साहित्य

कितना रंगीन है ये जहाॅं तुम कहो….मनस्वी अपर्णा की इक नज़्म आप सभी की पेश-ए-ख़िदमत है मुलाहिज़ा हो …

मनस्वी अपर्णा
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अरसे बाद इक नज़्म आप सभी की पेश ए खिदमत है मुलाहिज़ा हो …
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कितना रंगीन है ये जहाॅं तुम कहो
ख़ूबसूरत खुला आसमाॅं तुम कहो
तुम कहो ज़िन्दग़ी ये बहुत ख़ूब है
तुम कहो ये खुदी से ही मंसूब है
जीस्त है इक सफ़र ख़ुशनुमा तुम कहो
है तुम्हारा ख़ुदा रहनुमा तुम कहो
मैं तुम्हारा कहा सच नहीं मानती
मैं अलम के सिवा कुछ नहीं जानती
कैसे कह दूं कि सच है जो तुमने कहा
क्या कहूं मैंने क्या क्या नहीं है सहा
मैं अजीज़ों की सफ़ से हटाई हुई
जैसे तस्वीर कोई मिटाई हुई
मजहबो दीन की दास्ताॅं तुम कहो
दिल ख़ुदा का है इक आस्ताॅं तुम कहो
ये भरम है मैं इनको नहीं मानती
क्या है मज़हब मेरा मैं नहीं जानती
मैं हिकारत ओ नफ़रत की मारी हुई
मैं ज़माने से हर तरह हारी हुई
कैसे मैं मान लूं ये जहाॅं है मेरा
कोई भी इस जहाॅं में कहाॅं है मेरा
तिनका तिनका मुक़द्दर बिखरता गया
सब मुसलसल नज़र से उतरता गया
मैं महज़ देखती,देखती रह गई
कौन सुनता है मैं क्यूं ये सब कह गई
जो मेरे आंसुओं का तलबगार है
वो हर एक शख़्स मेरा गुनहगार है
गैर वाजिब है इल्ज़ाम ये तुम कहो
अपनी ताकत ए नाकाम से तुम कहो
मैं तुम्हारा कहा सच नहीं मानती
मैं सिवा इसके कुछ भी नहीं जानती …..
मनस्वी अपर्णा