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#चूल्हे_की_हंसी…

अनूप नारायण सिंह
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#चूल्हे_की_हंसी
बहुत पुरातन तो नहीं। पर हाँ बात एक अरसे की जरूर है जब अपने पलामू में खाना मिट्टी के चूल्हे पर झुरी -झाकड़, लकड़ी-काठी, चिपड़ी-गोइंठा से बनता था। आज की तरह नहीं, कि बस कान अइंठे आऊ गैस चूल्हा जल पड़ा। न कोई धुँवा-धक्कड़ न जलावन जुटावे के कउनो जद्दोजहद /परेशानी।पर ऊ चूल्हा पर बनल खाना के टेस्ट आज के गैस वाला से अलग था। शुद्धता आऊ पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता था। साथ ही खासकर जाड़ा के दिन में चूल्हा के पास घुस के बइठना, आऊ दादी से किस्सा कहानी सुनना। चूल्हा के आग में आलू, सेम, शकरकंद जैसे चीजों को पका कर खाने का आनंद अवर्णनीय है।

खाना बनावे से पहिले हर रोज चूल्हा-चौका का गाय के गोबर से लिपाई होता था जेकरा #ठाँव_देना बोलते थे।दादी #भीनसरे उठते ही बोलने लगती – ‘जल्दी झाड़ू-बहारू करके, ठाँव दे द! ना तो लइकन बसिये घर में खायेला जिद करे लगींहें।’ ऊ भी एक समय था जब बिना चूल्हा-चौका के साफ सफाई के बच्चों को भी खाना नहीं दिया जाता था। पर आज के आधुनिक परिवेश में तो सुबह उठने से पहले ही गरम चाय की चुस्की हम सभी कि आदत में शुमार है।

खैर मेरा पॉइंट तो आप सब को एक बात से परिचित कराना था जो कि शीर्षक में है और वो है ‘चूल्हा हँसना’!सुनने से अटपटा और अजीब लगा होगा कि जीव जंन्तु तो हँसते सुने हैं, पर भला चूल्हा कैसे हँसेगा? पर जब लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनते समय जलती हुई लकड़ियों के बीच से एक स्टॉव या गैस चूल्हे जैसा तेज लौ निकलने लगता है, और उससे आवाज भी आने लगता है, ऐसे दृष्य को पूरनिया/दादी लोग चूल्हा हँसना बोलते हैं। और इसका मतलब होता है कि कोई पड़ोसी मेरे घर परिवार का कहीं शिकायत/चुगली कर रहा है।

जब भी चूल्हा हँसता दीखता तुरंत ही दादी उस लकड़ी/काठी (#लुवाठी) जिससे तेज लौ और आवाज निकलता, उससे ही चूल्हा को खोर देती है। ऐसा करने से उसका मानना है कि कोई मेरे घर परिवार का शिकायत करे, परिवार का हँसी उड़ाये उसका मुँह ऐसे ही बंद करना चाहिये।अभी हम छुट्टी पर गांव आये हैं। और घर पर माँ चूल्हे में खाना बना रही थी तो चूल्हा हँस पड़ा था। तो अचानक से यह शब्द याद आ गया। तखनी हम सोंचे कि आपसब को भी याद दिलायें कि आप भी कहीयो चूल्हा हँसते देखे हैं या नहीं? आपलोग को याद भी है या भूल गये!
#अनूप