के दुख दर्द सुनते हुए, दुष्टों की चालो की काट निकालते हुए और खतरे से घिरे असहाय व्यक्ति की मदद करते हुए, काग के वृतांतों से लोक साहित्य भरा पड़ा है।
कौवा, कला संगीत और सौंदर्य का प्रतीक नहीं है। वह ना तो हंस की तरह, विद्या बुद्धि का प्रतीक है और ना ही मोर की तरह कला और सौंदर्य का प्रतीक है। वह कबूतर की तरह प्रेम और शांति का भी प्रतीक नहीं है।
वह कर्कश है। वह कुरूप है। सामान्य परिस्थितियों में वह अवांछित है। अग्राह्य है।
लेकिन, हमारी कथाओं में, खतरे के समय हंस और मोर मदद करने नहीं आते। मोर- मोरनी आपस में, किसी संकट में पड़े व्यक्ति के बारे में बात नहीं करते। हंस- हंसिनी अपनी प्रेम भरी दुनिया में रहते हैं। वह कला साहित्य संगीत में उपस्थित रहते हैं लेकिन दुष्टों के बिछाए जाल में, प्रकृति से मिलने वाले कष्टों में, राक्षसों से सताए जाने पर ये काम नहीं आते।
ये काम आएंगे भी कैसे ? ये बेचारे खुद उनके द्वारा क्षत विक्षत कर दिए जाएंगे। इनको सुरक्षा चाहिए। इनको संरक्षण चाहिए। हंस को भी, मोर को भी।
लेकिन कौवे जो हर जगह नकारे जाते हैं, भगाए जाते हैं, वही हमारी तन्हाई में हमारे अकेलेपन में हमारे संकट में हमारी परेशानियों में मौजूद रहते हैं।
मुंडेर पर बोलता हुआ कागा। देर तक बोले तो किसी के आगमन की सूचना। खास तरीके से बोले तो आंगन में पड़े तिनके को उठा कर वित्ता अंगुल से नाप लिया। नाप से पता चलता था कि कौवा क्या कह रहा है? क्या कहना चाह रहा है? क्या संदेश दे रहा है? किसके आगमन की सूचना दे रहा है?
कौवा हमारे जीवन के हर पक्ष का साक्षी था। हमारे संकट का, हमारे प्रेम का, हमारे क्रोध का, हमारे बाल्यावस्था का।
आदमी बहुत देर तक अकेले नहीं रह पाता। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, लेकिन इसके बावजूद उसकी इतनी भावनाएं हैं, इतनी विवशताएं हैं, इतने कॉम्प्लिकेशंस है, कि उसको अपने भावनाओं के समाशोधन के लिए, मौन संवाद के लिए, उसको पशु पक्षियों जैसे चेतन ही नहीं वल्कि अचेतन पदार्थों के पास भी जाना पड़ता है।
विरहनी जो सब से नहीं कह पाती वह कौवे से कहती है। टूटा हुआ, उदास या एकान्तिक व्यक्ति, चांद तारों से बाते करता है। हम अपने अत्यंत प्रिय को जो इस दुनिया को असमय छोड़कर चले जाते हैं, उनको अंतरिक्ष के तारामंडल में एक स्थान देते है। तारों भरी रात में अपनी अथाह वेदना के संदर्भ में उनसे मौन संवाद स्थापित करते है।
कौवे जीवन से जा रहे हैं। लगभग लगभग जा चुके हैं। लेकिन कौवा की जगह पर कोई आ नहीं रहा है। हमारी जिंदगी में इसका जैसा कोई दूसरा प्रतीक भी नहीं है।
एक कमजोर सा, चुका हुआ, घर के दरवाजे पर बैठा हुआ व्यक्ति। रह – रह कर क्रोधित होना, जिसके अस्तित्व के लिए जरूरी है। वह कौवो पर हल्ला बोल देता है। डंडा या छोटा सा ‘खपटा’ लेकर जोर से चिल्लाता हुआ वह कौवों को दौड़ाता है। उसके चिल्लाहट का सुनाई पड़ना, रोजमर्रा का हिस्सा होता था। कौवे, एक झल्लाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को भी, झल्लाने का अवसर देते थे।
प्रेमिका, पिया के बिरह में प्राण त्यागने के बाद भी पिया को देखने के लिए वह अपने आंखों को सुरक्षित रहने के लिए कौवे से कहती है…
कागा सब तन खाइयो , चुन चुन खाईयो मांस।
दो नैना मत खाइयो, इन्हे पिया मिलन की आश।।
वह दो नैना छोड़ देना पिया मिलन की आस लगी है । मरने के बाद भी वह दो नैना मत खाना इसके लिए वह कौवे से कहती है । सियार से नहीं कहती। गिद्ध से भी नही कहती। अपने प्रतीक के लिए लोक ने जितना कौवे को गढ़ा है, उतना किसी को नहीं गढ़ा है ।
और ऐसा अकारण नहीं है। हर अवसर पर कौवा हमारे साथ रहता था। वे आपसे बहुत नही डरते थे, आपके पास तक चले आते थे । वे हमारे और हमारे परिवार का ‘नेचर’ जान लेते थे कि इस घर के लोग मारते-पीटते नहीं है, वे जानबूझकर के निशाना साध के नहीं मारते कि चोट लगे, तो कौवे आपके आने पर भी नहीं भागते थे। वे ढिटाई से अड़े रहते थे।आपके ‘हड़ाने’ पर भी नहीं उड़ते थे।
आप उनको इतना नहीं समझते थे जितना वह आपको समझते थे। कौवा साहित्य में भी रचा था और ज़िंदगी में भी रचा था। लेकिन इनका धीरे धीरे लुप्त होना अफसोसजनक है।
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श्राद्ध पर्व में अब आपको कौवे की चिंता नहीं होगी। कौवे वाले को फोन करो कौवा लेकर आपके घर पर आ जाएगा केवल ₹50 में , केवल यही धंधा बाकी था।😅🤣 pic.twitter.com/a0X9MHFhMy— Nagendra Shukla INC #india (@NagendraShukl17) September 12, 2020
Madhup Hindustani
@MadhupGarg
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May 3
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