साहित्य

” गर्म दूध…..By-लक्ष्मी कान्त पाण्डेय

लक्ष्मी कान्त पाण्डेय
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” गर्म दूध…
“मैम आप अपना आर्डर लिखवा दीजिए….
महिला कॉलेज के ठीक सामने उस रेस्टोरेंट में अन्य सभी मेजो से आर्डर लेने के बाद वह बैरा पलक की मेज के सामने खड़ा था।
सावन की पहली सोमवारी की पूजा करने में मां को देर हो जाने की वजह से कॉलेज बिना लंच लिए आ गई बीएससी फर्स्ट ईयर की पायल ने अपनी भूख को महसूस कर वहां पहले से बैठी अन्य लड़कियों की प्लेट में नजर दौड़ाई थी।
चाइनीस और साउथ इंडियन के अलावा कुछ और तो दिखा ही नहीं।
“मैम आप इसमें देखकर आर्डर कर दीजिए।”
ऐसा कहते हुए बैरा ने उसकी तरफ एक मेनू कार्ड बढ़ाया था।
कोल्ड कॉफी,..हॉट कॉफी,.. आइसक्रीम ऐसी चीजें से मेनू कार्ड भरा पड़ा था।
“आप मेरे लिए एक गिलास हल्का गर्म दूध ले आइए।”
ऐसा कहते हुए पलक ने मेनू कार्ड उसे वापस कर दिया था।
“दूध?”
बैरा आश्चर्य में था।
“हां दूध!.. थोड़ी-सी चीनी के साथ।”
हैरान-परेशान बैरा रेस्टोरेंट के रसोई में ना जाकर काउंटर पर बैठे अधेड़ उम्र के उस रेस्टोरेंट के मालिक के पास पहुंचकर ग्राहक की अजीबोगरीब फरमाइश का ब्यौरा दे रहा था।
छोटे से कस्बे के स्कूल से प्लस टू करने के बाद पलक ने पहली बार स्वतंत्र रूप से शहर के कॉलेज में कदम रखा था।
अपने कस्बे के जान-पहचान वाले माहौल में पढ़ी पलक को इस बड़े से कालेज में पहचानने वाला कोई नहीं था।
क्लास से ब्रेक मिलते ही कॉलेज की अन्य लड़कियों के साथ-साथ उसके क्लास की लड़कियां कॉलेज की कैंटीन में भीड़ लगा देती,.लेकिन पलक अपनी मां के हाथों से बने पराठे खा तृप्त हो जाती थी।
दूध, दही, घी, मलाई के माहौल वाले किसान परिवार में पली-बढ़ी पलक ने अपने कॉलेज की कैंटीन में ही पहली बार किसी को खाना खरीद कर खाते देखा था।
“बेटा आपको दूध का क्या करना है?”
रेस्टोरेंट का मालिक अपनी जगह से उठ कर ग्राहक तक आया था।
“जी पीना है!”
पलक ने सहजता से जवाब दिया था।
“वैसे,.. यहां ऐसा बहुत कुछ है जो आप खा सकती हैं।”
“नहीं अंकल,..मैं नहीं खा सकती,.. मुझे तो बस एक गिलास दूध ही पीना था।”
पलक ने उन्हें यह बताना उचित नहीं समझा कि उसने घर से बाहर खरीदकर खाना कभी खाया ही नहीं और अगर बताती भी तो ऐसे माहौल में विश्वास कौन करता।
खैर रेस्टोरेंट के मालिक ने बैरा को कुछ इशारा किया था और कुछ ही देर में हल्के गर्म दूध से भरा कांच का एक गिलास पलक के सामने था।
दूध का ग्लास खत्म कर चुकी पलक को इतना भी मालूम नहीं था कि बैरा बिल लेकर टेबल पर ही आता है,..वह तो सीधे काउंटर पर पहुंची थी एक गिलास दूध की कीमत चुकाने।
“अंकल कितना हुआ?”
पलक ने कालेज बैग में हाथ डाल अपना मनीबैग टटोला था।
“बेटा रहने दो!..यह रेस्टोरेंट है यहां खाना खिलाने के पैसे लिए जाते हैं,.. दूध पिलाने के नहीं!”
“लेकिन अंकल”..
“मैं समझ सकता हूं!.. सावन चल रहा है और आज सोमवार है….मेरी बिटिया भी ऐसी ही है बिल्कुल तुम्हारी तरह …सावन मे सोमवार के दिन केवल दूध ही पीती है…
अपना छोटा सा मनीबैग हाथ में ले चुकी पलक आश्चर्य में थी क्योंकि उस शहरी माहौल में भी रेस्टोरेंट के मालिक का व्यवहार उसे कस्बाई लग रहा था…..!!