साहित्य

क्यों रे राघव बहू को घर कब लायेगा?

𝓟𝓻𝓲𝔂𝓪𝓷𝓴𝓪 𝓚𝓾𝓶𝓪𝓻𝓲
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क्यों रे राघव बहू को घर कब लायेगा?”
शम्भू चाचा ने खटिया पर लेटे-लेटे ही सवाल किया?
राघव उनको अनसुना करते हुए, तेजी से पुराना कपड़ा हाथ मे उठाकर आँगन में रखी मोटरसाइकिल पोंछने लगा ..
हुँह सब पर बोझ बनकर बैठे हैं, न घर बसाया न परिवार अब पराई स्त्रियों की ख़बर न रखेंगे तो भला और क्या करेंगे, ..
अपनी बहू की खोजखबर तक न ली अब सबकी बहुओं की जानकारी चाहिये, पर उपदेश कुशल बहुतेरे…
बड़बड़ाते हुए बाइक साफ़ करके वो नौकरी पर चला गया,शम्भू चाचा भी अपनी इस उपेक्षा पर मुस्कुरा कर मौन रह गये ,
शायद उनका यही एकमात्र प्रायश्चित था, कभी सरवन कुमार कहे जाने वाले शम्भू की मुँह से निकली बात…बात नहीं पत्थर की लकीर मानी जाती थी
“साधो बाँह असील की सपनेहुँ में छुई जाय
आप निभावे जन्म भर लड़कन ने कहि जाय”
रघुकुल की रीत की तरह बात के धनी शम्भू चाचा के वचन की लोग गारन्टी लेते थे
कहते थे ,बन्दूक की गोली बदल सकती है पर शम्भू की बोली नहीं।
किसे पता था कि यही आन एक दिन उनका जीवन यूँ तहस-नहस कर देगी।
अब फ़ौज से रिटायर शम्भू की जगह पराई इच्छा पर निर्भर रहने वाले बोझ से अधिक न थी परिवार में..
वो जबतक खर्च करते तब तक जरूरी होते और धीरे -धीरे कब गैरजरूरी हो जाते वो ख़ुद ही न जान पाते।
उन्हें न विवाहित कह सकते थे न अविवाहित रँगरूप में पुरुषोचित आदर्शों पर खरे शम्भू गृहस्थी होते हुए भी गृहस्थ न थे ।
उनका कमरा बस सफ़ाई के नाम पर खुलता और बन्द होता ,दीवार पर टँगी उनके विवाह की एकमात्र श्वेतश्याम तसवीर ही थी स्त्री का अस्तित्व, उस कमरे में।

चाची की तो उसके स्मृतियों में भी बड़ी धुँधली सी याद थी,उन्हें उसने कभी अपने घर में न देखा था।
चाचा की ज़िम्मेदारी रोटी-पानी सबको बोझ लगता पर चाचा को कोई कभी बोझ न लगा,
वो हरसिंगार के पेड़ के नीचे पड़ी टीन के नीचे ही लेटते थे ,उनकी खटिया और वो जगह ही उनकी दुनिया थी ..
ज़मीन पर पड़े फूल और चाचा में कभी कभी उसे बड़ा साम्य लगता ,अघोरी थे पूरे गृहस्थ होकर भी सन्यासी…
रात को जब राघव घर लौटा तो आग तापते शम्भू ने उसे अपने पास बुला लिया,और समझाते हुए कहा,”लल्ला…बात मान ले गुस्सा थूक जाकर बहू को घर ले आ अपने।”
राघव ने गुस्से से दाँत पीसते हुए कहा ,” भुगत तो रहा हूँ आपकी बात मानकर,अगर उस दिन मण्डप से उठ जाता तो आज ठाठ से दूजा ब्याह कर चैन से जी रहा होता।”

फिर व्यंग्य से बोला ,”समझा भी कौन रहा हैं मुझे आप ,जिसका घर-दुआर कभी बसा ही नहीं..”
“सही चोट किये हो भतीजे “, लौहपुरुष माने जाने वाले शम्भू चाचा आज सिर झुकाये आँखे, आँसुओ से सजाये बैठे थे।
“ऊ का है कि हम नहीं चाहते हैं ,कि इस आँगन में एक दूसरा शम्भू और बने”,
“अगर तुम्हें किसी की अधब्याही लड़की छोड़ना पौरुष लग रहा था तो न मानते हमारी बात, कौन सा हमने दुनाली लगा दिये थे तुम्हारी कनपटी पे…”
कहते-कहते फ़ौलाद से शम्भू काका उस पल में भीतर और बाहर दोनोँ ओर से मोमबत्ती से पिघलने लगे।
राघव अपने जीवन में पहली बार उनका यह रूप देखकर, पसीज उठा।
उन्हें सीने से लगाते हुए बोला, “”बुरा मत मानो चाचा मेरा आपका दिल दुखाने का मन न था, छह फुटा फ़ौजी जिसने दुश्मन की गोली से खौफ़ न खाया वो बोली से दहल गया?”

“रघुआ मुझे भी तेरी चाची बड़ी प्यारी थी, पर उसमें बड़ी ऐंठ थी ,और मुझमें अपनी बात की टेक थी, मैं सरवन कुमार तो बन लिया अपनी माँ का…
पर उसका पति न बन पाया, बस अपनी बात का धन ही हाथ लगा मेरे।”

वो होती,तो हम एक दूजे का सहारा होते,परिवार होता ,आज बुढ़ापे की दहलीज़ छूने जा रहा मगर क्या जीवन है मेरा दूसरों पर बोझ हूँ..
शम्भू चाचा के दिल का फोड़ा आज उसके सामने फूटा था,मवाद ज्वालामुखी के लावे सा बह रहा था, राघव ने सपने में न सोचा था कि हँसमुख चँचल नदी से बहने वाले शम्भू चाचा के मन की तलहटी में इतनी दुःख की गाद जमा होगी ।
उसने उन्हें जी भरकर रो लेने दिया, चाचा के मन का ज्वार अब मन्द पड़ चुका था,वो ख़ुद को संयत करके बोले..
“रघुआ, जो गलती मैंने की उसे तू मत दोहराना बेटा…”

“गलती कैसी गलती चाचा,उसने हैरानी से कहा।”

शम्भू चाचा उस पल में न जाने कितने बरसों पीछे लौट गये, शून्य में देखते हुए बोले,
“मैं अपने विवाहित जीवन की रत्ती रत्ती बात अपनी माँ को बताया करता था,आज्ञाकारिता के बेताल ने कभी भी मेरी पीठ से उतरना मन्ज़ूर न किया ।”
मेरी माँ ने मुझे इतना प्यार दिया, मुझ पर इतना ज्यादा अधिकार किया ,कि मुझे अपनी छाया के बाहर निकलने ही न दिया।
माँ की ज़िद में उसे देश निकाला दे दिया अगर समझाया होता तो आज अमरबेल सा दूसरों की गृहस्थी पर न पल रहा होता, वो घर होती तो आज तेरे भाई बहन तेरे जितने होते..

जीवनसाथी की ज़रूरत इस उमर में सबसे ज्यादा होती है,समय रहते आँखे खोल ले..
उसने जो चाहा सो किया, जो दिखाया सो देखा,यह भाँप ही न पाया कि उसके लिये भी मेरे कुछ कर्तव्य हैं जिसे आग-पानी की कसमें खाकर अपनें साथ लेकर आया हूँ,

“तू ख़ुद ही देख ले अब कौन मेरा है और मैं किसका हूँ..”
राघव ने उन्हें उन्हें कसकर अपनी बाँहों में भींच लिया और उन्हीं की चारपाई पर लेट गया, गृहस्थी का मर्म चाचा के चेहरे की लकीरों में किसी नदी
के भँवर सा घूम रहा था।
वो धीरे से बोला “चाचा…”
“हूँ… “उन्होंने उत्तर दिया

“दादी बाबा तो कबके गुजर गये ,ये चाची को न लाने की भीष्म प्रतिज्ञा कब तक निबाहोगे,ले क्यों नहीं आते “?
“वो भी तो निभा रही है रघुआ, जाने ज़िंदा है भी कि नहीं..है ? चाचा आसमान की ओर ताकते बोले…
अगली सुबह चाचा देर तक सोये…
आँगन में चहल पहल कम थी ,राघव की मोटरसाइकिल भी जगह पर थी, वो नित्य नियम को मन्दिर चले गये
तीन दिन हुए राघव की शक्ल न दिखी थी उन्हें, भाभियाँ यूँ भी नाराज़ रहतीं सबको उनके खाली कमरे की ज़रूरत थी, पर उन्होंने उसे पूजा के फूल की तरह किसी को न सौंपा..

खाना की थाली देने आये बच्चों से महीने का खर्च भिजवा देते भीतर…
राघव को गये आज पाँच दिन हो गये थे, मन्दिर में चाचा ने आज दिया जलाया उसकी घर गृहस्थी की कुशलता का..
गोधूलि के बाद घर पहुँचे तो पाया उनकी खटिया आज हरसिंगार के नीचे न थी, आँगन में अजीब सी रौनक थी कोने में हँसी ठिठोली थी..
आँगन के तार पर राघव के मैले कपड़े देखकर उन्हें भारी राहत मिली…
“अरे रघुआ बहू ले आया क्या “?उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा।

“हाँ चाचा “,वो बाहर आते हुए बोला ,उसके पीछे बहु भी चली आ रही थी, उसने धीरे से आँगन की बत्ती जला दी ।
शम्भू को बरसों बाद भी कोने की भीड़ में वो चेहरा न जाने क्यों उन्हें दिखने लगा , थोड़ी चाँदी के साथ ।
शायद बहू आने की खुशी में बौरा गया हूँ मैं, उन्होंने अपने सिर में ख़ुद ही चपत लगाते हुए कहा।

चाचा अपने कमरे की चाभी दीजिये ,राघव उनके चरण स्पर्श करते हुए साधिकार बोला,बहू को मुँह दिखाई चाहिए।
हाँ-हाँ ,आज तूने मेरी बात मान कर मुझे बेमोल खरीद लिया उन्होंने जनेऊ से निकाल उसे सहर्ष देते हुए कहा।
मगर ये क्या बहू तो उनके पैर छूकर सीधे रसोईघर में लौट गई,वो अपनी खटिया आराम करने के लिये खोजने लगे, न मिलने पर बाहर चबूतरे पर बैठ गये
देर रात उन्हें राघव ने खाने को आवाज़ लगाई ,तब पाया कि उनके कमरे की बत्ती जल रही थी।
साफ-सुथरी खिले हुए हरसिंगार की महक आज उस बन्द कमरे की सीलन निकाल कर साधिकार घुस रही थी..
चाँद की छनती रोशनी में चुनरी की साड़ी पहने एक अजनबी आकृति थाली लिये उनकी ओर बढ़ी वो घबराकर कमरे की ओर उल्टे पैर लौट पड़े…
कमरे में बल्ब की रोशनी में पाया कि ये आकृति राघव की बहू नहीं उनकी सहधर्मिणी प्रजेशकुमारी की थी…
बरसों बाद इस तरह सामना होने पर वो मौन रह गये, आँसू दोनोँ ओर थे उम्र के निशानों पर विरह के प्रतीक स्पष्ट थे..
खाइये न वो साधिकार आवाज़ सुनकर वर्तमान में लौटे, आँगन में हाथ धोते हुए उन्होंने जोर से आवाज़ लगाई रघुआ…
क्या है यार चाचा वो शर्ट पहनता हुआ आया, बहू नहीं लाय

लाया हूँ न चाचा आपकी भी, और अपनी दादी की भी।उस दिन आपकी बातें और आपकी सूनी आँखों ने मुझे विरह की बड़ी विकृत तसवीर दिखाई।

मैंने कसम खाई कि दुल्हिन के सकत चाची की भी वापसी होगी।आपकी हालत की जिम्मेदार वो प्रतिज्ञा है।
आप मुझमेँ खुद को देख रहे थे, तो क्या मैं आप मे खुद को नहीं देख सकता।

पापा की आँखों मे आँखे डाल इतिहास नहीं दोहराया जाएगा कहकर ससुराल निकल गया था उस दिन पता तो मालूम था, चाची दुल्हिन के साथ मुझे देखकर पहले तो पहचान ही न पाईं,  जब लिपटकर कर रोईं तो हमने वचन ले लिया साथ चलने का अब उस कमरे में उसकी मालकिन का स्वागत कीजिये, अब हम अधब्याहे नहीं हैं।

जीवनसाथी के साथ का जगमग दिया दोनोँ विरह का अँधेरा दूर कर चुका था।