साहित्य

गूलर का फूल….By-Pratibha Naithani

Pratibha Naithani
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गूलर का फूल
बड़ी पुरानी बात है जब एक बूढ़ी माता जी दही बेचकर अपना गुजारा करती थीं। जाने कैसे एक बार उनकी हांडी में गूलर का फूल गिर गया। वह दही बेचते-बेचते थक गई मगर हांडी उस दिन खाली न हुई। खीजकर बुढ़िया ने हांडी तोड़ दी।
गूलर के फूल के बारे में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिनमें कहा जाता है कि इसका फूल मिल जाने पर व्यक्ति की सारी मन इच्छा पूर्ण हो जाती हैं। इसे प्राप्त करने के लिए लोगों ने जाने क्या-क्या तरकीब निकाली ‌, बरसो-बरस इंतज़ार किया पूर्णिमा की उस रात का, जब यह खिलें और सीधे स्वर्ग ना जाकर उनकी झोली में गिर जाएं। मज़े की बात यह है कि तब लोगों को यह पता ही नहीं था कि गूलर का फूल उसके फल के अंदर ही खिलता है,इसलिए कभी दिखता नहीं।

पुराणों में इसे भगवान दत्तात्रेय का वृक्ष माना गया । दक्षिण भारत में इसे औदुम्बर कहा जाता है। इसे शुक्र का वृक्ष भी कहते हैं। माना जाता है कि इसकी दो हाथ चौड़ी लकड़ी को पूजा स्थल में रखने से घर में धन बढ़ता है। इसकी जड़ में पानी डालने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं ‌। ब्रह्मा,विष्णु और महेश तीनों का वास होता है इसमें । नित्य पूजा करने पर सुख-समृद्धि बढ़ने जैसी और भी कई मान्यताएं इस वृक्ष के बारे में प्रचलित हैं।
बचपन में हम लोग इसे खिन्नू कहते थे, या खिनवा। घर से कुछ दूर जंगल में इसका एक पेड़ था, और हमारे लिए धन था इस पर लगे छोटे गोल-गोल लाल फल। ढेर सारे तोड़कर हम फ्रॉक में भर लेते, फिर पके फलों का दो फाड़ करके उनमें कीड़े ढूंढा करते थे। यह भी रोचक है कि बाहर से स्वस्थ,सुंदर दिखने वाले फलों के अंदर कीड़े जाने कहां से आ जाते हैं। शहद जैसे स्वादिष्ट उन छोटे-छोटे फलों को खाकर ना पेट भरता था, और न मन , मगर वहां रेंग रही लाल चीटियां जब हाथ-पैर पर काटने लगतीं तो हांडी वाली बुढ़िया की तरह हम भी बाकी बचे फलों को वहीं फेंक कर भाग आते। खिनवा भले ही अपनी जगह वैसा ही जमा रहा हो , मगर समय के साथ आगे बढ़ने पर जब हमने उधर जाना छोड़ दिया तो यह भी यादों के एक कोने में खिसक गया। लगभग पच्चीस-तीस बरस बाद कल कहीं फिर एक खिन्नू का पेड़ दिख गया। याद आ गए बचपन के दिन। डाल पर पक रहे लाल-लाल फलों को देखकर लगा , जैसे मिल गया लिया मुझे गूलर का फूल।