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जर्मनी में धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों की लोकप्रियता बढ़ने से चिंतित वकील सुप्रीम कोर्ट को बचाने के लिए योजनाएं बना रहे हैं : रिपोर्ट

दुनियाभर में सत्तावादी सरकारें अपने यहां शीर्ष अदालतों की ताकत पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही हैं. जर्मनी में धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों की लोकप्रियता बढ़ने से चिंतित वकील सुप्रीम कोर्ट का भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं.

जर्मनी के वकील और राजनेता देश की सुप्रीम कोर्ट को सुरक्षित रखने के लिए योजनाएं बना रहे हैं. उन्हें डर है कि भविष्य में लोकतंत्र-विरोधी सरकारें शीर्ष अदालत को कमजोर कर सकती हैं. यूरोपीय संघ में शामिल पोलैंड और हंगरी में हुए विवादों ने उनकी चिंता बढ़ा दी है.

जर्मनी में धुर-दक्षिणपंथी पार्टी ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) को मिल रही सफलता ने लोगों का ध्यान इस ओर खींचा है. फिलहाल इस पार्टी को देशभर में 20 फीसदी वोट मिल रहे हैं. एएफडी के कई सदस्यों को खुफिया एजेंसियों ने संवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरा माना है.

जर्मन संसद का ऊपरी सदन बुंडेसराट, जर्मनी के 16 राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली संसदीय सभा है. इसने फरवरी की शुरुआत में 14 पन्नों का एक मसौदा कानून तैयार किया. इसका मकसद संघीय संवैधानिक अदालत को नियंत्रित करने वाले नियमों को संविधान में शामिल करवाना था, ताकि भविष्य की सरकारें उन्हें आसानी से ना बदल पाएं.

जर्मनी के संविधान को बेसिक लॉ भी कहा जाता है. इसके तीन अनुच्छेदों में बताया गया है कि संघीय संवैधानिक अदालत के 16 न्यायधीशों का चुनाव कैसे होगा. फिलहाल, जर्मन संसद के निचले सदल बुंडेस्टाग और ऊपरी सदन बुंडेसराट द्वारा आठ-आठ न्यायाधीशों को मनोनीत किया जाता है.

लेकिन कानून के नए मसौदे के मुताबिक, बेसिक लॉ में कई बड़ी खामियां हैं जिनसे न्यायालय की स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है. खासतौर पर यह पक्ष कि नए जजों की नियुक्त के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत नहीं है. जजों के कार्यकाल को लेकर कोई सीमा नहीं है. जजों के दोबारा चुने जाने पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है. ये सभी नियम केवल ‘संघीय संवैधानिक न्यायालय पर अधिनियम’ में निर्धारित हैं.

यह एक सामान्य कानून है, जिसे संसद में साधारण बहुमत होने पर भी बदला जा सकता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो कोई सत्तावादी सरकार भविष्य में आसानी से दो-तिहाई की सीमा को कम कर सकती है और अपने पसंदीदा जजों को नियुक्त कर सकती है.

जर्मन संसद के निचले सदल बुंडेस्टाग में लगभग एक तिहाई सांसद मिलकर नए जजों की नियुक्ति में अड़चन डाल सकते हैं. इससे संवैधानिक न्यायालय पूरी तरह ठप हो सकता है. बुंडेसराट का ड्राफ्ट लॉ इस संभावना को भी खत्म करना चाहता है.

पोलैंड से मिली चेतावनी
उलरिष कारपेंस्टीन पब्लिक लॉ के विशेषज्ञ और जर्मन बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष हैं. वह मानते हैं कि ये बदलाव जरूरी है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, “संवैधानिक अदालत, संसदीय अल्पसंख्यकों की ओर से आने वाली अड़चनों से सुरक्षित नहीं है. खासकर जब बात जजों के चुनाव की हो. यह बुंडेस्टाग के साधारण बहुमत से भी सुरक्षित नहीं है.”

कारपेंस्टीन आगे कहते हैं, “कोई भी तथाकथित कोर्ट पैकिंग को अंजाम दे सकता है. यानी, आसानी से अतिरिक्त जजों को नियुक्त कर सकता है या अतिरिक्त चैंबर बनाकर उनमें अपने पसंदीदा जजों को नियुक्त कर सकता है. इस स्थिति को बेहतर करने के कई तरीके हैं और इसके लिए कुछ करने की आम सहमति भी बन गई है.”

कील यूनिवर्सिटी में पब्लिक लॉ के वरिष्ठ शोधकर्ता श्टेफान मार्टिनी की सोच थोड़ी अलग है. वह कहते हैं, “भले ही सुधार काफी उचित लग सकते हैं, लेकिन कानून निर्माताओं को सावधानी बरतने की जरूरत है. बेसिक लॉ में संवैधानिक अदालत से जुड़े कुछ नियमों का लिखा जाना ठीक है, लेकिन मैं इसे बहुत ही बुनियादी नियमों तक सीमित रखना चाहूंगा.”

मार्टिनी को जजों के कार्यकाल की सीमा तय करने और उनकी दोबारा नियुक्ति रोकने से जुड़े नियम सही लगते हैं. लेकिन जजों की नियुक्ति के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत वाले नियम के बारे में उनकी राय बंटी हुई है. वह कहते हैं, “अगर आप ऐसा करते हैं, तो आपको संसदीय रुकावटों को दूर करने की भी व्यवस्था करनी होगी. इसका कोई सटीक समाधान नहीं है. अगर आप सरकार की किसी दूसरी शाखा या जजों के पैनल को यह जिम्मेदारी देंगे, तो भी लोकतांत्रिक वैधता कम होगी.”

हाल ही में पोलैंड में हुए न्यायिक सुधार संकट ने जर्मनी के कई वकीलों को सोचने पर मजबूर किया. वे जर्मनी की संवैधानिक अदालत को सुरक्षित रखने के तरीके तलाशने लगे.

पोलैंड के न्यायिक संकट की शुरुआत 2015 में हुई थी. तब देश की लॉ एंड जस्टिस (पीआईएस) पार्टी पर सत्ता में आने के बाद कोर्टपैकिंग के आरोप लगे थे. पीआईएस एक राष्ट्रवादी रूढ़िवादी पार्टी है. इसने संसद में पूर्ण बहुमत के जरिए संवैधानिक ट्राइब्यूनल का संचालन करने वाले नियमों में बदलाव कर दिया था. इसके अलावा अदालत में पांच नए जज भी नियुक्त किए थे. इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए थे.

2019 में पीआईएस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक नया चैंबर भी बना दिया था. इसे अनुशासनात्मक चैंबर नाम दिया गया. कानून में बदलाव कर सरकार को सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख को नियुक्त करने और बर्खास्त करने का भी अधिकार दे दिया गया. 2019 में यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस ने इन कानूनों को निरस्त कर दिया. कोर्ट ने कहा कि पोलैंड सरकार ने यूरोपीय संघ के कानून का उल्लंघन किया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर किया.

किस बात का डर सता रहा है
ऐसे संकट दूसरी जगह भी सामने आए हैं. हंगरी में 2013 में फिडेज पार्टी द्वारा किए गए सुधारों की भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई थी. आलोचकों का कहना था कि सुधारों ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बंटवारे को कमजोर किया.

पब्लिक लॉ के विशेषज्ञ कारपेंस्टीन कहते हैं, “संवैधानिक अदालत लोकतंत्र का केंद्र है. यह कानून के शासन के लिए भी जरूरी है ताकि स्वतंत्र चुनाव, शक्तियों के बंटवारे और मौलिक अधिकारों की रक्षा हो सके.”

वह आगे कहते हैं, “कल्पना कीजिए कि किसी सरकार का कार्यकाल खत्म होने पर हमारे सामने वैसी स्थिति पैदा हो जाए, जैसी अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और ब्राजील में पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के पद ना छोड़ने के चलते हुई थी. दूसरे शब्दों में कहें, तो अगर कोई चांसलर या राष्ट्रपति चुनाव हारने के बावजूद पद नहीं छोड़ता है और चुनावों को ही फर्जी बताता है. ऐसी स्थिति में एक अदालत की जरूरत होती है, जो इस मामले में फैसला करे.”

उधर, मार्टिनी चेतावनी देते हैं कि ऐसे कानून बनाना जिन्हें बदलना मुश्किल हो, हमेशा सही नहीं होता. वह कहते हैं, “जब एक गैर-उदारवादी सरकार चुनाव हार जाएगी और एक प्रगतिशील सरकार चुनकर आएगी, तो उन्हें भी नीतियों को वापस लाने के लिए बहुमत की जरूरत होगी. अगर कुछ नियमों को संविधान में शामिल कर दिया गया, तो ऐसा करना मुश्किल हो जाएगा.”

बुंडेसराट द्वारा प्रस्तावित सुधारों का पहले सभी सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट पार्टियों ने समर्थन किया था. हालांकि, संघीय न्याय मंत्री मार्को बुशमैन और बुंडेस्टाग में रूढ़िवादी विपक्षी पार्टियों के बीच हो रही बातचीत में रुकावट आती दिख रही है.

क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) के सांसद मार्टिन प्लम और वोल्कर उलरिष ने एक लेख लिखा था. इसमें उन्होंने लिखा कि वे संवैधानिक अदालत को संविधान में और मजबूती से शामिल करने के विचार पर सहमत थे. लेकिन वे इन सुधारों को बुनियादी चुनावी कानून में बदलाव से जोड़ना चाहते हैं. हालांकि, ऐसा करने से यह मामला कानूनी तौर और ज्यादा उलझ जाएगा.

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