अब दो दिन पहले एक नज़ारा सभी ने देखा जब भारत की नयी संसद में दो लोग अंदर पहुँच गए और वहां उन्होंने धुंआ के कैप्सूल से धुआं-धुआं कर दिया था, कुछ सांसदों ने अदम्य सहस का परिचय देते हुए उन दोनों लोगों को पकड़ लिया था, कुछ ने सामाजिक परंपरा का निर्वाह करते हुए उनकी धुनायी भी की, कुछ आदत और मौक़े की नज़ाकत देख कर बच के निकल गए थे तो कुछ सीना ताने ख़तरे के बावजूद जमे खड़े रहे
संसद में हुई घटना पर विपक्ष सत्ता पक्ष पर सुरक्षा को लेकर हमला कर रहा है, विपक्षी सांसद संसद में सवाल उठा रहे हैं, अध्यक्ष महोदय में 15 सांसदों को सदन से पूरे समय के लिए निलंबित कर दिया है, विपक्ष तानाशाही, हिटलरशाही जैसी बातें दोहरा रहा है,
हम पेश कर रहे हैं हिटलर के कुछ कारनामे
हिटलरशाही का उभार-मोदी के भारत से एक नज़र-राइकस्ताग में आगजनी ने तानाशाही की राह खोली
फ़रवरी के मध्य में यह अफवाह फैली कि हिटलर की हत्या के प्रयास का झूठा बहाना गढ़ कर नात्ज़ी खून की होली खेलने की योजना बना रहे हैं. ऐसे भयावह अराजक वातावरण में 27 फ़रवरी 1933 को खबर आयी कि राइकस्ताग में आग लग गयी है. हालांकि आग के कारणों का अभी पता लगाया जाना बाकी था, मगर गोएरिंग दहाड़ा “यह कम्युनिस्ट विद्रोह की शुरुवात है. अब वे हमला करेंगे. हाँ अब एक पल भी नहीं गवां सकते !” रुडोल्फ दिएल्स ने, जिसे गोएरिंग ने गेस्टापो का प्रमुख नामित किया था, बाद में याद किया : “हिटलर दहाड़ा … अब कोई दया-माया नहीं होगी. जो भी हमारे रास्ते में आयेगा, काट डाला जायेगा … हर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को वहीं गोली मार दी जायेगी. कम्युनिस्ट डेपुटियों को इसी शाम फाँसी पर लटका दिया जाना चाहिये. कम्युनिस्टों से रिश्ता रखने वाले हर किसी को गिरफ्तार किया जाना है. सोशल डेमोक्रेटों और राइकस्ताग झंडे के साथ भी कोई नरमी नहीं बरती जानी है.”
हिटलर, दिएल्स की इस बात को सुनने के लिए राजी ही नहीं था कि आगजनी में गिरफ्तार आदमी मरिनस वन देर लूबे एक अधपागल था. हिटलर ने कहा “यह बिलकुल साफ़-साफ़ बेहद चतुरायी से बनायी गयी योजना है. अपराधियों ने इसे पूरी तरह से सोच-समझ कर अंजाम दिया है.”
आग के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार था, यह सवाल कभी नहीं सुलझा. जो बात बिलकुल निर्विवाद है वह यह कि (i) के.पी.डी. के शामिल होने का लेश मात्र साक्ष्य भी कभी प्रस्तुत नहीं किया गया, और (ii) नात्ज़ी राइकस्ताग की आग को ले कर लेश मात्र भी दुखी नहीं थे. इसके विपरीत यह के.पी.डी. के खिलाफ निर्णायक चोट करने का मुंहमांगा बहाना बन गया. उसी शाम बाद में जब नात्ज़ी होटल कैसरहोफ में जुटे, काफी तनावहीन-खुशनुमा मूड में थे. गोएबेल्स ने लिखा : “हर कोई पूरे उत्साह में था… ठीक वही हुआ था जिसकी हमें जरूरत थी. अब हम पूरी तरह आगे हैं.” जैसा 27 फ़रवरी 2002 को भारत में गोधरा ट्रेन दुर्घटना में अनुमान लगाया जाता है, सारे परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को ध्यान में रख कर इतिहासकार यह निष्कर्ष निकलते हैं कि राइकस्ताग में आग खुद नात्जि़यों ने लगाई थी और इसका आरोप कम्युनिस्टों पर मढ़ दिया.
27-28 फ़रवरी की रात तक के.पी.डी. के अगुआ नेता और करीब-करीब सभी राइकस्ताग डेपुटी गिरफ्तार हो चुके थे. 3 मार्च को के.पी.डी. चेयरमैन एर्न्स्ट थालमन को खोज कर गिरफ्तार कर लिया गया. कार्ल लीबनेश्त के घर से तथाकथित रूप से बरामद दस्तावेज से दिखाया गया कि कम्युनिस्ट “आतंकवादी गिरोहों” को बनाने, सार्वजनिक भवनों में आग लगाने, सार्वजनिक भोजनालयों के खानों में जहर मिलाने, और मंत्रियों व अन्य शीर्ष नेताओं-व्यक्तियों के बीबी-बच्चों को बंधक बनाने की साजिश रच रहे थे. हालांकि कोई भी देख-समझ सकता था कि यह भयावह परिदृश्य फंसाने के लिए गढ़ा गया पूरी तरह झूठा आविष्कार था, मगर इसके आधार पर हिटलर के साथी जनता और राज्य की सुरक्षा के लिए राजाज्ञा जारी करने पर तुरंत राजी हो गए जिसके जरिये “अगली सूचना तक” सारे मूलभूत नागरिक अधिकार – जिनमें निजी आज़ादी, अभिव्यक्ति और एकत्रित होने की स्वतन्त्रता और पत्रों व टेलिफोन बात-चीत की निजता शामिल थी, मुल्तवी कर दिए गए.
28 फ़रवरी की राजाज्ञा को उस आपात कानून के रूप में जाना जाता है जिसके बूते नेशनल सोशलिस्ट तानाशाही तब तक टिकी रही जब तक कि वह खुद ध्वस्त नहीं हो गयी. 3 मार्च को फ्रैंकफर्ट में अपने भाषण में गोएरिंग ने यह बात बिलकुल साफ़ कर दी कि उसे मिली इस नयी ताकत से वह क्या करना चाहता था. उसने निर्देश जारी किये कि इसके प्रावधानों को किसी भी कानूनी बंदिश से सीमित नहीं किया जा सकता है : “इस मामले में, मुझसे किसी न्यायशीलता की अपेक्षा नहीं है. मुझसे एकमात्र अपेक्षा सफाया करने की है और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं”.
जैसा कि अन्य सारे मामलों में था, हिटलर को यहाँ भी सरकार में शामिल दूसरे लोगों से किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. हिन्डेन्बर्ग को भी राजाज्ञा पर दस्तखत करने में कोई आपत्ति नहीं थी जिसे उसे “कम्युनिस्ट हिंसा के खिलाफ कदम उठाने के लिए विशेष अधिनियम” के रूप में बेचा गया था. जाने-अनजाने में राइक प्रेसिडेंट के राजनीतिक प्राधिकार को उसने राइक सरकार को हस्तांतरित करने में मदद की.
हिलटर का इतिहास
एडोल्फ़ हिटलर
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Adolf Hitler
पूर्वा धिकारी पॉल वोन हिनडेनबर्ग (राष्ट्रपति)
उत्तरा धिकारी कार्ल डोनिट्ज़ (राष्ट्रपति)
पद बहाल
30 जनवरी 1933 – 2 अगस्त 1934
राष्ट्रपति पॉल वोन हिनडेनबर्ग
(1933–1934)
सहायक फ्रांज़ वोन पैपेन
(वाइस-कुलाधिपति, 1933–1934)
पूर्वा धिकारी कर्ट वोन श्लाइडर
उत्तरा धिकारी जोसेफ़ गोबेल्स
नाज़ी पार्टी के फहरर
पद बहाल
29 जुलाई 1921[1] – 30 अप्रैल 1945
सहायक रूडोल्फ हेस (1933–1941)
पूर्वा धिकारी एंटन ड्रेक्सलर (चेयरमैन)
उत्तरा धिकारी मार्टिन बोर्मैन (पार्टी मत्री)
जन्म 20 अप्रैल 1889
ब्रानो आम इन, ऑस्ट्रिया हंगरी (वर्तमान ऑस्ट्रिया)
मृत्यु 30 अप्रैल 1945 (उम्र 56)
बर्लिन, नाज़ी जर्मनी
नागरिकता
ऑस्ट्रियाई (1889–1925)
राज्यविहीन (1925–1932)
जर्मन (1932–1945)
राजनीतिक दल नाज़ी पार्टी (1921–1945)
अन्य राजनीतिक
संबद्धताऐं जर्मन श्रमिक पार्टी (1919–1920)
जीवन संगी ईवा ब्रॉन (वि॰ 1945)
कैबिनेट हिटलर कैबिनेट
हस्ताक्षर हिटलर का हस्ताक्षर
सैन्य सेवा
निष्ठा German Empire
‘Reichswehr’
सेवा काल जर्मन साम्राज्यवाइमर गणराज्य 1914–1920
पद Gefreiter
एकक 16th बवारियाई रिज़र्व रेजिमेंट
लड़ाइयां/युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध
पश्चिमी फ्रंट
यप्रेस का प्रथम युद्ध
सोमे का युद्ध (घायल)
आरास का युद्ध
पासशेनडेले का युद्ध
एडोल्फ़ हिटलर (20 April 1889 – 30 April 1945) एक जर्मन शासक थे । वे “राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी” (NSDAP) के नेता थे। इस पार्टी को प्रायः “नाज़ी पार्टी” के नाम से जाना जाता है। सन् 1933 से सन् 1945 तक वह जर्मनी के शासक रहा। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब उसके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैण्ड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनों ने नाज़ी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
हिटलर की माँ, क्लारा
हिटलर के पिता, अलोइस (Alois)
अडोल्फ हिटलर का जन्म आस्ट्रिया के वॉन नामक स्थान पर 20 अप्रैल 1889 को हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए। कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे। जब प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो वे सेना में भर्ती हो गए और फ्राँस में कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया। 1918 ई॰ में युद्ध में घायल होने के कारण वे अस्पताल में रहे। जर्मनी की पराजय का उनको बहुत दु:ख हुआ।
1918 ई॰ में उन्होंने नाज़ी दल की स्थापना की। इसके सदस्यों में यहुदी विरोधी नाजी रास्ट्रवाद कूट-कूटकर भरा था। इस दल ने यहूदियों को प्रथम विश्वयुद्ध की हार के लिए दोषी ठहराया। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण जब नाज़ी दल के नेता हिटलर ने अपने नफ़रत भरे भाषणों में उसे ठीक करने का आश्वासन दिया तो अनेक जर्मन नाजी इस दल के सदस्य हो गए। हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साई संधि को समाप्त करने और एक विशाल नाजी जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार 1922 ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वस्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया, समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया। भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई। 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। इसमें वे असफल रहे और जेलखाने में डाल दिए गए। वहीं उन्होंने मीन कैम्फ (“मेरा संघर्ष”) नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाज़ी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि जर्मन जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए।
1930-32 में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद् में नाज़ी दल के सदस्यों की संख्या 230 हो गई। 1932 के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति की। 1933 में चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद् को भंग कर दिया, कंम्युनिस्त दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को नाजी बनने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। 1934 में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाज़ी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। 1933 से 1938 तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली।
आस्ट्रिया में स्थित वह घर जहाँ हिटलर का बचपन बीता था। (फोटो २०१२ ई)
हिटलर ने 1933 में राष्ट्रसंघ को छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।
1934 में जर्मनी और पोलैंड के बीच एक-दूसरे पर आक्रमण न करने की संधि हुई। उसी वर्ष आस्ट्रिया के नाज़ी दल ने वहाँ के चांसलर डॉलफ़स का वध कर दिया। जर्मनीं की इस आक्रामक नीति से डरकर रूस, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, इटली आदि देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए पारस्परिक संधियाँ कीं।
उधर हिटलर ने ब्रिटेन के साथ संधि करके अपनी जलसेना ब्रिटेन की जलसेना का 35 प्रतिशत रखने का वचन दिया। इसका उद्देश्य भावी युद्ध में ब्रिटेन को तटस्थ रखना था किंतु 1935 में ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर की शस्त्रीकरण नीति की निंदा की। अगले वर्ष हिटलर ने बर्साई की संधि को भंग करके अपनी सेनाएँ फ्रांस के पूर्व में राइन नदी के प्रदेश पर अधिकार करने के लिए भेज दीं। 1937 में जर्मनी ने इटली से संधि की और उसी वर्ष आस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। हिटलर ने फिर चेकोस्लोवाकिया के उन प्रदेशों को लेने की इच्छा की जिनके अधिकतर निवासी जर्मन थे। ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने हिटलर को संतुष्ट करने के लिए म्यूनिक के समझौते से चेकोस्लोवाकिया को इन प्रदेशों को हिटलर को देने के लिए विवश किया। 1939 में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के शेष भाग पर भी अधिकार कर लिया। फिर हिटलर ने रूस से संधि करके पोलैड का पूर्वी भाग उसे दे दिया और पोलैंड के पश्चिमी भाग पर उसकी सेनाओं ने अधिकार कर लिया। ब्रिटेन ने पोलैंड की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। फ्रांस की पराजय के पश्चात् हिटलर ने मुसोलिनी से संधि करके रूम सागर पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का विचार किया। इसके पश्चात् जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया गया तो हिटलर की सामरिक स्थिति बिगड़ने लगी। हिटलर के सैनिक अधिकारी उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। जब रूसियों ने बर्लिन पर आक्रमण किया तो हिटलर ने 30 अप्रैल 1945, को आत्महत्या कर ली।
हिटलर का उत्थान
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जहाँ एक ओर तानाशाही प्रवृति का उदय हुआ। वहीं दूसरी ओर जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी दल की स्थापना हुई। जर्मनी के इतिहास में हिटलर का वही स्थान है जो इटली मे मुसोलिनी का। हिटलर के पदार्पण के फलस्वरुप जर्मनी दुनिया मे सर्वोच्च स्थान से गिरकर बर्बाद हो गया। उन्होने असाधारण नफ़रत, हिंसक प्रतिभा और राजनीतिक भेदभाव के कारण जर्मनी गणतंत्र पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया तथा जर्मनी में हिटलर का अभ्युदय और शक्ति की प्राप्ति एकाएक हुई। उनकी शक्ति का विकास धीरे- 2 हुआ। उनका जन्म 1889 ई॰ में आस्ट्रिया के एक गाँव में हुआ था। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उनकी शिक्षा अधूरी रह गई। वे वियेना में भवन निर्माण कला की शिक्षा लेना चाहते थे। प्रथम विश्व युद्ध मे वे जर्मन सेना में भर्ती हो गए। उन्हें युध भागीदारी के लिए Iron Crossमिला। युद्ध समाप्ति के पश्चात् उन्होंने सक्रिय राजनीति में अभिरुची लेना शुरु किया। हिटलर का बड़ा ऐतिहासिक महत्व था- एक ऐसा शब्द जिसका अर्थ सकारात्मक निर्णय नहीं है- क्योंकि उसके कार्यों ने दुनिया के पाठ्यक्रम को बदल दिया। वह द्वितीय विश्व युद्ध शुरू करने के लिए ज़िम्मेदार था, जिसके परिणामस्वरूप 50 मिलियन से अधिक लोग मारे गए। इससे पूर्वी, मध्य और बाल्कन यूरोप में सोवियत संघ की शक्ति का विस्तार हुआ, कम्युनिस्ट आंदोलन अंततः चीन में नियंत्रण हासिल करने में सक्षम हुआ, और पश्चिमी यूरोप से दूर संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत की ओर सत्ता के निर्णायक बदलाव को चिह्नित किया गया। संघ. इसके अलावा, हिटलर होलोकॉस्ट के लिए ज़िम्मेदार था, जिसमें 60 लाख यहूदियों और लाखों अन्य लोगों की राज्य-प्रायोजित हत्या शामिल थी।
नाज़ीवाद
एक राजनीतिक विचारधारा जिसे जर्मनी के तनाशाह हिटलर ने प्रारंभ किया था। हिटलर का मानना था कि जर्मन आर्य है और विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए उनको सारी दुनिया पर राज्य करने का अधिकार है। अपने तानाशाहीपूर्ण आचरण से उसने विश्व को द्वितीय विश्व युद्ध में झोंक दिया था। १९४५ में हिटलर के मरने के साथ ही नाज़ीवाद का अंत हो गया परन्तु ‘नाज़ीवाद’ और ‘हिटलर होना’ मानवीय क्रूरता के पर्याय बन कर आज भी भटक रहे है।
हिटलर का जन्म १८८९ में आस्ट्रिया में हुआ था। १२ वर्ष की आयु में उसके पिता का निधन हो गया था जिससे उसे आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा। उसे चित्रकला में बहुत रूचि थी। उसने चित्रकला पढ़ने के लिए दो बार प्रयास किये परन्तु उसे प्रवेश नहीं मिल सका। बाद में उसे मजदूरी तथा घरों में पेंट करके जीवन यापन करना पड़ा। प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर वह सेना में भरती हो गया। वीरता के लिए उसे हल क्रास से सम्मानित किया गया। युद्ध समाप्त होने पर वह एक दल जर्मन लेबर पार्टी में सम्मिलित हो गया जिसमें मात्र २०-२५ लोग थे। हिटलर के भाषणों से अल्प अवधि में ही उसके सदस्यों की संख्या हजारों में पहुँच गई। पार्टी का नया नाम रखा गया ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन लेबर पार्टी’। जर्मन में इसका संक्षेप में नाम है ‘नाज़ी पार्टी’। हिटलर द्वारा प्रतिपादित इसके सिद्धांत ही नाज़ीवाद कहलाते हैं।
हिटलर ने जर्मन सरकार के विरुद्ध विद्रोह का प्रयास किया। उसे बंदी बना लिया गया और ५ वर्ष की जेल हुई। जेल में उसने अपनी आत्म कथा ‘मेरा संघर्ष’ लिखी। इस पुस्तक में उसके विचार दिए हुए हैं। इस पुस्तक की लाखों प्रतियाँ शीघ्र बिक गईं जिससे उसे बहुत ख्याति मिली। उसकी नाज़ी पार्टी को पहले तो चुनावों में कम सीटें मिलीं परन्तु १९३३ तक उसने जर्मनी की सत्ता पर पूरा अधिकार कर लिया और एक छत्र तानाशाह बन गया। उसने अपने आसपास के देशों पर कब्जे करने शूरू कर दिए जिससे दूसरा विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। वह यहूदियों से बहुत घृणा करता था। उसने उन पर बहुत अत्याचार किये, कमरों में ठूँसकर विषैली गैस से हजारों लोग मार दिए गए। ६ वर्षों के युद्ध के बाद वह हार गया और उसने अपनी प्रेमिका, जिसके साथ उसने एक-दो दिन पहले ही विवाह किया था, के साथ गोली मारकर आत्महत्या कर ली।
नाज़ीवाद के उदय के कारण
प्रथम विश्व युद्ध 1914 से 1918 तक चला। इसमें जर्मनी हार गया। युद्ध के कारण उसकी बहुत क्षति हुई। इन सब के ऊपर ब्रिटेन, फ़्राँस आदि मित्र राष्ट्रों ने उस पर बहुत अधिक दंड लगा दिए। उसकी सेना बहुत छोटी कर दी, उसकी प्रमुख खदानों पर कब्ज़ा कर लिया तथा इतना अधिक अर्थ दंड लगा दिया कि अनेक वर्षों तक अपनी अधिकांश कमाई देने के बाद भी कर्जा कम नहीं हो रहा था। १९१४ में एक डालर = ४.२ मार्क था जो १९२१ में ६० मार्क, नवम्बर १९२२ में ७०० मार्क,जुलाई १९२३ में एक लाख ६० हजार मार्क तथा नवम्बर १९२३ में एक डालर = २५ ख़रब २० अरब मार्क के बराबर हो गया। अर्थात मार्क लगभग शून्य हो गया जिससे मंदी, मँहगाई और बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया। उस समय चुनी हुई सरकार के लोग अपना जीवन तो ठाट-बाट से बिता रहे थे परन्तु देश की समस्याएँ कैसे हल करें, उन्हें न तो इसका ज्ञान था और न ही बहुत चिंता थी। ऐसे समय में हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों से जनता को समस्याएँ हल करने का पूरा विश्वास दिलाया। इसके साथ ही उसके विशेष रूप से प्रशिक्षित कमांडों, विरोधियों को मारने के काम भी कर रहे थे जिससे उसकी पार्टी को धीरे- धीरे सत्ता में भागीदारी मिलती गई और एक बार चांसलर (प्रधान मंत्री) बनने के बाद उसने सभी विरोधियों का सफाया कर दिया और संसद की सारी शक्तियाँ अपने हाथों में केन्द्रित कर लीं। उसके बाद वे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सबकुछ बन गए। उन्हें फ्यूरर कहा जाता था।
नाज़ीवाद का आधार
हिटलर से 11वर्ष पूर्व इटली के प्रधानमंत्री मुसोलिनी भी अपने फ़ासीवादी विचारों के साथ तानाशाही पूर्ण शासन चला रहे थे। दोनों विचारधाराएँ समग्र अधिकारवादी, अधिनायकवादी, उग्र सैनिकवादी, साम्राज्यवादी, शक्ति एवं प्रबल हिंसा की समर्थक, लोकतंत्र एवं उदारवाद की विरोधी, व्यक्ति की समानता, स्वतंत्रता एवं मानवीयता की पूर्ण विरोधी तथा राष्ट्रीय समाजवाद (अर्थात राष्ट्र ही सब कुछ है, व्यक्ति के सारे कर्तव्य राष्ट्रीय हित में कार्य करने में हैं) की कट्टर समर्थक हैं। ये सब समानताएं होते हुए भी जर्मनी ने अपने सिद्धांत फासीवाद से नहीं लिए। इसका विधिवत प्रतिपादन १९२० में गाटफ्रीड ने किया था जिसका विस्तृत विवरण हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ में किया तथा १९३० में ए॰ रोज़नबर्ग ने पुनः इसकी व्याख्या की थी। इस प्रकार हिटलर के सत्ता में आने के पूर्व ही नाज़ीवाद के सिद्धांत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने थे जबकि अपने कार्यों को सही सिद्ध करने के लिए मुसोलिनी ने सत्ता में आने के बाद अपने फ़ासीवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया था। इतना ही नहीं जर्मनों की श्रेष्ठता का वर्णन अनेक विद्वान् करते आ रहे थे और १०० वर्षों से भी अधिक समय से जर्मनों के मन में अपनी श्रेष्ठता के विचार पनप रहे थे जिन्हें हिटलर ने मूर्त रूप प्रदान किया।
नाज़ीवाद के सिद्धांत
प्रजातिवाद : १८५४ में फ्रेंच लेखक गोबिनो ने १८५४ तथ 1884 में अपने निबंध ‘मानव जातियों की असमानता’ में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि विश्व की सभी प्रजातियों में गोरे आर्य या ट्यूटन नस्ल सर्वश्रेष्ठ है। १८९९ में ब्रिटिश लेखक चैम्बरलेन ने इसका अनुमोदन किया। जर्मन सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय ने देश में सभी पुस्तकालयों में इसकी पुस्तक रखवाई तथा लोगों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। अतः जर्मन स्वयं को पहले से ही सर्व श्रेष्ठ मानते थे। नाज़ीवाद में इस भावना को प्रमुख स्थान दिया गया।
हिटलर ने यह विचार रखा कि उनके अतिरिक्त अन्य गोरे लोग भी मिश्रित प्रजाति के हैं अतः जर्मन लोगों को यह नैसर्गिक अधिकार है कि वे काले एवं पीले लोगों पर शासन करें, उन्हें सभ्य बनाएं इससे हिटलर ने यह स्वयं निष्कर्ष निकाल लिया कि उसे अन्य लोगों के देशों पर अधिकार करने का हक़ है। उसने लोगों का आह्वान किया कि श्रेष्ठ जर्मन नागरिक शुद्ध रक्त की संतान उत्पन्न करें। जर्मनी में अशक्त एवं रोगी लोगों के संतान उत्पन्न करने पर रोक लगा दी गई ताकि देश में भविष्य सदैव स्वस्थ एवं शुद्ध रक्त के बच्चे ही जन्म लें।
हिटलर का मानना था कि यहूदी देश का भारी शोषण कर रहे हैं। अतः वह उनसे बहुत घृणा करता था। परिणाम स्वरूप सदियों से वहाँ रहने वाले यहूदियों को अमानवीय यातनाएं दे कर मार डाला गया और उनकी संपत्ति राजसत कर ली गई। अनेक यहूदी देश छोड़ कर भाग गए। उस भीषण त्रासदी ने यहूदियों के सामने अपना पृथक देश बनाने की चुनौती उत्पन्न कर दी जिससे इस्रायल का निर्माण हुआ।
राज्य सम्बन्धी विचार : नाज़ीवाद में राज्य को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके माध्यम से लोग प्रगति करेंगे। हिटलर के मतानुसार राष्ट्रीयता पर आधारित राज्य ही शक्तिशाली बन सकता है क्योंकि उसमें नस्ल, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज आदि सभी सामान होने के कारण लोगों में सुदृढ़ एकता और सहयोग की भावना होती है जो विभिन्न भाषा, धर्म एवं प्रजाति के लोगों में होना संभव नहीं है। हिटलर ने सभी जर्मनों को एक करने के लिए अपने पड़ोसी देशों आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया आदि के जर्मन बहुल इलाकों को उन देशों पर दबाव डाल कर जर्मनी में मिला लिया तथा बाद में उनके पूरे देश पर ही कब्ज़ा कर लिया। अनेक देशों पर कब्ज़ा करने को नाजियों ने इसलिए आवश्यक बताया कि सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी जर्मनों के पास भूमि एवं संसाधन बहुत कम हैं जबकि उनकी आबादी बढ़ रही है। समुचित जीवन निर्वाह के लिए अन्य देशों पर अधिकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। इसलिए हिटलर एक के बाद दूसरे देश पर कब्जे करता चला गया।
जर्मनी में राज्य का अर्थ था हिटलर। वह देश, शासन, धर्म सभी का प्रमुख था। हिटलर को सच्चा देवदूत कहा जाता था। बच्चों को पाठशाला में पढ़ाया जाता था – “ हमारे नेता एडोल्फ़ हिटलर, हम सब आप से प्रेम करते हैं, आपके लिए प्रार्थना करते हैं, हम आपका भाषण सुनना चाहते हैं। हम आपके लिए कार्य करना चाहते हैं।” हिटलर ने अपने कमांडों के द्वारा आतंक का वातावरण पहले ही निर्मित कर दिया था। उसे जैसे ही सत्ता में भागीदारी मिली, उसने सर्व प्रथम विपक्षी दलों का सफाया कर दिया। एक राष्ट्र, एक दल, एक नेता का सिद्धांत उसने बड़ी क्रूरता पूर्वक लागू किया था। उसके विरोध का अर्थ था मृत्यु।
नाज़ीवाद के उदय के कारण
व्यक्ति का स्थान : नाज़ी कान्त तथा फिख्टे के इस विचार को मानते थे कि व्यक्ति के लिए सच्ची स्वतंत्रता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करे। उनका कहना था कि एक जर्मन तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकता जब तक जर्मनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र न हो जो उस समय वह वार्साय संधि की शर्तों के अनुसार नहीं था। नाजियों का एक ही नारा था कि व्यक्ति कुछ नहीं है, राष्ट्र सब कुछ है। अतः व्यक्ति को अपने सभी हित राष्ट्र के लिए बलिदान कर देने चाहिए। मित्र देशों के चंगुल से जर्मनी को मुक्त करने के लिए उस समय यह भावना आवश्यक भी थी। परन्तु नाजियों ने इसका विस्तार जीवन के सभी क्षेत्रों – शिक्षा, धर्म, साहित्य, संस्कृति, कलाओं, विज्ञान, मनोरंजन,अर्थ-व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में कर दिया था। इससे सभी नागरिक नाज़ियो के हाथ के कठपुतले से बन गए थे।
बुद्धिवाद का विरोध : शापेनहार, नीत्शे, जेम्स, सोरेल, परेतो जैसे अनेक दार्शनिकों ने बुद्धिवाद के स्थान पर लोगों की सहज बुद्धि (इंस्टिंक्ट), इच्छा शक्ति,और अंतर दृष्टि (इंट्यूशन)को उच्च स्थान दिया था। नाज़ी भी इसी विचार को मानते थे कि व्यक्ति अपनी बुद्धि से नहीं भावनाओं से कार्य करता है। इसलिए अधिकांश पढ़े-लिखे और सुशिक्षित व्यक्ति भी मूर्ख होते हैं। उनमें निष्पक्ष विचार करने की क्षमता नहीं होती है। वे अपने मामलों में भी बुद्धि पूर्वक विचार नहीं करते हैं। वे भावनाओं तथा पूर्व निर्मित अवधारणाओं के अधर पर कार्य करते हैं। इसलिए जनता को यदि अपने अनुकूल कर लिया जाये तो उस्से बड़े से बड़े झूठ को भी सत्य मनवाया जा सकता है। बुद्धि का उपयोग करके लोग परस्पर असहमति तो बढ़ा सकते हैं परन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं। अतः बुद्धिमानों को साथ लेकर एक सफल एवं शक्ति शाली संगठन नहीं बनाया जा सकता है। शक्ति शाली राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को बुद्धमान बनाने के स्थान पर उत्तम नागरिक बनाया जाना चाहिए। उनके लिए तर्क एवं दर्शन के स्थान पर शारीरिक, नैतिक एवं औद्योगिक शिक्षा देनी चाहिए। उच्च शिक्षा केवल प्रजातीय दृष्टि से शुद्ध जर्मनों को ही दी जानी चाहिए जो राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हों। नेताओं को भी उतना ही बुद्धिवादी होना चाहिए कि वह जनता की मूर्खता से लाभ उठा सके और अपने कार्य क्रम बना सकें। अबुद्धिवाद से नाज़ियों ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले और अपनी पृथक राजनीतिक विचारधारा स्थापित की।
लोकतंत्र विरोधी : प्लेटो की भांति हिटलर भी लोकतंत्र का आलोचक था। उसके अनुसार अधिकांश व्यक्ति बुद्धि शून्य, मूर्ख, कायर और निकम्मे होते हैं जो अपना हित नहीं सोच सकते हैं। ऐसे लोगों का शासन कुछ भद्र लोगों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए।
साम्यवाद विरोधी : साम्यवाद मानता है कि अर्थ या धन ही सभी कार्यों का प्रेरणा स्रोत है। धन के लिए ही व्यक्ति कार्य करता है और उसी के अनुसार सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाएं निर्मित होती हैं। परन्तु अधिकांश व्यक्ति बुद्धिहीन होने के कारण अपना हित सोचने में असमर्थ होते हैं। उनके अनुसार साम्यवाद वर्तमान से भी बुरे शोषण को जन्म देगा।
अंध श्रद्धा (सोशल मिथ) : सोरेल की भांति हिटलर भी यही मानता था कि व्यक्ति बुद्धि और विवेक के स्थान पर अंध श्रद्धा से कार्य करता है। यह अंध श्रद्धा लोगों को राष्ट्र के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सके। नाज़ियों ने जर्मन लोगों में अनेक प्रकार की अंध श्रद्धाएँ उत्पन्न कीं और उन्हें राष्ट्र निर्माण में तत्पर कर दिया।
शक्ति और हिंसा का सिद्धांत : नाज़ियों ने लोगो में अन्द्ध श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि जो लड़ना नहीं चाहता उसे इस दुनियां में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। इस सिद्धांत को प्रतिपादित करना हिटलर की मजबूरी भी थी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई वार्साय की संधि में उस पर जो दंड एवं प्रतिबन्ध लगे थे, वार्ता द्वारा उससे बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं था। उन परिस्थितियों में युद्ध ही एक मात्र रास्ता था और उसके लिए सभी जर्मन वासियों का सहयोग आवश्यक था। इसलिए लोगों ने उसे सहयोग भी दिया।
अर्थव्यवस्था: वह साम्यवाद का विरोधी था इसलिए जर्मनी के पूंजीपतियों ने उसे पूरा सहयोग दिया। परन्तु उसका पूंजीवाद स्वच्छंद नहीं था, उसे मनमानी लूट और धन अर्जन का अधिकार नहीं था। वह उसी सीमा तक मान्य था जो नाज़ियों के सिद्धांत और जर्मन राष्ट्र के हित के अनुकूल हो।
उसने उत्पादन बढ़ने के लिए सभी तरह के आंदोलनों, प्रदर्शनों और हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सभी वर्गों के संगठन बना दिए गए थे जो विवाद होने पर न्यायोचित समाधान निकाल लेते थे ताकि किसी का भी अनावश्यक शोषण न हो। अधिक रोजगार देने के लिए उसने पहले एक परिवार एक नौकरी का सिद्धांत लागू किया, फिर अधिक वेतन वाले पदों का वेतन घटा कर एक के स्थान पर दो व्यक्तियों को रोजगार दिया। इस प्रकार उसने दो वर्षों में ही अधिकांश लोगों, जिनकी संख्या लाखों में थी, को रोजगार उपलब्ध कराये। इससे शिक्षा, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, विज्ञान, निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में जर्मनी ने अभूतपूर्ण उन्नति कर ली। १९३३ से लेकर १९३९ तक छः वर्षों में उसकी प्रगति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस जर्मनी का कोष रिक्त हो चुका था, देश पर अरबों पौंड का कर्जा था, प्राकृतिक संसाधनों पर मित्र देशों ने कब्ज़ा कर लिया था और उसकी सेना नगण्य रह गई थी, वही जर्मनी विश्व के बड़े राष्ट्रों के विरुद्ध एक साथ आक्रमण करने की स्थिति में था, सभी देशों में हिटलर का आतंक व्याप्त था और वह इंग्लैंड, रूस तक अपने देश में बने विमानों से जर्मनी में ही निर्मित बड़े-बड़े बम गिरा रहा था। मात्र छः वर्षों में उसने इतना धन एवं शक्ति अर्जित कर ली थी जो अनेक वर्षों में भी संभव नहीं थी।
स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने के कारण हिटलर युद्ध हार गया, उसने आत्म हत्या कर ली। पराजित हुआ व्यक्ति ही इतिहास में गलत माना जाता है अतः द्वितीय विश्वयुद्ध की सभी गलतियों के लिए हिटलर और मुसोलिनी उत्तरदायी ठहराए गए और आज भी सभी राजनीतिक विद्रूपताओं के लिए ‘हिटलर होना’, ‘फासीवादी होना’ मुहावरे बन गए हैं।
चांसलर बनना
बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर उन्हे चांसलर बनने के लिए आमंत्रित किया गया। सन् 1933 में उन्होंने इस पद को स्वीकार कर लिया। 1934 में उन्होने राष्ट्रपति और चांसलर के पद को मिलाकर एक कर दिया। और उन्होंने राष्ट्र नायक की उपाधि धारण की। इस प्रकार उनके हाथों में समस्त सत्ता केंद्रित हो गई। इस तरह अपनी विशिष्ट योग्यता के बल पर निरंतर प्रगति करता गया। और विश्व में महान व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। हिटलर तथा उनकी पार्टी के उत्थान के निम्नलिखित कारण थे जो इस प्रकार है।
वर्साय की संधि
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात यूरोप राष्ट्रों ने वर्साय की संधि की। जिसका प्रमुख उद्देश्य जर्मनी को कुचलना था। इसके द्वारा जर्मनी को आर्थिक राजनीतिक तथा अंतराष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से पुर्णत: पंगु बना दिया गया। वस्तुत: वर्साय की संधि जर्मनी की सारी तकलीफों की जड़ थी। जर्मन निवासी अपने प्राचीन गौरव को पुन: प्राप्त करना चाहते थे। और वह एक ऐसे नेता की तलाश में थे जो उनके राष्ट्र कलंक को मिटाकर जर्मनी के गौरव का पुर्ण उत्थान कर सके। हिटलर के व्यक्तित्व में उन्हें ऐसा नेता की तस्वीर दिखाई दी। उन्हें यह विश्वास हो गया की हिटलर के नेतृत्व में ही जर्मनी का उत्थान संभव है। हिटलर ने वर्साय की संधि की आलोचना करनी शुरु कर दी और लोगों के हृदय में इसके प्रति नफरत पैदा कर दी। उन्होंने जर्मन जाति को एक राजनीतिक सूत्र में बाँध कर लोगों के समक्ष जर्मन निर्माण का प्रस्ताव रखा। वे भाषण देने की कला में प्रवीण थे उनकी वाणी जादू का काम करती थी। यह कहा जा सकता है कि हिटलर ने अपनी जुबान की ताकत से जर्मनी की सत्ता हथिया ली।
शिशु के रूप में एडोल्फ हिटलर (c. 1889–90)
जातीय परम्परा
जर्मन जाति की निजी परंपरा और प्रकृति ने भी हिटलर के उत्थान में सहयोग प्रदान किया। जर्मन स्वभावत: वीर और अनुशासन प्रिय होते हैं। अत: उन्होंने हिटलर के अधिनायकवाद को स्वीकार कर लिया। हिटलर ने जनता के समक्ष कोई नवीन कार्यक्रम नहीं रखा उन्होने वहीं किया जो व्हीगल, कॉन्ट और किक्टे आदि कर चुके थे। उनकी विचारधारा संपूर्ण जर्मन विचारधारा का निचोड़ थी इसलिए जनता ने उन्हें स्वीकार कर लिया।
आर्थिक संकट
जर्मनी में आर्थिक संकट के चलते भी हिटलर का उत्थान हुआ। वर्साय की संधि के फलस्वरुप जर्मनी की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई थी। हिटलर ने जनता को पूँजीपतियों और यहुदियों के खिलाफ भड़काना शुरु किया। 1930 में जर्मनी ने 50 लाख से अधिक व्यक्ति बेकार हो गए थे। वे सभी हिटलर के समर्थक बन गए। अत: यह कहा जा सकता है कि आर्थिक संकट के चलते हिटलर तथा उसकी पार्टी को काफी सफलता मिली।
यहूदी विरोधी भावना
इस समय संपूर्ण जर्मनी में यहुदियों के खिलाफ असंतोष फैला हुआ था। जर्मनी की पराजय के लिए यहुदियों को ही उत्तरदायी ठहराया जा रहा था। हिटलर इसे भली- भांती जानता था। जनता की कद्र करते हुए उन्होंने यहुदियों को देश से निकालने की घोषणा की। हिटलर की इस घोषणा से जनता ने इसका साथ देना शुरु किया।
बवेरियन रिजर्व इन्फैंट्री रेजिमेंट के अपने सेना के साथियों के साथ हिटलर (बहुत सही, बैठा हुआ) 16 (c. 1914–18)
साम्यवाद का विरोध
हिटलर के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण साम्यवाद का विरोध भी था। हिटलर ने साम्यवादियों के खिलाफ नारा बुलंद किया और जनता का दिल जीत लिया। इस समय पूँजीपति, जमींदार, पादरी सभी साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव से आतंकित था। वे जर्मनी को साम्यवाद के चंगुल से मुक्त कराना चाहते थे। इसलिए हिटलर ने साम्यवाद की तीखी आलोचना की और इसके विकल्प में राष्ट्रीय समाजवाद का नारा बुलंद किया जो नाज़ी दल का दूसरा रूप था।
संसदीय परंपरा का अभाव
वहाँ के संसदीय शासन में दुगुर्णों के चलते भी जनता में काफी असंतोष था। वे इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे। जब राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास घट जाता है तो तानाशाही के लिए रास्ता साफ हो जाता है जर्मन के साथ भी यही बात हुई। संसदीय शासन प्रणाली में जब उनका विश्वास समाप्त हो गया तो उन्होंने हिटलर का साथ देना शुरु किया।
जर्मनी जनता की प्रवृति
जर्मनी जनता की अभिरुचि सैनिक जीवन में थी। वे स्वभाव से वीर और सैनिक प्रवृत्ति के थे परन्तु वर्साय की संधि के द्वारा वहाँ की सैनिक संख्या घटा दी गई थी। फलत: काफी संख्या में लोग बेरोजगार हो चुके थे। हिटलर तथा उनकी पार्टी के सदस्य जनता की स्थिति से भली भांति परिचित थे। अत: जब उन्होंने स्वंयसेवक सेना का गठन किया तो भारी संख्या में युवक उसमें भर्ती होने लगे। इससे बेकारी की समस्या का भी समाधान हुआ और हिटलर को उत्थान करने का मौका मिला।
हिटलर और पॉल वॉन हिंडनबर्ग पॉट्सडैम के दिन, 21 मार्च 1933
हिटलर का व्यक्तित्व
उपर्युक्त सभी कारणों के अतिरिक्त हिटलर के अभ्युदय का महत्वपूर्ण कारण स्वयं उनका प्रभावशाली एवं आकर्षक व्यक्तित्व था वे उच्च कोटी के वक्ता थे। वे भाषण की कला में निपुण थे। उनकी वाणी जादू का काम करती थी और जनता का दिल जीत लेती थी। आधुनिक युग में प्रचार का काफी महत्व है। प्रचार वह शक्ति है जो झूठ को सच और सच को झूठ बना सकती है। संयोगवश हिटलर को एक महान प्रचारक मिल गया था। जिसका नाम था गोबुल्स उनका सिद्धांत था कि झूठी बातों को इतना दुहराओं कि वह सत्य बन जाए। इस तरह उनकी सहायता से जनता का दिल जीतना हिटलर के लिए आसान हो गया। इस तरह हम देखते हैं कि हिटलर और उनकी पार्टी के अभ्युदय के अनेक कारण थे। जिनमें हिटलर का व्यक्तित्व एक महत्वपूर्ण कारण था और अपने व्यक्तित्व का उपयोग कर उन्होंने वर्साय संधि की त्रुटियों से जनता को अवगत कराया उन्हें अपना समर्थक बना लिया। यह ठीक है कि युद्धोतर जर्मन आर्थिक दृष्टि से बिल्कुल पंगु हो गया था, वहाँ बेकारी और भुखमरी आ गई थी परन्तु हिटलर एक दूरदर्शी राजनितिज्ञ था। और उसने परिस्थिति से लाभ उठाकर राजसत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया।
भाषणबाजी की कला
हिटलर एक प्रखर वक्ता था। अपने भाषणों से वह लोगों को पागल कर देता था। उसने एक मजबूत राष्ट्र बनाने और जर्मनी की खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का वादा किया। उसने चहुमुखी विकास और रोजगार का वादा किया। हिटलर को जन समर्थन जुटाने के लिए आडंबर और प्रदर्शन की महत्ता बखूबी मालूम थी। उसकी रैलियों में स्वस्तिक के निशान, लाल झंडे, पैंफलेट और एक खास अंदाज में तालियों का बखूबी इस्तेमाल होता था। हिटलर को एक मसीहा के तौर पर पेश किया जाने लगा जो लोगों के हर दुख को दूर करने की काबलियत रखता था। आर्थिक और राजनैतिक संकटों से टूट चुकी जनता को हिटलर में उम्मीद की किरण दिखाई देती थी।
लोकतंत्र का विनाश
राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग नें 30 जनवरी 1933 को हिटलर को चांसलर का पद संभालने का न्यौता दिया। यह मंत्रिमंडल का सर्वोच्च पद होता था, जैसे हमारे देश में प्रधानमंत्री का पद होता है। सत्ता हाथ में आते ही हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की संरचना को तहस नहस करना शुरु कर दिया।
जर्मनी की संसद में फरवरी में एक रहस्यमयी आग लगी जिससे हिटलर का रास्ता साफ हो गया। 28 फरवरी 1933 को एक फायर डिक्री की घोषणा हुई। उस अध्यादेश के अनुसार, कई नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। उसके बाद हिटलर ने अपने धुर विरोधियों (कम्यूनिस्ट) पर काम करना शुरु किया। अधिकतर कम्यूनिस्टों को नये नये बने कंसंट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया।
3 मार्च 1933 को मशहूर विशेषाधिकार अधिनियम (इनैबलिंग एक्ट) पास हुआ। इस नियम से हिटलर को जर्मनी में तानाशाही स्थापित करने के लिए अकूत शक्ति मिल गई। नात्सी पार्टी को छोड़कर बाकी हर राजनैतिक पार्टी और ट्रेड यूनियन पर बैन लग गया। सरकार ने अर्थव्यवस्था, मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर पूरी पकड़ बना ली।
समाज पर नियंत्रण करने के लिए विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते बनाये गये। उस समय पहले से नियमित पुलिस (हरी वर्दी वाली) और स्टॉर्म ट्रूपर्स (SA) थे। अब अतिरिक्त पुलिस बल बनाया गया, जैसे गेस्तापो ((गुप्तचर राज्य पुलिस), सुरक्षा बल (SS), अपराध नियंत्रण पुलिस और सुरक्षा सेवा (SD).
इन पुलिस बलों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार मिले हुए थे। किसी भी व्यक्ति को गेस्तापो के यातना गृहों में बंद किया जा सकता था, पकड़ कर कंसंट्रेशन कैंप में भेजा जा सकता था, बंदी बनाया जाता था या फिर देशनिकाला दे दिया जाता था। इन सबको अंजाम देने के लिए किसी भी प्रकार की कानूनी औपचारिकता नहीं की जाती थी।
हिटलर और जापानी विदेश मंत्री, Yōsuke Matsuokaमार्च 1941 में बर्लिन में एक बैठक में
पुनर्निर्माण
ह्यालमार शाख्त को अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उसने सरकारी खर्चे से उत्पादन और रोजगार बढ़ाने की दिशा में काम शुरु किया। इसी दौरान जर्मनी के मशहूर ऑटोबान (हाईवे) बने थे। जल्दी ही अर्थव्यवस्था में सुधार होने लगा।
हिटलर को विदेश नीति में भी सफलता मिलने लगी। 1933 में उसने जर्मनी को लीग ऑफ नेशन से अलग कर लिया। 1936 में उसने राइनलैंड पर दोबारा कब्जा जमा लिया और 1938 में ऑस्ट्रिया पर कब्जा कर लिया। उसके बाद हिटलर ने जर्मनभाषी सुडेटलैंड प्रांत पर कब्जा किया और फिर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया। इस काम में हिटलर को इंगलैंड का मौन समर्थन भी मिल रहा था, क्योंकि इंगलैंड को लगता था कि बीते वर्षों में जर्मनी के साथ अन्याय हुआ था।
विस्तार की नीति
हिटलर को लगता था कि अधिक से अधिक संसाधनों को जुटाने के लिए इलाके का विस्तार जरूरी था और आर्थिक संकट से उबरने के लिए संसाधनों की जरूरत थी। 1939 के सितंबर में जर्मनी ने पोलैंड पर हमला किया और इसके साथ ही जर्मनी का फ्रांस और इंगलैंड के साथ युद्ध शुरु हो गया। 1940 में जर्मनी, इटली और जापान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिससे हिटलर की शक्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गईं। यूरोप के कई भागों में नात्सी जर्मनी को समर्थन देने वाली कठपुतली सरकारों को बहाल किया गया। इस तरह से 1940 के आखिर तक हिटलर अपने चरम शिखर पर पहुँच चुका था।
पूर्वी यूरोप पर हमला
अब हिटलर अपने पुराने लक्ष्य को हासिल करने चला था यानि पूर्वी यूरोप पर कब्जा करने। लेकिन 1941 की जून में सोवियत यूनियन पर हमला करके हिटलर ने ऐतिहासिक भूल कर दी। हिटलर के उस कदम से जर्मनी की पश्चिमी सीमा पर ब्रिटिश हवाई बमवर्षकों का खतरा उत्पन्न हो गया और पूर्वी सीमा पर ताकतवर सोवियत सेना का। सोवियत सेना ने जर्मनी को बुरी तरह रौंद दिया और बर्लिन तक पहुँच गई। इससे पूर्वी यूरोप पर अगले पचास वर्षों तक सोवियत का बोलबाला रहा।
अमेरिका की भूमिका
प्रथम विश्व युद्ध के बाद होने वाली आर्थिक समस्याओं से सबक लेते हुए अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध से दूर ही रहना चाहता था। लेकिन जब जापान पूर्व में अपने पैर पसारने लगा, हिटलर को समर्थन देने लगा और फिर पर्ल हार्बर स्थित अमेरिकी अड्डे पर बम गिराने लगा तो मजबूरी में अमेरिका को भी युद्ध में कूदना पड़ा। अमेरिका ने जापान के हिरोशीमा पर एटम बम गिराया और फिर मई 1945 में हिटलर की पराजय के साथ युद्ध समाप्त हो गया।
बड़ा स्वांग
समर्थकों ने नवनियुक्त राइषचांसलर का जोरदार स्वागत किया. चांसलर कार्यालय की एक खिड़की से हिटलर ने लोगों का अभिवादन स्वीकार किया. गोएबेल्स ने एक बड़े समारोह की योजना बनाई थी, नाटकीय तरीके से वह जर्मनी में नई शुरुआत दिखाना चाहता था. उसे “महान चमत्कार की रात” होना था. उसकी योजना थी कि शहर में मशाल लिए लोगों की एक माला सी बन जाए. लेकिन आम लोगों ने उसकी योजना को बर्बाद कर दिया.
वह भव्य तस्वीर तैयार करना चाहता था, जो सिनेमा देखने वालों को प्रभावित कर सके. उन दिनों वहां समाचार दिखाए जाते थे. लेकिन पैदल चलने वाले बिना सोचे समझे एसए की कतारों में घुसते रहे और तस्वीर नहीं बनने दी. गोएबेल्स बहुत निराश हुआ, लेकिन उसने यह तस्वीर बाद में बनवाई. प्रसिद्ध यहूदी चित्रकार माक्स लीबरमन ने मशाल जुलूस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह सब देखकर उनका ‘उल्टी’ करने का जी चाहता है.
कैसे सत्ता में आया हिटलर
हिटलर के उत्थान की व्याख्या वाइमार गणतंत्र के साथ साथ होते पतन के जरिए ही की जा सकती है. 1918 में गणतंत्र की स्थापना के बाद से ही वह पैदाईशी गड़बड़ी से जूझ रहा था. वह लोकतांत्रिक लोगों से वंचित लोकतंत्र था. आबादी का बड़ा हिस्सा नए गणतंत्र को अस्वीकार कर रहा था. खासकर उद्यमियों, नौकरशाही और राजनीतिज्ञों का एक हिस्सा. शुरुआत से ही सत्ता पर कब्जे की वामपंथी और दक्षिणपंथी कोशिशें युवा गणतंत्र को परेशान कर रही थीं. पहले पांच सालों में खूब हत्याएं देश को हैरानी में डालती रहीं. उनमें कम्युनिस्ट रोजा लक्जेमबर्ग और यहूदी विदेश मंत्री वाल्टर राथेनाऊ भी थे. हत्यारे उग्रदक्षिणपंथी पृष्ठभूमि के थे.
वाइमार गणतंत्र की राजनीति अस्थिरता का पर्याय थी. 14 साल में 12 सरकारें बनीं. संसद में मौजूद 17 पार्टियों में बहुत सी संविधान विरोधी थीं. हर राजनीतिक और आर्थिक संकट के साथ लोकतांत्रिक पार्टियों में लोगों का भरोसा भी खत्म होता जा रहा था. उधर उग्रपंथी पार्टियों का समर्थन बढ़ता जा रहा था. दक्षिणपंथी नाजी पार्टी और वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव बढ़ रहा था. 1930 में जर्मनी गृहयुद्ध के कगार पर था. नाजियों और कम्युनिस्टों के बीच खुला संघर्ष शुरू हो गया था. 1929 की विश्वव्यापी मंदी ने हालत और खराब कर दी. 1932 में औपचारिक रूप से 56 लाख लोग बेरोजगार थे.
ताकतवर नेता का इंतजार
बहुत से जर्मन इस हालत में देश को संकट से निकालने के लिए एक ताकतवर नेता की चाह करने लगे. राष्ट्रपति पॉल फॉन हिंडेनबुर्ग ऐसे ताकतवर शख्स थे, बहुत से लोगों के लिए वे सम्राट जैसे थे. सचमुच भी वाइमार संविधान के अनुसार राष्ट्रपति का पद बहुत शक्तिशाली था. वह संसद भंग कर सकता था और अधिनियम के जरिए कानून लागू कर सकता था. इन अधिकारों का हिंडेनबुर्ग ने अक्सर इस्तेमाल भी किया लेकिन वे जर्मनी के रक्षक की भूमिका निभाने की हालत में नहीं थे. 1933 के शुरू में उनकी उम्र 85 साल की थी.
कई अस्थिर सरकारों के बाद वे राष्ट्रवादी अनुदारवादी ताकतों की स्थिर सरकार बनाना चाहते थे. शुरू में वे हिटलर को चांसलर बनाने के पक्ष में नहीं थे. बहुत समय तक वे हिटलर को बोहेमिया का कॉरपोरल कहते थे. हिंडेनबुर्ग का इशारा इस बात की ओर रहता था कि वे स्वयं पहले विश्व युद्ध में लड़ने वाले जनरल फील्ड मार्शल थे, जबकि हिटलर एक साधारण सैनिक था.
लेकिन 1933 आते आते हिंडेनबुर्ग ने अपनी राय बदल ली. उनके विश्वासपात्रों ने उन्हें बताया कि वे हिटलर को नियंत्रण में रखेंगे. पीपुल्स पार्टी के अल्फ्रेड हुगेनबर्ग ने कहा था, “हम हिटलर को घेर कर रखेंगे.” नाजी पार्टी को कैबिनेट में सिर्फ दो सीटें दी गईं. बदले में हिटलर और उसके समर्थकों ने शुरू में जानबूझकर नरमी दिखाई और ज्यादा हो हल्ला नहीं किया.
सचमुच 30 जनवरी को हिटलर और उसके साथियों के लिए एक सपना पूरा हो गया था. गोएबेल्स ने खुश होकर अपनी डायरी में लिखा था, “हिटलर राइषचांसलर बन गए हैं. हम परीलोक में हैं.” बिना सोचे समझे गणतंत्र की कब्र खोदने वाले को देश का चांसलर बना दिया गया था. उसने अपनी जीवनी माइन कम्प्फ में अपनी योजनाएं साफ कर दी थी. उसने लिखा था कि यहूदियों को मिटा दिया जाएगा और तलवार की मदद से नया इलाका जीता जाएगा.
इतिहास में 30 जनवरी 1933 को सत्ता हथियाने के दिन में याद किया जाता है. यह शब्द भी नाजी प्रचार की उपज है. इतिहास का कितना बड़ा मजाक है कि हिटलर की नियुक्ति संविधान सम्मत तरीके से हुई थी. हिंडेनबुर्ग ने हिटलर को चांसलर पद की शपथ दिलाने के बाद कहा था, “अब श्रीमान भगवान की मदद से आगे बढ़ें.” वे खुद यह नहीं देख पाए कि हिटलर का रास्ता जर्मनी को नरसंहार और विश्व युद्ध की ओर ले गया. 1934 में उनकी मृत्यु हो गई.
हिटलर ने बहुत ही जल्द दिखा दिया कि उसे घेरने, कमजोर या नियंत्रित करने का इरादा कितान बचकाना था. उसके चांसलर बनने के कुछ ही दिनों के अंदर पूरे देश में नाजियों के एसए संगठन के गुंडों का आतंक शुरू हो गया. कम्युनिस्टों, सोशल डेमोक्रैटों और ट्रेड यूनियनिस्टों पर अत्याचार शुरू हुआ. कुछ ही दिनों बाद पहले यातना शिविर बने जहां एसए के लोग अपने विरोधियों को सताते थे. उनके बाद यहूदियों और विरोधियों की बारी आई. कुछ ही महीनों के अंदर उसने वाइमार लोकतंत्र की कब्र खोदकर उसके ऊपर अपनी तानाशाही कायम कर ली.
हिटलर जर्मन 11 दिसंबर 1941 को संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा
RISE OF THE NAZI PARTY
The success of Hitler and the Nazi party did not come from nowhere. The party developed and established itself in a Germany devastated by defeat in World War One and suffering an economic crisis.
Antisemitism (anti-Jewish hatred) was present in societies across Europe, and there was a rise in pseudo-scientific ideas of eugenics and ‘race theory’. The newly established democratic government of Germany, the Weimar Republic, was under attack from other political groups. Right-wing extremists blamed the country’s defeat in World War One on a conspiracy between communists and Jews.
Timeline
1918 – The end of World War One. The Weimar Republic is established as a new democratic government for Germany.
1919 – The Treaty of Versailles is signed. Germany is required to accept full responsibility for the war, and must pay reparations to cover all civilian damage caused by the war – amounting to $33 billion US dollars.
The National Socialist German Workers’ Party (NSDAP – abbreviated to Nazi) is established, combining right wing nationalism with socialist economic ideas. Dominant themes in Nazi ideology were a racist and antisemitic German nationalism, fierce opposition to communism, rejection of liberal democratic government structures, and opposition to big business.
1921 – Adolf Hitler became Party Chairman.
1921-1922 – Support for the Nazis grows due to the appeal to young unemployed men who were suffering due to the economic crisis under the Weimar Republic.
1922 – Inspired by the Fascist Party in Italy, Hitler introduced the straight-armed salute, which became synonymous with the Nazi party, and is still used by Neo-Nazi and Fascist groups today.
1923 – The Nazi Party carried out an unsuccessful coup against the government which resulted in Hitler’s arrest. He used his trial as a platform to talk about his Nazi ideologies, gaining much greater notoriety. Whilst in prison Hitler wrote his manifesto Mein Kampf (My Struggle) in which he outlined his ideology and violent antisemitism.
1925-1929 – After his release from prison in 1924, Hitler announced that the Party would take a legal path to power, and despite poor results in elections, support was developed. Mein Kampf was published in 1925.
1929 – On the eve of the Great Depression, the Nazi Party had around 130,000 members. The Nazis gained support during the economic crisis by promoting the idea that Germany’s problems were the fault of Jewish financiers, building on existing antisemitic sentiment.
1930 – Nazi electoral support surged to 18% as traditional right wing and centrist parties struggled to respond to spiraling unemployment and business failures.
1932 – The Nazis became the largest party in the German parliament, winning over 37% of the vote. Stable government became impossible with the Nazi Party and the Communist Party both opposing the democratic constitution, and controlling over half the seats in parliament between them. A second election also proved inconclusive, though the Nazi majority was reduced.
1933:
January – The traditional right wing President, Paul Von Hindenburg, was persuaded to appoint Hitler as Chancellor (German equivalent of Prime Minister) with a cabinet with a minority of Nazi ministers. Once in office, Hitler quickly secured almost unlimited power through manipulation and terror, though he remained publicly respectful to the President.
February – When a fire destroyed the German parliament in February 1933, Hitler claimed the country faced a communist plot. He used the situation to justify an ‘Enabling Act’ which gave him dictatorial powers.
March – The first concentration camp was set up in Dachau, southern Germany. Communists, Social Democrats, trade unionists, and other political opponents of the Nazi regime were imprisoned there.
July – The Nazi Party was declared the only legal political party in Germany.
1934 – In June 1934 Hitler ordered a ruthless purge of political rivals – resulting in the murder of over 80 individuals. This was primarily aimed at the Sturmabteilung (SA) – the Nazi’s paramilitary wing – which threatened the traditional German military, and which presented a potential alternative power structure to those loyal to Hitler. The defeat of the SA allowed Himmler’s Schutzstaffel (SS) – the Nazi paramilitary group most loyal to Hitler – to assert itself as the most powerful and feared organisation in Nazi Germany. ‘The Night of the Long Knives’ also targeted other political opponents such as left-wing Nazis and traditional conservatives – cementing Hitler’s political dominance. When President Hindenburg died a couple of months later Hitler proclaimed himself Führer – supreme leader of Germany.
NAZI PERSECUTION OF OTHER GROUPS: 1933 ‑ 1945
In addition to singling out Jews for complete annihilation, the Nazis targeted for discrimination and persecution, anyone they believed threatened their ideal of a ‘pure Aryan race’.
Nazi beliefs categorised people by race, and Hitler used the word ‘Aryan’ for his idea of a ‘pure German race’. The Nazis believed Aryan people were superior to all others. Their devotion to what they believed was racial purity and their opposition to racial mixing partly explains their hatred towards Jews, Roma and Sinti people and black people. Slavic people, such as those from Poland and Russia, were considered inferior and were targeted because they lived in areas needed for German expansion.
The Nazis wanted to ‘improve’ the genetic make-up of the population and so persecuted people they deemed to be disabled, either mentally or physically, as well as gay people. Political opponents, primarily communists, trade unionists and social democrats, as well as those whose religious beliefs conflicted with Nazi ideology, such as Jehovah’s Witnesses, were also targeted for persecution.
Hundreds of thousands of lives were destroyed because of Nazi persecution, and many groups did not receive acknowledgement of their suffering until years after 1945.
Key Dates
February 27, 1933
Reichstag (German parliament) building destroyed by fire
After claiming that the Communists committed an arson that destroyed the Reichstag (German parliament) building in Berlin, Adolf Hitler uses the incident to assume extraordinary powers in Germany. Hitler convinces the German president, Paul von Hindenburg, to declare a state of emergency. Constitutionally protected personal freedoms are thus suspended.
March 5, 1933
Nazis fail to win majority in Reichstag (German parliament) elections
Despite the state of emergency declared in February 1933 and the extraordinary powers assumed by Adolf Hitler, the Nazis fail to win a governing majority in parliamentary elections. The Nazis win only about 45 percent of the vote. Later in March 1933, Hitler introduces a bill that would give his government the power to decree laws without submitting them to a vote in the German parliament. The bill will pass, in part because of the arrest of many Communist and Socialist opponents before the vote on the bill.
March 23, 1933
The Reichstag (German parliament) votes legislative power to Hitler
After the failure of the Nazi Party to win a majority in parliament, Adolf Hitler introduces a bill that would give his government legislative authority. The Nazis, the Conservatives, and the Catholic Center Party support this so-called “Enabling Act,” which would grant Hitler’s government the power to decree laws without a vote in parliament for a four-year period. Communist and many Socialist opponents were arrested before the vote. In the end, only the remaining Socialists oppose the measure. The bill passes. Hitler soon outlaws all political parties in Germany—except the Nazi Party.
June 30, 1934
Night of the Long Knives
A purge of the Storm Trooper (SA) leadership and other supposed opponents of Adolf Hitler’s regime takes place. This purge comes to be known as the “Night of the Long Knives.” More than 80 SA leaders are arrested and shot without trial. Hitler claims that the purge is a response to a plot by the SA to overthrow the government. The SA, under the leadership of Ernst Roehm, had sought to take the place of the German army. The removal of Roehm wins Hitler greater support from the army.
August 2, 1934
President von Hindenburg dies at the age of 87
German president Paul von Hindenburg dies at the age of 87. Upon Hindenburg’s death, Adolf Hitler takes over the powers of the presidency. The army swears an oath of personal loyalty to Hitler. Hitler’s dictatorship thus rests on his position as Reich President (head of state), Reich Chancellor (head of government), and Fuehrer (leader of the Nazi Party). Hitler’s official title is now “Fuehrer and Reich Chancellor.”
एडॉल्फ हिटलर: प्रमुख तिथियां
20 अप्रैल, 1889
एडॉल्फ हिटलर (1889-1945) का जन्म ऑस्ट्रिया के सीमावर्ती शहर ब्रूनाउ एम इन में हुआ है, जो कर संग्रहक अलोइस हिटलर के बेटे हैं। आम धारणा के विपरीत, उनका कोई यहूदी पूर्वज नहीं था।
1908
हिटलर वियाना चला जाता है। उनकी दरिद्रता और बेघर आश्रयों में निवास, उनके द्वारा एक उदार विरासत को गंवा देने के बाद अगले वर्ष शुरू हुआ। हिटलर मई 1913 तक वियाना में रहता है।
1913
हिटलर मई में म्यूनिख, जर्मनी चला जाता है, और अगले वर्ष वह प्रथम विश्व युद्ध में लड़ने के लिए जर्मन सेना में शामिल हो जाता है।
1918
बेल्जियम में यप्रेस के पास मस्टर्ड गैस हमले में हिटलर आंशिक रूप से अंधा हो जाता है। 11 नवंबर, 1918 की खबर, एक सैन्य अस्पताल में उसका स्वास्थ्य अच्छा हो रहा होता है, तब युद्धविराम की खबर उसके पास पहुँचती है। प्रथम विश्व युद्ध का हिटलर और कई अन्य जर्मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। संघर्ष का प्रभाव और इसकी विभाजनकारी शांति आने वाले दशकों के लिए दुष्परिणाम है, जो इसकी आड़ में किए गए दूसरे विश्व युद्ध और नरसंहार को जन्म दे रहा है।
12 सितंबर, 1919
हिटलर जर्मन वर्कर्स पार्टी (डोयिचे ऑर्बाइटरपारटाई -DAP) की एक प्रारंभिक मीटिंग में शामिल होता है, जो बाद में उनके नेतृत्व में नाज़ी पार्टी बन जाएगी।
8-9 नवंबर, 1923
एडॉल्फ हिटलर और नाज़ी पार्टी बवेरिया की सरकार को उखाड़ फेंकने और “राष्ट्रीय क्रांति” शुरू करने के प्रयास में एक गठबंधन समूह का नेतृत्व करते हैं। यह तथाकथित बीयर हॉल पुट्स विफल रहता है। हिटलर और अन्य को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है।
1923-25
हिटलर को उच्च राजद्रोह का दोषी ठहराया जाता है और पांच वर्षों की कैद की सज़ा सुनाई गई, हालांकि वह केवल एक वर्ष तक रहता है। जेल में रहते हुए, वह माइन कैंफ (मेरा संघर्ष) लिखते हैं। यह कुख्यात संस्मरण नाज़ीवाद और उसकी नस्लीय विचारधारा के प्रमुख घटकों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण साबित होता है। 1925 और 1926 में दो हिस्सों में प्रकाशित, यह 1933 में हिटलर के कार्यालय में प्रथम वर्ष में दस लाख प्रतियां बेचेगा।
1925
हिटलर ने ऐस ऐस (शुट्ज़स्टाफ़ेल; सुरक्षा स्क्वाड्रन) की स्थापना की। नाज़ी शासन के दौरान, ऐस ऐस न केवल जर्मन पुलिस बल और यातना शिविर प्रणाली के लिए, बल्कि सुरक्षा, जातीयता की पहचान, निपटान और जनसंख्या नीति, और बुद्धिमता के लिए भी जिम्मेदार बन जाएगा।
10 अप्रैल, 1932
हिटलर जर्मन राष्ट्रपति पद के लिए एक रन-ऑफ चुनाव में बुज़ूर्ग अवलंबी, जनरल पॉल वॉन हिंडनबर्ग से हार गया।
जनवरी 1933
एडॉल्फ हिटलर की चांसलर के रूप में नियुक्ति के साथ नाज़ी पार्टी सत्ता में आती है।
23 मार्च, 1933
अज्ञात आगजनी करने वालों द्वारा जर्मन संसद भवन, राइख़्स्टैग को जलाने के बाद, जर्मन संसद ने राष्ट्र और राइख़ के संकट के सुधार के लिए कानून पारित किया, जिसे आमतौर पर सक्षम अधिनियम (एर्मैच्टिगंग्सगेसेटज़) कहा जाता है। यह कानून हिटलर को, चांसलर के रूप में, संसदीय सहमति प्राप्त किए बिना कानून में विधान शुरूआत करने और हस्ताक्षर करने की अनुमति देता है। यह अधिनियम जर्मनी में, हिटलर के अधीन, एक तानाशाही को प्रभावी ढंग से निर्धारित करता है।
30 जून-2 जुलाई, 1934
हिटलर के आदेश पर, नाज़ी नेताओं ने ऐस ए के नेतृत्व को खत्म कर दिया और अन्य राजनीतिक दुश्मनों को मार डाला। जानलेवापरिशोध नाज़ी शासन और जर्मन सेना के बीच एक समझौते को मज़बूत करता है जो नाज़ी शक्ति को मज़बूत करता है और हिटलर को खुद को जर्मनी का फ्यूहरर (नेता) घोषित करने और पूर्ण शक्ति का दावा करने में सक्षम बनाता है।
ग्रीष्म ऋतू 1936
हिटलर ने बर्लिन ओलंपिक्स का उद्घाटन किया। 1936 एक दुर्लभ उदाहरण को पेश करता है जिसमें एक राष्ट्र, जर्मनी ने शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन दोनों ओलंपिक खेलों की मेज़बानी की। नाज़ी जर्मनी प्रचार के उद्देश्यों के लिए 1936 के ओलंपिक्स का इस्तेमाल करता है। यहूदियों और रोमा (जिप्सियों) के साथ-साथ जर्मनी के बढ़ते सैन्यवाद के शासन के लक्ष्य को ढ़कते हुए नाज़ियों ने एक नए, मज़बूत, और एकजुट जर्मनी की छवि को बढ़ावा दिया।
गैरी बिगस 1936 के ओलंपिक के दौरान बर्लिन का वर्णन करते हैं
गैरी (गेरहार्ड) का जन्म 1924 में बर्लिन, जर्मनी में हुआ था। उनके पिता की अपनी पुरुषों के कपड़ों की दुकान थी। बचपन में, गैरी को अपने साथियों के विरोध का सामना करना पड़ा। उनके परिवार की दुकान का कई बार बहिष्कार किया गया था, और अंततः 1938 में क्रिसटकनखट के दौरान नष्ट कर दिया गया था। जैसे ही शहर 1936 के ओलंपिक के लिए पर्यटकों के बर्लिन आने की तैयारी कर रहा था, गैरी ने देखा कि यहूदी विरोधी संकेत स्टोरफ्रंट्स से गायब हो गए हैं। 1939 में, गैरी और उनके माता-पिता शंघाई, चीन जाने के बाद जर्मनी से भाग निकले। युद्ध समाप्त होने से कुछ समय पहले उनके पिता की शंघाई में बीमारी से मृत्यु हो गई। गैरी और उसकी माँ अपने परिवार के दोनों पक्षों में होलोकॉस्ट से बचने वाली एकमात्र शेष सदस्य थी। वे युद्ध के बाद पहले इज़राइल में आकर बस गए, फिर संयुक्त राज्य अमेरिका में बस गए।
विवरण देखें
1938
29-30 सितंबर, 1938 को जर्मनी के म्यूनिख में एक सम्मेलन में हिटलर ब्रिटेन, फ्रांस, और इटली के नेताओं के साथ मिलते हैं, जिसमें वे जर्मनी से शांति की प्रतिज्ञा के बदले सुडेटेनलैंड के जर्मन कब्जे के लिए सहमत होते हैं। छह महीनों बाद, हिटलर चेकोस्लोवाक राज्य के ख़िलाफ़ चलते हैं।
12 मार्च, 1938
जर्मन सैनिकों ने ऑस्ट्रिया में मार्च किया। देशी पुत्र एडॉल्फ हिटलर अपने गृहनगर, ब्रूनाउ ऑन द इन में दोपहर में ऑस्ट्रो-जर्मन सीमा पार करते हैं। अगले दिन, ऑस्ट्रिया की जर्मन राईख़ में विलय की घोषणा की जाती है। 15 मार्च को, हिटलर 200,000 की उत्साही भीड़ के सामने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में प्रवेश करते हैं।
23 जनवरी, 1939
जनवरी 1939 में जर्मन संसद में एक भाषण में, हिटलर ने कहा कि एक और विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप से यहूदियों का सफाया हो जाएगा।
23 अगस्त, 1939
जर्मन और सोवियत विदेश मंत्री रिबेंट्रोप और मोलोटोव, क्रमशः जर्मन-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर करते हैं। इस समझौते का मुख्य सिद्धांत एक दस साल का गैर-आक्रामकता समझौता है जिसमें प्रत्येक हस्ताक्षरकर्ता दूसरे पर हमला नहीं करने का वादा करता है।
1 सितंबर, 1939
द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत करते हुए, नाज़ी जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया।
1939 का पतझड़ या जनवरी 1940 की शुरुआत
एडॉल्फ हिटलर एक “इच्छामृत्यु” कार्यक्रम के लिए एक गुप्त प्राधिकरण पर हस्ताक्षर करता है, मानसिक और शारीरिक विकलांग मरीज़ों की व्यवस्थित हत्या जो जर्मनी और जर्मन-अनुलग्न क्षेत्रों में संस्थागत केंद्रों में रह रहे हैं। यह एकमात्र उदाहरण है जिसमें हिटलर व्यवस्थित सामूहिक हत्या के कार्यक्रम के लिए एक प्राधिकरण पर हस्ताक्षर करते हैं।
1941
1941 में, एडॉल्फ हिटलर, हेनरिक हिमलर, रेनहार्ड हेड्रिक और अन्य प्रमुख जर्मन अधिकारी यूरोप के यहूदियों को शारीरिक रूप से नष्ट करने के निर्णय पर पहुँचते हैं।
22 जून, 1941
जर्मन सेना ने “ऑपरेशन बारब्रोसा” में सोवियत संघ पर आक्रमण किया। पश्चिमी यूरोप में अपनी विजय के विरोध में, हिटलर और अन्य नाज़ी नेता सोवियत संघ के खिलाफ नस्लीय और वैचारिक दृष्टि से युद्ध देखते हैं।
11 दिसंबर, 1941
पर्ल हार्बर पर जापानी हमले के बाद, नाज़ी जर्मनी और उसके सहयोगी इटली ने संयुक्त राज्य अमेरिका पर युद्ध की घोषणा की, इस तथ्य के बावजूद कि अमेरिका ने केवल जापान के साम्राज्य के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी। एक वर्ष से भी कम समय में, अमेरिकी जमीनी सैनिक उत्तरी अफ्रीका में जर्मन सेना से लड़ेंगे।
9 जून, 1942
ऐस ऐस के सेकेंड-इन-कमांड, रेइनहार्ड हेड्रिक की मौत के बाद हिटलर ने चेक आबादी के खिलाफ जवाबी कार्रवाई का आदेश दिया। लिडिस और लेज़की के कस्बों को नष्ट कर दिया जाता है और निवासियों का नरसंहार या निर्वासित किया गया है।
31 जनवरी–2 फरवरी, 1943
महीनों की भयंकर लड़ाई और भारी हताहतों के बाद, जर्मन सेना (अब केवल 91,000 जीवित सैनिकों की संख्या) ने द्वितीय विश्व युद्ध के एक प्रमुख मोड़ में स्टेलिनग्राद में आत्मसमर्पण कर दिया और यह हिटलर के सोवियत संघ को हराने के लंबे समय के लक्ष्य के लिए एक त्रासदी था।
6 जून, 1944
जर्मन और हिटलर के शासन के खिलाफ “द्वितीय मोर्चा” खोलते हुए, मित्र देशों की सेना फ्रांस के नॉरमैंडी समुद्र तटों पर सफलतापूर्वक उतरी।
20 जुलाई, 1944
हिटलर सैन्य और नागरिक अधिकारियों द्वारा समन्वित हत्या के प्रयास से बचते हैं। प्रयास की विफलता और इच्छित तख्तापलट जिसका पालन करना था, जिसके कारण लगभग 7,000 लोगों की गिरफ्तारी हुई और लगभग 5,000 व्यक्तियों को फांसी दी गई।
30 अप्रैल, 1945
आगे बढ़ रही सोवियत सेना के द्वारा पकड़े जाने का सामना करने के बजाय हिटलर ने बर्लिन में एक भूमिगत बंकर में आत्महत्या कर ली।
1945
नूर्नबर्ग में अंतरराष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण (IMT) ने एडॉल्फ हिटलर, हेनरिक हिमलर, और जोसेफ गोएबल्स की अनुपस्थिति में कोशिश नहीं करने का निर्णय लेता है। युद्ध की समाप्ति से पहले तीनों ने आत्महत्या कर ली थी। ऐसा करने में, IMT यह धारणा बनाने से बचना चाहता था कि वे अभी भी जीवित हो सकते हैं।
यहूदियों का खात्मा
होलोकॉस्ट नाज़ी जर्मन शासन और उसके सहायक और सहयोगियों द्वारा साठ लाख यूरोपीय यहूदियों का व्यवस्थित, राज्य-प्रायोजित उत्पीड़न और हत्या थी। होलोकॉस्ट एक उभरती हुई प्रक्रिया थी जो 1933 और 1945 के बीच पूरे यूरोप में हुई।
होलोकॉस्ट क्या था?
होलोकॉस्ट (1933–1945) नाज़ी जर्मन शासन और उसके सहायकों और सहयोगियों द्वारा साठ लाख यूरोपीय यहूदियों का व्यवस्थित, राज्य-प्रायोजित उत्पीड़न और हत्या थी।(1) यूनाइटेड स्टेट्स होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूज़ियम यहूदियों का खात्मे के वर्षों को 1933–1945 के रूप में परिभाषित करता है। होलोकॉस्ट का युग जनवरी 1933 में शुरू हुआ जब एडॉल्फ हिटलर और नाज़ी पार्टी जर्मनी में सत्ता में आए। यह मई 1945 में समाप्त हुआ, जब मित्र राष्ट्रों ने द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी को हराया। होलोकॉस्ट को कभी-कभी “शोह” के रूप में भी जाना जाता है, “आपदा” के लिए हिब्रू शब्द।
Members of the Storm Troopers (SA), with boycott signs, block the entrance to a Jewish-owned shop. [LCID: 11286a]
यहूदी-स्वामित्व वाले व्यवसायों का बहिष्कार
स्टॉर्म ट्रूपर्स (SA) के सदस्य, बहिष्कार के संकेतों के साथ, यहूदी-स्वामित्व वाली दुकान के प्रवेश द्वार को अवरुद्ध करते हैं। संकेतों में से एक संकेत देता है: “जर्मन! अपना बचाव करें! यहूदियों से मत खरीदो!” बर्लिन, जर्मनी, 1 अप्रैल, 1933।
National Archives and Records Administration, College Park, MD
जब वे जर्मनी में सत्ता में आए, तो नाज़ियों ने तुरंत बड़े पैमाने पर हत्या करना शुरू नहीं किया। हालांकि, उन्होंने जल्दी से सरकार का इस्तेमाल जर्मन समाज से यहूदियों को निशाना बनाने और बाहर करने के लिए करना शुरू कर दिया। अन्य यहूदी विरोधी उपायों में, नाज़ी जर्मन शासन ने भेदभावपूर्ण कानून बनाए और जर्मनी के यहूदियों को लक्षित हिंसा का आयोजन किया। 1933 और 1945 के बीच यहूदियों का नाज़ी उत्पीड़न तेजी से कट्टरपंथी बन गया। इस कट्टरवाद की परिणति एक योजना के रूप में हुई जिसे नाज़ी नेताओं ने “यहूदी प्रश्न का अंतिम समाधान” कहा। “अंतिम समाधान” यूरोपीय यहूदियों की संगठित और व्यवस्थित बड़े पैमाने पर हत्या थी। 1941 और 1945 के बीच नाज़ी जर्मन शासन ने इस नरसंहार को लागू किया।
नाज़ियों ने यहूदियों को क्यों निशाना बनाया?
नाज़ियों ने यहूदियों को निशाना बनाया क्योंकि नाज़ी मौलिक रूप से यहूदी विरोधी थे। इसका मतलब यह है कि वे यहूदियों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण थे और उनसे नफरत करते थे। वास्तव में, यहूदी-विरोध उनकी विचारधारा का मूल सिद्धांत था और उनकी विश्वदृष्टि की बुनियाद पर टिका था।
नाज़ियों ने यहूदियों पर जर्मनी की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधी समस्याएं पैदा करने का झूठा आरोप लगाया। विशेष रूप से, उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध (1914–1918) में जर्मनी की हार के लिए उन्हें दोषी ठहराया। कुछ जर्मन इन नाज़ी दावों के प्रति ग्रहणशील थे। युद्ध के नुकसान और उसके बाद के आर्थिक और राजनीतिक संकटों पर क्रोध ने जर्मन समाज में यहूदी-विरोध को बढ़ावा देने में योगदान दिया। वीमर गणराज्य (1918–1933) के तहत जर्मनी की अस्थिरता, साम्यवाद का डर और महामंदी के आर्थिक झटके ने भी कई जर्मनों को नाज़ी विचारों के प्रति खींचा, जिसमें यहूदी विरोधवाद भी शामिल था।
हालाँकि, नाज़ियों ने यहूदी-विरोध शुरू नहीं किया था। यहूदी-विरोधवाद एक पुराना और व्यापक पक्षपातपूर्ण है जिसने पूरे इतिहास में कई रूप धारण किए हैं। यूरोप में, यह प्राचीन काल से है। मध्य युग (500–1400) में, यहूदियों के खिलाफ पक्षपात मुख्य रूप से प्रारंभिक ईसाई विश्वास और विचार पर आधारित थे, विशेष रूप से यह मिथक कि यहूदी यीशु की मृत्यु के लिए जिम्मेदार थे।प्रारंभिक आधुनिक यूरोप (1400–1800) में धार्मिक पूर्वाग्रहों में निहित संदेह और भेदभाव जारी रहा। उस समय, ईसाई यूरोप के अधिकांश नेताओं ने यहूदियों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के अधिकांश पहलुओं से अलग कर दिया। इस बहिष्कार ने यहूदियों की रूढ़ियों में बाहरी लोगों के रूप में योगदान दिया। यूरोप के अधिक धर्मनिरपेक्ष होने के साथ, कई जगहों ने यहूदियों पर अधिकांश कानूनी प्रतिबंधों को हटा दिया। हालांकि, इसका मतलब यहूदी विरोधवाद का अंत नहीं था। धार्मिक विरोधवाद के अलावा, 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोप में अन्य प्रकार के यहूदी-विरोधवाद ने भी जोर पकड़ लिया। इन नए रूपों में आर्थिक, राष्ट्रवादी और नस्लीय विरोधवाद शामिल थे। 19वीं शताब्दी में, यहूदी-विरोधी ने झूठा दावा किया कि आधुनिक, औद्योगिक समाज में कई सामाजिक और राजनीतिक बुराइयों के लिए यहूदी जिम्मेदार थे। नस्ल, यूजीनिक्स और सोशल डार्विनवाद के सिद्धांतों ने इन नफरतों को गलत तरीके से सही ठहराया। यहूदियों के प्रति नाज़ी पक्षपात ने इन सभी तत्वों पर विशेष रूप से नस्लीय विरोधवाद को आकर्षित किया।स्लीय विरोधवाद एक भेदभावपूर्ण विचार है कि यहूदी एक अलग और निम्न जाति हैं।
नाज़ी पार्टी ने नस्लीय विरोधवाद के एक विशेष किस्म के उग्र रूप को बढ़ावा दिया। यह पार्टी की नस्ल-आधारित विश्वदृष्टि की बुनिवाद पर टिका था। नाज़ियों का मानना था कि दुनिया को अलग-अलग जातियों में विभाजित किया गया था और इनमें से कुछ जातियाँ दूसरों से श्रेष्ठ हैं। वे जर्मनों को कथित रूप से श्रेष्ठ “आर्यन” जाति का सदस्य मानते थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि “आर्यन्स” अन्य, निम्न जातियों के साथ अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे। इसके अलावा, नाज़ियों का मानना था कि तथाकथित “यहूदी जाति” सबसे नीच और खतरनाक थी। नाज़ियों के अनुसार, यहूदी एक खतरा थे जिसे जर्मन समाज से हटाने की जरूरत थी। अन्यथा, नाज़ियों ने जोर देकर कहा, “यहूदी जाति” जर्मन लोगों को स्थायी रूप से भ्रष्ट और नष्ट कर देगी। यहूदियों की नाज़ियों की नस्ल-आधारित परिभाषा में ऐसे कई व्यक्ति शामिल थे जिनकी ईसाईयों के रूप में पहचान हुई या यहूदी धर्म में जिनकी आसक्ति नहीं थी।
होलोकॉस्ट कहाँ हुआ?
होलोकॉस्ट एक नाज़ी जर्मन पहल थी जो पूरे जर्मन- और एक्सिस-नियंत्रित यूरोप में हुई थी। इसने यूरोप की लगभग पूरी यहूदी आबादी को प्रभावित किया, जिसकी संख्या 1933 में 90 लाख थी।
जनवरी 1933 में एडॉल्फ हिटलर को चांसलर नियुक्त किए जाने के बाद जर्मनी में होलोकॉस्ट शुरू हुआ। लगभग तुरंत, नाज़ी जर्मन शासन (जो खुद को तीसरा रैह कहता था) ने यहूदियों को जर्मन आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन से बाहर कर दिया। 1930 के दशक के दौरान, शासन ने यहूदियों पर देश छोड़ने के लिए दबाव डाला।
लेकिन यहूदियों का नाज़ी उत्पीड़न जर्मनी के बाहर भी फैल गया। 1930 के दशक के दौरान, नाज़ी जर्मनी ने एक आक्रामक विदेश नीति अपनाई। इसका समापन द्वितीय विश्व युद्ध में हुआ, जो 1939 में यूरोप में शुरू हुआ। युद्ध से पहले और युद्ध के दौरान क्षेत्रीय विस्तार ने अंततः लाखों यहूदी लोगों को जर्मन नियंत्रण में ला दिया।
1938–1939 में नाज़ी जर्मनी का क्षेत्रीय विस्तार शुरू हुआ। इस समय के दौरान, जर्मनी ने पड़ोसी ऑस्ट्रिया और सुडेटेनलैंड पर कब्जा कर लिया और चेक भूमि पर कब्जा कर लिया। 1 सितंबर, 1939 को नाज़ी जर्मनी ने पोलैंड पर हमला करके द्वितीय विश्व युद्ध (1939–1945) शुरू किया। अगले दो वर्षों में, जर्मनी ने सोवियत संघ के पश्चिमी भागों सहित यूरोप के अधिकांश हिस्से पर हमला किया और कब्जा कर लिया। नाज़ी जर्मनी ने इटली, हंगरी, रोमानिया और बुल्गारिया की सरकारों के साथ गठबंधन करके अपना नियंत्रण आगे बढ़ाया। इसने स्लोवाकिया और क्रोएशिया में कठपुतली राज्य भी बनाए। इन देशों ने मिलकर एक्सिस गठबंधन के यूरोपीय सदस्य तैयार किए, जिसमें जापान भी शामिल था।
1942 तक—एनेक्सेशन, आक्रमणों, व्यवसायों और गठबंधनों के परिणामस्वरूप— नाज़ी जर्मनी ने अधिकांश यूरोप और उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण पाया। नाज़ी नियंत्रण कठोर नीतियां लाया और अंततः पूरे यूरोप में यहूदी नागरिकों की सामूहिक हत्याएं कीं।
नाज़ियों और उनके सहायकों और सहयोगियों ने साठ लाख यहूदियों की हत्या कर दी।
नाज़ी जर्मनी और उसके सहायकों और सहयोगियों ने यहूदी लोगों को कैसे सताया?
1933 और 1945 के बीच, नाज़ी जर्मनी और उसके सहायकों और सहयोगियों ने यहूदी विरोधी नीतियों और उपायों की एक विस्तृत श्रृंखला लागू की। ये नीतियां एक जगह से दूसरी जगह पर अलग-अलग रहीं। इस प्रकार, सभी यहूदियों ने एक ही तरह से होलोकॉस्ट का अनुभव नहीं किया। लेकिन सभी मामलों में, लाखों लोगों को केवल इसलिए सताया गया क्योंकि उनकी पहचान यहूदी के रूप में हुई थी।
पूरे जर्मन-नियंत्रित और गठबंधन क्षेत्रों में, यहूदियों के उत्पीड़न ने कई प्रकार के रूप लिए:
यहूदी-विरोधी कानूनों के रूप में कानूनी भेदभाव। इनमें नूर्नबर्ग रेस कानून और कई अन्य भेदभावपूर्ण कानून शामिल थे।
सार्वजनिक पहचान और बहिष्करण के विभिन्न रूप। इनमें यहूदी विरोधी प्रचार, यहूदी-स्वामित्व वाले व्यवसायों का बहिष्कार, सार्वजनिक अपमान और अनिवार्य चिह्न (जैसे कि आर्मबैंड या कपड़ों पर पहना जाने वाला यहूदी स्टार बैज) शामिल थे।
संगठित हिंसा। सबसे उल्लेखनीय उदाहरण क्रिस्टालनाचट है। अलग-अलग घटनाएं और अन्य नरसंहार (हिंसक दंगे) भी हुए थे।
भौतिक विस्थापन। अपराधियों ने यहूदी व्यक्तियों और समुदायों को शारीरिक रूप से विस्थापित करने के लिए जबरन उत्प्रवास, पुनर्वास, निष्कासन, निर्वासन और यहूदी बस्ती का इस्तेमाल किया।
नजरबंदी। अपराधियों ने यहूदियों को भीड़भाड़ वाली यहूदी बस्तियों, यातना शिविरों और ज़बरदस्ती श्रम शिविरों में नज़रबंद कर दिया, जहाँ कई लोग भुखमरी, बीमारी और अन्य अमानवीय परिस्थितियों से मर गए।
बड़े पैमाने पर चोरी और लूट। यहूदियों की संपत्ति, निजी सामान और क़ीमती सामान की जब्ती होलोकॉस्ट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
जबरन मजदूरी। यहूदियों को एक्सिस युद्ध प्रयासों की सेवा में या नाज़ी संगठनों, सैन्य और/या निजी व्यवसायों के संवर्धन के लिए जबरन श्रम करना पड़ा।
बेंजामिन (बेन) मीड 1939 में जर्मन कब्जे के बाद के वारसॉ और पहली बार यहूदी विरोधी भावना के अनुभव का वर्णन करते हैं
बेन एक धार्मिक यहूदी परिवार में पैदा हुए चार बच्चों में से एक थे। पहला सितंबर, 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया। जर्मनों द्वारा वारसॉ पर कब्जा करने के बाद, बेन ने सोवियत कब्जे वाले पूर्वी पोलैंड में भागने का फैसला किया। हालांकि, उन्होंने जल्द ही अपने परिवार में लौटने का फैसला किया, फिर वारसॉ यहूदी बस्ती में। बेन को यहूदी बस्ती के बाहर एक कार्य विवरण सौंपा गया था, और यहूदी फाइटिंग ऑर्गनाइजेशन (ZOB) के सदस्य व्लादका (फगेले) पेलटेल सहित यहूदी बस्ती से लोगों की तस्करी में मदद की, जो बाद में उनकी पत्नी बन गई। बाद में, वह यहूदी बस्ती के बाहर छिप गए थे और एक गैर-यहूदी पोल के रूप में पेश आए। 1943 में वारसॉ यहूदी बस्ती के विद्रोह के दौरान, बेन ने यहूदी बस्ती के लड़ाकों को बचाने के लिए अन्य भूमिगत सदस्यों के साथ काम किया, उन्हें सीवर के जरिए बाहर लाया और उन्हें वारसॉ के “आर्यन” पक्ष में छिपा दिया। वारसॉ के “आर्यन” पक्ष से, बेन ने विद्रोह के दौरान वारसॉ यहूदी बस्ती को जलाते हुए देखा। विद्रोह के बाद, बेन गैर-यहूदी बनकर वारसॉ से भाग निकले। मुक्ति के बाद, वह अपने पिता, माता, और छोटी बहन के साथ फिर से मिले।
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कई यहूदी इन नीतियों के परिणामस्वरूप मारे गए। लेकिन 1941 से पहले, सभी यहूदियों की व्यवस्थित बड़े पैमाने पर हत्या नाज़ी नीति नहीं थी। हालाँकि, 1941 की शुरुआत में, नाज़ी नेताओं ने यूरोप के यहूदियों की बड़े पैमाने पर हत्या करने का निर्णय लिया। उन्होंने इस योजना को “यहूदी प्रश्न का अंतिम समाधान” कहा।
“यहूदी प्रश्न का अंतिम समाधान” क्या था?
नाज़ी “यहूदी प्रश्न का अंतिम समाधान” (“Endlösung der Judenfrage”) यूरोपीय यहूदियों की जानबूझकर और व्यवस्थित बड़े पैमाने पर हत्या थी। यह नरसंहार का अंतिम चरण था और 1941 से 1945 तक हुआ था। हालांकि “अंतिम समाधान” शुरू होने से पहले कई यहूदी मारे गए थे, इस अवधि के दौरान अधिकांश यहूदी पीड़ितों की हत्या कर दी गई थी।
“अंतिम समाधान” के हिस्से के रूप में, नाज़ी जर्मनी ने एक अभूतपूर्व बड़े पैमाने पर हत्या की। हत्या के दो मुख्य तरीके थे। एक तरीका था बड़े पैमाने पर गोलीबारी। जर्मन इकाइयों ने पूरे पूर्वी यूरोप में गांवों, कस्बों और शहरों के बाहरी इलाकों में बड़े पैमाने पर गोलीबारी की। दूसरी विधि जहरीली गैस के साथ श्वासावरोध था। हत्या केंद्रों में और मोबाइल गैस वैनों के साथ गैसिंग ऑपरेशन किए गए।
बड़े पैमाने पर गोलीबारी
नाज़ी जर्मन शासन ने पहले कभी नहीं देखे गए पैमाने पर नागरिकों पर गोलीबारी की। जून 1941 में जर्मनी द्वारा सोवियत संघ पर हमला करने के बाद, जर्मन इकाइयों ने स्थानीय यहूदियों पर बड़े पैमाने पर गोलीबारी शुरू कर दी। सबसे पहले, इन इकाइयों ने सैन्य उम्र के यहूदी पुरुषों को निशाना बनाया। लेकिन अगस्त 1941 तक, उन्होंने पूरे यहूदी समुदायों का नरसंहार करना शुरू कर दिया था। ये नरसंहार अक्सर दिन-दहाड़े और स्थानीय निवासियों के सामने और बेतहाशा आयोजित किए जाते थे।
बड़े पैमाने पर गोलीबारी अभियान पूर्वी यूरोप के 1,500 से अधिक शहरों, कस्बों और गांवों में हुए। स्थानीय यहूदी आबादी की हत्या का काम करने वाली जर्मन इकाइयाँ भयानक नरसंहार करते हुए पूरे क्षेत्र में फ़ैल गईं। आमतौर पर, ये इकाइयाँ एक शहर में प्रवेश करतीं और यहूदी नागरिकों को घेर लेतीं। फिर वे यहूदी निवासियों को शहर के बाहरी इलाके में ले जाते। इसके बाद, वे उन्हें एक बड़ी कब्र खोदने या पहले से तैयार बड़ी कब्रों में ले जाने के लिए मजबूर करते। अंत में, जर्मन सेना और/या स्थानीय सहयोगी इकाइयां सभी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को इन गड्ढों में गोली मार देती। कभी-कभी, इन नरसंहारों में विशेष रूप से तैयार की गई मोबाइल गैस वैनों का उपयोग शामिल होता था। अपराधी इन वैनों का इस्तेमाल कार्बन मोनोऑक्साइड के निकास के साथ पीड़ितों का दम घोंटने के लिए करते।
जर्मनों ने कब्जे वाले पूर्वी यूरोप में हत्या स्थलों पर बड़े पैमाने पर गोलीबारी की। आमतौर पर, ये बड़े शहरों के पास स्थित थे। इन स्थानों में कोवनो (कौनास) में फोर्ट IX, रीगा में रूंबुला और बाइकर्निकी वन और मिन्स्क के पास माली ट्रोस्टेनेट्स शामिल थे। इन हत्या स्थलों पर, जर्मनों और स्थानीय सहयोगियों ने कोवनो, रीगा और मिन्स्क यहूदी बस्तियों के हजारों यहूदियों की हत्या कर दी। उन्होंने इन हत्या स्थलों पर हज़ारों जर्मन, ऑस्ट्रियाई और चेक के यहूदियों को भी गोली मारी। माली ट्रोस्टेनेट्स में, हजारों पीड़ितों की गैस वैनों में भी हत्या कर दी गई।
पूर्वी यूरोप में बड़े पैमाने पर गोलीबारी करने वाली जर्मन इकाइयों में इन्सत्ज़ग्रुपेन (एसएस और पुलिस के विशेष कार्य बल), ऑर्डर पुलिस बटालियन और वैफेन-एसएस इकाइयां शामिल हैं। जर्मन सेना (वेहरमाच) ने लॉजिस्टिकल सहायता और जनशक्ति प्रदान की। कुछ वेहरमाच इकाइयों ने नरसंहार भी किया। कई जगहों पर, एसएस और पुलिस के साथ काम करने वाली स्थानीय सहायक इकाइयों ने बड़े पैमाने पर गोलीबारी में भाग लिया। इन सहायक इकाइयों में स्थानीय नागरिक, सैन्य और पुलिस अधिकारी शामिल थे।
सोवियत सेनाओं से जब्त किए गए क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर गोलीबारी या गैस वैनों में 20 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई।
हत्या केंद्र
1941 के अंत में, नाज़ी शासन ने जर्मन कब्जे वाले पोलैंड में विशेष रूप से तैयार किए गए, स्थिर हत्या केंद्रों का निर्माण शुरू किया। अंग्रेजी में, हत्या केंद्रों को कभी-कभी “विनाश शिविर” या “मृत्यु शिविर” कहा जाता है। नाज़ी जर्मनी ने पांच हत्या केंद्र संचालित किए: चेल्मनो, बेल्ज़ेक, सोबिबोर, ट्रेब्लिंका और ऑशविट्ज़-बिरकेनौ। उन्होंने बड़े पैमाने पर यहूदियों की कुशलतापूर्वक हत्या करने के एकमात्र उद्देश्य से इन हत्या केंद्रों का निर्माण किया था। हत्या केंद्रों पर हत्या का प्राथमिक साधन सीलबंद गैस कक्षों या वैनों में छोड़ी गई जहरीली गैस थी।
जर्मन अधिकारियों ने अपने सहायकों और सहयोगियों की मदद से यहूदियों को पूरे यूरोप से इन हत्या केंद्रों तक पहुँचाया। उन्होंने हत्या केंद्रों तक के परिवहन को “पुनर्वास कार्रवाई” या “निकासी परिवहन” कहकर अपने इरादों को छुपाया। अंग्रेजी में, उन्हें अक्सर “निर्वासन” कहा जाता है। इनमें से ज्यादातर निर्वासन ट्रेन से हुए। यहूदियों को कुशलता से हत्या केंद्रों तक पहुंचाने के लिए, जर्मन अधिकारियों ने व्यापक यूरोपीय रेल प्रणाली, साथ ही परिवहन के अन्य साधनों का इस्तेमाल किया।कई मामलों में रेलगाड़ियों में रेलकार मालवाहक डब्बे थे; अन्य मामलों में वे यात्री डब्बे थे।
निर्वासन परिवहन की स्थितियां भयावह थीं। जर्मन और सहयोगी स्थानीय अधिकारियों ने सभी उम्र के यहूदियों को भीड़भाड़ वाले रेलकार में जाने को मजबूर किया। उन्हें अक्सर कभी-कभी कई दिनों तक, ट्रेन के अपने गंतव्य तक पहुंच जाने तक खड़े रहना पड़ता था। अपराधियों ने उन्हें भोजन, पानी, स्नानघरों, गर्मी और चिकित्सा देखभाल से वंचित रखा। यहूदी अक्सर अमानवीय परिस्थितियों के कारण रास्ते में मर जाते थे।
विशाल संख्या में यहूदियों को उनके आने के तुरंत बाद हत्या केंद्रों में भेज दिया जाता था। कुछ यहूदी जिन्हें जर्मन अधिकारी स्वस्थ और मजबूत समझते थे, उन्हें जबरन श्रम के लिए चुना जाता था।
मेरी माँ मेरे पास दौड़ी और मुझे कंधों से पकड़ लिया, और उसने मुझसे कहा “लीबेल, मैं तुम्हें और नहीं देखूँगी। अपने भाई का ख्याल रखना।”
—लियो श्नाइडरमैन ऑशविट्ज़ में आगमन, चयन और अपने परिवार से अलग होने का वर्णन करते हुए
सभी पांच हत्या केंद्रों में, जर्मन अधिकारियों ने कुछ यहूदी कैदियों को हत्या की प्रक्रिया में सहायता करने के लिए मजबूर किया। अन्य कामों के अलावा, इन कैदियों को पीड़ितों के सामान को छांटना था और पीड़ितों के शवों को गैस चैंबर्स से निकालना था। विशेष इकाइयों ने लाखों लाशों को बड़े पैमाने पर दफनाने, जलते हुए गड्ढों में, या बड़े, विशेष रूप से तैयार किए गए श्मशान में जलाकर निपटाया।
पांच हत्या केंद्रों में लगभग 27 लाख यहूदी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी गई।
यहूदी बस्तियां क्या थीं और होलोकॉस्ट के दौरान जर्मन अधिकारियों ने उन्हें क्यों बनाया?
बस्तियां उन शहरों या कस्बों के क्षेत्र थे जहां जर्मन कब्जेदारों ने यहूदियों को भीड़भाड़ और गंदगी भरी परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया। जर्मन अधिकारियों ने अक्सर इन क्षेत्रों को दीवारों या अन्य अवरोधों को घेरा। गार्डों ने यहूदियों को बिना अनुमति के जाने से रोका। कुछ यहूदी बस्तियां वर्षों से अस्तित्व में थी, लेकिन अन्य केवल महीनों, हफ्तों, या दिनों के लिए ही निर्वासन या हत्या से पहले के स्थानों के रूप में मौजूद थीं।
जर्मन अधिकारियों ने पहले 1939–1940 में जर्मन के कब्जे वाले पोलैंड में यहूदी बस्तियां बनाईं। दो सबसे बड़े कब्जे वाले पोलिश शहरों वारसॉ और लॉड्ज़ (Łódź) में स्थित थे। जून 1941 से शुरू होकर, जर्मन अधिकारियों ने भी उन्हें सोवियत संघ पर जर्मन हमले के बाद पूर्वी यूरोप में नए विजय प्राप्त क्षेत्रों में स्थापित किया। जर्मन अधिकारियों और उनके सहायकों और सहयोगियों ने भी यूरोप के अन्य हिस्सों में यहूदी बस्तियों की स्थापना की। विशेष रूप से, 1944 में, जर्मन और हंगेरियन अधिकारियों ने हंगरी से निर्वासन से पहले यहूदियों को केंद्रीकृत और नियंत्रित करने के लिए अस्थायी यहूदी बस्तियां बनाईं।
बस्तियों का उद्देश्य
जर्मन अधिकारियों ने मूल रूप से कब्जे वाले पूर्वी यूरोप में बड़ी स्थानीय यहूदी आबादी को अलग करने और नियंत्रित करने के लिए यहूदी बस्तियों की स्थापना की। शुरुआत में, उन्होंने यहूदी निवासियों को शहर और आसपास के क्षेत्र या क्षेत्र के भीतर केंद्रित किया। हालाँकि, 1941 की शुरुआत में, जर्मन अधिकारियों ने यूरोप के अन्य हिस्सों (जर्मनी सहित) से यहूदियों को इनमें से कुछ यहूदी बस्तियों में भी भेजा।
कई यहूदी बस्तियों में यहूदी जबरन मजदूरी जीवन की एक केंद्रीय विशेषता बन गई। मूलत:, यह यहूदी बस्ती के प्रशासन के लिए भुगतान करने के साथ-साथ जर्मन युद्ध के प्रयासों का समर्थन करने के लिए था। कभी-कभी, जबरन श्रम के लिए कैद यहूदियों का शोषण करने के लिए कारखानों और कार्यशालाओं को नज़दीक स्थापित किया गया था। श्रम अक्सर शारीरिक और भीषण होता था।
यहूदी बस्तियों में जीवन
यहूदी बस्तियों में जीवन दयनीय और खतरनाक था। वहां कम भोजन और सीमित स्वच्छता या चिकित्सा देखभाल थी। सैकड़ों हजारों लोग भूख; बड़े पैमाने पर रोग; अत्यधिक तापमान के संपर्क में; साथ ही जबरन श्रम से थकावट से मर गए। जर्मनों ने जेल में बंद यहूदियों की क्रूर पिटाई, यातना, मनमाने ढंग से गोलीबारी और मनमानी हिंसा के अन्य रूपों के जरिए भी हत्या कर दी।
यहूदी बस्तियों में रहने वाले यहूदियों ने गरिमा और समुदाय की भावना बनाए रखने की मांग की। स्कूलों, पुस्तकालयों, सांप्रदायिक कल्याण सेवाओं और धार्मिक संस्थानों ने निवासियों के बीच कुछ हद तक संबंध प्रदान किया। बस्तियों में रोज़मर्रा का जीवन दर्ज करने का प्रयास, जैसे कि Oneg Shabbat संग्रह और गुप्त फोटोग्राफी, आध्यात्मिक प्रतिरोध के शक्तिशाली उदाहरण हैं। कई यहूदी बस्तियों में भूमिगत आंदोलन भी थे जिन्होंने सशस्त्र प्रतिरोध किया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध 1943 में वारसॉ यहूदी बस्ती विद्रोह है।
यहूदी बस्तियों का परिसमापन
1941–1942 की शुरुआत में, जर्मन और उनके सहायकों और सहयोगियों ने यहूदी बस्तियों के निवासियों की सामूहिक रूप से हत्या कर दी और यहूदी बस्ती के प्रशासनिक ढांचे को भंग कर दिया। उन्होंने इस प्रक्रिया को “परिसमापन” कहा। यह “यहूदी प्रश्न का अंतिम समाधान” का हिस्सा था। यहूदी बस्तियों में अधिकांश यहूदियों की हत्या या तो पास के हत्या स्थलों पर बड़े पैमाने पर गोलीबारी में या हत्या केंद्रों में निर्वासन के बाद की गई थी। अधिकांश हत्या केंद्र जानबूझकर जर्मन कब्जे वाले पोलैंड की बड़ी यहूदी बस्तियों के पास या आसानी से सुलभ रेलवे मार्गों पर स्थित थे।
होलोकॉस्ट और अंतिम समाधान को अंजाम देने के लिए कौन जिम्मेदार था?
होलोकॉस्ट और अंतिम समाधान को अंजाम देने के लिए कई लोग जिम्मेदार थे।
सबसे अधिक मात्रा में, एडॉल्फ हिटलर ने यूरोप के यहूदियों के नरसंहार को प्रेरित, आदेशित, अनुमोदित और समर्थन किया। हालाँकि, हिटलर ने अकेले यह काम नहीं किया। न ही उन्होंने अंतिम समाधान के कार्यान्वयन के लिए कोई सटीक योजना तैयार की। अन्य नाज़ी नेता वे थे जिन्होंने बड़े पैमाने पर हत्या का सीधे समन्वय किया, योजना बनाई और कार्यान्वित किया। उनमें से हरमन गोरिंग, हेनरिक हिमलर, रेनहार्ड हेड्रिक और एडॉल्फ इचमैन थे।
हालाँकि, लाखों जर्मनों और अन्य यूरोपीय लोगों ने होलोकॉस्ट में भाग लिया। उनकी भागीदारी के बिना, यूरोप में यहूदी लोगों का नरसंहार संभव नहीं होता। नाज़ी नेताओं ने जर्मन संस्थानों और संगठनों; अन्य एक्सिस शक्तियों; स्थानीय नौकरशाही और संस्थानों और व्यक्तियों पर भरोसा किया।
जर्मन संस्थान, संगठन और व्यक्ति
नाज़ी नेताओं ने होलोकॉस्ट को अंजाम देने में सहायता करने के लिए कई जर्मन संस्थानों और संगठनों पर भरोसा किया। नाज़ी संगठनों के सदस्यों ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले और उसके दौरान कई यहूदी विरोधी कार्रवाइयां शुरू कीं और उन्हें अंजाम दिया। इन संगठनों में नाज़ी पार्टी, SA (स्टॉर्मट्रूपर्स या ब्राउनशर्ट्स) और एसएस (Schutzstaffel, प्रोटेक्शन स्क्वाड्रन) शामिल हैं। एक बार युद्ध शुरू होने के बाद, एसएस और उसके पुलिस सहयोगी विशेष रूप से घातक हो गए। Sicherheitsdienst (the SD), गेस्टापो, आपराधिक पुलिस (क्रिपो) और आर्डर पुलिस के सदस्यों ने यूरोप के यहूदियों की बड़े पैमाने पर हत्या में विशेष रूप से सक्रिय और घातक भूमिका निभाई। अंतिम समाधान करने में शामिल अन्य जर्मन संस्थानों में जर्मन सेना; जर्मन राष्ट्रीय रेलवे और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली; जर्मन सिविल सेवा और आपराधिक न्याय प्रणाली और जर्मन व्यवसाय, बीमा कंपनियां और बैंक शामिल थे ।
इन संस्थानों के सदस्यों के रूप में, अनगिनत जर्मन सैनिकों, पुलिसकर्मियों, सिविल सेवकों, वकीलों, न्यायाधीशों, व्यापारियों, इंजीनियरों और डॉक्टरों और नर्सों ने शासन की नीतियों को लागू करना चुना। साधारण जर्मनों ने भी विभिन्न तरीकों से होलोकॉस्ट में भाग लिया। यहूदियों को पीटे जाने या अपमानित किए जाने पर कुछ जर्मन खुशी से झूम उठे। दूसरों ने नस्लवादी कानूनों और नियमों की अवहेलना करने के लिए यहूदियों की निंदा की। कई जर्मन अपने यहूदी पड़ोसियों के सामान और संपत्ति खरीदी, ली या लूट ली। होलोकॉस्ट में इन जर्मनों की भागीदारी उत्साह, करियरवाद, भय, लालच, स्वार्थ, यहूदी-विरोधी और राजनीतिक आदर्शों, अन्य कारकों से प्रेरित थी।
गैर-जर्मन सरकारें और संस्थान
नाज़ी जर्मनी ने अकेले होलोकॉस्ट को अंजाम नहीं दिया। यह अपने सहायकों और सहयोगियों की मदद पर निर्भर था। इस संदर्भ में, “सहायक” आधिकारिक तौर पर नाज़ी जर्मनी के साथ संबद्ध एक्सिस देशों को संदर्भित करता है। “सहयोगी” उन शासनों और संगठनों को संदर्भित करता है जिन्होनें एक आधिकारिक या अर्ध-आधिकारिक क्षमता में जर्मन अधिकारियों के साथ सहयोग किया। नाज़ी जर्मनी के सहायकों और सहयोगियों में शामिल हैं:
यूरोपीय एक्सिस शक्तियाँ और अन्य सहयोगी शासन (जैसे विची फ़्रांस)। इन सरकारों ने अपने स्वयं के यहूदी विरोधी कानून पारित किए और जर्मन लक्ष्यों के साथ सहयोग किया।
जर्मन समर्थित स्थानीय नौकरशाही, विशेष रूप से स्थानीय पुलिस बल। इन संगठनों ने नीदरलैंड जैसे जर्मनी से संबद्ध देशों में भी यहूदियों को घेरने, नजरबंद करने और निर्वासित करने में मदद की।
सैन्य और पुलिस अधिकारियों और नागरिकों से बनी स्थानीय सहायक इकाइयाँ। इन जर्मन समर्थित इकाइयों ने पूर्वी यूरोप (अक्सर स्वेच्छा से) में यहूदियों के नरसंहार में भाग लिया।
“सहायक” और “सहयोगी” शब्द इन सरकारों और संगठनों से संबद्ध व्यक्तियों को भी संदर्भित कर सकते हैं।
पूरे यूरोप के व्यक्ति
पूरे यूरोप में, जिन व्यक्तियों की कोई सरकारी या संस्थागत संबद्धता नहीं थी और जो यहूदियों की हत्या में सीधे भाग नहीं लेते थे, उन्होंने भी होलोकॉस्ट में योगदान दिया।
सबसे घातक चीजों में से एक जो पड़ोसियों, परिचितों, सहकर्मियों और यहां तक कि दोस्त भी कर सकते थे, वह था नाजी जर्मन अधिकारियों के लिए यहूदियों की निंदा करना। अज्ञात लोगों ने ऐसा करना चुना। उन्होंने यहूदियों के छिपने के स्थानों का खुलासा किया, झूठी ईसाई पहचान का पर्दाफाश किया,और अन्यथा नाज़ी अधिकारियों को यहूदियों की पहचान कराई। ऐसा करके, वे अपनी मृत्यु के कारण बनें। इन व्यक्तियों की प्रेरणाएँ व्यापक थीं: भय, स्वार्थ, लालच, बदला, यहूदी-विरोधी,और राजनीतिक और वैचारिक विश्वास।
होलोकॉस्ट से व्यक्तियों को भी लाभ हुआ। गैर-यहूदी कभी-कभी यहूदियों के घरों में चले जाते थे, यहूदी-स्वामित्व वाले व्यवसायों पर कब्जा कर लेते थे और यहूदियों की संपत्ति और क़ीमती सामान चुरा लेते थे। यह नरसंहार के साथ हुई व्यापक चोरी और लूट का हिस्सा था।
अक्सर व्यक्तियों ने अपने यहूदी पड़ोसियों की दुर्दशा के प्रति निष्क्रियता और उदासीनता के जरिए होलोकॉस्ट में योगदान दिया। कभी-कभी इन व्यक्तियों को बाईस्टैंडर्स कहा जाता है।
नाज़ी उत्पीड़न और सामूहिक हत्या के अन्य शिकार कौन थे?
होलोकॉस्ट विशेष रूप से साठ लाख यहूदियों के व्यवस्थित, राज्य-प्रायोजित उत्पीड़न और हत्या को संदर्भित करता है। हालाँकि, वहाँ नाज़ी उत्पीड़न और हत्या के लाखों अन्य शिकार थे। 1930 के दशक में, शासन ने जर्मन समाज के भीतर कई तरह के कथित घरेलू दुश्मनों को निशाना बनाया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जैसे-जैसे नाज़ियों ने अपनी पहुंच बढ़ाई, लाखों अन्य यूरोपीय भी नाज़ी क्रूरता के शिकार बने।
नाज़ियों ने यहूदियों को प्राथमिकता “दुश्मन” के रूप में वर्गीकृत किया। हालांकि, उन्होंने जर्मन लोगों के स्वास्थ्य, एकता,और सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में अन्य समूहों को भी निशाना बनाया। नाज़ी शासन द्वारा लक्षित पहले समूह में राजनीतिक विरोधी शामिल थे। इनमें अधिकारी और अन्य राजनीतिक दलों के सदस्य और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता शामिल थे। राजनीतिक विरोधियों में ऐसे लोग भी शामिल थे जिन पर नाज़ी शासन का विरोध करने या आलोचना करने का शक था। राजनीतिक दुश्मन सबसे पहले नाज़ी एकाग्रता शिविरों में कैद हुए थे। यहोवा के साक्षियों को भी जेलों और एकाग्रता शिविरों में कैद किया गया था। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था क्योंकि उन्होंने सरकार के प्रति वफादारी की कसम खाने या जर्मन सेना में सेवा करने से इनकार कर दिया था।
नाज़ी शासन ने उन जर्मनों को भी निशाना बनाया जिनकी गतिविधियों को जर्मन समाज के लिए हानिकारक समझा गया था। इनमें समलैंगिकता के आरोपी पुरुष, पेशेवर या आदतन अपराधी होने का आरोप लगाने वाले व्यक्ति,और तथाकथित असामाजिक तत्व (जैसे कि आवारा, भिखारी, वेश्या, दलाल और शराबियों के रूप में पहचाने जाने वाले लोग) शामिल हैं। इन हजारों पीड़ितों को जेलों और एकाग्रता शिविरों में कैद कर दिया गया था। शासन ने एफ्रो-जर्मनों की जबरन नसबंदी और उत्पीड़न भी किया।
नाज़ी शासन द्वारा विकलांग लोगों को भी पीड़ित किया गया था। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले, माना जाता है कि अस्वस्थ वंशानुगत स्थितियों वाले जर्मनों की जबरन नसबंदी कर दी जाती थी। एक बार युद्ध शुरू होने के बाद, नाज़ी नीति कट्टरपंथी हो गई। विकलांग लोगों, विशेष रूप से संस्थानों में रहने वाले लोगों को जर्मनी पर आनुवंशिक और वित्तीय बोझ दोनों माना जाता था। तथाकथित इच्छामृत्यु कार्यक्रम में इन लोगों को हत्या के लिए लक्षित किया गया था।
नाज़ी शासन ने नस्लीय, सभ्यतागत या वैचारिक शत्रु माने जाने वाले समूहों के खिलाफ अत्यधिक उपाय किए। इसमें रोमा (जिप्सीज़), पोल्स (विशेषकर पोलिश बुद्धिजीवी और अभिजात वर्ग), सोवियत अधिकारी और युद्ध के सोवियत कैदी शामिल थे। नाज़ियों ने इन समूहों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हत्याएं कीं।
होलोकॉस्ट मई 1945 में समाप्त हुआ जब प्रमुख मित्र शक्तियों (ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ) ने द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी को हराया। जैसे-जैसे मित्र देशों की सेनाएँ पूरे यूरोप में हमलों की एक श्रृंखला में बढ़ती गईं, उन्होंने एकाग्रता शिविरों पर कब्जा कर लिया। वहां उन्होंने जीवित कैदियों को मुक्त कराया जिनमें से कई यहूदी थे। सहायकों ने तथाकथित डेथ मार्च से बचे लोगों का सामना भी किया और उन्हें मुक्त भी कराया। इन जबरन मार्चों में यहूदी और गैर-यहूदी एकाग्रता शिविर के कैदियों के समूह शामिल थे जिन्हें एसएस गार्ड के तहत शिविरों से पैदल निकाला गया था।
लेकिन मुक्ति समापन नहीं लाई। कई होलोकॉस्ट बचे लोगों को हिंसक यहूदी विरोधवाद और विस्थापन के चल रहे खतरों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्होंने नए जीवन का निर्माण करने की मांग की थी। कई ने परिवार के सदस्यों को खो दिया था, जबकि अन्य ने लापता माता-पिता, बच्चों और भाई-बहनों का पता लगाने के लिए वर्षों तक खोज की थी।
कुछ यहूदी होलोकॉस्ट से कैसे बचे?
यूरोप के सभी यहूदियों की हत्या करने के नाज़ी जर्मनी के प्रयासों के बावजूद, कुछ यहूदी होलोकॉस्ट से बच गए। जीवित रहने ने कई प्रकार के रूप लिए। लेकिन, हर मामले में, जीवित रहना केवल परिस्थितियों, विकल्पों, दूसरों से मदद (यहूदी और गैर-यहूदी दोनों), और सरासर भाग्य के एक असाधारण संगम के कारण ही संभव था।
जर्मन-नियंत्रित यूरोप के बाहर जीवित रहना
कुछ यहूदी जर्मन-नियंत्रित यूरोप से निकलकर होलोकॉस्ट से बच गए। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से पहले, सैकड़ों हजारों यहूदी महत्वपूर्ण आप्रवासन बाधाओं के बावजूद नाज़ी जर्मनी से चले गए। जो लोग संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन,और जर्मन नियंत्रण से बाहर के अन्य क्षेत्रों में आकर बस गए, वे नाज़ी हिंसा से सुरक्षित थे। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद भी, कुछ यहूदी जर्मन-नियंत्रित यूरोप से भागने में सफल रहे। उदाहरण के लिए, लगभग 200,000 पोलिश यहूदी पोलैंड के जर्मन कब्जे से निकल गए। सोवियत अधिकारियों द्वारा उन्हें पूर्व से सोवियत संघ के आंतरिक भाग में निर्वासित करने के बाद ये यहूदी कठोर परिस्थितियों में युद्ध से बच गए।
जर्मन नियंत्रित यूरोप में जीवित रहना
जर्मन-नियंत्रित यूरोप के भीतर बहुत कम संख्या में यहूदी बच गए। उन्होंने अक्सर ऐसा बचावकर्मियों की मदद से किया। बचाव के प्रयास व्यक्तियों की अलग-अलग कार्रवाइयों से लेकर संगठित नेटवर्क तक, छोटे और बड़े दोनों तरह के होते हैं। पूरे यूरोप में, ऐसे गैर-यहूदी थे जिन्होंने अपने यहूदी पड़ोसियों, दोस्तों और अजनबियों को जीवित रहने में मदद करने के लिए गंभीर जोखिम उठाया। उदाहरण के लिए, उन्होंने यहूदियों के लिए छिपने के स्थान दिए, झूठे कागजात खरीदे जो सुरक्षात्मक ईसाई पहचान दिखाते थे, या उन्हें भोजन और आपूर्ति देते थे। अन्य यहूदी पक्षपातपूर्ण प्रतिरोध आंदोलनों के सदस्य के रूप में जीवित रहे। अंत में, कुछ यहूदियों ने भारी बाधाओं के बावजूद, एकाग्रता शिविरों, यहूदी बस्तियों और यहां तक कि हत्या केंद्रों में कैद से बचने में कामयाबी हासिल की।
Reichstag fire
The Reichstag fire (German: Reichstagsbrand) was an arson attack on the Reichstag building, home of the German parliament in Berlin, on Monday, 27 February 1933, precisely four weeks after Nazi leader Adolf Hitler was sworn in as Chancellor of Germany. Marinus van der Lubbe, a Dutch council communist, was the alleged culprit; however, Hitler attributed the fire to Communist agitators. He used it as a pretext to claim that Communists were plotting against the German government, and induced President Paul von Hindenburg to issue the Reichstag Fire Decree suspending civil liberties, and pursue a “ruthless confrontation” with the Communists. This made the fire pivotal in the establishment of Nazi Germany.
The first report of the fire came shortly after 9:00 p.m., when a Berlin fire station received an alarm call. By the time police and firefighters arrived, the Chamber of Deputies (the lower house) was engulfed in flames. The police conducted a thorough search inside the building and found Van der Lubbe, who was arrested.
After the Fire Decree was issued, the Nazi-controlled police made mass arrests of communists, including all of the communist Reichstag delegates. This severely crippled communist participation in the 5 March elections. After the 5 March elections, the absence of the communists gave the Nazi Party a majority in the Reichstag, greatly assisting the Nazi seizure of total power. On 9 March 1933 the Prussian state police arrested Bulgarians Georgi Dimitrov, Vasil Tanev, and Blagoy Popov, who were known Comintern operatives (though the police did not know it, Dimitrov was head of all Comintern operations in Western Europe). Ernst Torgler, head of the Communist Party, had surrendered to police on 28 February.
Van Der Lubbe and the four Communists were the defendants in a trial that started in September 1933. It ended in the acquittal of the four Communists and the conviction of Van der Lubbe, who was executed.
The responsibility for the Reichstag fire remains a topic of debate and research. Some historians believe, based on archive evidence, that the arson had been planned and ordered by the Nazis as a false flag operation.The building remained in its damaged state until it was partially repaired from 1961 to 1964 and completely restored from 1995 to 1999.
In 2008, Germany posthumously pardoned Van der Lubbe under a law introduced in 1998 to lift unjust verdicts dating from the Nazi era.
Prelude
After the November 1932 German federal election, the Nazi Party had a plurality, not a majority; the communists posted gains. Adolf Hitler was sworn in as Chancellor and head of the coalition government on 30 January 1933. As chancellor, Hitler asked President Paul von Hindenburg to dissolve the Reichstag and call for a new parliamentary election. The date set for the elections was 5 March 1933.
Hitler hoped to abolish democracy in a quasi-legal fashion, by passing the Enabling Act. The Enabling Act was a special law that gave the Chancellor the power to pass laws by decree, without the involvement of the Reichstag. These special powers would remain in effect for four years, after which time they were eligible to be renewed. Under the Weimar Constitution, the President could rule by decree in times of emergency using Article 48.
During the election campaign, the Nazis alleged that Germany was on the verge of a communist revolution and that the only way to stop the communists was to put the Nazis securely in power. The message of the campaign was simple: increase the number of Nazi seats.
Fire
Shortly after 9 p.m. on 27 February 1933, the Reichstag building was reported as on fire, and firefighters were dispatched. Despite their efforts, most of the building was gutted.By 11:30 p.m., the fire was put out. The firefighters and police inspected the ruins and found 20 bundles of flammable material (firelighters) unburned lying about. At the time the fire was reported, Hitler was having dinner with Joseph Goebbels at Goebbels’ apartment in Berlin. When Goebbels received an urgent phone call informing him of the fire, he regarded it as a “tall tale” at first and hung up. Only after the second call did he report the news to Hitler. Both left Goebbels’ apartment and arrived by car at the Reichstag, just as the fire was being put out. They were met at the site by Hermann Göring, Interior Minister of Prussia, who told Hitler, “This is communist outrage! One of the communist culprits has been arrested.” Hitler called the fire a “sign from God” and claimed it was a signal meant to mark the beginning of a communist revolt. The next day, the Prussian Press Service reported that “this act of incendiarism is the most monstrous act of terrorism carried out by Bolshevism in Germany”. The Vossische Zeitung newspaper warned its readers that “the government is of the opinion that the situation is such that a danger to the state and nation existed and still exists”.
Walter Gempp was head of the Berlin fire department at the time of the Reichstag fire on 27 February 1933, personally directing the operations at the incident. On 25 March he was dismissed for presenting evidence that suggested Nazi involvement in the fire. Gempp asserted that there had been a delay in notifying the fire brigade and that he had been forbidden from making full use of the resources at his disposal. In 1937, Gempp was arrested for abuse of office. Despite his appeal, he was imprisoned. Gempp was strangled and killed in prison on 2 May 1939.
Political consequences
The day after the fire, at Hitler’s request, President Hindenburg signed the Reichstag Fire Decree into law by using Article 48 of the Weimar Constitution. The Reichstag Fire Decree suspended most civil liberties in Germany, including habeas corpus, freedom of expression, freedom of the press, the right of free association and public assembly, and the secrecy of the post and telephone.[18] These rights were not reinstated during Nazi reign. The decree was used by the Nazis to ban publications not considered friendly to the Nazi cause. Despite the fact that Marinus van der Lubbe claimed to have acted alone in the Reichstag fire, Hitler, after having obtained his emergency powers, announced that it was the start of a wider communist effort to take over Germany. Nazi Party newspapers then published this fabricated story. This sent the German population into a panic and isolated the communists further among the civilians; additionally, thousands of communists were imprisoned in the days following the fire (including leaders of the Communist Party of Germany) on the charge that the Party was preparing to stage a putsch. Speaking to Rudolph Diels about communists during the Reichstag fire, Hitler said “These sub-humans do not understand how the people stand at our side. In their mouse-holes, out of which they now want to come, of course they hear nothing of the cheering of the masses.” With communist electoral participation also suppressed (the communists previously polled 17% of the vote), the Nazis were able to increase their share of the vote in the 5 March 1933 Reichstag elections from 33% to 44%. This gave the Nazis and their allies, the German National People’s Party (who won 8% of the vote), a majority of 52% in the Reichstag.
While the Nazis emerged with a majority, they fell short of their goal, which was to win 50–55% of the vote that year. The Nazis thought that this would make it difficult to achieve their next goal, passage of the Enabling Act giving Hitler the right to rule by decree, which required a two-thirds majority.[20] However, several important factors weighed in the Nazis’ favour, mainly the continued suppression of the Communist Party and the Nazis’ ability to capitalize on national security concerns. Moreover, some deputies of the Social Democratic Party (the only party that would vote against the Enabling Act) were prevented from taking their seats in the Reichstag, due to arrests and intimidation by the Nazi SA. As a result, the Social Democratic Party would be under-represented in the final vote tally. The Enabling Act passed easily on 23 March 1933, with the support of the right-wing German National People’s Party, the Centre Party, and several fragmented middle-class parties. The measure went into force on 24 March, effectively making Hitler dictator of Germany.
The Kroll Opera House, sitting across the Königsplatz from the burned-out Reichstag building, functioned as the Reichstag’s venue for the remaining 12 years of the Third Reich’s existence
Legal proceedings
In July 1933, Marinus van der Lubbe, Ernst Torgler, Georgi Dimitrov, Blagoi Popov, and Vasil Tanev were indicted on charges of setting the fire. One week before the trial began, on 14 September 1933, the German artist John Heartfield published a photomontage in the Arbeiter-Illustrierte-Zeitung , which he named “Goering, der Henker des Dritten Reiches” (Goering the Executioner). In it the burning Reichstag can be seen in the background
German Supreme Court trial, September to December 1933
From 21 September to 23 December 1933, the Leipzig Trial took place and was presided over by judges from the German Supreme Court, the Reichsgericht. This was Germany’s highest court. The presiding judge was Judge Wilhelm Bünger of the Fourth Criminal Court of the Fourth Penal Chamber of the Supreme Court.The accused were charged with arson and with attempting to overthrow the government.
The Leipzig Trial was widely publicized and was broadcast on the radio. It was expected that the court would find the communists guilty on all counts. The trial began at 8:45 on the morning of 21 September, with Van der Lubbe testifying. Van der Lubbe’s testimony was very hard to follow as he spoke of losing his sight in one eye and wandering around Europe as a drifter and that he had been a member of the Communist Party of Holland, which he quit in 1931, but still considered himself a communist. Georgi Dimitrov began his testimony on the third day of the trial. He gave up his right to a court-appointed lawyer and defended himself successfully. When warned by Judge Bünger to behave himself in court, Dimitrov stated: “Herr President, if you were a man as innocent as myself and you had passed seven months in prison, five of them in chains night and day, you would understand it if one perhaps becomes a little strained.” During the course of his defence, Dimitrov claimed that the organizers of the fire were senior members of the Nazi Party and frequently verbally clashed with Göring at the trial. The high point of the trial occurred on 4 November 1933, when Göring took the stand and was cross-examined by Dimitrov. The following exchange took place:
Dimitrov: Herr Prime Minister Göring stated on February 28 that, when arrested, the “Dutch Communist Van der Lubbe had on his person his passport and a membership card of the Communist Party”. From whom was this information taken?
Göring: The police search all common criminals, and report the result to me.
Dimitrov: The three officials who arrested and examined Van der Lubbe all agreed that no membership card of the Communist Party was found on him. I should like to know where the report that such a card had been found came from.
Göring: I was told by an official. Things which were reported to me on the night of the fire…could not be tested or proven. The report was made to me by a responsible official, and was accepted as a fact, and as it could not be tested immediately it was announced as a fact. When I issued the first report to the press on the morning after the fire the interrogation of Van der Lubbe had not been concluded. In any case I do not see that anyone has any right to complain because it seems proved in this trial that Van der Lubbe had no such card on him.
Dimitrov: I would like to ask the Minister of the Interior what steps he took to make sure that Van der Lubbe’s route to Hennigsdorf, his stay and his meetings with other people there were investigated by the police to assist them in tracking down Van der Lubbe’s accomplices?
Göring: As I am not an official myself, but a responsible Minister it was not important that I should trouble myself with such petty, minor matters. It was my task to expose the Party, and the mentality, which was responsible for the crime.
Dimitrov: Is the Reichsminister aware of the fact that those that possess this alleged criminal mentality today control the destiny of a sixth part of the world – the Soviet Union?
Göring: I don’t care what happens in Russia! I know that the Russians pay with bills, and I should prefer to know that their bills are paid! I care about the Communist Party here in Germany and about Communist crooks who come here to set the Reichstag on fire!
Dimitrov: This criminal mentality rules the Soviet Union, the greatest and best country in the world. Is Herr Prime Minister aware of that?
Göring: I shall tell you what the German people already know. They know that you are behaving in a disgraceful manner! They know that you are a Communist crook who came to Germany to set the Reichstag on fire! In my eyes you are nothing, but a scoundrel, a crook who belongs on the gallows!”.
In his verdict, Judge Bünger was careful to underline his belief that there had in fact been a communist conspiracy to burn down the Reichstag, but declared, with the exception of Van der Lubbe, there was insufficient evidence to connect the accused to the fire or the alleged conspiracy. The Bulgarians were acquitted and were expelled to the Soviet Union. Only Van der Lubbe was found guilty and sentenced to death.Torgler was also acquitted and survived the war.
The outcome of this trial caused Hitler to remove treason trials from the regular courts. He decreed that henceforth treason – among many other offenses – would only be tried by a newly established People’s Court (Volksgerichtshof).The People’s Court later became associated with the number of death sentences it handed down, including those following the 1944 attempt to assassinate Hitler, which were presided over by then Judge-President Roland Freisler.
Execution of Van der Lubbe, January 1934
At his trial, Van der Lubbe was found guilty and sentenced to death. He was beheaded by guillotine (the customary form of execution in Saxony at the time) on 10 January 1934, three days before his 25th birthday. The Nazis alleged that Van der Lubbe was part of a communist conspiracy to burn down the Reichstag and seize power, while the communists alleged that Van der Lubbe was part of the Nazi conspiracy to blame the crime on them. Van der Lubbe, for his part, maintained that he acted alone to protest against the condition of the German working class.
Posthumous restitution, 1967 to 2008
In 1967, a court in West Berlin allowed the 1933 conviction to stand, but overturned the death sentence and posthumously changed Van der Lubbe’s sentence to eight years in prison. In 1980, another court overturned the verdict, but was overruled. In 1981, a West German court posthumously overturned Van der Lubbe’s 1933 conviction and found him not guilty by reason of insanity. This ruling was overturned. However, in January 2008, he was pardoned under a 1998 law for the crime on the grounds that anyone convicted under Nazi Germany is officially not guilty. The law allows pardons for people convicted of crimes under the Nazis, based on the idea that the laws of Nazi Germany “went against the basic ideas of justice”
Execution of Van der Lubbe, January 1934
At his trial, Van der Lubbe was found guilty and sentenced to death. He was beheaded by guillotine (the customary form of execution in Saxony at the time) on 10 January 1934, three days before his 25th birthday. The Nazis alleged that Van der Lubbe was part of a communist conspiracy to burn down the Reichstag and seize power, while the communists alleged that Van der Lubbe was part of the Nazi conspiracy to blame the crime on them. Van der Lubbe, for his part, maintained that he acted alone to protest against the condition of the German working class.
Posthumous restitution, 1967 to 2008
In 1967, a court in West Berlin allowed the 1933 conviction to stand, but overturned the death sentence and posthumously changed Van der Lubbe’s sentence to eight years in prison. In 1980, another court overturned the verdict, but was overruled. In 1981, a West German court posthumously overturned Van der Lubbe’s 1933 conviction and found him not guilty by reason of insanity. This ruling was overturned. However, in January 2008, he was pardoned under a 1998 law for the crime on the grounds that anyone convicted under Nazi Germany is officially not guilty. The law allows pardons for people convicted of crimes under the Nazis, based on the idea that the laws of Nazi Germany “went against the basic ideas of justice”.
Dispute about Van der Lubbe’s role
In early historical summations, such as William Shirer’s account, the Reichstag Fire is understood and represented as a conspiratorial operation carried out by Nazi storm troopers in which Van der Lubbe played the role of the patsy. As Shirer writes:
Van der Lubbe, it seems clear, was a dupe of the Nazis. He was encouraged to try to set the Reichstag on fire. But the main job was to be done — without his knowledge, of course — by the storm troopers… He had only his shirt for tinder. The main fires, according to the testimony of experts at the trial, had been set with considerable quantities of chemicals and gasoline. It was obvious that one man could not have carried them into the building, nor would it have been possible for him to start so many fires in so many scattered places in so short a time.
Attitudes as to whether Van der Lubbe was used as a pawn in a Nazi conspiracy or whether he acted alone have swung back and forth over the years. During the late 1990s into the early 2010s consensus held that Van der Lubbe acted alone. From 2014 to the present, with the resurfacing of a 1955 affidavit given by a stormtrooper who testified that the building was already on fire when Van der Lubbe was delivered there by SA members, supported by new scholarship re-examining the subject brought forth.
In 1998 historian Ian Kershaw argued that nearly all historians agreed that Van der Lubbe had set the Reichstag on fire, that he had acted alone, and that the incident was merely a stroke of good luck for the Nazis. However, in the days following the incident, major newspapers in the US and London had immediately been sceptical of the good fortune of the Nazis in finding a communist scapegoat.
In 2007, it has been alleged that the idea that Van der Lubbe was a “half-wit” or “mentally disturbed” was propaganda spread by the Dutch Communist Party, to distance itself from an insurrectionist antifascist, who had once been a member. John Gunther, who covered the trial, described Van der Lubbe as “an obvious victim of manic-depressive psychosis” and said that the Nazis would not have chosen “an agent so inept and witless”. Citing a letter that was allegedly written by Karl Ernst before his death during the Night of Long Knives, Gunther believed that Nazis, who heard Van der Lubbe boast of planning to attack the Reichstag, started a second simultaneous fire they blamed on him. Hans Mommsen concluded that the Nazi leadership was in a state of panic on the night of the Reichstag fire, and seemed to regard the fire as confirmation that a communist revolution was as imminent as they had claimed.
The British reporter Sefton Delmer, criticised for being a Nazi sympathiser at the time, witnessed that night’s events. He reported Hitler arriving at the Reichstag, appearing uncertain how it began, and concerned that a communist coup was about to be launched. Delmer viewed Van der Lubbe as being solely responsible, but that the Nazis sought to make it appear to be a “communist gang” that set the fire. On the other hand, the communists sought to make it appear that Van der Lubbe was working for the Nazis, so each side constructed a conspiracy theory in which the other was the villain.
In private, according to Hitler’s Table Talk, Hitler said of the chairman of the Communist Party, Ernst Torgler: “I’m convinced he was responsible for the burning of the Reichstag, but I can’t prove it”.
In 1960, Fritz Tobias, a West German SPD public servant and part-time historian, published a series of articles in Der Spiegel, later turned into a book, in which he argued that Vаn der Lubbe had acted alone. Tobias showed that Van der Lubbe was a pyromaniac, with a long history of burning down buildings or attempting to burn them down. Tobias established that Van der Lubbe had committed a number of arson attacks on buildings in the days prior to 27 February.
In March 1973, the Swiss historian Walter Hofer organized a conference intended to rebut the claims made by Tobias. At the conference, Hofer claimed to have found evidence that some of the detectives who investigated the fire had been Nazis. Mommsen commented on Hofer’s claims by stating: “Professor Hofer’s rather helpless statement that the accomplices of Van der Lubbe ‘could only have been Nazis’ is tacit admission that the committee did not actually obtain any positive evidence in regard to the alleged accomplices’ identity”. Mommsen also had a theory supporting Hofer, which was suppressed for political reasons, an act that he admitted was a serious breach of ethics.
Göring (first row, far left) at the Nuremberg trials
In 2014, historian Benjamin Carter Hett lamented that “Today the overwhelming consensus among historians who specialize in Nazi Germany remains that Marinus van der Lubbe burned the Reichstag all by himself”. He has argued that Tobias’ analysis is fundamentally flawed. Tobias undertook his study when tasked to defend West German police officials, who had investigated the initial fire as SS members. In doing so, Tobias disregarded any information from persons who had been targeted by the Nazi regime as biased while accepting the testimony of former SS members as objective, even though their post-war testimony is clearly contradicted by records from 1933. Furthermore, Hett showed that Tobias used his access to secret archives to coerce historians with opposing views by threatening to reveal compromising personal information. Hett argues that the most recent evidence makes clear that the fire could not have been the work of an individual and Hett feels there is far more evidence of Nazi collaboration than there is of a communist plot.
More recently in 2019, mainstream German outlet Deutsche Welle (DW) reported that according to an SA officer’s sworn testimony, Van Der Lubbe could not have started the fire because the Reichstag was already on fire when he arrived with Van Der Lubbe, leading credence to the theory that this was a false flag operation Hitler used to seize power. The Enabling Act of 1933 was passed less than one month later and was the cornerstone of Hitler’s rise to power. In 2008 Germany posthumously pardoned van der Lubbe
Göring’s alleged commentary, 1943
In The Rise and Fall of the Third Reich, William L. Shirer wrote that at the Nuremberg Trials, General Franz Halder stated in an affidavit that Hermann Göring had boasted about setting the fire: “On the occasion of a lunch on the Führer’s birthday in 1943, the people around the Führer turned the conversation to the Reichstag building and its artistic value. I heard with my own ears how Göring broke into the conversation and shouted: ‘The only one who really knows about the Reichstag building is I, for I set fire to it.’ And saying this he slapped his thigh”.Under cross-examination at the Nuremberg trial in 1945 and 1946, Halder’s affidavit was read to Göring, who denied any involvement in the fire
“Countertrial” by the German Communist Party in exile, 1933
Willi Münzenberg
During the summer of 1933, a mock countertrial was organised in London by a group of lawyers, democrats and other anti-Nazis under the aegis of German communist émigrés. The chairman of the mock trial was British Labour Party barrister D. N. Pritt, and the chief organiser was the KPD propaganda chief Willi Münzenberg. The other “judges” were Piet Vermeylen of Belgium, George Branting of Sweden, Vincent de Moro-Giafferi and Gaston Bergery of France, Betsy Bakker-Nort, a lawyer and member of parliament of the Netherlands for the progressive liberal party Free-thinking Democratic League, Vald Hvidt of Denmark, and Arthur Garfield Hays of the United States.
The mock trial began 21 September 1933. It lasted one week and ended with the conclusion that the defendants were innocent and the true initiators of the fire were to be found amid the leading Nazi Party elite. The countertrial received much media attention, and Sir Stafford Cripps delivered the opening speech. Göring was found guilty at the mock trial, which served as a workshop that tested all possible scenarios, and all speeches of the defendants had been prepared. Most of the “judges”, such as Hays and Moro-Giafferi, complained that the atmosphere at the “countertrial” was more like a show trial, with Münzenberg constantly applying pressure behind the scenes on the “judges” to deliver the “right” verdict, without any regard for the truth. One of the “witnesses”, a supposed SA man, appeared in court wearing a mask and claimed that it was the SA that had really set the fire. In fact, the “SA man” was Albert Norden, the editor of the German communist newspaper Rote Fahne. Another masked witness, whom Hays described as “not very reliable”, claimed that Van der Lubbe was a drug addict and a homosexual, who was the lover of Ernst Röhm and a Nazi dupe. When the lawyer for Ernst Torgler asked the mock trial organisers to turn over the “evidence” that exonerated his client, Münzenberg refused the request because he lacked any “evidence” to exonerate or to convict anyone of the crime.
The countertrial was an enormously successful publicity stunt for the German communists. Münzenberg followed the triumph with another by writing, under his name, the bestselling The Brown Book of the Reichstag Fire and Hitler Terror, an exposé of what Münzenberg alleged to be the Nazi conspiracy to burn down the Reichstag and to blame the act on the communists. (As with all of Münzenberg’s other books, the real author was one of his aides: in this case, the Czechoslovak communist Otto Katz.) The success of The Brown Book was followed by another, published in 1934, dealing with the trial
मार्च-अप्रैल : यहूदियों के लिए कंसेन्ट्रेशन कैम्प और आर्थिक बहिष्कार
सरकार द्वारा स्व-हस्तगत भयावह अधिकारों का कहर यहूदियों पर अब तक नहीं देखे-सुने गए पैमाने पर टूटा. मार्च 1933 में डकाऊ के एक छोटे से शहर के पास एक पुरानी-वीरान हथियार फैक्ट्री में पहला कंसेन्ट्रेशन कैम्प खुला. शुरुवात में, एक राजकीय उपक्रम के रूप में इसकी हिफाजत का जिम्मा बावेरियन पुलिस पर था, मगर 11 अप्रैल से एस.एस. ने इसकी कमान संभाल ली. यह वह पहला सेल बना जहाँ आतंक की राष्ट्रीय प्रणाली तंत्र के बीज अंकुरित हुए. यह एक तरह की प्रयोगशाला थी जहाँ हिंसा के उन विकृत और नृशंसतम रूपों का प्रयोग किया गया जिन्हें जल्दी ही अन्य कंसेन्ट्रेशन कैम्पों में दुहराया जाने वाला था. इन कैम्पों में जो कुछ घटित हो रहा था उसकी कहानियां नात्जि़यों के विरोध को रोकने का सबसे प्रभावी हथियार थीं.
ऑश्विट्ज़ कंन्सन्ट्रेशन कैम्प, गेट के ऊपर नारा लिखा है – ‘काम करने से तुम्हें मुक्ति मिलेगी ‘
कंसेन्ट्रेशन कैम्पों ने एक और काम किया. 5 मार्च के चुनाव नतीजों के पूरे मनमाफिक न होने की खीझ एस.ए. गुंडों की मनमानी हिंसा के आतंक में निकल रही थी. यहाँ तक कि वे जज भी अपनी जान के लिए आतंकित थे, जिन्होंने अपवादस्वरूप पकडे़ गए उपद्रवियों को दोषी पा कर हलकी-फुलकी सज़ा सुनाई थी. इसे व्यापारिक समुदाय सहित बहुत सारे लोग, कानून-व्यवस्था की अराजकता के रूप में देखने लगे थे, जबकि नात्जि़यों ने पिछले कई सालों से बनी हुई गृह युद्ध जैसी स्थिति के समाधान का वादा किया था. विकेन्द्रित आतंक को संस्थागत आतंक के रूप में कंसेन्ट्रेशन कैंपों में केन्द्रित करने से इस समस्या का आंशिक समाधान हुआ – आंशिक, क्योंकि अनियंत्रित हिंसा कभी भी पूरी तरह से नहीं रुकी.
एक और क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई. नात्जि़यों के बार-बार आह्वान के बावजूद बेहद कम लोग यहूदी व्यापार, वकीलों, और डाक्टरों का बहिष्कार कर रहे थे. 1 अप्रैल को एस.ए. के लोग पूरे जर्मनी में यहूदियों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों, डाक्टरों के दवाखानों और वकीलों की फ़र्मों के सामने तख्तियां ले कर खड़े हो गए और आम लोगों को भी इस बहिष्कार में साथ देने के लिए उकसाने लगे. बर्लिन में बहिष्कार के गवाह रहे पत्रकार सेबास्तियन हाफ्नेर ने इसे याद करते हुए लिखा : “यहूदी व्यापार प्रतिष्ठान जैसे ही खुले, एस.ए. के लोग मुख्य दरवाजों के सामने पाँव फैलाए हुए डट गए. आतंक के बावजूद इसके प्रति असहमति की फुसफुसाहट … पूरे देश में फ़ैल गयी. “ब्रिटिश राजदूत होरास रमबोल्ड के अनुसार बहिष्कार जनता में लोकप्रिय तो नहीं था मगर यहूदियों के पक्ष में जनता के बीच से कोई खास आवाज़ भी नहीं उठी. ग्राहकों के बारे में ऐसी तमाम बातें सुनने में आयीं जिनमें वे जानबूझ कर यहूदी दुकानदारों, डॉक्टरों और वकीलों के पास गए, परन्तु निश्चित रूप से ऐसे साहसी लोगों की तादात बहुत कम थी. बहुसंख्या ने शासन की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए. तमाम जर्मन यहूदी इस पहली सरकार प्रायोजित-संगठित यहूदी-विरोधी पहलकदमी से अवाक् थे. विक्टर क्लेम्पेरर ने अपनी डायरी में लिखा : “मैंने हमेशा खुद को जर्मन माना”. ये भावनाएं वही थीं जो आज मोदी के भारत में लांछित-उत्पीडि़त मुसलमान महसूस कर रहे हैं.
“गर्म बिस्तर पर सोते हुए मैं नितान्त अनैतिक महसूस करती हूँ, जब मेरे परम प्रिय दोस्तों को बाहर वहां कहीं कड़कती ठंड में मार गिराया गया है या फिर कहीं गन्दे नाले में फेंक दिया गया है. काँप उठती हूँ, जब मैं उन निकटतम दोस्तों के बारे में सोचती हूँ, जो अब धरती पर विचरने वाले उन क्रूरतम पिशाचों के हवाले किये जा चुके हैं. और सिर्फ इसलिए कि वे यहूदी हैं !”
ऐन फ्रैंक , “द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल”
[ ऐन खुद ,और उसकी बहन मारगोट की मृत्यु 1945 में
बर्गेन बेल्सेन के कंसेन्ट्रेशन कैम्प में हुई ]
7 अप्रैल को शासन ने पेशेवर नागरिक सेवा के पुनर्गठन का कानून जारी किया. इसके तहत सरकार न सिर्फ राजनीतिक रूप से भरोसेमंद न समझे जाने वाले राज्य कर्मचारियों को बर्खास्त कर सकती थी बल्कि यह भी निर्दिष्ट किया कि “गैर-आर्य पृष्ठभूमि” वाले नागरिक सेवकों को समयपूर्व सेवा निवृत्त कर दिया जाये. हिन्डेन्बर्ग के अनुरोध पर वे यहूदी, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था अथवा जिनके पिता या बेटे शहीद हुए थे, इससे मुक्त रखे गए. एक बार फिर यहाँ वर्तमान भारतीय परिदृष्य सामने आता है – क्या संघी सरकार “अच्छे मुस्लिमों” को बख्श ही नहीं रही बल्कि पुरस्कृत तक कर रही है. मगर तब यह भी ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि अन्ततः नात्ज़ी जर्मनी में किसी भी यहूदी अथवा अन्य लांछित अल्पसंख्यक को नहीं बख्शा गया था.
7 अप्रैल : नात्ज़ी एजेन्टों के रूप में गवर्नर
राज्यों को राइक की लाइन पर लाने के लिये बड़ी चतुराई से 7 अप्रैल को लाये गए कानून के तहत जर्मन राज्यों की समूची स्वायत्तता को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए वहां “राइक गवर्नर” बहाल कर दिए गए. इस कानून से हिटलर को प्रशिया में भी अपने मनमाफिक सत्ता को पुनर्व्यवस्थित करने का मौका मिल गया. उसने खुद राइक गवर्नर का प्राधिकार अपने हाथ में ले कर पापेन की “राइक कमिश्नर” की हैसियत को अप्रासंगिक बना दिया. तीन दिन बाद गोएरिंग को प्रशिया का प्रेसिडेंट घोषित कर दिया गया और दो हफ्ते बाद हिटलर ने उसे गवर्नर का प्राधिकार दे दिया. वह वाईस चान्सलर, जो अभी 30 जनवरी तक खुद को नात्जि़यों को काबू में रखने वाले रिंगमास्टर के रूप में देख रहा था, राजनीति के हाशिये पर फेक दिया गया.
अप्रैल-मई : ट्रेड यूनियनों को लाइन पर आने के लिए मजबूर कर दिया गया
अपने जीवन अनुभवों से हिटलर जानता था कि वह एकमात्र ताकत जो उसकी तूफानी अग्रगति को रोक सकती है, वह कनफेडरेशन ऑफ़ जर्मन ट्रेड यूनियंस (ए.डी.जी.बी.) के झंडे तले संगठित मजदूर वर्ग है. उसने इसे जहाँ तक हो सके कमजोर करने की गरज से एस.ए. को अपने इस ताकतवर दुश्मन के साथ नियमित छिट-पुट थकावट-घिसावट की लड़ाई में उलझाये रहने के लिए प्रोत्साहित किया. वह निर्णायक युद्ध तब तक के लिए टालता गया जब तक कि उसने बाकी अन्य घरेलू दुश्मनों को ठिकाने लगाने का काम कमोबेश पूरा कर के इस काम के अनुकूल राजनीतिक माहौल नहीं बना लिया.
अप्रैल तक वह निर्णायक घड़ी आ गयी लगती थी. सबसे पहले उसने कम्युनिस्ट और फिर सोशल डेमोक्रेटिक नेताओं को निष्प्रभावी कर के मजदूर वर्ग को परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व से वंचित कर दिया. फिर उसने संसदीय जनतंत्र और मुक्त प्रेस की संस्थानिकताओं को नष्ट किया, कैबिनेट के अन्दर जो लोग चुनौती बन सकते थे, यहाँ तक कि प्रेसिडेंट को भी पंगु कर दिया, अपने हाथों में सर्व सत्ताधिकार केन्द्रित किया, अपनी जरूरत और मर्ज़ी के मुताबिक ब्राउनशर्ट्स के अलावे अब तक नात्ज़ीकृत हो चुके पुलिस बल और मित्रवत हो चुकी सेना को उतार सकना सुनिश्चित किया, बुर्जुआ की ओर से सम्पूर्ण समर्थन सुनिश्चित किया जो अभी हाल-फिलहाल तक उसके आन्दोलन को ले कर गहरे संशय में था, और अन्ततः यहूदियों व मजदूर वर्ग अगुआ तत्वों के बर्बरतम उत्पीड़न- हत्याओं के जरिये पूरी तरह से आतंक का वातावरण बन जाने की गारंटी की.
सामूहिक सज़ा
[ ऐन फ्रैंक, डायरी लिखने वाली किशोरी, जिसने दो सालों तक जर्मनों से छिप कर रहने के आतंक को अपनी डायरी में दर्ज किया, और अन्ततः एक जर्मन कंसेन्ट्रेशन कैम्प में ही मरी. उसकी यह लाइन आज की दुनिया की भी अनुगूंज लगती है. आज की दुनिया में बस “यहूदी” की जगह मुस्लिम और भारत में “क्रिश्चियन” की जगह “ हिन्दू” रख कर देख लीजिये.]
“ एक क्रिश्चियन जो करता है वह उसकी जिम्मेदारी माना जाता है, एक यहूदी जो करता है वह सारे यहूदियों पर मढ़ दिया जाता है.”
– ऐन फ्रैंक
‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’
इस सब के बावजूद हिटलर जर्मन मजदूर वर्ग के साथ अपनी निर्णायक लड़ाई में एक-एक कदम फूंक-फूंक कर, “पुचकार और दुत्कार डंडा” की नीति के साथ, रख रहा था. राइकस्ताग आग के बाद जल्दी ही, हड़ताल का अधिकार व्यवहारतः समाप्त कर दिया गया. हड़ताल के लिए किसी भी तरह के उकसावे पर एक महीने से ले कर तीन साल तक की सज़ा हो सकती थी. कई ‘हाउस ऑफ दि पीपुल’ पर स्टॉर्मट्रूपर्स ने कब्ज़ा कर लिया[1]. अप्रैल की शुरुवात में फैक्ट्री कमेटियों की सुविधाओं और अधिकारों को समाप्त कर दिया गया : चुनावों पर रोक लगा दी गयी; कमेटियों के सदस्यों को आर्थिक अथवा राजनीतिक कारणों से बर्खास्त कर के उनकी जगह नात्जि़यों द्वारा नामित लोग बैठाये जा सकते थे. राज्य की जरूरत पर समूची कमेटी भी भंग की जा सकती थी. नियोजकों को किसी भी मजदूर को “राज्य के प्रति विद्वेषी” होने की आशंका पर राइक के सामाजिक कानूनों द्वारा गारंटी किये गए बचाव का कोई भी अवसर दिए बगैर बर्खास्त करने का अधिकार मिल गया.
इस दुत्कार डंडे के साथ-साथ, जिसे हथौड़ा कहना ज्यादा ठीक होगा, कुछ पुचकार उपाय भी थे. अंतिम निर्णायक चोट करने से पहले मजदूरों और उनके नेताओं को भरमाने के लिए नात्ज़ी सरकार ने मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर के अधिकारिक रूप से इसे “राष्ट्रीय श्रम दिवस” का नाम देते हुए अभूतपूर्व शानो-शौकत से मनाया. सरकार ने सारे जर्मनी से श्रमिक नेताओं को हवाई जहाज से बर्लिन लाने की व्यवस्था की. नेताओं ने नात्जि़यों की तरफ से मजदूर वर्ग के प्रति इस अविश्वसनीय मैत्री भाव से अभिभूत हो कर इस दिन को सफल बनाने में हर मुमकिन सहयोग किया. स्वास्तिका झंडों तले यूनियन सदस्यों और नात्जि़यों ने एकसाथ मार्च किया. विशाल रैली से पहले हिटलर ने खुद मजदूर नेताओं की अगवानी यह कहते हुए की : “आप सब खुद देखेंगे कि क्रांति के जर्मन मजदूरों के खिलाफ होने की बात कितनी गलत और अन्यायपूर्ण है.” बाद में एक लाख मजदूरों की रैली को अपने संबोधन में, जो पूरे देश में रेडियो से प्रसारित किया गया, उसने ध्येय वाक्य घोषित किया : “श्रम का मान और मजदूर का सम्मान” ( नरेन्द्र मोदी के पास इसका और संक्षिप्त संस्करण है – “श्रमेव जयते”). इस तरह हिटलर ने अपनी शातिर और धूर्त चाल से जर्मन मजदूर आन्दोलन के लिए पहली मई की परम्परागत प्रतीकात्मकता को हड़पते हुए इसे “सजातीय लोकप्रिय समुदाय” में विस्तारित करने की कोशिश की.
अचानक हमला अगले ही दिन टूट पड़ा. पूरी योजना के साथ स्टॉर्मट्रूपर्स ने यूनियन मुख्यालयों पर कब्ज़ा कर के यूनियन नेताओं को अपनी “संरक्षात्मक हिरासत” में ले लिया. हर जगह लोगों के घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया. कुछ दिन बाद एक नए कानून के जरिये एक सर्वग्रासी विशाल “जर्मन लेबर फ्रंट” बना दिया गया जिसमें सारी यूनियनों और एसोसिएशनों को “लाइन में ला कर” समाहित करते हुए चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों में समूहीकृत कर दिया गया. यह कोई वर्गीय संगठन न हो कर विशुद्ध प्रोपेगैंडा बॉडी थी जो मजदूर वर्ग को नात्ज़ी राज्य के साथ संगति में लाने का सबसे कारगर औजार बनी. जैसा कि कानून में कहा गया था, इसका उद्देश्य मजदूरों की रक्षा नहीं बल्कि “सारे जर्मनों का एक सचमुच का सामाजिक व उत्पादक समुदाय बनाना” था. जर्मन मजदूरों के पास अब सरकार से स्वतंत्र अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई संगठनिकता नहीं रह गयी. 16 मई को हड़ताल का अधिकार अंतिम रूप से समाप्त कर दिया गया. 19 मई को एक और कानून के जरिये मजदूरों को सामूहिक सौदेबाज़ी और समझौते के अधिकार से वंचित कर दिया गया. अगले साल की शुरुवात से चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों को एक-एक कर के भंग करने का क्रम शुरू हो गया.
मई – जून : केवल एक को छोड़ कर सारी राजनीतिक पार्टियाँ भंग
यूनियनों के बाद राजनीतिक पार्टियों की बारी आई, एक-एक कर के. 10 मई को गोएरिंग ने डी.एस.पी. की सारी सम्पदाएँ जब्त कर लीं. जून के आखीर और जुलाई की शुरुवात में डी.एस.पी., जर्मन स्टेट पार्टी, और जर्मन पीपुल्स पार्टी भंग कर दी गयी. फिर धीरे-धीरे एस.ए. और एस.एस. के आतंक/हमलों के दबाव में अन्य बुर्जुआ पार्टियों ने भी खुद को एन.एस.डी.ए.पी. में अवसरवादी दल बदल या फिर इच्छाशक्ति के ही मर जाने के चलते खुद को समाप्त कर लिया. 14 जुलाई को राइक सरकार ने कानून जारी कर के पार्टियों का पुनर्गठन प्रतिबंधित कर दिया. इसने एन.एस.डी.ए.पी. के जर्मनी में एकमात्र राजनीतिक पार्टी होने की की घोषणा करते हुए किसी अन्य पार्टी को बनाना या बनाये रखना दंडनीय अपराध बना दिया. एक पार्टी राज्य अब हकीकत बन चुका था.
एसए आदमी का गीत
बर्तोल्त ब्रेश्त
मेरी भूख ने मुझे
दुखते पेट के साथ सुला दिया था.
तभी मैंने चीत्कार सुनी
हे, जर्मनी जागो !
तब ! देखा मैंने भीड़ को कदमताल करते :
थर्ड राइक की ओर, सुना मैंने उनको कहते.
सोचा मैंने, जीने के लिए कुछ भी तो नहीं था मेरे पास
मैं भो तो उन्हीं की राह, कर सकता हूँ कदमताल.
और जब मैं कर रहा था कदमताल, वहां मेरे बगल में था
उस दस्ते का सबसे मोटा आदमी
और जब मैं चीखा ‘हमें चाहिये रोटी और काम’
मोटा आदमी भी चीखा.
चीफ ऑफ़ स्टाफ पहने हुए था बूट
जबकि मेरे पांव थे भीगे हुए
मगर हम दोनों ही कर रहे थे कदमताल
पूरे मन से, कदम से कदम मिलाते हुए.
मैंने सोचा, बायें वाला रास्ता आगे को जाता था
उसने बताया मैं गलत था.
मैं उसके हुक्म के रास्ते गया
और अंधों की तरह घिसटता रहा.
और वे जो भूख से कमजोर थे
कदमताल करते रहे, निस्तेज मगर तने हुए
खाये-अघायों के साथ-साथ
किसी थर्ड रीख जैसी चीज की ओर.
उन्होंने मुझे बताया किस दुश्मन को मारना है
इसलिए मैंने उनकी बन्दूक ली और निशाना लगा दिया
और, जब मैं गोली चला चुका था, देखा मेरा भाई
था वह दुश्मन जिसका उन्होंने नाम लिया था.
अब मैंने जाना : वहां खड़ा है मेरा भाई
वह भूख है जो हमें एक करती है
जबकि मैं कर रहा था कदमताल
मेरे भाई और मेरे खुद के दुश्मन के साथ.
इसलिए मेरा भाई मर रहा है
मेरे अपने ही हाथों वह गिरा
फिर भी मैं जानता हूँ कि यदि वह हारा
मैं भी हार जाऊँगा.
जर्मनी में एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था का एकाधिकार
राजनीतिक ताकत पर एकाधिकार हासिल कर चुकने के बाद हिटलर ने कई निर्णायक महत्व के विचारों की पुनर्परिभाषा और पुनर्प्रतिपादन का अभियान शुरू किया. 6 जुलाई को राइक गवर्नरों के सम्मलेन में हिटलर ने घोषित किया कि क्रांति को “स्थायी परिघटना” बने रहने की इजाज़त हरगिज़ नहीं दी जा सकती – क्रन्तिकारी धारा को उद्विकास की आधार भूमि बनने की दिशा में, “जनता की शिक्षा” की दिशा में मोड़ना होगा. गोएबेल्स ने अपने रेडियो संबोधन में इसे और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया : “हम केवल तभी संतुष्ट हो सकेंगे जब हम सुनिश्चित हो जायेंगे कि समूची जनता हमें समझती है और अपना सबसे बड़ा पैरोकार मानती है”. गोएबेल्स ने साफ़-साफ़ कहा कि नात्जि़यों का लक्ष्य जर्मनी में केवल एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था की स्थापना है (इसकी सटीक प्रतिध्वनि भारत में 2014 में सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के अभियान में मोदी के आह्वान “एक भावना, एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक प्रतिबद्धता, एक लक्ष्य, एक मुस्कान”, भाजपा के “कांग्रेस मुक्त भारत” के आह्वान, जिसका असली आशय विपक्ष मुक्त भारत से है, और भाजपा व संघ कार्यकर्ताओं द्वारा हर किसी को, जो संघ की विचारधारा से सहमति नहीं रखता, देशद्रोही बता कर उसके लिए भारत में कोई जगह न होने के प्रलापों में देखी जा सकती है). इसका अर्थ यह था कि मीडिया, संस्कृति और शिक्षा के सारे क्षेत्रों को नात्ज़ी विचारों की लाइन में लाया जाना है.
फासीवादी पितृसत्ता : “लव जेहाद” हौवे का नाज़ी संस्करण
नाज़ीवाद के निर्णायक तत्वों में से एक आदमी और औरत के बीच अन्तर – नस्लीय सम्बन्धों की वर्जना और निषेध था.
माइन काम्प्फ़ (हिटलर की आत्म कथा “मेरा संघर्ष”) में हिटलर यहूदी पुरुषों पर आर्य औरतों को बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने, और काले आदमियों को भी उन्हें बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने के जरिये जान-बूझ कर “आर्य” नस्ल को प्रदूषित करने का आरोप लगाता है. वह लिखता है : “काले बालों वाला यहूदी घंटों, एक शैतानी आनन्द चेहरे पर लिए हुए, मासूम लड़कियों के लिए घात लगाये रहता है जिन्हें वह अपने रक्त से प्रदूषित करता है और उन्हें उनकी अपनी नस्ल से चुरा लेता है. वह हर संभव जतन कर के उस राष्ट्र के नस्लीय आधार को तहस-नहस करने की कोशिश करता है जिसे वह पराभूत करना चाहता है. जिस तरह वह व्यक्तिगत रूप से जान-बूझ कर औरतों और लड़कियों को मूर्ख बनाता है, उसी तरह वह उन अवरोधों को तोड़ने में भी कभी पीछे नहीं हटता जिन्हें नस्ल ने विदेशी तत्वों के खिलाफ बनाया है. यह यहूदी ही था और है, जो उसी उद्देश्य और जानी-बूझी नीयत के साथ, लगातार वर्ण-संकरीकरण के जरिये श्वेत नस्ल को, जिससे वह नफ़रत करता है, नष्ट करने के लिए, उसे उसकी हासिल सांस्कृतिक और राजनीतिक ऊँचाइयों से गिराने के लिए, और उस पर मालिकों की तरह प्रभुत्व ज़माने के लिए, नीग्रो लोगों को राइन तक ले आता है. वह जान बूझ कर व्यक्तियों को लगातार भ्रष्ट करते रहने के जरिये नस्ल को नीचा दिखाने की फ़िराक में रहता है…”
जोसेफ गोएबेल्स
इस सोच का एक मॉडल, जो नाज़ी जर्मनी अपनाना चाहता था, अमेरिका के नस्लों को अलग करने और “वर्ण संकरीकरण” (अन्तर-नस्लीय सम्बन्ध) का निषेध करने वाले नस्लवादी कानून थे. 1934 में, प्रमुख नाज़ी वकीलों की बैठक यहूदी-विरोधी “न्यूरेमबर्ग कानून” बनाने के लिये हुई जिसमें उन्होंने अमेरिका के कुख्यात “जिम क्रो” कानूनों को अपने मॉडल के रूप में लिया जो अन्तर-नस्लीय संबंधों और विवाहों का अपराधीकरण करते थे (जिन्हें आगे 1967 में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दे दिया). हिटलर और नाज़ी अमेरिकी नस्लवाद के एक और पक्ष के बेहद मुरीद थे : “यूजेनिक्स” (“हीन-हेय” समझे जाने वाली मानव प्रजातियों के जन्म को जबरन रोकने के लिए जबरिया वन्ध्याकरण). अमेरिका में 1930 के दशक में ऐसे कानून थे जो वंशानुगत (जेनेटिकली) “अनैतिक”, “अपराधी” अथवा अपंग समझी जाने वाली औरतों के जबरन वन्ध्याकरण की अनुमति देते थे. ऐसी औरतों की बहुत बड़ी संख्या गरीब और/या काली औरतों की थी. हिटलर का “यूजेनिक्स” कार्यक्रम, जिसकी चरम परिणति गैस चैम्बरों के जरिये नृशंस नरसंहारों में हुई, इन्हीं नस्लीय कानूनों से प्रेरित थे.
हिटलर अमेरिकन इन्डियनों – “यूएसए” के नाम से जाने जा रहे भूक्षेत्र के मूल निवासियों – के नर संहार का भी जबरदस्त प्रशंसक था. 1928 में ही हिटलर अपने भाषणों में इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था कि किस तरह अमरीकियों ने लाखों की तादाद वाले “रेड स्किनों” को गोलियों से मार गिरा कर हजारों में समेट दिया था और अब वे उनके बचे-खुचे अवशेषों को पिंजरों में प्रदर्शनी के लिए रख रहे थे.(“हिटलर्स अमेरिकन मॉडल- द यूनाइटेड स्टेट्स एण्ड द मेकिंग ऑफ नाज़ी रेस लॉ; जेम्स क्यु. विटमन; प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017).
“जिम क्रो” कानूनों के ज़माने में, अमेरिका में काले लोगों की श्वेत औरतों से पारस्परिक सहमति से भी संसर्ग की आशंका पर हत्या की जा सकती थी. श्वेत औरत के बलात्कार का आरोप लगा कर भीड़ द्वारा काले लोगों की पीट-पीट कर हत्या आम बात थी. हम देख चुके हैं कि किस तरह नाज़ी जर्मनी उन नस्लवादी कानूनों का प्रशंसक था और उन्हें अपने यहाँ लागू करने का इच्छुक था जो भीड़ द्वारा पीट-पीट कर की जाने वाली हत्याओं को औचित्य दे कर वैध ठहराते थे.
भारत में भी, हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह संघ परिवार और उसके विभिन्न अनुसांगिक गिरोहों द्वारा “लव जिहाद” का हौवा “जिम क्रो” और नाज़ी माॅडलों की नक़ल है. ये गिरोह खुले तौर पर उस संविधान के प्रति अपनी नफ़रत का इजहार करते रहते हैं जो अन्तर-जातीय और अन्तर-धार्मिक विवाहों की इजाज़त देता है. “लव जिहाद” से लड़ने के नाम पर ये मुस्लिम पुरुषों और हिन्दू औरतों के बीच संबंधों और विवाहों के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराते हैं.
30 जून 1934 : “लम्बे छुरों की रात”
पहला बड़ा नात्ज़ी जनसंहार उसके अपने ही लोगों – एस.ए. के खिलाफ अंजाम दिया गया. इसका कारण पूरी तरह राजनीतिक था.
एर्न्स्ट रोह्म, 1933
इनेबलिंग कानून के जरिये नात्ज़ी पार्टी के सत्ता पर पूरी तरह जकड़ बना लेने के बाद एस.ए. के अस्तित्व का सबसे बड़ा औचित्य ही समाप्त हो गया. उनका मुख्य काम नात्ज़ी विरोधियों को आतंकित कर के निष्प्रभावी करना था, और यह काम अब पूरा हो चुका था. ब्राउनशर्ट वालों का हिंसक उत्पात अब व्यर्थ और प्रति-उत्पादक होता जा रहा था. इसलिये 1933 की शुरुवात में उस राजाज्ञा को वापस ले लिया गया जिसके जरिये एस.ए. को सहायक पुलिस बल की मान्यता दी गयी थी. एस.ए. के लोगों में इससे उपजे असंतोष के साथ आबादी के बड़े हिस्सों में मूल्य वृद्धि, स्थिर वेतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद, और मसीहा द्वारा परोसी गयीं उम्मीदों के न पूरे होने आदि के चलते मोहभंग भी लगातार बढ़ रहा था. हिटलर की अभी भी भारी लोकप्रियता थी मगर उसके सभी साथियों की नहीं. एस.पी.डी. द्वारा अपने निर्वासन के दौर में जर्मनी के अपने सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर बनाई गयी रिपोर्ट में एक म्यूनिकवासी के हवाले से उस समय की प्रतिनिधि जन भावना को दर्शाया गया था : “हमारा एडोल्फ़ तो ठीक है मगर उसके चारों ओर निहायत दुष्टों का डेरा है.”
जनता में फैलता असंतोष, हालांकि अभी वह शुरुवाती दौर में ही था, और ब्राउन शर्ट्स की कसमसाती नाराजगी शासक पार्टी के आकाओं के लिए चिंता का सबब बनने लगी थी. खासकर वे एस.ए. चीफ ऑफ़ स्टाफ एर्न्स्ट रोह्म के जून 1933 में छपे उस लेख से परेशान हुए जिसमें उसने आम असंतोष और गुस्से का हवाला देते हुए लिखा था कि “राष्ट्रीय विद्रोही उभार” ने अभी जर्मन क्रांति का आधा रास्ता ही तय किया था. उसने दावा किया कि एस.ए. जर्मन क्रांति का आधे रस्ते में सो जाना या गैर-लड़ाकों द्वारा दगा दिया जाना हरगिज बर्दाश्त नहीं करेगा. उसने यह भी साफ़ कर दिया कि एस.ए. केवल पार्टी नेतृत्व से मिलने वाले फरमानों की ड्यूटी बजाने वाला संगठन नहीं बनना चाहता. इससे उलट वह “थर्ड राइक” में अपने और अपने संगठन के लिए ताकतवर हैसियत की मांग कर रहा था. रोह्म एस.ए. को एक ऐसे मिलिशिया में विकसित करना चाहता था, जो सेना के हथियार रखने के एकाधिकार को चुनौती दे सके.
सत्ता (द रिजीम)
(संक्षेप)
एक विदेशी से, उसके थर्ड राइक की यात्रा से लौटने पर,
सवाल पूछा गया : वहां सचमुच में कौन शासन करता है ,
उसने जबाब दिया :
भय.
भय का शासन सिर्फ उन्हीं पर नहीं है जो शासित हैं, बल्कि
शासकों पर भी है.
क्यों डरते हैं वे खुली दुनिया से ?
सत्ता की विशाल ताकत के साथ
उसके कैम्पों और यातना तहखानों
उसके खाए-अघाये पुलिस वालों
उसके भयभीत या फिर भ्रष्ट जजों
उसके कार्ड सूचिकाओं और संदिग्धों की सूचियों
जो तमाम इमारतों में छतों तक अटी पड़ी हैं
के साथ तो कोई यही सोचेगा
उन्हें एक साधारण आदमी की खुली दुनियां से
डरने की जरूरत नहीं है.
मगर उनका थर्ड रीख आवाज़ देता है
तातार के घराने, असीरियन, उस महान दुर्जेय किले को
जो, किंवदंती के मुताबिक किसी भी सेना से
पराभूत नहीं हो सकी, मगर
अपने ही भीतर कहे गए एक शब्द से,
भहरा कर धूल में मिल गयी.
– बर्तोल्त ब्रेश्त
यह नात्ज़ी नेतृत्व और सेना दोनों के लिए असहनीय था. बेहद शातिर और गुप्त तरीके से एस.ए. नेताओं के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और जरूरी सांगठनिक तैयारी कर चुकने के बाद, हिटलर ने एस.ए. नेताओं और पापेन जैसे अपने पुराने प्रतिद्वंदियों (पापेन हिटलर को ले कर व्यक्तिपूजा और हिंसा के अतिरेक की खुली आलोचना कर रहा था) दोनों पर हमला करना तय किया.
हमला 30 जून की रात से शुरू हुआ और अगले दो दिनों तक वह सब चलता रहा जिसे आज इतिहास “लम्बे छुरों की रात” के नाम से जानता है. इस अचानक हमलावर अभियान का नेतृत्व हिटलर ने खुद व्यक्तिगत रूप से हेनरिक हिमलर की कमान में एस.एस. के लोगों को ले कर किया था. पापेन को मौत न दे कर घर में नज़रबंद कर दिया गया. स्त्रास्सेर और रोह्म की हत्या कर दी गयी, एस.ए. के करीब 180 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जिनमें 13 राइकस्ताग डेपुटी थे, और हजारों की गिरफ्तारी हुई.
आनन-फानन में हिटलर ने कैबिनेट से वह कानून अनुमोदित करा लिया जिसमें इन सारी हत्याओं को कानूनी रूप से वैध बना दिया गया : “30 जून और 1 व 2 जुलाई को राष्ट्र और राज्यों के खिलाफ गद्दारी के खिलाफ उठाये गए कदम सरकार की आपात सुरक्षा का एक वैध कानूनी रूप है”.
किताबों का जलाया जाना
जब सत्ता ने
फरमान जारी किया गैर-कानूनी किताबों को जलाने का
सुस्त सांड़ों के दस्ते गाड़ियाँ भर-भर कर ले आये
उत्सव-अलावों के लिये.
तब एक निर्वासित लेखक, सबसे बेहतरीनों में एक
बहिष्कृत किताबों की सूची छानते हुए
आग-बबूला हो गया – उसे शामिल नहीं किया गया था !
वह झपटा अपनी मेज की ओर, तिरस्कार के रोष से लबरेज ,
आग उगलते पत्र लिखने मंदबुद्धि शासकों को-
जला दो मुझे ! लिखा उसने आग उगलती कलम से
मैंने क्या हमेशा सच की बात नहीं की है ?
अब यहाँ हो तुम, मुझसे झूठे की तरह बर्ताव करते हुए !
जला दो मुझे !
– बर्तोल्त ब्रेश्त
किताबें जला रहे हिटलर की यू थ ब्रिगे ड के सदस्य
फ्यूरर और राइक चान्सलर
एक पखवारे बाद, हिटलर ने राइकस्ताग में अपनी शर्मनाक भयावह गैर-कानूनी कार्यवाही का पूरी ढिठाई और मजबूती के साथ एक बार फिर “राष्ट्र” और “जनता” के नाम पर बचाव किया : “बगावत हमेशा कभी न बदलने वाले कानूनों के जरिये ही तोड़ी जाती है. अगर कोई मेरी नियमित न्यायालयी रास्ता न लेने के लिए आलोचना करता है, तो मैं यही कह सकता हूँ : उस घड़ी में मैं जर्मन राष्ट्र के भविष्य के लिए उत्तरदायी था और इसलिए जर्मन जनता का सर्वोच्च न्यायाधीश था.”
1 अगस्त को, जब हिन्डेन्बर्ग मृत्युशैया पर था, हिटलर ने राइक प्रेसिडेंट और चान्सलर की सेनाओं के आमेलन और इसका कमान प्राधिकार “फ्यूरर और राइक चान्सलर” के हवाले करने का कानून घुटनाटेकू कैबिनेट से पारित करा लिया. बूढ़ा आदमी अगले दिन मर गया और 17 अगस्त को एक जनमतसंग्रह में इस कानून को भारी बहुमत से अनुमोदित करा लिया गया.
टकराव और विरोध के सारे संभावित स्रोतों का सफाया कर चुकने और किसी भी अन्य का दूर-दूर तक सत्ता भागीदारी का दावेदार न होना सुनिश्चित कर लेने के बाद, “महान तानाशाह” अब विश्व विजय के अभियान पर “स्वामी नस्ल” (मास्टर रेस) का नेतृत्व करने के लिए स्वतंत्र था.
“जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलाएंगे”
10 मई 1933 की रात को, करीब 40,000 लोग ओपेरनप्लाज – अभी के बेबेल प्लाज़ – बर्लिन के मित्ते जिले में जुटे. ख़ुशी से झूमते, नाच-गानों, बैंड-बाजों, और प्रतिज्ञाओं व जादू-टोना प्रलापों के बीच उन्होंने सैनिकों और एस.एस. पुलिसवालों, एस.ए. पैरामिलिशिया के ब्राउनशर्ट सदस्यों और जर्मन स्टूडेंट एसोसियेशन व हिटलर यूथ आन्दोलन के उन्मत्त युवाओं को, प्रोपेगैंडा मंत्री जोसेफ गोएबल्स के आदेश पर 25,000 से ज्यादा “गैर-जर्मन” घोषित की गयीं किताबें जलाते देखा ……
उस रात और उसके आगे की रातों में बर्लिन और देश भर के 30 से ज्यादा अन्य विश्वविद्यालय परिसरों में आग की लपटों के हवाले की गयी किताबों में 75 से ज्यादा जर्मन और विदेशी लेखकों के काम शामिल थे, उनमें (कुछेक नाम) वाल्टर बेन्यामिन, बर्तोल्त ब्रेश्त, अल्बर्ट आइन्स्टाइन, फ्रेडरिक एंगेल्स, सिगमंड फ्राॅइड, आंद्रे ज़ीद, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, फ्रान्ज़ काफ्का, लेनिन, जैक लन्दन, हाइनरिक क्लाउस, थॉमस मान, लुडविग मार्कूस, कार्ल मार्क्स, जॉन दोस पास्सोस, आर्थर श्निज्लर, लीओन ट्रोट्स्की, एच.जी.वेल्स, एमील ज़ोला, स्टीफन ज़्वाइग, शामिल थे. उस रात जिनकी किताबें जलाई गयी थीं उनमें 19 वीं सदी के महान जर्मन कवि हाइनरिक हाइन भी थे जिन्होंने महज एक सदी पहले अपने नाटक अल्मान्सर में इन शब्दों को लिखा था : “जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलायेंगे”.
– जॉन हेन्ली, “बुक बर्निंग: फैनिंग द फ्लेम्स ऑफ़ हेटरेड”;
दि गार्जियन; 10 सितम्बर, 2010
फुट नोट :
1. सामाजिक कार्यक्रम, राजनीतिक चर्चायें और मजदूरों की शिक्षा के लिए 1900 के आस पास एस.पी.डी. द्वारा इन्हें बनाया गया था. ये ट्रेड यूनियन आन्दोलन के केन्द्र बन गये थे.