विशेष

गोत्र क्या है? तथा भारतीय सनातन आर्य परम्परा में इसका क्या सम्बंध है?

Umakant Dwivedi

From Mirzapur

Prant Gram Vikas Pramukh
Seva samarpan sansthan
(banwasi kalyan aashram)
East Uttar Pradesh
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गोत्र क्या है? तथा भारतीय सनातन आर्य परम्परा में इसका क्या सम्बंध है?
भारतीय परम्परा के अनुसार विश्वामित्र, जमदग्रि, वसिष्ठ और कश्यप की सन्तान गोत्र कही गई है-
“गौतम, भरद्वाज, अत्रि,विश्वामित्रा जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः । अत्रिर्वसिष्ठः कश्यप इत्येते गोत्रकारकाः ॥ “

इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि किसी परिवार का जो आदि प्रवर्तक था, जिस महापुरुष से परिवार चला उसका नाम परिवार का गोत्र बन गया और उस परिवार के जो स्त्री-पुरुष थे वे आपस में भाई-बहिन माने गये, क्योंकि भाई बहिन की शादी अनुचित प्रतीत होती है, इसलिए एक गोत्र के लड़के-लड़कियों का परस्पर विवाह वर्जित माना गया।

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य कुलस्थ के लोगों के लिए गोत्र व्योरा रखना इसी लिए भी आवश्यक है क्योंकि गोत्र ज्ञान होने से उसके अध्ययन की परम्परा में उसकी शाखा-प्रशाखा का ज्ञान होने से तत सम्बन्धी वेद का पठन―पाठन पहले करवाया जाता है पश्चात अन्य शाखाओं का! किन्तु आज हिंदुओं में गोत्र को स्मरण रखने की परंपरा का त्याग करने से गोत्र संकरता बढ़ रही है। और सगोत्र विवाह आदि होना आरम्भ हो गया है। इसी लिए यह प्रश्न रखा गया था कि घरवापसी वालों का या अज्ञात गोत्र धारियों का गोत्र निश्चय कैसे होगा?

गोत्र के सम्बन्ध में #याज्ञवल्क्य और #बौधायन दोनों का मत है कि कालान्तर में गोत्रों की संख्या सात न रहकर हज़ारों में हो गई। तब एक वंश-परम्परा में खानदान का जो मुख्य व्यक्ति हुआ, चाहे वह आदि काल में हुआ, चाहे बीच के काल में हुआ, उसके नाम से गोत्र चल पड़ा ! यहाँ तक में तो कोई दिक्कतें नही है।

‘परम्परा प्रसिद्धं गोत्रम्’- याज्ञवल्क्य गोत्र सम्बन्धी परम्परा का निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों का आदिपुरुष एक माना गया वे आपस में भाई-बहिन माने जाने से उनके बीच विवाह निषिद्ध माना गया। आधुनिक विचारकों की दृष्टि से सपिण्डों में विवाह न करने का तो प्रजनिक (Eugenic) आधार है, गोत्र, प्रवर आदि में विवाह न करने का भावनात्मक आधार तो हो सकता है, उसका प्रजनिक आधार अत्यन्त शिथिल है।

जहाँ तक व्यवहार का सम्बन्ध है, हिन्दूसमाज में सपिण्ड विवाह पहले भी होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।

उदाहरणार्थ – अर्जुन ने अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया जिससे उसका पुत्र अभिमन्यु पैदा हुआ। यह ममेरे-फुफेरे भाई-बहिन (Maternal cousins) का विवाह था।
श्रीकृष्ण के लड़के प्रद्युम्न का विवाह भी अपने मामा की लड़की रुक्मावती के साथ हुआ था।

श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध ने अपने मामा की लड़की रोचना से और परीक्षित ने अपने मामा की लड़की इन्द्रावती से विवाह किया था। सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का विवाह अपने मामा की लड़की यशोधरा से हुआ था और पृथ्वीराज चौहान ने अपनी मौसी की लड़की संयुक्ता से विवाह किया था

नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्क्षीं न रोगिणीम्।
नालोमिकां नातिलोमांन वाचाटां न पिङ्गलाम् ॥ ६ ॥

दक्षिण भारत में मामा की लड़की से विवाह होना आम बात है।
किसी-किसी जाति (वर्ग) में भांजी और साली―साले की लड़की से भी विवाह करने का रिवाज है। सम्भव है, दक्षिण में सपिण्ड विवाह होने का कारण वहाँ प्रचलित मातृसत्तात्मक परिवार (Matriarchal Family) रहा हो। लेकिन ऐसा विधान स्मृति आदि में कहीं नहीं लिखा है।

परन्तु यह सब महाभारत काल से आरम्भ हुआ जो आर्यावर्त (भारतवर्ष) के सांस्कृतिक तथा नैतिक पतन का काल माना जाता है। शास्त्रसम्मत न होने से उस काल के कृत्यों को आदर्श नहीं माना जा सकता क्योंकि की ये ऋषियों द्वारा स्थापित परम्परा नहीं है।

वस्तुतः एक रक्त के सम्बन्धियों में विवाह होना हितकर नहीं है- न प्रजनिक (Eugenic) आधार पर और न भावनात्मक ( Emotional) आधार पर। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इसी लिए लिखा है कि जब तक दूरस्थ कुल के साथ सम्बन्ध नहीं होता तब तक शरीर आदि की पुष्टि पूर्ण नहीं होती। यहां दूरस्थ कुल से ऐसा आशय भी ग्रहण करना चाहिए कि जिस कुल का स्व कुल से सामीप्य न हो। उनके इस शास्त्रानुमोदित कथन की आधुनिक प्रजनन विज्ञान (Science of Eugenies) से पुष्टि होती हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि जैसे पिता का गोत्र छोड़ा जाता है वैसे ही माता का गोत्र न छोड़कर केवल छह पीढ़ियाँ ही छोड़ना काफ़ी क्यों माना गया है? माता के समान पिता की भी छह पीढ़ियाँ ही छोड़नी चाहिएँ थीं। इस विषय में हमारा यह कहना है कि माता-पिता के रक्त का एक-सा प्रभाव नहीं होता।

बीज के तुल्य पृथिवी की प्रधानता नहीं होती। यदि एक ही भूमि में विभिन्न प्रकार के बीज बोये जाएँ तो पृथिवी के एक जैसी होने पर भी विभिन्न प्रकार की उपज होगी। आयुर्वेद के अनुसार सन्तान उत्पन्न करने में स्त्री का रज मुख्यतः बीज की रक्षा करने का काम करता है। मुख्यता बीज की होती है। पिता की भाँति माता का भी कुल पूरी तरह छोड़ दिया जाए तो अति उत्तम है, परन्तु माता की छह पीढ़ियाँ छोड़ देने से भी काम चल सकता है, क्योंकि इतने से ही रक्त में आनेवाले दोषों से बचा जा सकता है।

वीर्य की प्रधानता होने से पिता के गोत्र को पूरी तरह छोड़ना महर्षि मनुजी ने आवश्यक समझा। रोग, चरित्र और नामवाली बात लड़के-लड़की दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। इसलिए इसमें जो कुछ कन्या के लिए कहा गया है वह सब वर के लिए भी आ जाता है। ऋषियों ने ये शर्तें भावी सन्तति को रोग और दोष से मुक्त करने की दृष्टि से लगाई हैं। किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति की सूचना मिलने पर परीक्षोपरान्त ही विवाह होना चाहिए।

माता-पिता को एक- दूसरे से रोग लगने की अपेक्षा उनकी सन्तान के उस रोग से पीड़ित होने का भय अधिक होता है। यह भी देखा गया है कि पुत्र को रोग न हो तो पोते को हो सकता है। इसलिए जहाँ तक हो सके इस विषय में अधिक-से-अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।

प्रजननशास्त्र के कई आधुनिक लेखक भिन्न-भिन्न रोगवाले कुलों में विवाह सम्बन्ध की अनुमति देते हैं, परन्तु हमारे शास्त्रकार महर्षि मनु इतनी छूट देना अनुचित ही समझते है। वे असाध्य रोगों को निर्मूल करना चाहते थे।