विशेष

“केरला स्टोरी” की एक बेहतरीन समीक्षा….👏👏: कर्नाटक ने “केरला स्टोरी” की हवा निकाल दी!

Tajinder Singh
==============
एक बेहतरीन समीक्षा….👏👏
EAT SHIT….
इस फ़िल्म के बारे में सोच रहा हूँ। और हॉल से बाहर निकलते लोगों में जो नफ़रत और घृणा देख रहा हूँ, जो भद्दे जुमले सुन रहा हूँ, तो पुरुषोत्तम अग्रवाल जी के उपन्यास “नाकोहस” की वो एक लाइन बार-बार मुझे कुरेद रही है … “मन में बैठा दिये गए डर का जोड़ ग़ुस्से के किसी ख़ास पल के साथ बैठ जाए, फिर मन में बैठे डर को हमले का रूप लेने में देर कितनी लगनी है?”
ख़ैर, आप ये पढ़ें……
प्राचीन और मध्यकाल भारत में जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के राजकवि फ़िल्म बनाते थे तो…. aaarrrgghhhhh!
रुकें!.. फिर से पढ़ें।
प्राचीन और मध्यकाल में जब राजाओं महाराजाओं के राजकवि उनकी प्रशंसा में प्रशस्तियाँ लिखा करते, उनका झूठा बखान करते तो क्या वो ऐसा बस उन्हें ख़ुश करने के लिये करते? नहीं। अस्ल वजह इस कारण के ठीक एक क़दम आगे है। राजा के ख़ुश होने पर उपहार में जो संपत्ति और इज़्ज़त मिलती, वो थी इन प्रशस्तियों के लिखने के पीछे की ड्राइविंग फ़ोर्स।
ख़ैर, वो काल बीता। राजतंत्र की जगह आ गया लोकतंत्र, राजाओं की जगह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री .. और राजकवियों की जगह फ़िल्ममेकर। अब इतने बदलाव हुए तो राजकवियों का तरीक़ा भी बदला – सीधी तारीफ़ की बजाए, तुमको जो पसंद होगी वही बात कहेंगे, तुम दिन को रात कहोगे तो रात कहेंगे। मगर क्यों? ठीक वही वजह। अमाँ, मियाँ! फ़िल्म टैक्स फ़्री हो जाए बस .. और क्या चाहिए।
कैसी अजीब बात है ना, कि लॉकडाउन के वक़्त मजदूरों की समस्याओं पर बनी एक फ़िल्म (भीड़) में जिस जगह का नाम इस्तेमाल होता है वो काल्पनिक है। और जो फ़िल्म ख़ुद 32000 से 3 के आंकड़े पर आ गयी, वो खुले आम एक राज्य का नाम अपने टाइटल में यूज़ कर रही है।
बहरहाल, फ़िल्म की कहानी पर आते हैं – फ़िल्म में चार लड़कियां हैं, जिनमें से एक मुस्लिम है, एक क्रिसचियन और दो हिन्दू। ये मुस्लिम लड़की (आसिफ़ा) एक संगठन के साथ मिली हुई है, और इसका काम है भोली भाली हिन्दू और क्रिसचियन लड़कियों का ब्रेनवॉश कर के उन्हें इस्लाम में कन्वर्ट कराना, और फिर सीरिया में ISIS के पास भेज देना। तो ज़ाहिर है इन लड़कियों को गुमराह करने के लिये आसिफ़ा झूठी और कम्युनल बातें उनसे करती है।

Tajinder Singh

लेकिन अस्ल में, जब भी स्क्रीन पर आसिफ़ा ऐसी कोई बात कहती है तो ठीक उसी वक़्त निर्देशक सुदीपतो सेन हॉल में बैठे हर दर्शक से कुछ कह रहे होते हैं। जब आसिफ़ा हिन्दू देवताओं की बुराई करती है, ठीक तभी निर्देशक धीरे से हॉल में बैठे सभी लोगों से कहता है- “सुना? ऐसी ही होती हैं मुस्लिम लड़कियां।”… जब आसिफ़ा हिजाब के बारे में बताती है, तभी सुदीपतो सेन भी बताते हैं – “इनसे बचा कर रखो अपनी बच्चियों को। वरना एक दिन उन्हें भी हिजाब और बुर्क़ा ओढ़ना पड़ेगा” .. और जब उस संगठन के दो लड़के उन लड़कियों के साथ प्यार का झूठा नाटक करते हैं तो ठीक उसी वक़्त ये निर्देशक हमें बता रहा होता है- “मुसलमान लड़कों से दोस्ती मत करना। यही काम है इनका।”
ठीक उस वक़्त जब एक काल्पनिक चरित्र फ़ातिमा, उन भोली लड़कियों को भड़का रही होती है … बिल्कुल वही काम डायरेक्टर अपनी जीती जागती असली ऑडीयंस के साथ कर रहा होता है। और ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है। हर शॉट, हर फ़्रेम, हर सीन के ज़रिये बस मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर भरा जाता रहता है।
पर जैसा की होना था, फ़िल्म के पक्ष में लोगों के कुछ तर्क हैं। मसलन एक ये तर्क कि माना 32000 का आंकड़ा झूठा है, और ये घटना बस एक लड़की के साथ ही घटी है, तो भी ये बेहद क्रूर है और इसे दिखाया जाना चाहिए। मैं इस तर्क से सहमत हूँ। मगर मेरा इतना कहना है कि फिर इसे आप एक पूरे राज्य को डीफ़ेम करने के लिये इस्तेमाल नहीं कर सकते। आप केरला को सुइसाइड बॉम्ब पर रखा हुआ नहीं बता सकते। आप नहीं कह सकते कि अगले बीस सालों में केरला एक इस्लामिक राज्य बन जाएगा। और बरा-ए-मेहेरबानी जिस तरह फ़िल्म की कहानी कही गयी है, वैसे तो हरगिज़ नहीं कह सकते। मुसलमानों को महज़ छलिया, बर्बर, क्रूर और आतंकी दिखाया गया है। अच्छे मुसलमान के नाम पर सिर्फ़ एक औरत है, और वो भी ग़लत को ग़लत नहीं मानती, बस एक जगह हिन्दू लड़की के रोने चीखने पर उसकी माँ से उसकी बात करवा देती है। वाह! सदक़े जाऊं मैं इस मासूमियत और निर्देशन पर। ये देख के मुझे मंज़ूर एहतेशाम साहब के “सूखा बरगद” का वो जुमला याद आया था कि “ऐसे बेहूदा विग से तो गंजा सिर कहीं ज़्यादा ग्रेसफ़ुल लगे”
मेरे ख़याल से आप जब सिनेमा जैसे पावरफुल मीडियम का इस्तेमाल कर रहे होते हैं तो उसके साथ एक नैतिक ज़िम्मेदारी भी आती है। सुदीपतो सेन!.. आपसे ज़्यादा सच्ची और ज़्यादा क्रूर कहानियाँ लोगों ने पर्दे पर उतारी हैं। और यक़ीन मानें आपसे बेहतर ढंग से उतारी हैं। पर वे डायरेक्टर अपनी पोज़ीशन की वैल्यू नहीं भूले।
लीजिये आप एक कहानी सुनें – “एक लड़का है, उसकी आँखों के सामने एक अंग्रेज़ जनरल के इशारे पर तमाम अंग्रेज़ उसके आस पड़ोस, मोहल्ले, क़स्बे के सैंकड़ो लोगों को गोली से भून देते हैं। जिनमें ज़रा ज़रा से बच्चे भी थे, बूढ़े बाप भी थे, औरतें भी थीं। वो लड़का रात भर उनकी लाशें वहाँ से ढोता रहा। और अब वो लड़का ठानता है कि एक दिन उस अंग्रेज़ के देश जाएगा और वहीं उसे गोली मार के अपनों की मौत का बदला लेगा। कहानी सीधी है।”
अब फ़िल्म बनाने वाला चाहे तो आपको हर अंग्रेज़ के प्रति घृणा से भर दे। लेकिन जब इस कहानी पर शूजीत सरकार फ़िल्म बनाते हैं तो सरदार ऊधम सिंह बनती है। जा के देखिये वो फ़िल्म। और समझिये कि प्रॉपेगेंडा और फ़िल्ममेकिंग में क्या फ़र्क़ है।
इस फ़िल्म में इतनी चालाकी से चीज़ें बरती गयी हैं कि हैरत होती है। मसलन, ये फ़िल्म इन तीनों विक्टिम लड़कियों में उस क्रिसचियन लड़की को सबसे ज़्यादा रैशनल बीइंग की तरह इस्टैब्लिश करती है। और आख़िर में सारे फ़र्ज़ी डेटा, आधे सच, उसी लड़की से पेश करवाती है। अब दो घंटे जिसे रैशनल साबित किया है – वो ग़लत थोड़े बोलेगी। है ना? कमाल है!
एक और मिसाल देखिये – फ़िल्म में दूसरी हिन्दू लड़की जब कन्वर्ज़न और उसके दुष्परिणाम झेलने के बाद अपने कम्युनिस्ट पिता से लिपट कर रोती है तो पूरी ऑडीयंस की संवेदनाएं उससे जुड़ी होती हैं, और तब वो अपने पिता से रोते हुए कहती है कि “आपने मुझे विदेशी आइडियोलॉजी कम्युनिज्म के बारे में तो बताया पर हमारे कल्चर, हमारे रिलीजन के बारे में नहीं।”
और तो और, फ़िल्म पसंद करने वालों में एक बहुत बड़े वर्ग को ऐसा भी लगता है कि महज़ हिन्दू ही हैं जिन्हें अलग अलग तरीक़ो से दूसरे धर्मों में कनवर्ट किया जा रहा है। चलें अच्छा Media Development and Research Foundation, Kozhikode की रिपोर्ट देख लें जिसके मुताबिक़ 2011 से 2017 के बीच केरला में जितने भी कन्वर्ज़न हुए उनमे 60% लोग कन्वर्ट हो कर हिन्दू धर्म में आए।
क्या? जी! सर ही अब फोड़िए नदामत में।
और मैं यहाँ 2016 में PTI को दिये गए प्रवीण तोगड़िया के इंटरव्यू को ज़्यादा भाव ही नहीं दे रहा जिसमें उन्होंने पिछले 10 सालों में ढाई लाख मुसलमानों को हिन्दू बनाने का दावा किया है।
ख़ैर, एक और मासूम सा तर्क है कि क्या मैं ही अकेला बुद्धिमान हूँ? और सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने जाने वाले लाखों लोग, जिन्हें फ़िल्म पसंद भी आ रही है, गधे हैं?
अब बताइए इस पर क्या कहा जाए? यही ना कि “Eat Shit, millions of flies can’t be wrong.”
और सच कहूँ तो सिनेमा हॉल से बाहर निकलते बच्चों, औरतों को जब “डर लगने लगा है इनसे” कहते सुनता हूँ तो तो Alexander Mackendrick की “Sweet Smell Of Success” की नायिका की ही तरह बस “I know I should hate you. But I don’t. I pity you.” कहने का जी होता है।
I pity you my fellows. I pity you.
-Wrishabh

Uggar Sain
बेहत्तरीन समीक्षा की आपने ।आप निष्पक्ष समीक्षा करते करते थक जाएंगे, ये ऐसी फिल्में एक के बाद एक बनाते रहेंगे ।जल्द ही “ताशकंद फाइल्स” आने वाली है ।उन्ही महानुभाव ने बनाई है जिन्होंने “कश्मीर फाइल्स’ बनाई थी।वैसे कर्नाटक ने तो “केरला स्टोरी” की हवा निकाल दी ।पर उत्तर भारत मे यह अपने मकसद में कामयाब रही ।