साहित्य

चप्पलें ठीक रैक पर रखेंगे ये….

रेखा मौर्या
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घरेलू पुरुष 😊🙏
ये जो सुबह के काम में बंटाते हैं हाथ
सब्जी काट लेते हैं यह कहकर
कि चलो आज खाना मैं बनाकर खिलाता हूँ
बिन कहे ठहर जाते हैं गर्म होते दूध को देख
बरतन रख देते हैं ठीक सिंक में
उठाने लगते हैं यहाँ-वहाँ बिखरा सामान
इन्हें रसोई ही नहीं
घर की हर स्त्री की जरूरत पता होती है कहने से पहले
ये सब पुरूषों से ज्यादा जानते हैं
ये जानते हैं जलते मन और जलती रोटी की बात।
इनकी आँखों में खटकती हैं टूटी कुंडियां
उतरे पलस्तर इनका मन कुरेदते हैं
उधड़ता कुछ भी इन्हें कचोटता है
ये बिन कहे बांधने लगते हैं लटकती तार
उलझता धागा
सिसकता रिश्ता।
ये मौसम देख उतार लेते है बाहर सूखते कपड़े
कर देते हैं मुड़ा पायदान सीधा
पानी की फ्रिक करते हुए भरते लगते हैं बाल्टी, टंकी, गमले
बीच में छूटी झाड़ू हो जाती है पूरी इनके होते
चप्पलें ठीक रैक पर रखेंगे ये
संवारते रहेंगे कुशन, परदे, कुर्सियाँ, मन सलीके से
ये कहने से पहले की बात समझते हैं
मन में आने से पहले का भाव।
कुछ पुरूष होते हैं ना जो बेहद घरेलू
सच में बहुत प्यारे होते हैं ये
कभी कभी सोचती हूँ
इतने सरल- इतने सहज
मजबूत होकर भी स्त्रियों की तरह
बस एक घर लिए घूमते हैं अपने भीतर
क्या इन्हें रास आती होगी बाहरी दुनियादारी ?

रचयिता — सुनीता करोथवाल ✍️