रिचर्ड सूडान लिखते हैं: जब पश्चिम क्षतिपूर्ति के मामले में गुलामी की अपनी विरासत का सामना करेगा, सिर्फ़ तभी दुनिया भर का अश्वेत समाज वास्तव में आज़ाद होगा।
ग़ुलामी को ख़त्म करने के लिए मुआवज़े की मांग करना और इसके परिणामस्वरूप छोड़ी गई संरचनात्मक नस्लवाद की आधुनिक विरासत का सामना करना, कोई नई बात नहीं है।
“जॉर्ज फ्लॉयड” की हत्या के बाद, “ब्लैक लाइव्स मैटर” का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरोध तेज़ हो गया है और न्याय की मांग अपनी चरम पर पहुंच गयी।
ग़ुलामी से वजूद में आने वाले पश्चिमी देशों का प्रतिनिधित्व उन सरकारों द्वारा किया जाता है जो जानबूझकर हर्जाने के मुद्दे में देरी करना चाहती हैं।
मिसाल के तौर पर अमेरिका में, एचआर40, एक हर्जाना के बारे शोध करने का प्रस्ताव पेश करने वाला विधेयक है जो संभवतः कभी भी क़ानूनी शक्ल में नहीं आएगा और दशकों से गतिरोध का शिकार है।
ब्रिटेन, दुनिया में अग्रणी दास व्यापार करने वाला देश रहा है और यह ग़ुलामी में अपनी वास्तविक भूमिका को स्वीकार करने से इतना दूर भागता है कि यह बताना भी कल्पना से दूर है कि ब्रिटेन की कक्षाओं में भी छात्रों को सिखाया जाता है कि ब्रिटेन 1807 में ग़ुलामी समाप्त करने वाला पहला देश था।
लेकिन इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि 1804 में पहला देश निस्संदेह हैती था।
स्पष्ट रूप से यह बात कही जानी चाहिए कि औद्योगिक और वैज्ञानिक क्रांति और ब्रिटेन का विकास, ग़ुलामी और अफ्रीक़ा के अविकसित होने की ही वजह से संभव हो सका।