दुनिया

केवल वही फ़िलिस्तीनी, फ़िलिस्तीन वापस आ सकते हैं जिन्हें वर्ष 1967 में निकाला गया था, फ़िलिस्तीनियों की 56 फ़ीसद ज़मीन यहूदियों के हवाले कर दी गयी : रिपोर्ट

पार्सटुडे- हा᳴लैंड के हेग नगर में स्थित अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अन्यायपूर्ण विभाजन की ओर संकेत के बिना अपने एक फ़ैसले में कहा है कि केवल वही फ़िलिस्तीनी, फ़िलिस्तीन वापस आ सकते हैं जिन्हें वर्ष 1967 में निकाला गया था।

लेख- आज की दुनिया में विदित में न्याय का नारा लगाया जाता है परंतु वास्तविकता यह है कि आज भी अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी संगठनों व संस्थाओं को विरोधाभास का सामना है और उनके क्रियाकलापों को देखकर साम्राज्यवाद के अंधकारमय दौर की याद आ जाती है। फ़िलिस्तीन के संबंध में अंतरराष्ट्रीय अदालत आईसीजे का हालिया फ़ैसला न केवल न्याय के निकट नहीं है बल्कि स्पष्ट रूप से इस अदालत के साम्राज्यवादी व्यवस्था के संपर्क में रहने और उससे जुड़े होने का सूचक है।

अंतरराष्ट्रीय अदालत के हालिया फ़ैसले ने साबित कर दिया कि अंतरराष्ट्रीय संस्थायें आज़ादी की दिशा में काम करने के बजाये साम्राज्यवादी व्यवस्था के कृत्यों को वैध दर्शाने के एक भाग में परिवर्तित हो गयी हैं।

ज़ायोनी साम्राज्य को वैधता प्रदान करना

वर्ष 1947 में राष्ट्रसंघ ने प्रस्ताव नंबर 181 पारित किया था जो फ़िलिस्तीन के अन्यायपूर्ण विभाजन के बारे में था और इस प्रस्ताव से फ़िलिस्तीन पर ज़ायोनियों के साम्राज्य की भूमि प्रशस्त हुई।

राष्ट्रसंघ के इस प्रस्ताव के अनुसार फ़िलिस्तीनियों की 56 प्रतिशत ज़मीनों को यूरोप से फ़िलिस्तीन पलायन करके जाने वाले यहूदियों के हवाले कर दी गयी।

राष्ट्रसंघ का यह फ़ैसला आधुनिक साम्राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। 1967 में इस्राईल और अरब देशों के मध्य होने वाले 6 दिवसीय युद्ध में अरब देशों की पराजय के बाद इस्राईल ने जार्डन नदी के पश्चिमी किनारे और ग़ज़ा पट्टी का संचालन अपने हाथ में ले लिया। इस समय अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अपने हालिया फ़ैसले में अन्यायपूर्ण विभाजन की ओर संकेत के बिना कहा है कि वर्ष 1967 में जिन फ़िलिस्तीनियों को अपने घरों से निकाल दिया गया था केवल वे वापस आ सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय अदालत के इस फ़ैसले ने इतिहास को एक प्रकार से दो भागों में विभाजित कर दिया है। एक इतिहास का वह भाग जिसकी चर्चा की जा सकती है और दूसरे इतिहास का वह हिस्सा जिसकी उपेक्षा व अनदेखी की जा सकती है।

अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले से यह लगता है कि मानो वह इस बात को भूल गया है कि फ़िलिस्तीनियों को अपनी मातृभूमि में वापस आने का अधिकार है और अंतरराष्ट्रीय अदालत का हालिया फ़ैसला फ़िलिस्तीनियों के हित में उसकी कृपा नहीं है जो उसने दिया है। शरणार्थी फ़िलिस्तीनियों की स्वदेश वापसी ज़ायोनी सरकार के अतिग्रहण की न केवल समाप्ति की सूचक है बल्कि उस सरज़मीन की आबादी की परिचायक है जिस पर क़ब्ज़ा कर लिया गया है।

Apartheid या अदालत ?
रोचक बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय अदालत के हालिया फ़ैसले में Apartheid शब्द का प्रयोग भी नहीं किया गया है। यह उस हालत में है जब फ़िलिस्तीनियों के मुक़ाबले में इस्राईल की नीतियां न केवल मानवाधिकारों का ख़ुला हनन हैं बल्कि स्पष्ट रूप से Apartheid की सूचक हैं। अंतरराष्ट्रीय अदालत ने इस वास्तविकता की अनदेखी करके फ़िलिस्तीनी अतिग्रहण के मामले को कम करके मानवाधिकार की सतह पर कर दिया है।

राष्ट्रसंघः साम्राज्यवादी हथकंडा या आज़ादी दिलाने वाली ताक़त?

यहां सबसे बड़ा विरोधाभास राष्ट्रसंघ की भूमिका को लेकर है। तय यह था कि राष्ट्रसंघ बराबरी और आज़ादी का प्रतीक बनेगा परंतु वह साम्राज्यवाद को वैधता प्रदान करने के हथकंडे में बदल गया है और फ़िलिस्तीन के संबंध में राष्ट्रसंघ के प्रस्तावों पर सही तरह से अमल नहीं हुआ और व्यवहारिक तौर इस्राईल की विस्तारवादी नीतियों के मुक़ाबले में राष्ट्रसंघ अपने प्रस्तावों को लागू न करा सका।

आगे का रास्ताः लोगों पर दबाव डालने की स्ट्रैटेजी

अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले को निराशा का कारण नहीं बनना चाहिये। अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले में यद्यपि त्रुटि है परंतु वह आमजनमत को जागरुक बनाने व करने का साधन बन सकता है। जनांदोलन और जनसंगठन अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले का प्रयोग इस्राईल की आर्थिक व राजनीतिक आलोचना व भर्त्सना के रूप में कर सकते हैं। बहिष्कार आंदोलन बीडीएस द्वारा पूंजी निवेश और आर्थिक बहिष्कार वह चीज़ें हैं जिनके ज़रिये इस्राईल को चुनौती दी जा सकती है और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी संगठनों को अपने फ़ैसलों में पुनर्विचार के लिए बाध्य कर सकते हैं।

अदालतः स्वप्न या वास्तविकता?

अंतरराष्ट्रीय अदालत ने अपने हालिया फ़ैसलों से दर्शा दिया कि अदालत विशेषकर उन लोगों के लिए जो साम्राज्य के अधीन हैं केवल एक क़ानूनी प्रक्रिया नहीं है बल्कि राजनीतिक संघर्ष है जबकि अंतरराष्ट्रीय संगठन अब भी असमानता और एतिहासिक विरोधाभास में हैं। ये फ़िलिस्तीन के लोग और उनके समर्थक हैं जिन्हें चाहिये कि वे दबाव और एकता बनाकर वास्तविक अदालत व न्याय का मार्गप्रशस्त करें।

एक फ़िलिस्तीनी लेखक ग़स्सान कन्फ़ानी के कथनानुसार तुम्हारी रोटी चुरा ले रहे हैं और फ़िर तुम्हें उसका एक टुकड़ा देते हैं और उसके बाद तुमसे कहते हैं कि तुम उनकी दानशीलता के आभारी रहो। क्या दुस्साहस है!” अब समय आ गया है कि साम्राज्यवादियों का शुक्रिया अदा करने के बजाये सच्ची और वास्तविक अदालत के लिए संघर्ष करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *