विशेष

केरला स्टोरी….”राजनीति अक्सर नज़र को धुंधला कर देती है और दिमाग़ को कुंद”… क्या हमें मानवीय होने दिया जा रहा है?

Tajinder Singh
=================
केरला स्टोरी…..
“राजनीति अक्सर नजर को धुंधला कर देती है और दिमाग को कुंद। राजनीति से उत्त्पन्न इस दृष्टि दोष को हायपरमेट्रिया कहा जाता है। इसमें नजदीक की चीज धुंधली और दूर की चीज साफ नजर आती है।”

अभी आयी फ़िल्म केरला स्टोरी को लेकर मुझे अचानक ये दृष्टि दोष याद आ गया। देश के सुदूर कौने में घटी घटना ने लोगों को उद्वेलित कर दिया। क्योंकि ये एक खास वर्ग से सम्बंधित थी और इसे खास मकसद से बनाया गया लगता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को अपने आस पड़ोस में घटने वाली घटनाओं की खबर नही होती और न ही पड़ोस की घटनाएं उन्हें उद्वेलित करती हैं।

जैसे प्रसिद्ध व्यक्ति लाइम लाइट में बने रहने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं वैसी ही सरकारें भी हैं। ये भी ऐसी फिल्मों को, बयानों को प्रमोट कर लोगों का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटाती रहती है।

बचपन मे मैं देखता था कि रात में चौकीदार गश्त लगाते हुए जागते रहो की आवाज बुलंद करता रहता था। लेकिन जो अपना चौकीदार है। वो इससे ठीक उलट बोलता है। सोते रहो…सोते रहो। ऐसी फिल्में देखते रहो और सोते रहो।


इसलिए इन सोए हुए लोगों और केरला स्टोरी पर मुझे कुछ नही कहना। मैं दूसरी दो फिल्मों का जिक्र करना चाहूंगा, जो इस तबके की नजर में कभी पड़ेंगी ही नही और अगर कभी पड़ी भी तो ये उसे जिक्र के काबिल भी नही समझेंगे। क्योंकि इनसे इनके विचारों का पोषण नही होता। उसे खाद पानी नही मिलता।
ऐसा नही है कि केरला स्टोरी में जो दिखाया गया वो गलत है। लेकिन चंद घटनाओं के आधार पर एक समाज और स्टेट के प्रति जो धारणाएं बनाई गई या बनाने की कोशिश की गई और जैसा सामान्यीकरण कर दिया गया। उससे मैं सहमत नही।

खैर…बात पहली फ़िल्म 2018 की। ये फ़िल्म केरल में आई भीषण बाढ़ के कथानक को लेकर बुनी गयी है। कैसे उस वक्त लोग जाति धर्म से ऊपर उठ कर एक दूसरे की मदद करते हैं। ये फ़िल्म इंसान से इंसान के रिश्तों की खूबसूरती को बयान करती है। अच्छे स्पेशल इफेक्ट और तकनीकी कुशलता के साथ इसे बनाया गया है।

दूसरी मलयालम फिल्म है…”ऐंनु स्वाथन श्रीधरन” यानी “मेरा अपना श्रीधरन”। इस फ़िल्म में एक सच्ची घटना को दिखाया गया है। एक धार्मिक महिला थेननदन सुबैदा के घर काम करने वाली एक हिन्दू स्त्री का देहांत होने पर उसके तीन बच्चों श्रीधरन, लीला और रमानी को सुबैदा अपने घर ले आती है और अपने दो बच्चों के साथ उनका पालन पोषण भी अपने बच्चों के समान करती है।

इन तीन बच्चों में एक बड़ी बच्ची जब मंदिर जाना चाहती थी तो सुबैदा उसे लेकर मंदिर जाया करती थी। जहां वो पूजा अर्चना किया करती थी। सुबैदा और उनके पति ने कभी भी इन तीनो बच्चों पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव नही बनाया। उनका कहना था कि सभी धर्म एक ही बात बताते हैं। प्यार से रहो और सबका सम्मान करो।

सुबैदा के बड़े बेटे शाहनवाज का कहना है कि हम सभी बच्चों में माँ सबसे ज्यादा श्रीधरन से प्यार करती थी। वो और श्रीधरन दोनों हम उम्र भी हैं। सुबैदा के छोटे बेटे जफर कहते हैं कि श्रीधरन मां की हर हर बात मानता था जबकि मैं काम से बचता रहता था। जब कभी मां घर पर नही होती थी तो लीला ही हमे खाना दिया करती थी।

इस फ़िल्म के बनने की कहानी भी बड़ी रोचक है। सुबैदा कि मृत्यु के बाद उनके बेटे श्रीधरन ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाला।
“मेरी उम्मा को अल्लाह ने बुला लिया है, कृपया उनके लिए दुआ करें”
केरल में मुस्लिम मां के लिए अम्मा या उम्मा का प्रयोग करते हैं।

ये पोस्ट सिद्दीक परवुर की नजरों से गुजरी। उन्होंने इसके बारे में विस्तार से जानकारी ली और इस मानवीय घटना पर एक फ़िल्म बनाने का निश्चय किया। उनके अनुसार “आज की जरूरत मानवता की ऐसी बातों को सामने लाने की है। आज समाज को मानवीय होने की सबसे ज्यादा जरूरत है।”

सिद्दीक साहब ने तो मानवीय होने पर बल दिया और आज इसकी जरूरत बताई। लेकिन सवाल है कि क्या हमें मानवीय होने दिया जा रहा है? क्या प्रोपेगेंडा फिल्में और नेताओं के बयान बकायदा नफरत बीजने का काम नही कर रहे है?

और सबसे बड़ा सवाल कि क्या आज का बुद्धिजीवी वर्ग भी इसी बहकावे में आता हुआ नही दिख रहा है?