विशेष

”ज़िंदगी में एक दरव़ाजा बंद होता है, तो दूसरे कई खुल जाते हैं”

Harish Yadav ·
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बेटा-बहु अपने बैडरूम में बातें कर रहे थे, द्वार खुला होने के कारण उनकी आवाजें बाहर कमरे में बैठी माँ को भी सुनाई दे रहीं थीं।
बेटा—” अपने job के कारण हम माँ का ध्यान नहीं रख पाएँगे, उनकी देखभाल कौन करेगा ?
क्यूँ ना, उन्हें वृद्धाश्रम में दाखिल करा दें, वहाँ उनकी देखभाल भी होगी और हम भी कभी कभी उनसे मिलते रहेंगे। “
बेटे की बात पर बहु ने जो कहा, उसे सुनकर माँ की आँखों में आँसू आ गए।

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बहु—” पैसे कमाने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है जी, लेकिन माँ का आशीष जितना भी मिले, वो कम है। उनके लिए पैसों से ज्यादा हमारा संग-साथ जरूरी है।
मैं अगर job ना करूँ तो कोई बहुत अधिक नुकसान नहीं होगा। मैं माँ के साथ रहूँगी।

घर पर tution पढ़ाऊँगी, इससे माँ की देखभाल भी कर पाऊँगी। याद करो, तुम्हारे बचपन में ही तुम्हारे पिता नहीं रहे और घरेलू काम धाम करके तुम्हारी माँ ने तुम्हारा पालन पोषण किया, तुम्हें पढ़ाया लिखाया, काबिल बनाया।

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तब उन्होंने कभी भी पड़ोसन के पास तक नहीं  छोड़ा, कारण तुम्हारी देखभाल कोई दूसरा अच्छी तरह नहीं करेगा,
और तुम आज ऐंसा बोल रहे हो।

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तुम कुछ भी कहो, लेकिन माँ हमारे ही पास रहेंगी, हमेशा, अंत तक। “
बहु की उपरोक्त बातें सुन, माँ रोने लगती है और रोती हुई ही, पूजा घर में पहुँचती है।
ईश्वर के सामने खड़े होकर माँ उनका आभार मानती है और उनसे कहती है—” भगवान, तुमने मुझे बेटी नहीं दी, इस वजह से कितनी ही बार मैं तुम्हे भला बुरा कहती रहती थी, लेकिन ऐंसी भाग्यलक्ष्मी देने के लिए तुम्हारा आभार मैं किस तरह मानूँ…? ऐंसी बहु पाकर, मेरा तो जीवन सफल हो गया, प्रभु।

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हमारी कहानियाँ
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सम्भोग एक स्त्री के शरीर को पूर्ण करता हैं सही उम्र में यदि संभोग ना हो तो एक स्त्री का शरीर उभर नहीं पता, क्यों की रति क्रिया के समय जब एक महिला संतुष्टि की प्राप्ति करती है तब उसके शरीर में कुछ ऐसे हार्मोन बनते हैं जो मासिक धर्म की समस्या चेहरे को चमक उदर समस्या का भी भी समाधान करते हैं

कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी उम्र केवल 23 साल थी। मेरे पापा और चाचा मेरे लिए एक अच्छा रिश्ता ढूंढने में जुटे थे। कई रिश्ते आए, लेकिन हर बार सरकारी नौकरी न होने का तर्क देकर उन्हें ठुकरा दिया गया। मां घर पर तरह-तरह के टोटके करतीं, ताकि मेरी शादी जल्दी हो जाए।

एक दिन मैंने मां से कहा, “मां, इन टोटकों से क्या होगा? जहां शादी होनी होगी, वहीं होगी।”

मां ने गुस्से में जवाब दिया, “तुम चुप रहो। शादी-ब्याह अपने समय से ही होते हैं।”

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छह महीने के बाद, एक लड़का मिला। वह सरकारी विभाग में नौकरी करता था और उसकी उम्र 37 साल थी। मुझसे 14 साल बड़ा। उसकी सरकारी नौकरी देखकर पापा और चाचा ने तुरंत हां कर दी। मां ने भी हामी भर दी। मुझसे इस बारे में कोई राय नहीं ली गई।

लड़के वालों ने मुझे देखने के लिए घर बुलाया। उन्होंने मुझे पसंद कर लिया। मैं उनकी उम्र देखकर असहज थी, लेकिन यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मुझे और लड़के को एक कमरे में अकेले बात करने का मौका दिया गया, लेकिन मैं कुछ नहीं पूछ पाई।

घर लौटने के बाद मैंने अपनी मां से कहा, “ये उम्र में मुझसे काफी बड़े हैं।”

मां ने डांटते हुए कहा, “इतना अंतर चलता है। सब कुछ ठीक रहेगा।”

मां-पापा की मर्जी को मैंने भगवान का आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर लिया। हमारी शादी हो गई। लेकिन शादी की पहली रात हमारे बीच कुछ नहीं हुआ। मैंने इसे थकावट या तनाव का कारण समझा।

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दो हफ्ते बीत गए, लेकिन हमारे बीच कोई अंतरंगता नहीं हुई। मैंने आखिरकार अपने पति से पूछा, “क्या मैं आपको पसंद नहीं हूं? आप मेरे करीब क्यों नहीं आते?”

उन्होंने कहा, “ऐसा कुछ नहीं है।”

मुझे हिम्मत जुटाकर खुद पहल करनी पड़ी। लेकिन जैसे ही हम संभोग करने वाले थे, उनकी स्थिति बिगड़ गई। वह शर्मिंदा होकर कमरे से बाहर चले गए।

कुछ दिनों बाद, मैंने उनसे डॉक्टर से मिलने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा, “मैं पिछले दो साल से इलाज करवा रहा हूं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।”

यह सुनकर मैं टूट गई। एक स्त्री के लिए शारीरिक सुख और मातृत्व का अनुभव बहुत महत्वपूर्ण होता है। धीरे-धीरे, हमारे रिश्ते में दूरी बढ़ने लगी।

जब मैं खुद डॉक्टर से मिली, तो पता चला कि उनके उम्रदराज होने और मानसिक तनाव के कारण उनकी कामेच्छा लगभग समाप्त हो चुकी थी। डॉक्टर ने बताया कि यह स्थिति अधिक उम्र के कारण होती है और इसमें सुधार की संभावना कम है।

मेरे लिए यह जीवन जीते जी मरने जैसा था। मेरे पति इंसान बहुत अच्छे थे और मुझसे प्यार भी करते थे। लेकिन हमारी शादी में वह अंतरंगता और खुशी नहीं थी जो एक स्वस्थ रिश्ते की नींव होती है।

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सरकारी नौकरी की चाहत ने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। आज मैं महसूस करती हूं कि अगर मैं अपने हमउम्र के लड़के से शादी करती, भले ही उसकी आय कम होती, लेकिन हमारा रिश्ता ज्यादा संतोषजनक होता।

सीख:
सिर्फ पैसे या सामाजिक प्रतिष्ठा को देखकर शादी करना सही नहीं है। माता-पिता को यह समझना चाहिए कि शादी के लिए सही उम्र और सही व्यक्ति का चयन जरूरी है। एक सफल और खुशहाल शादी के लिए भावनात्मक और शारीरिक तालमेल सबसे महत्वपूर्ण है।

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Harish Yadav ·
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“कल छुट्टी है, तो सब लोग रमा के यहां हो आते हैं. जब से यहां शिफ्ट हुए हैं, उधर जाना ही नहीं हो पाया है. जबकि वह दो बार मिलने आ गई है. हर बार आने का इतना आग्रह करती है…” माधव प्रकाशजी की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उनकी धर्मपत्नी माधवीजी भी उनके समर्थन में उतर आईं, “हां हां ज़रूर चलेंगे. यहां आने के बाद कहीं निकलना ही नहीं हो पा रहा है. इसी बहाने थोड़ा चेंज तो…” कहते-रहते उन्होंने जीभ काट ली, कहीं बेटी विभा को बुरा न लग जाए. विभा का यूपीएससी का रिजल्ट आए सप्ताह भर होने को था. इस बार भी कुछ नंबरों से उसे कोर ब्रांच मिलते-मिलते रह गई थी. तभी से घर में उदासी का आलम व्याप्त था. माधवीजी समझ रही थीं बहन के घर जाने का प्रस्ताव रखकर उनके पति इसी उदासीनता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए वे सहज तैयार हो गईं. लेकिन बेटे रोहन के समर्थन में कूद पड़ने की वजह दूसरी थी.

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नई-नई गाड़ी और नई-नई ड्राइविंग सीखने के कारण लॉन्ग ड्राइव के किसी भी प्रस्ताव पर उसकी प्रसन्नता फूटना स्वाभाविक था. द्रवित थी तो विभा, जो मन ही मन समझ रही थी कि पूरा परिवार उसके साथ है. उसे ख़ुश देखने को प्रयत्नरत है. मैं भी तो अपने परिवार के लिए ही कुछ बनकर दिखाना चाहती हूं. निसंदेह ज़िंदगी बेहतर होती है जब आप ख़ुश होते हैं, लेकिन तब बेहतरीन होती है जब आपकी वजह से लोग ख़ुश होते हैं. पर हर बार चूक जाती हूं. चलो बड़ी ख़ुशियां नहीं जुटा पा रही हूं, तो उनसे ये छोटी-छोटी ख़ुशियां भी क्यों छीनूं, इसलिए बुझे मन से उसने भी स्वीकृति दे दी.

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“दीप्ति आजकल क्या कर रही है मां?” विभा ने पूछा. “पहले तो पीओ आदि बैंक परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. कहीं हुआ नहीं, तो अब बीएड कर रही है.” विभा का मूड ठीक देख माधवीजी ने धीरे से अपने मन की बात रख दी. “तेरा जिस सबऑर्डिनेट सर्विस में चयन हुआ है, उसे ही ज्वाइन कर ले. सब अच्छी ही होती है.”

“उससे बेहतर ऑफर तो मुझे मेरी कोचिंगवाले दे रहे हैं. मैं तो वह भी नहीं स्वीकार रही.” विभा तुनक गई. “क्यों? अच्छा तो है. इतनी पढ़ाई की है, ज्ञान अर्जित किया है, तो उसे बांटकर ही ख़ुश हो ले.” मां ने फिर प्रयास किया. यदि फिर से परीक्षा देने का मन है और दिल्ली नहीं लौटना चाहती, तो राघवेंद्र से ही गाइडेंस ले ले. पिछली बार भी उसने तेरी कितनी मदद की थी.”

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“हां याद है, पर मां आप भूल रही हो, हम इधर सोसाइटी फ्लैट में शिफ्ट हो गए हैं. अब राघव भैया से कैसे रोज़-रोज़ मदद लूंगी? वे तो आमने-सामने बैठाकर दिन में दो बार तो इंटरव्यू की तैयारी ही करवा देते थे.” विभा पुराने घर, साथियों को याद कर मायूस हो गई, तो माधवीजी के भी घाव हरे हो गए. वे भी पुराने पुश्तैनी घर को कहां भूल पा रही थीं. वहां की अपनी सखियों को, चंदाबाई को, दिनभर आवाज़ लगाने वाले ठेलेवालों को! सच, हर चीज़ का कितना आराम था वहां! चंदाबाई बिना कहे ही ढेरों अतिरिक्त काम निपटा जाती. यहां तो गिनती की दो बाइयां आती हैं.

ज़रा सा पलंग के नीचे से झाडू लेने को कहो, तो हाथ झटक देंगी. सोसायटी में गिनी-चुनी दो दुकानें हैं. उनमें जो भी, जैसा भी सामान-सब्ज़ी मिल जाए, उससे काम चलाओ. माधव प्रकाशजी हर 10-15 दिनों में स्कूटर उठाकर शहर का एक चक्कर लगा आते. और जितना संभव हो, घर-गृहस्थी का सामान बटोर लाते. पर अक्सर कुछ ना कुछ ज़रूरी सामान छूट ही जाता. फिर दो-तीन चक्करों में सब लिफ्ट में लादकर ऊपर पहुंचाना पड़ता था.

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अपने पुराने संगी-साथी, सहूलियतों को लेकर उनके दिल में भी कसक उठती थी, पर मौन साधे रहते. इस आधुनिक साज-सज्जा और सुविधाओं युक्तफ्लैट में शिफ्ट होने का सुझाव तो उन्हीं का था. उनके दोस्त मनोज ने जब इस सोसायटी में फ्लैट लिया था, तब उन्हें भी उकसाया था.

“मेरे बिल्कुल बगल वाला फ्लैट खाली है. कब तक इस पुराने ढंग से बने पुश्तैनी घर में रहोगे? बिल्डर मेरी पहचान का है. फुली फर्निश्ड घर, वह भी इतने किफ़ायती दाम पर चिराग़ लेकर ढूंढ़ने निकलोगे तब भी नहीं मिलेगा. बस अपना-अपना सूटकेस उठाकर आना है. कुछ करने, लाने की ज़रूरत नहीं है. एकदम होटलनुमा घर और सोसायटी है. लंबा-चौड़ा पूल, सोसायटी गार्डन, थिएटर, मंदिर, जिम आदि देखकर माधवजी की आंखें खुली की खुली रह गई थीं. घरवाले विशेषतः दोनों बच्चे इतना आधुनिक घर पाकर कितने ख़ुश हो जाएंगे.

पत्नी, बच्चों को भी उन्होंने एक बार सोसायटी की विजिट करवाई और बस आनन-फानन में फ्लैट फाइनल कर शिफ्ट हो गए. पर दूर के ढोल सुहावने… कुछ ही दिनों में उन्हें एहसास हो गया कि बाहरी चकाचौंध के लालच में वे कई बेसिक सुख-सुविधाओं से वंचित हो गए हैं. हॉस्पिटल, बैंक, रिश्तेदारों के घर, किराना, सब्ज़ी पहले जहां कदमों के फ़ासले पर थे, अब मीलों के फ़ासले पर हो गए थे.

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सोसायटी का बड़ा सा पार्क और उसमें टहलते लोगों को देख माधवीजी ने सोचा था वह भी सैर का ख़ूब लुत्फ़ उठाएंगी. यहां तो पोर्च में ही सुबह-शाम चक्कर काट लेते हैं. पर अब उन्हें लगता है, वही ज़्यादा आसान था. सोसायटी पार्क में टहलना मतलब पहले ढंग के कपड़े पहनो, बालों में कंघी फिराओ, तब दस लोगों को विश करते हुए नीचे उतरो. दो चक्कर भी नहीं लग पाते कि कभी प्यास लग जाती, तो कभी वॉशरूम जाने के लिए फिर ऊपर आना पड़ता. उम्र का तकाज़ा था, बीच-बीच में सुस्ताना भी पड़ता था.

अब वे अंदर ही कुर्सियां इधर-उधर खिसका कर थोड़ा-बहुत टहल लेतीं. पति से बार-बार शिकायत कर उनका दिल नहीं दुखाना चाहती थीं. आख़िर शिफ्टिंग के इस निर्णय में उनकी भी तो सहमति थी. ज़िंदगी में कई बार हम ऐसे निर्णय ले लेते हैं कि फिर न उगलते बनता है, ना निगलते.

रोहन का कॉलेज, जो पहले एक किलोमीटर के फ़ासले पर था, अब छह किलोमीटर हो गया था. हालांकि जवानी के जोश में घर से बाइक पर निकलने के बाद एक किलोमीटर चलो या छह, क्या फ़र्क़ पड़ता है? वह मम्मी-पापा की चिंता को बेफ़िक्री में उड़ा देता. लेकिन हाईवे के हैवी ट्रैफिक और बेटे के एक्सीडेंट की चिंता पापा-मम्मी को हर पल व्याकुल किए रहती, जब तक कि वह सकुशल घर नहीं पहुंच जाता था.

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शुरू-शुरू में माधवजी को लगा था हर जगह के अपने फ़ायदे-नुक़सान होते हैं और समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा. पर अब जब से विभा दिल्ली से बोरिया-बिस्तर समेट कर लौटी है, व़क्त-बेव़क्त बात-बात में पुराने मकान की बात छिड़ ही जाती है और घाव फिर से रिसना आरंभ हो जाते हैं. माधवीजी दबे-छुपे शब्दों में अपनी पीड़ा बेटी से बांट लेतीं. “तुम्हारे पापा बेचारे मनोजजी के बहकावे में आ गए. ख़ुुद तो फ्लैट को ताला मार कर साल में आधे से ज़्यादा समय बेटों के पास विदेश रहते हैं. हमें तो निगरानी के लिए शिफ्ट करा गए हैं. चाबी अलग दे गए हैं, ताकि बाई जाकर उनके गमलों में पानी देती रहे और उनके आने के समय हम उनके घर की साफ़-सफ़ाई करवाकर तैयार रखें.”

माधवजी के कानों में फुसफुसाहट पड़ ही जाती और वे सोचने को मजबूर हो जाते. क्या सचमुच उनके दोस्त ने उन्हें बलि का बकरा बनाया है? लेकिन उसने तो मात्र सुझाया था, निर्णय तो उनका अपना ही था.
“आपको यहां से रमा दीदी के घर का रास्ता पता है जी? रास्ते में कोई दुकान हो, तो फल-मिठाई लेते चलेंगे.” रसोई से निकलती माधवीजी ने पुकारा, तो माधवजी की चेतना लौटी. वे कुछ बोलते, उससे पूर्व ही रोहन बोल पड़ा, “मैं दीप्ति दी से लोकेशन ले लूंगा.”

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“अरे, वह तो मुझे पता है. बी 12, अहिंसा सर्किल के पास…”
“पापा, वह एड्रेस है. मैंने मकान की लोकेशन मंगवाई है, जिसे हम ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम से ट्रैक करेंगे.” पति-पत्नी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे.
“अभी गाड़ी में बैठेंगे, तब मैं स्क्रीन पर दिखाऊंगा आपको. गूगल देवी साथ-साथ बोलती भी जाएगी कि आपको कितने आगे से किधर मुड़ना है?” दोनों को लगा रोहन मज़ाक कर रहा है, पर गाड़ी में बैठने के बाद सब कुछ वैसे ही होते देखा-सुना तो वे हैरान रह गए. उससे भी ज़्यादा हैरानी उन्हें यह देखकर हो रही थी कि दो-तीन बार किसी जुलूस के आ जाने से या सड़क टूटी होने से रोहन ने दूसरा रास्ता पकड़ा, तो भी गूगल न झल्लाई, न चिल्लाई. शांति और विनम्रता से पुनः उस जगह से संक्षिप्ततम रास्ता सुझाने लगी. मानो उसका एकमात्र उद्देश्य आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचाना है, चाहे आप कितनी भी ग़लतियां कर लें, कितने भी ग़लत रास्ते अख़्तियार कर लें.

लंबी राइड में सबको मज़ा आ रहा था. अब तो रास्ता भी पहचान वाला आना शुरू हो गया था. अचानक माधवजी ने एक मोड़ पर गाड़ी रुकवा दी.
“मुझे यहीं उतार दो. एक ज़रूरी काम याद आ गया है. तुम लोग आगे नाथू की दुकान से मिठाई लेकर पहुंचो. मैं थोड़ी देर में आ जाऊंगा.”
“अरे पर…” सब कहते ही रह गए, पर माधवजी तो गली में घुस नज़रों से ओझल हो गए थे.

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“चले गए होंगे किसी पुराने यार-दोस्त से मिलने. मुंह से नहीं बोलते, पर अंदर ही अंदर घुट तो रहे हैं. वहां नई सोसायटी में लोगों से पहचान हुई है, पर औपचारिक मात्र. यहां तो सब बचपन के दोस्त हैं.”
“मेरा भी फ्रेंड सर्कल यहीं रह गया.” रोहन ने आह भरी.
“मेरा भी.” विभा ने भी हां में हां मिलाई.
“जानती हूं, पर बार-बार कोंचने और अपनी-अपनी परेशानियां गिनाने से झल्लाने लगे थे तुम्हारे पापा! एक बार तो ग़ुस्से में फट ही पड़े थे, “उस व़क्त क्यों नहीं बोला कोई? मुंह में दही जमा था क्या? दिखाया तो था तुमको? पूछा तो था तीनों से?”

“हां, पर तब इतना कहां पता था.” रोहन बोला.
“वही तो, पर अब कुछ नहीं हो सकता.” माधवीजी ने निःश्‍वास छोड़ीे. विभा को सोच में डूबा देख उन्होंने डरते-डरते सुझाया, “एक बार दीप्ति से बात करना, वह कौन-कौन सी प्रतियोगी परीक्षाएं दे रही है. टीचिंग के साथ शायद आगे भी पढ़ने का इरादा है उसका.”

हमेशा ‘मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो’ की गुहार लगाने वाली विभा आज आश्‍चर्यजनक रूप से प्रत्युत्तर में शांत बनी रही.

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बुआ के यहां सभी को बहुत आनंद आया. अच्छा भोजन और अपने-अपने हमउम्र साथी के साथ सबका व़क्त अच्छा गुज़रा. दोस्त से मिलकर लौटे माधवजी भी पूरे समय बहुत अच्छे मूड में रहे.
लौटते समय माधवजी ने रोहन को फिर से जीपीएस चलाते देखा, तो बोल उठे, “एक जीपीएस यानी गुड प्लेज़ेंट सरप्राइज़ मेरे पास भी है. हम फिर से अपने पुराने घर में शिफ्ट हो सकते हैं अगर तुम लोग चाहो तो?”

“कैसे-कैसे?” तीनों का सम्मिलित स्वर गूंज उठा.
“मैं अपने दोस्त सुधाकर से मिलकर आया हूं. पता है ज़िंदगी का सबसे अच्छा पार्ट कौन सा है? जब आपका परिवार आपको दोस्त की तरह सपोर्ट करने लगे और आपका दोस्त आपको एक परिवार की तरह सपोर्ट करने लगे. सुधाकर, जो एक प्रॉपर्टी डीलर और ठेकेदार है, उसने हमारी सोसायटी के बिल्डर से बात की है. हमारे फ्लैट के लिए सुधाकर दूसरा ग्राहक ले आएगा. बदले में बिल्डर हमारा सारा पैसा लौटा देगा. हमारा पुराना मकान भी अभी ज्यों का त्यों है. उसका आगे सौदा नहीं हुआ है.

सुधाकर उसे रिनोवेट करवा देगा. मॉड्यूलर किचन, आधुनिक शैली के वॉशरूम आदि जो कुछ भी हमें चाहिए, सब करवा देगा. हमें अपनी पसंद का आधुनिक घर और पसंदीदा लोकेशन दोनों मिल जाएंगे.”

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“सच में?” तीनों आश्‍चर्यचकित थे.
“पर यह हुआ कैसे?”
“जीपीएस की प्रेरणा से! मैंने देखा ग़लत रास्ता चुन लेने पर भी गूगल न चिल्लाता है, ना हतोत्साहित करता है कि अब तुम कभी अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाओगे, बल्कि वहां पहुंचने का सबसे अच्छा रास्ता सुझाता जाता है. उसकी रुचि हमें लक्ष्य तक पहुंचाने में है. ना कि हमारी ग़लती के लिए हमें बुरा महसूस करवाने या मनोबल गिराने में. मुझे लगा हम भी अपनी निराशा, क्रोध एक-दूसरे पर न उतारकर समस्या को ठीक करने में परस्पर मदद करें. विशेषतः जो हमारे अपने हैं, जो हमारी परवाह करते हैं और जो हमारे लिए मायने रखते हैं, हम उनके गूगल मैप्स बनें. स्वयं को शांति और धैर्य के मोड पर रखें. चीज़ों को सृजनात्मक, सकारात्मक और सुंदर बनाएं. अपनों को सही राह दिखाकर उन्हें मंज़िल तक पहुंचने में मदद करें.”

“बिल्कुल ठीक पापा! मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूं. ठंडा पानी और गरम प्रेस कपड़ों की सारी सलवट निकाल देते हैं, वैसे ही ठंडा दिमाग़ और ऊर्जा से भरा दिल जीवन की सारी उलझन मिटा देते हैं. मैं दिल्ली जाकर अपने कोचिंग इंस्टिट्यूट का जॉब ऑफर स्वीकार कर लेती हूं. यूपीएससी के साथ-साथ अन्य पीएससी, बैंक प्रतियोगी परीक्षाएं भी देती रहूंगी.” विभा ने कहा, तो सबके चेहरे खिल उठे.

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“और तुझे सफलता न मिले तो भी कभी निराश मत होना. हम सब तुम्हारे साथ हैं.” ज़िंदगी में एक दरव़ाजा बंद होता है, तो दूसरे कई खुल जाते हैं.” माधवीजी ने प्रोत्साहित किया.
“जानती हूं आप सब मेरे जीपीएस हो. तभी तो यह कदम उठा रही हूं.” विभा ने सीट से उचककर बांहें फैलाकर सबको उसके घेरे में समेट लिया.

“अरे देखकर, नया-नया ड्राइवर हूं.” रोहन ने चुहल की, तो सभी खिलखिला उठे.
अच्छे और सच्चे संबंध ऐसे ही होते हैं. जहां सब एक-दूसरे का तकिया बन जाते हैं. यदि थक जाते हैं, तो उस पर सिर रखकर सुस्ता लेते हैं. उदास हैं, तो उसी पर आंसू बहा लेते हैं. ग़ुस्सा हैं, तो उस पर मुक्के बरसा लेते हैं और यदि ख़ुश हैं, तो बांहों में समेट लेते हैं.