साहित्य

क्या शादी में अनावश्यक लोगों को बुलाकर दिखावा करना ज़रूरी है?

आचार्य मृत्युंजय पाण्डेय
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क्या शादी में अनावश्यक लोगों को बुलाकर दिखावा करना जरूरी है, और लोग आते हैं खाना बर्बाद करके जाते हैं।
आज तक जितनी शादियों मे मै गया हूँ, उनमे से करीब 80% में दुल्हा-दुल्हन की शक्ल तक नही देखी… उनका नाम तक नही जानता था… अक्सर तो विवाह समारोहों मे जाना और वापस आना भी हो गया पर ख्याल तक नही आया और ना ही कभी देखने की कोशिश भी की, कि स्टेज कहाँ सजा है, युगल कहाँ बैठा है…
बैठा भी है कि नहीं, या बरात आई या नहीं…
भारत में लगभग हर विवाह में हम 70% अनावश्यक लोगों को आमंत्रण देते हैं…
अनावश्यक लोग वो है जिन्हें आपके विवाह मे कोई रुचि नही..वे केवल दावत में आये होते हैं…
जो आपका केवल नाम जानते हैं…
जो केवल आपके घर की लोकेशन जानते हैं.. जो केवल आपकी पद-प्रतिष्ठा जानते हैं…
और जो केवल एक वक्त के स्वादिष्ट और विविधता पूर्ण व्यञ्जनों का स्वाद लेने आते हैं…
ये होते हैं अनावश्यक लोग….
विवाह कोई सत्यनारायण भगवान की कथा नही है कि हर आते जाते राह चलते को रोक रोक कर प्रसाद दिया जाए…
केवल आपके रिश्तेदारों, कुछ बहुत निकटस्थ मित्रों के अलावा आपके विवाह मे किसी को रुचि नही होती..
ये ताम झाम, पंडाल झालर, सैकड़ों पकवान, आर्केस्ट्रा DJ, दहेज का मंहगा सामान एक संक्रामक बीमारी का काम करता है.. कैसे..?
लोग आते हैं इसे देखते हैं और सोचते हैं..
“मै भी ऐसा ही इंतजाम करूँगा,
बल्कि इससे बेहतर करूंगा “..
और लोग करते हैं… चाहे उनकी चमड़ी बिक जाए..
लोग 70% अनावश्यक लोगों को अपने वैभव प्रदर्शन करने में अपने जीवन भर की कमाई लुटा देते हैं.. लोन तक ले लेते हैं..
और उधर विवाह मे आमंत्रित फालतू जनता , गेस्ट हाउस के गेट से अंदर सीधे भोजन तक पहुच कर, भोजन उदरस्थ करके, लिफाफा पकड़ा कर निकल लेती है..
और सबसे ज्यादा खाने की बर्बादी होती है लोग आते हैं और खूब सारा खाना प्लेट में ठूस ठूस कर लेते हैं थोड़ा खाते हैं बाकी फेंक देते हैं ।
पर आप उसकी किश्तें जीवन भर चुकाते हो…
क्या हमें इस अपव्यय और दिखावे को रोकना नहीं चाहिए..l

Dinesh Shrinet
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हमारे घर में फिलिप्स के दो रेडियो थे. एक हम दोनों भाइयों की पैदाइश से पहले और दूसरा बाद में खरीदा गया मगर मेरे होश संभालने से बहुत पहले का. पहले में कोई बैटरी लगा करती थी जो बाद में मिलना बंद हो गई. मां ने इस उम्मीद में उसे संभालकर रखा कि शायद कोई ऐसा तरीका निकलेगा, जिससे वह बजना शुरू हो जाए. घर में टेलीविजन आने से पहले तक रेडियो हमारे घर में बजता रहा.
जब तक मेरा बचपन इलाहाबाद में बीता विविध भारती के कई रोचक कार्यक्रम सुनने को मिलते थे और जब हम गोरखपुर शिफ्ट हुए तो वहां पर रविवार की सुबह और लगभग प्रतिदिन शाम और रात को स्थानीय आकाशवाणी केंद्र के कार्यक्रमों को सुनना हमारी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा हुआ करता था. बाद में भले रेडियो सुनने का चलन खत्म हो गया हो मगर उन्हें मेरी मां उसी तरह सहेजकर रखा, जैसी स्थिति में वे खरीदकर लाए गए थे.
चीजों को सहेजना उनकी आदत थी. जैसे शादी के बाद शायद पिता कोलकाता या मुंबई से टी-सेट लाए थे, वो आज भी रखा हुआ है. उन पर सफेद चीनी मिट्टी पर एक-दूसरे को क्रॉस करते खजूर के पेड़ बन थे. एक लकड़ी का बड़ा सा बॉक्स, जो कलमदान कहलाता था और जिसमें वे अपनी चिट्ठियां और कागजात रखती थीं. लकड़ी की अलमारी. लाल रंग की अलार्म घड़ी. बनारस से खरीदे गए पारदर्शी कांच के जानवर, जिन्हें रुई में संभालकर रखा गया था. एक सिरेमिक का पीले रंग का कुत्ता जो मेरे लिए तब ख़रीदा गया था जब मैं डेढ़ वर्ष का था. हिंद पॉकेट बुक्स के सैकड़ों पेपरबैक्स.
ये सारी चीजें आज भी हमारे पुराने घर में बची हुई हैं. सिर्फ इतना ही नहीं मां के पास अपनी पैदाइश से पहले का एक भूरे रंग का कोट देखा था, जिसके कंधे पर बड़ी खूबसूरती कढ़ाई थी और उस पर अंगूरों का एक गुच्छा बना हुआ था. उनका गुलाबी रंग का स्वेटर, शॉल, या फिर गांधी आश्रम सिल्क वाली साड़ी जो अब मेरी पत्नी कभी-कभार पहनती हैं. यह सब कुछ. मां को वस्तुओं से एक स्वाभाविक लगाव था. उन्हें संभालकर रखना, उनकी देखभाल करना, उनको अपनी स्मृतियों का हिस्सा बनाकर रखना उनकी आदत थी.
ऐसी जाने कितनी वस्तुएं थीं, जिनसे जुड़ी कहानियां हमने बचपन में सुन रखी थीं. धीरे-धीरे समय बदला और पुरानी चीजें अपना महत्व खोने लगीं. अंततः हम यह मानने लगे कि कुछ खराब हो तो उसे बनाया नहीं जा सकता, उसे सीधे कबाड़ में देना होता है. हमें उनकी जगह नया लेना होता है. मुझे याद है कि जब भी कभी पहली बार मैंने यह सुना कि अमुक वस्तु एक बार खराब होने के बाद बन नहीं सकती, तो मुझे बहुत अजीब सा लगा था.
मैंने तो बचपन से एक ऐसा संसार देखा था, जहां ‘शिप ऑफ थीसियस’ की तरह, छाता खराब हो तो कभी तीलियां बदली जाती थीं, कभी उसका कपड़ा तो कभी उसका हैंडल, लेकिन कहलाता वो बरसों पुराना छाता ही था. मरम्मत किए जाने की इस परंपरा ने कलपुर्जों और कारीगरों का एक पूरा संसार बसाया था. आज भी वह मौजूद है मगर देखते-देखते एक ऐसी पीढ़ी आई है जो मरम्मत को समय की बरबादी मानती है.
वक्त और बदला. और बाज़ार ने बिना ख़राब हुए भी चीजों को बदलने का सुझाव दिया. यानी फोन पुराना हो गया, कार पुरानी हो गई या फिर आपका टेलीविजन पुराना हो गया तो नया लीजिए. इन दिनों कुछ नया लेने की वजह पुराना होना नहीं बल्कि एक नए मॉडल का आना है. मोबाइल फोन इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं. हर नए फोन में कुछ फीचर ऐसे जोड़े जाते हैं जो उसे पिछले के मुकाबले ज्यादा आकर्षक बनाते हैं. भले बुनियादी रूप से फोन के काम और उसकी परफार्मेंस में कोई खास फ़र्क़ न हो.
यह तरीका वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, लैपटॉप और कार में आजमाया जाने लगा है. कुछ नया हासिल करने की चाहत आपको हर बार पुराना छोड़कर नए के पीछे भागने को कहती है. नतीजे में हम धीरे-धीरे एक स्मृति-विहीन समाज में बदलते जा रहे हैं. हमें कुछ भी सहेजना नहीं है. न वस्तुएं, न स्मृतियां और न रिश्ते. हम एक को छोड़कर दूसरे की तरफ भागते हैं, दूसरो को छोड़ तीसरे की तरफ – इस बात से अनजान कि हमारी दिशा क्या है.
इस जीवनशैली ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है जो अपार कचरे का उत्पादन करती है. हर नई वस्तु एक प्रोडक्ट है जो ललचाता है. वहीं हर अनुपयोगी वस्तु एक कचरा है. धीरे-धीरे करके हम धरती पर अनुपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करने वाली फैक्टरी बनते जा रहे हैं. परंपरागत जीवन शैली में कचरे की संभावना नहीं होती थी. हर वस्तु को पुनः या किसी और रूप में उपयोग करने की कला हमने बरसों की कलेक्टिव विज़डम से सीखी थी.
लेकिन बाजार ने मध्यवर्ग की इस मितव्ययिता का मज़ाक उड़ाया. ‘हम मिडिल क्लास वाले’ के मुहावरे को रूढ़ करते हुए टूथपेस्ट को पूरा इस्तेमाल करने या बीते साल की किताबों को अगले साल इस्तेमाल करने की समझदारी को एक चुटकुले में बदल दिया. अब बदलती दुनिया में जब हम री-साइक्लिंग या सर्कलुर इकॉनमी या सस्टेनेबल इकॉनमी की बातें करते हैं तो भूल जाते हैं कि यह सीख तो हमें घुट्टी में पिलाई गई थी.
अब दौर डिस्पोजेबल का है. किसी भी कॉरपोरेट ऑफिस, अस्पताल, शॉपिंग मॉल से हर रोज बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किए हुए डिस्पोजेबल ग्लास, प्लेटें, टिश्यू पेपर निकलते हैं. हर रोज टनों कचरा ठिकाने लगाया जाता है. हर जगह डंपिग यार्ड और कचरे के पहाड़ बनते जा रहे हैं. इससे निबटने के उपाय सोचे जाते हैं, कितने एनजीओ काम कर रहे हैं, कितनी जागरूकता के लिए गोष्ठियां हो रही हैं, सेमिनार में पर्चे पढ़े जा रहे हैं और अभी जैसे मैं यह सब लिख रहा हूँ, लेख लिखे जा रहे हैं.
पर इसके मूल में एक ही जीवन दर्शन है, एक ही जीवन शैली है, जिसकी तरफ लौटना ही इस भयावह समस्या का समाधान है. जीवन में कम वस्तुओं को जगह देना, जिनको आपने अपने जीवन में शामिल किया है उनसे लगाव रखना. वस्तुओं का सिर्फ उपभोग करने की प्रवृति की बजाय उन्हें अपने जीवन में शामिल करने की संस्कृति को विकसित करना. सिर्फ उपभोग करते रहना हमें कही नहीं ले जाएगा. धीरे-धीरे हम रिश्तों को भी उपभोग के नज़रिये से देखेंगे और एक ऐसे अकेले इनसान में बदल जाएंगे जो हर तरफ अनुपयोगी वस्तुओं से घिरा हुआ है.
घिरा हुआ है और बिल्कुल अकेला है. अकेला है और स्मृति-विहीन है.