साहित्य

कुछ नाम कानों में मिश्री घोल देते हैं और कुछ गले में कड़वाहट!

Madhu Singh
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गैस पर तवा रखकर रोटियां बनाने जा ही रही थी वसुधा कि तभी मोबाइल की घंटी घनघना उठी. फोन पासवाले कमरे में रखा था. काम के वक़्त किसी का भी फोन आने पर वसुधा को बड़ी कोफ़्त होती थी. घंटों फ़ुर्सत में बैठे रहो, तब किसी को याद नहीं आती, पर जब काम करने उठो, तभी फोन बजने लगेगा. उसने आंच धीमी की और पासवाले कमरे में जाकर फोन उठाया. उसके पति राजीव का फोन था, “हेलो.”
“सुनो, एक मरीज़ को ओ पॉज़िटिव खून की ज़रूरत है. यदि ज़रूरत पड़ी, तो क्या तुम ब्लड डोनेट कर सकती हो?” राजीव पूछ रहे थे.
“हां-हां क्यों नहीं.” वसुधा ने तपाक से जवाब दिया.
“ठीक है. अभी तो एक ने दे दिया है, लेकिन हो सकता है कल सुबह या शाम को ज़रूरत पड़ जाए.” राजीव ने बताया.
“बता दीजिएगा चली चलूंगी.” वसुधा ने कहा, फिर सहज कौतूहल से पूछ बैठी, “किसकी तबीयत ख़राब है, क्या हुआ है?”
राजीव पलभर को अचकचा गया, फिर झिझकते हुए बोला, “नेहा अस्पताल में एडमिट है.”
“अरे, क्या हुआ?” नेहा का नाम सुनते ही पता नहीं क्यों गले में कुछ कड़वा सा लगा. क्या नामों में भी स्वाद होता है. कुछ नाम कानों में मिश्री घोल देते हैं और कुछ गले में कड़वाहट, पर स्वाद नामों में नहीं, उन नामों से जुड़े व्यक्तित्व के होते हैं. जो लोग जीवन में अच्छा अनुभव देते हैं, उनके नाम भी मीठे लगते हैं और जो लोग आपके साथ कुछ बुरा करते हैं या बुरा अनुभव देते हैं, उनके नाम कड़वे लगते हैं. उनके नाम की ध्वनि एक कसैला स्वाद बनकर गले में उतर जाती है. उन्हीं में से एक नाम नेहा का भी है. नाम तो खैर कई सारे हैं.
“नेहा का मिस कैरेज हो गया है. कुछ कॉम्प्लिकेशन्स हो गए हैं, तो हॉस्पिटल में एडमिट किया है. खून की सख्त ज़रूरत है. दो बोतल का इंतज़ाम हो गया है, पर अभी और लगेगा.” राजीव ने बताया.
“ठीक है, जब कहेंगे चली जाऊंगी.” वसुधा ने जवाब दिया.
फोन रखकर वसुधा वापस किचन में आ गई. गैस की आंच तेज़ की और फटाफट रोटियां बनाने लगी. दोनों बच्चे खेलकर वापस आते ही भूख के मारे खाने के लिए नाक में दम कर देते हैं. खाना तैयार न हो, तो जो भी मिले खाकर आधा-अधूरा पेट भर लेते हैं और फिर रात का खाना भी ठीक से नहीं खा पाते. इसलिए वह शाम के सात बजे तक गरम-गरम खाना तैयार रखती है, ताकि बच्चे सही समय पर खाना खाकर सो जाएं,
सात बजे दोनों बच्चे हल्ला मचाते हुए घर में आए. वसुधा ने उनके हाथ-पैर धुलवाए, कपड़े बदले और खाना परोसा.
राजीव को जाने कब हॉस्पिटल से फ़ुर्सत मिले, इसलिए वसुधा ने भी बच्चों के साथ ही खाना खा लिया, थोड़ी देर बच्चों का होमवर्क करवाकर उसने दोनों को सुला दिया. फिर सुबह साढ़े पांच बजे स्कूल के लिए उठाना ही पड़ेगा. रात के नौ-साढ़े नौ बज रहे थे. राजीव अब तक नहीं आया था. वसुधा भी अपने कमरे में जाकर पलंग पर लेट गईं. पंद्रह साल पुरानी यादें अनचाहे मेहमान की तरह मन के दरवाज़े पर एक के बाद एक दस्तक देने लगीं. राजीव के पिता नहीं थे, राजीव बचपन से ही अपने मामा के यहां रहकर पले-बढ़े. होनहार राजीव जब उच्च शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छे सरकारी पद तक पहुंचे, तो पूरी तरह से अपने मामा के एहसानों के बोझ तले दबे हुए थे. मामा-मामी ने आश्रय के बदले उनकी आत्मा को गिरवी रख लिया था. हालांकि अपने घर का एक कमरा देने के अलावा उन्होंने और कुछ नहीं किया था, क्योंकि राजीव की मां स्कूल में पढ़ाती थीं और आत्मनिर्भर थीं. राजीव की पढ़ाई का सारा ख़र्चा वे ही उठाती थीं, लेकिन कुछ लोगों की आदत होती है कि कुछ न करके भी बहुत कुछ किया हमने या सब कुछ हमने ही किया का एहसान हमेशा जताते रहने की.
मामा-मामी के एहसान का वही भारी-भरकम बोझ राजीव पर लदा हुआ था. नौकरी के साथ ही अच्छा सा सरकारी क्वार्टर मिलते ही वे अपनी मां के साथ शिफ्ट हो गए. कॉलेज के ज़माने से ही वसुधा से उनकी घनिष्ठता थी. नौकरी मिलते ही उन्होंने अपनी मां से उसका परिचय करवाया. उच्च शिक्षित वसुधा पहली ही नज़र में मां को भा गई. सादगी भरे समारोह में उन्होंने बहुत जल्दी ही दोनों का विवाह करवा दिया.
दो साल तक सब सुचारु रूप से चलता रहा, लेकिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सास के असमय गुज़र जाने पर धीरे-धीरे पूरे परिवार में भले बने मामाजी की असलियत सामने आ गई. वसुधा को लेकर तरह-तरह के झूठे आरोप और बातें ससुरालपक्ष में फैलने लगीं. रिश्तेदारी में जहां भी वसुधा जाती या तो लोगों की अपमानजनक बातें सुननी पड़तीं या लोगों के व्यवहार में आए अचानक परिवर्तन से अवाक रह जाती.
तब सच सामने आया कि मामाजी मामी की बहन की बेटी के साथ राजीव का विवाह करवाना चाहते थे, पर राजीव ने वसुधा से ब्याह कर लिया. मामी की बहन की बेटी साधारण सी दिखनेवाली और जैसे-तैसे बीए पास थी. पिता प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. मामी अपने एहसानों का यही फल चाहती थीं, लेकिन वसुधा के आगमन से उनकी आशा पर तुषारापात हो गया. अब वसुधा को समझ आया कि क्यों उसकी सास ने तुरंत उनकी शादी करवा दी थी. मां के रहते मामा-मामी ने दबी ज़ुबान से इस शादी का विरोध करने की कोशिश तो बहुत की, लेकिन उनकी चली नहीं, इसलिए मां के देहांत के बाद से ही वे अपनी ईर्ष्या और कुंठा की भड़ास वसुधा पर निकाल रहे थे.
मामाजी की तीन बेटियां थीं. बड़ी दो की शादी पहले ही हो चुकी थी. नेहा सबसे छोटी थी. वसुधा ने उसे छोटी बहन के समान स्नेह दिया था. वह भी वसुधा के काफ़ी क़रीब थी, पर बड़ी बहनों और माता-पिता के कहने में आकर वह भी कभी वसुधा से आमना-सामना होने पर मुंह फेर लेती थी. रिश्तेदारी में अपने बारे में तरह-तरह की अजीबोगरीब बातें सुनकर वह तंग आ गई थी. उस पर राजीव का चुप रहकर एक तरह से मामा-मामी का मौन समर्थन करना वसुधा के स्वाभिमान को अंदर तक आहत कर गया. उसने कहीं बाहर आना-जाना ही बंद कर दिया.
राजीव मामाजी के एहसानों के प्रतिफल का अब इस तरह से प्रायश्चित करके चुकाएंगे, उसने सपने में भी नहीं सोचा था. राजीव मौन रहता और हर बात में दोष वसुधा के सिर पर ही आता.
कितनी बार मन किया था छोड़ दे राजीव को, पर मां हमेशा धीरज का ही पाठ पढ़ातीं, हमेशा वसुधा को ही समझाती.
“रिश्तों का दूसरा नाम ही समझौता है बेटी. बस, तुम अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठा से निभाती चलो.”
धीरे-धीरे वसुधा ने अपने आपको घर-गृहस्थी तक सीमित कर लिया. रिश्तों की जो थोड़ी-बहुत छांव बची थी, वो सिर्फ़ मायके से ही थी. फिर अभिनव और आदित्य का जन्म हुआ, वसुधा को जीने की नई ख़ुशी मिल गई. उसकी दुनिया अपने बेटों में सिमट गई. राजीव का उन लोगों के यहां आना-जाना बदस्तूर जारी रहा. वह एक बेटे और भाई का कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभा रहे थे. वसुधा कभी-कभी बहुत दुख से भर जाती, ऐसे टुकड़ों में जीना, ऐसे बंटकर रिश्ते निभाना, क्या विवाह में आपसी तालमेल का यही अर्थ है?
एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करने की क़समों का क्या यही औचित्य है? याद आया, दो वर्ष पहले इसी नेहा की शादी का कार्ड देने मामाजी घर आए थे. वसुधा ने इन लोगों से बरसों पहले ही बातचीत बंद कर दी थी, लेकिन फिर भी मां ने सिखाया था कि चाहे कुछ हो जाए घर आए अतिथि का हमेशा आदर करना चाहिए. वसुधा ने नौकरों के हाथों न भिजवाकर ख़ुद चाय-नाश्ता लेकर बाहर मामाजी को चाय-नाश्ता करवाया और साथ बैठी रही. कभी राजीव को यह कहने का मौक़ा न रहे कि मामाजी कार्ड देने आए और तुम अपने गुरूर और ग़ुस्से में भरकर बाहर भी नहीं आई.
लेकिन मामाजी ने अपने ओछेपन का एक और उदाहरण प्रस्तुत किया. उन्होंने शादी का कार्ड राजीव के हाथ में थमाया. उसे विवाह का निमंत्रण दिया और बिना वसुधा की ओर देखे, कुछ कहे चले गए. वसुधा अपमान से कटकर रह गई, तब तक भी उसे आशा थी कि शायद उसके अपमान को देखते हुए राजीव नेहा की शादी में नहीं जाएगा. लेकिन एक बार फिर उसके आत्मसम्मान को रौंदते हुए राजीव ने न केवल विवाह के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, बल्कि भाई होने के सारे कर्तव्य भी पूरे किए और चार दिन वहीं रहा.
वसुधा भीगे मन से सोचती रही, राजीव एक अच्छा अफसर, बेटा, भाई होने के साथ-साथ ज़िम्मेदार नागरिक भी है. समाज में उसका नाम और मान-सम्मान है, पर काश! राजीव पत्नी के दर्द को समझनेवाला और उसके सम्मान की रक्षा करनेवाला एक अच्छा पति भी होता.
दूसरे दिन दोनों बच्चों को स्कूल भेजकर वसुधा ने जल्दी-जल्दी घर के सभी काम निपटाए और हॉस्पिटल जाने के लिए तैयार हो गई. हॉस्पिटल का मामला है, पता नहीं कितनी देर लगेगी. स्कूल से आकर बच्चे अकेले परेशान न हो जाएं, यही सोचकर उसने छोटी बहन को घर बुला लिया. ड्राइवर गाड़ी लेकर खड़ा था. वसुधा बहन की राह देखने लगी.
“आज अचानक तुम इस समय कहां चल दी दीदी?” वेदिका ने आते ही प्रश्न किया.
“बस, ऐसे ही कुछ काम है.” वसुधा उसे टालना चाहा
“ऐसे ही तो तुम कहीं आती-जाती नहीं हो. सच बताओ न कहां जा रही हो?” वेदिका भला कहां छोड़नेवाली थी.
“कुछ नहीं, नेहा हॉस्पिटल में भर्ती है. उसे खून की ज़रूरत है. ब्लड डोनेट करने वहीं जा रही हूं.” वसुधा ने शांत स्वर में उत्तर दिया.
“तुम पागल हो गई हो क्या? उन लोगों ने तुम्हें इतना अपमानित किया, कैसे-कैसे लांछन लगाए, तब भी तुम उसे ब्लड डोनेट करने जा रही हो?” वेदिका आश्चर्य और ग़ुस्से से बोली.
“तो क्या हुआ, सबके अपने-अपने संस्कार होते हैं. याद है, बचपन में मां दीपावली के दिन आस-पड़ोस के घरों में भी दीये रखवाती थीं, ताकि सभी घरों में उजाला रहे. दीया तो एक प्रतीक था, असल में मां तो हमारी आत्मा को अंधकार से उजाले में जाने के संस्कार देती थीं- तमसो मा ज्योतिर्गमय. मां ने हमेशा हमें संबंधों में उजाला भरने की सीख दी है. तो पगली कोई कुछ भी करें यह उसकी सोच है, पर हम उसकी करनी को देखकर अपनी आत्मा को कलुषित क्यों करें. अपने अंदर के दीये को क्यों बुझा दे? अपने तले अंधेरा होने के बावजूद दीया दुनिया को रोशनी देना बंद नहीं करता, तो हम ही क्यों अपनी आत्मा से अच्छेपन का प्रकाश हर ले.”
वसुधा के चेहरे पर एक सरल स्निग्ध मुस्कान थी. द्वेष या क्रोध का कहीं लेशमात्र भी चिह्न नहीं था. उजाला बांट सकने के स्वाभाविक बड़प्पन के तेज से उसका व्यक्तित्व दिपदिपा रहा था.
“दीये तो हम सभी भाई-बहन रखने जाते थे दीदी, लेकिन उनके उजाले को अपनी आत्मा में बस तुमने ही उतारा है. मुझे तुम पर गर्व है.” कहते हुए वेदिका ने वसुधा को गले लगा लिया.