साहित्य

‘चाय तो पीऊंगी…लेकिन यहां नहीं…कभी मेरे घर आइए, वहीं पीएंगे’

Harish Yadav
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शीला का अंग अंग दुख रहा था. ऐसा लग रहा था कि वह उठ ही नहीं पाएगी. बेरहमों ने कीमत से कई गुना ज्यादा वसूल लिया था उस से. वह तो एक के साथ आई थी, पर उस ने अपने एक और साथी को बुला लिया था. फिर वे दोनों टूट पड़े थे उस पर जानवरों की तरह. वह दर्द से कराहती रही, पर उन लोगों ने तभी छोड़ा, जब उन की हसरत पूरी हो शीला ने दूसरे आदमी को मना भी किया था, पर नोट फेंक कर उसे मजबूर कर दिया गया था. ये कमबख्त नोट भी कितना मजबूर कर देते हैं. जहां शीला लाश की तरह पड़ी थी, वह एक खंडहरनुमा घर था, जो शहर से अलग था. वह किसी तरह उठी, उस ने अपनी साड़ी को ठीक किया और ग्राहकों के फेंके सौसौ रुपए के नोटों को ब्लाउज में खोंस कर खंडहर से बाहर निकल आई.

वह सुनसान इलाका था. दूर पगडंडी के रास्ते कुछ लोग जा रहे थे. शीला से चला नहीं जा रहा था. अब समस्या थी कि घर जाए तो कैसे? वह ग्राहक के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ कर आई थी. उसे बूढ़ी सास की चिंता थी कि बेचारी उस का इंतजार कर रही होगी. वह जाएगी, तब खाना बनेगा. तब दोनों खाएंगी.

शीला भी क्या करती. शौक से तो नहीं आई थी इस धंधे में. उस के पति ने उसे तनहा छोड़ कर किसी और से शादी कर ली थी. काश, उस की शादी नवीन के साथ हुई होती. नवीन कितना अच्छा लड़का था. वह उस से बहुत प्यार करता था. वह यादों के गलियारों में भटकते हुए धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी. शीला अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. गरीबी की वजह से उसे 10वीं जमात के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी.

उस के पिता नहीं थे. उस की मां बसस्टैंड पर ठेला लगा कर फल बेचा करती थी. घर संभालना, सब्जी बाजार से सब्जी लाना और किराने की दुकान से राशन लाना शीला की जिम्मेदारी थी. वह अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाती थी. साइकिल पकड़ती और निकल पड़ती. लोग उसे लड़की नहीं, लड़का कहते थे.

एक दिन शीला सब्जी बाजार से सब्जी खरीद कर साइकिल से आ रही थी कि मोड़ के पास अचानक एक मोटरसाइकिल से टकरा कर गिर गई. मोटरसाइकिल वाला एक खूबसूरत नौजवान था. उस के बाल घुंघराले थे. उस ने आंखों पर धूप का रंगीन चश्मा पहन रखा था. उस ने तुरंत अपनी मोटरसाइकिल खड़ी की और शीला को उठाने लगा और बोला, ‘माफ करना, मेरी वजह से आप गिर गईं.’ ‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मैं ने ही अचानक साइकिल मोड़ दी थी,’ शीला बोली.

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. आप को कहीं चोट तो नहीं आई?’
‘नहीं, मैं ठीक हूं,’ शीला उठ कर साइकिल उठाने को हुई, पर उस नौजवान ने खुद साइकिल उठा कर खड़ी कर दी. वह नौजवान अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो गया और स्टार्ट कर के बोला, ‘‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’’

‘शीला… और आप का?’
‘नवीन… अच्छा चलता हूं.’

इस घटना के 4 दिन बाद फिर दोनों की सब्जी बाजार में मुलाकात हो गई. ‘अरे, शीलाजी आप…’ नवीन चहका, ‘सब्जी ले रही हो?’

‘हां, मैं तो हर दूसरे, तीसरे दिन सब्जी खरीदने आती हूं. आप भी आते हैं…?’

नहीं, सच कहूं, तो मैं यह सोच कर आया था कि शायद आप से फिर मुलाकात हो जाए…’ कह कर नवीन मुसकराने लगा, ‘अगर आप बुरा न मानें, तो क्या मेरे साथ चाय पी सकती हैं?’

‘चाय तो पीऊंगी… लेकिन यहां नहीं. कभी मेरे घर आइए, वहीं पीएंगे,’ कह कर शीला ने उसे घर का पता दे दिया…