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गोलवलकर नाज़ीवादी, आरएसएस जातीय व्यवस्था का समर्थक, विकास केवल बेरोज़गारी का हुआ : कन्नड़ साहित्यकार

भारत में कन्नड़ साहित्यकार देवानुर महादेव की आरएसएस की सोच, नीतियों औ कार्यशैली पर लिखी गई पुस्तिका बहुत व्यापक रूप से चर्चा में आ गई है।

महादेव ने अपनी पुस्तिका में आरएसएस की ख़ामियों को ख़ुद आरएसएस के विचारकों की सोच के आधार पर चिन्हित करने की बात कही है। लेखक का कहना है कि कर्नाटक राज्य में फैल रही हिंसा को देखते हुए उनके मन में यह किताब लिखने का विचार आया।

बीजेपी ने इस पुस्तिका को ‘कचरा’ बताया है। इसकी प्रिंट कॉपी की इतनी मांग है कि इसकी कॉपियां उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं, साइबर जगत में अनाधिकृत पीडीएफ़ शेयर की जा रही हैं और हालात ये हैं कि जल्दबाज़ी में इसका हिंदी, तमिल, तेलुगु और अंग्रेज़ी में अनुवाद भी करवाया जा रहा है।

आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर केबी हेडगेवर और सबसे शक्तिशाली सरसंघचालक रहे एमएस गोलवलकर और वीएस सावरकर के लेखों से प्रभावित इस किताब में रूचि इतनी ज़्यादा है कि लेखक महादेवा ये दावा कर रहे हैं कि बीजेपी कार्यकर्ता और सदस्य इसे गुप्त रूप से बाँट रहे हैं।

महादेवा ने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। वो कहते हैं कि भगवत गीता को पढ़ाने पर ज़ोर देना देश में जाति व्यवस्था को बढ़ावा देना है जैसा कि मनुस्मृति में बताया गया है। वो कहते हैं कि संविधान आरएसएस के देश पर अपना भगवान थोपने की योजना के लिए एक दुःस्वप्न है, आरएसएस के भगवान में ब्राह्मण सिर हैं, क्षत्रिय भुजाएं हैं, वैश्य जांघ है और शूद्र चरण में हैं।

महादेव आगे कहते हैं कि ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों के लोग कुछ हद तक बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन हमें ये भी देखना होगा कि इसमें से अधिकतर मीडिया प्रबंधन, इन समुदायों में निवेश और मंच से प्रबंधित है, ऐसे में उन्होंने ये भ्रम बना दिया है कि वो इन समुदायों के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वास्तविकता ऐसी नहीं है, अगर हम मौजूदा परिस्थिति में भारत में हुए सभी विकास कार्यों को देखें तो क्या कोई अलग दिखाई देता है? सिर्फ़ बेरोज़गारी का विकास ही दिखता है।

महादेवा कहते हैं कि वर्तमान में जब हालात ऐसे हैं, तो फिर बेरोज़गारी से पीड़ित के लिए क्या खाना उपलब्ध है? नफरत अपने आप में भोजन है, आरएसएस और संघ परिवार उन्हें दूसरे धर्मों के प्रति नफ़रत परोसते हैं और दूसरे धर्मों के प्रति उकसाते हैं, हम ये देख सकते हैं कि गोलवलकर और सावरकर स्पष्ट रूप से नाज़ीवाद के समर्थक हैं, अब, बीजेपी की सत्ता के दौरान, ये सब व्यवस्थित तरीक़े से हो रहा है।