विशेष

”कायर लोगों की आदत होती है कि वे किसी भी बहस में सीधे अपने विरोधी पर बात नहीं कह पाते”

Kavita Krishnapallavi
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कला व साहित्य पर माओ के येनान भाषण की दुर्व्या्ख्या की ओर बढ़ते ‘प्रतिबद्ध’ सम्पादक के क़दम
यह क्या बीमारी है?

— कात्यायनी
कायर लोगों की आदत होती है कि वे किसी भी बहस में सीधे अपने विरोधी पर बात नहीं कह पाते। सुरजीत पातर पर जारी बहस की प्रक्रिया में, कला व साहित्य की राजनीति और विचारधारा से सापेक्षिक स्वायत्तता के सिद्धान्त को समझ पाने में शर्मनाक नाकामी के बाद, अब ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक महोदय अपनी पुरानी आदत से मजबूर होकर जहाँ-तहाँ से उद्धरण छाँट-छाँटकर डाले जा रहे हैं, सिर्फ़ यह साबित करने के लिए कि सच्ची‍ कला/क्रान्तिकारी कला वही मानी जायेगी जो सीधे क्रान्ति के प्रति प्रतिबद्ध हो, या क्रान्ति के प्रति प्रतिबद्ध लेखक द्वारा लिखी गयी हो, या क्रान्तिकारी कार्य के मातहत हो, इत्यादि। मैंने अपनी एक विस्तृत पोस्ट में कला व साहित्य के प्रति इस ख़तरनाक यान्त्रिक व ग़ैर-मार्क्सवादी समझदारी की एक आलोचना पेश की थी जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं:

https://www.facebook.com/share/p/19pxqHS5G2/ (हिन्दी भाषा में)
https://www.facebook.com/share/p/19XvgsXrR2/ (पंजाबी भाषा में)

पहले मिस्कोट करने, सन्दर्भ से काटकर कोट करने और दुर्व्याख्याा करने का निशाना लोर्का को बनाया गया था, जहाँ लोर्का की बातों को सन्दर्भ से काटकर ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक ने मनमानी व्याख्या की थी। मैंने अपनी उपरोक्त पोस्ट में लोर्का के उस पूरे उद्धरण को और उसके सन्दर्भ को पेश किया था। इस बार ‘अक्कड़-बक्कड़’ करके ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक महोदय की उंगली सीधे माओ त्से-तुंग पर जा गिरी! इस बार उन्होंने माओ के ही उद्धरण को सन्दर्भों से काटकर पेश कर दिया, जिससे किसी को यह लग सकता है कि माओ यहाँ विचारधारा व राजनीति तथा कला व साहित्य के रिश्तों पर आम तौर पर कोई प्रस्थापना दे रहे हैं। यदि पाठक ने माओ के उस भाषण को पढ़ा न हो व उसे उसका सन्दर्भ न पता हो, तो वह इस ग़लतफ़हमी में पड़ सकता है कि माओ की कला व साहित्य के बारे में ऐसी कोई उपकरणवादी (instrumentalist) समझदारी है। इसलिए, एक बार फिर, स्पष्टीकरण देना एक मार्क्सवादी के तौर पर अपना कर्तव्य समझती हूँ।

इस बार सम्पापदक महोदय ने माओ का यह उद्धरण पेश किया है:
“साहित्य व कला समूची क्रान्तिकारी मशीनरी के एक अभिन्न अंग के रूप में अच्छी तरह फिट हो जाएँ, वे जनता को एकताबद्ध और शिक्षित करने तथा दुश्मन पर प्रहार करने और उसे नष्ट कर देने वाले शक्तिशाली हथियार बन जाएँ, तथा वे जनता को इस योग्य बना दें कि वह एकदिल होकर दुश्मन का मुक़ाबला कर सके।”

पहले ऐतिहासिक सन्दर्भ जान लेते हैं, फिर माओ की इस बात के राजनीतिक और विचारधारात्मक सन्दर्भ को भी देखेंगे और उनके भाषण से विस्तृत उद्धरणों से समझने की कोशिश करेंगे कि माओ ने उपरोक्त शब्द क्यों कहे, किससे कहे और किस सन्दर्भ में कहे।

माओ ने यह बात कला व साहित्य पर येनान फ़ोरम में कही थी, जो 2 मई और 23 मई 1942 को येनान में दिये गये भाषणों के दौरान कही गयी थी। 1937 के बाद से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का भारी विस्तार हुआ था और बहुत से नये तत्व पार्टी में शामिल हुए थे। साथ ही, कई लोग अन्य क्षेत्रों से भी चीनी पार्टी के इस मुक्त क्षेत्र में आये थे। इनमें कई निम्न-पूँजीवादी विचारधारा से प्रभावित बुद्धिजीवी, साहित्यकार व कलाकार भी थे, जिन्होंने औपचारिक तौर पर मार्क्सवाद को अपना लिया था व पार्टी के नेतृत्व को भी स्वीकार करते हुए क्रान्ति के साथ अपनी पक्षधरता जतायी थी। उपरोक्त भाषण वास्तव में ऐसे नये पार्टी व ग़ैर-पार्टी (जिन्हें अभी पार्टी की सदस्यता नहीं दी गयी थी) कलाकारों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच दिया गया था। भाषण का विषय यह था कि पार्टी साहित्य, यानी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में काम करने वाले कलाकारों व साहित्यकारों द्वारा क्रान्तिकारी प्रोजेक्ट के आम अंग के तौर पर किये जाने वाले कलात्मक और साहित्यिक सृजन की क्या‍ समस्याएँ हैं और उन्हें सर्वहारा नज़रिये से और विशेष तौर पर चीनी क्रान्ति की तत्कालीन मंज़िल और उसके मद्देनज़र बनने वाले रणनीतिक वर्ग मोर्चे के मद्देनज़र किस प्रकार से हल किया जाना है। इस भाषण का यह विषय नहीं था कि माओ और चीनी पार्टी कला व साहित्य और राजनीति व विचारधारा के बीच आम तौर पर किस प्रकार के रिश्ते की समझदारी रखते हैं। यह भाषण मार्क्सवादी कलाकारों व साहित्यकारों के बीच ही दिया गया था, जिसका उद्देश्य ही था पार्टी साहित्य की समस्याओं को क्रान्ति के उस विशिष्ट सन्धि-बिन्दु पर हल करना, जिसमें उस समय चीनी क्रान्ति थी। इसे सुरजीत पातर के मूल्यांकन पर जारी बहस में और कला व साहित्य के राजनीति व विचारधारा से रिश्ते पर जारी विवाद में जिस तरीक़े से इस्तेमाल करने की मंशा ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक द्वारा प्रदर्शित की जा रही है, न सिर्फ़ वह इतिहास व राजनीति के साथ आम तौर पर अन्याय है, बल्कि माओ के विचारों के साथ भी अन्याय है। इससे माओ के बारे में तमाम साहित्यकार व कलाकार बेहद ग़लत धारणा विकसित कर सकते हैं। मैं इसी भाषण से कुछ उद्धरण पेश करूँगी, जिससे कि बात स्प‍ष्ट हो सके।

अपने सम्बोधन में ही माओ लिखते हैं:
“साथियो! इस गोष्ठी में भाग लेने के लिए आज आप लोगों को इसलिए निमंत्रित किया गया है ताकि हम अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें तथा साहित्य व कला के क्षेत्रों में किये जाने वाले कार्य और आम क्रान्तिकारी कार्य के आपसी सम्बन्धों को जाँच-परख सकें। हमारा उद्देश्य‍ इस बात की गारण्टी करना है कि क्रान्तिकारी कला-साहित्य अपने विकास का सही रास्ता अपनाएँ, तथा हमारे राष्ट्रीय दुश्मन का तख़्ता उलट देने और हमारी राष्ट्रीय मुक्ति का कार्य पूरा करने में सहायक बनकर अन्य क्रान्तिकारी कार्यों में पहले से अधिक अच्छी तरह सहयोग दें।”

इसके ठीक आगे माओ लिखते हैं:
“चीनी जनता की मुक्ति के लिए किये जाने वाले हमारे संघर्ष में विभिन्न‍ प्रकार के मोर्चे मौजूद हैं, इनमें कलम के मोर्चे हैं और बन्दूक के मोर्चे हैं, सांस्कृतिक मोर्चे हैं और फौजी मोर्चे हैं। दुश्मन को शिक़स्त देने के लिए हमें मुख्य रूप से बन्दूकधारी सेना पर निर्भर रहना चाहिये। लेकिन केवल-मात्र ऐसी सेना का होना ही काफ़ी नहीं है, हमारे पास एक सांस्कृतिक सेना भी होनी चाहिये, जो हमारी अपनी पाँतों को एकताबद्ध करने के लिए और दुश्मन को शिक़स्त देने के लिए निहायत ज़रूरी है।”

जैसा कि उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है, भाषण का उद्देश्य पार्टी के सांस्कृंतिक मोर्चे पर पार्टी से जुड़े सदस्य व ग़ैर-सदस्य साहित्यकारों व कलाकारों के कार्यभारों को स्पष्ट करना था। इन्हें स्पष्ट करना इसलिए ज़रूरी था क्यों कि 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध से बहुत-से साहित्यकार व कलाकार पार्टी द्वारा स्थापित मुक्त-क्षेत्रों में आते जा रहे थे, जो निम्न-पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व के मातहत थे, जनता से कटे हुए थे, वे चीनी क्रान्ति के राष्ट्रीय जनवादी चरण के अनुसार निश्चय ही एक राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तिकारी चरित्र रखते थे, क्योंकि वे जापान-विरोधी थे और अक्सर सामन्तवाद-विरोधी व जनवाद-समर्थक थे, लेकिन उनका मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण में दिशा-निर्धारण (ओरियण्टेशन) नहीं हुआ था। माओ लिखते हैं:

“यह एक बहुत अच्छी‍ बात है कि जापानी-आक्रमण-विरोधी युद्ध शुरू होने के बाद, अधिकाधिक क्रान्तिकारी लेखक और कलाकार येनान और अन्य‍ जापान-विरोधी आधार-क्षेत्रों में आते जा रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं होता कि आधार-क्षेत्रों में आने भर से ही वे वहाँ की जनता के साथ पूर्ण रूप से एकरूप हो गये हैं। अगर हमें अपने क्रान्तिकारी कार्य को आगे बढ़ाना है, तो इन दोनों को पूर्णतया एकरूप हो जाना चाहिये। हमारी आज की सभा का उद्देश्य वस्तुत: इस बात की गारण्टी करना है कि साहित्य व कला समूची क्रान्तिकारी मशीनरी के एक अभिन्न अंग के रूप में अच्छी तरह फ़ि‍ट हो जाएँ, वे जनता को एकताबद्ध और शिक्षित करने तथा दुश्मन पर प्रहार करने और उसे नष्ट कर देने वाले शक्तिशाली हथियार बन जाएँ, तथा वे जनता को इस योग्य बना दें कि वह एकदिल होकर दुश्मन का मुक़ाबला कर सके।”

उपरोक्त उद्धरण के बाद वाले हिस्स को ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक ने सन्दर्भों से काटकर पेश किया है ताकि एक निहायत ग़लत समझ को माओ पर आरोपित कर सकें। कोई सन्देह न रह जाये, इसलिए माओ के निम्न उद्धरण पर ग़ौर करें, जहाँ वह स्पसष्ट करते हैं कि वह पार्टी से जुड़े साहित्यकारों व कलाकारों के सन्दर्भ में और पार्टी साहित्य के सन्दर्भ में चर्चा कर रहे हैं :

“वर्ग दृष्टिकोण की समस्या। हमारा दृष्टिकोण सर्वहारा वर्ग और आम जनता का दृष्टिकोण है। कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के लिए इसका मतलब है पार्टी के दृष्टिकोण पर क़ायम रहना, पार्टी की भावना को क़ायम रखना और पार्टी की नीति पर क़ायम रहना। क्या कला-साहित्य़ के क्षेत्र में काम करने वाले हमारे कुछ कार्यकर्ता ऐसे नहीं है जो इस समस्या‍ को सही रूप से नहीं समझ पाते अथवा स्प‍ष्ट रूप से नहीं समझ पाते? मैं समझता हूँ कि ऐसे लोग ज़रूर हैं। हमारे अनेक साथी सही दृष्टिकोण से बार-बार भटकते रहे हैं।”

आगे माओ मुक्त-क्षेत्र में मौजूद जनसमुदायों के चरित्र की समस्या को उठाते हुए बताते हैं कि कला के मोर्चे पर काम कर रहे कलाकारों व साहित्यकारों को इसे समझना होगा। केवल तभी वे समझ पायेंगे कि वे किसके लिए लिख रहे हैं और तभी वे अपनी विषय-वस्तु को सही रूप दे सकेंगे और कलात्मक तकनीकों का भी सही इस्तेमाल कर सकेंगे। इन जनसमुदायों में मज़दूर, किसान, छात्रों के साथ-साथ बड़ी तादाद में क्रान्तिकारी काडर भी है। माओ लिखते हैं:

“…अकेले येनान में ही 10,000 से अधिक कार्यकर्ता ऐसे हैं जो किताबें पढ़ सकते हैं। यही नहीं, उनमें से बहुत से लोग तपे हुए क्रान्तिकारी भी हैं जो देश के सभी भागों से यहाँ आये हुए हैं और यहाँ से विभिन्न स्थानों में काम करने के लिए जायेंगे। इसलिए उनके बीच शिक्षा कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। कला-साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं को चाहिये कि वे इस सम्बन्ध में अच्छी तरह काम करें।”

माओ बार-बार इन नये पार्टी लेखकों व साहित्यकारों को सन्दर्भित करते हैं जो कुछ ही पहले पार्टी और क्रान्ति के पक्ष में आये थे और मुक्त-क्षेत्रों में आ गये थे, और बताते हैं कि पार्टी साहित्य के सृजन के लिए उन्हें मज़दूरों, किसानों व आम मेहनतकश जनसमुदायों के साथ-साथ कम्यु्निस्ट कार्यकर्ताओं की व्यापक आबादी को समझने के लिए उनके बीच जाना होगा, रहना होगा, संघर्ष का साथी बनना होगा, तभी वे पार्टी साहित्य के उद्देश्यों को पूरा कर सकते हैं:

“हमारे लेखकों व कलाकारों को साहित्यिक व कलात्मक सॄजन-कार्य करना होगा, लेकिन उनका सर्वप्रथम कार्य है जनता को समझना और उनका अच्छी तरह से परिचय प्राप्त कर लेना…अगर हमारे वे लेखक व कलाकार जो बुद्धिजीवी तबके से आये हुए हैं यह चाहते हैं कि उनकी रचनाओं को आम जनता पसन्द‍ करे, तो उन्हें अपने विचारों और भावनाओं का रूपान्तर कर लेना चाहिए और उनका पुन:संस्कार कर लेना चाहिए। इस प्रकार के रूपान्तर के बिना, इस प्रकार के पुन:संस्कार के बिना, वे लोग कोई भी काम अच्छी तरह नहीं कर पायेंगे और बिलकुल नाक़ाबिल साबित होंगे।”

उपसंहार के ठीक पहले के हिस्से में माओ एकदम स्पष्ट कर देते हैं कि वे मार्क्सवादी कलाकारों व साहित्यकारों की बात कर रहे हैं, उनके समक्ष सही क्रान्तिकारी पार्टी साहित्य के सृजन की समस्याओं की बात कर रहे हैं:

“अन्तिम समस्या अध्ययन की समस्या है, जिससे मेरा तात्पर्य है मार्क्सवाद-लेनिनवाद और समाज का अध्ययन करना। जो कोई भी अपने आपको क्रान्तिकारी मार्क्सवादी लेखक कहता हो और ख़ास तौर से जो कोई भी लेखक कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य हो, उसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। लेकिन इस समय कुछ साथी मार्क्सवाद की बुनियादी धारणाओं से अनभिज्ञ हैं…लेखकों व कलाकारों द्वारा साहित्यिक रचनाओं व कलाकृतियों का अध्ययन बिलकुल उचित है, लेकिन मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान का सभी क्रान्तिकारियों को अध्ययन करना चाहिये, लेखक व कलाकार इसके अपवाद नहीं हैं।”

उपरोक्त उद्धरणों को मैंने इसलिए पेश किया कि पाठक यह समझ सकें कि माओ का येनान फ़ोरम पर दिया गया कला-साहित्य सम्बन्धी भाषण मूलत: व मुख्यत: एक राजनीतिक भाषण है, जिसका लक्ष्य था क्रान्ति की प्रगति के एक महत्वपूर्ण सन्धि-बिन्दु पर पार्टी साहित्य व पार्टी से जुड़े साहित्यकारों व कलाकारों के कार्यभारों को स्पष्ट करना, उसकी समस्याओं को स्पष्ट करना। माओ ने उपसंहार वाले हिस्से में (जो उनका 23 मई 1942 को दिया गया भाषण है) स्पष्ट किया है कि पार्टी के कलाकारों व साहित्यकारों को यह समझना चाहिए कि क्रान्तिकारी साहित्य व कला किसके लिए है? वह बताते हैं कि चीनी क्रान्ति की राष्ट्रीय जनवादी मंज़िल में वह वास्तव में मज़दूरों, किसानों, सैनिकों व शहरी निम्न-पूँजीपति वर्ग के लिए है, जो चीनी राष्ट्र की भारी बहुसंख्या हैं। इसके अलावा, जापान-विरोधी व राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के प्रति एकता व आलोचना के रवैये की माओ ने आगे वकालत की है, जहाँ वे पार्टी के साहित्यकारों व कलाकारों को कला के मोर्चे पर संयुक्त मोर्चे की आम दिशा के बारे में बताते हैं। वहाँ माओ बताते हैं:

“…चूँकि आज चीन की राजनीति का बुनियादी सवाल जापान का प्रतिरोध करना है, इसलिए हमारी पार्टी के लेखकों व कलाकारों को चाहिए कि वे सबसे पहले जापान का प्रतिरोध करने के मसले पर तमाम गै़र-पार्टी लेखकों व कलाकारों के साथ (जिनमें पार्टी के हमदर्दों और निम्न-पूँजीवादी लेखकों व कलाकारों से लेकर पूँजीपति वर्ग और ज़मीन्दार वर्ग तक के वे लेखक-कलाकार भी शामिल हैं जो जापान का प्रतिरोध करने का पक्षपोषण करते हैं) एकता क़ायम कर लें। दूसरे, लोकशाही के सवाल पर भी हमें उनके साथ एकता क़ायम कर लेनी चाहिए।”

जैसा कि पाठक देख सकते हैं, माओ ने यहाँ क्रान्ति के चरण के अनुसार अपने विचारों को निर्धारित किया है।
इस भाषण में केवल एक जगह माओ एक ऐसी टिप्पणी करते हैं, जो, आंशिक तौर पर, कला-साहित्य व उसके प्रति हमारे विचारधारात्मकक व राजनीतिक रवैये पर आम तौर पर लागू होती है। वह लिखते हैं:

“अन्ततोगत्वा, भला समस्त कला-साहित्य का स्रोत क्या है? साहित्यिक रचनाओं और कलाकृतियों जैसे विचारात्मरक रूप समाज के जीवन में मनुष्य के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रतिबिम्बों की उपज होते हैं। क्रान्तिकारी कला-साहित्य क्रान्तिकारी लेखकों और कलाकारों के मस्तिष्क पर पड़ने वाले जन-जीवन के प्रतिबिम्बों की उपज होता है। जनता का जीवन साहित्य और कला के लिए कच्चे माल की एक खान है, एक ऐसा कच्चा माल जो अपने स्वाभाविक रूप में होता है, एक ऐसा कच्चा माल जो अनगढ़ होते हुए भी अत्यन्त सप्राण, समृद्ध और मौलिक होता है; इसके साथ तुलना करने पर समस्त, कला-साहित्य बिलकुल फीका जान पड़ता है; यह साहित्य और कला का एक अनन्त‍ स्रोत है, उसका एकमात्र स्रोत है। यह कच्चा माल उसका एकमात्र स्रोत इसलिए है क्यों कि उसका कोई भी अन्य स्रोत नहीं हो सकता। कुछ लोग पूछेंगे, क्या उसका एक अन्य स्रोत किताबें, पुराने ज़माने का कला-साहित्य और विदेशों का कला-साहित्य नहीं है? वास्तव में, अतीत कला की साहित्यिक रचनाएँ और कलाकृतियाँ एक स्रोत न होकर महज़ एक धारा हैं, उनका सृजन हमारे पूर्ववर्ती लोगों और विदेशियों ने अपने समय की और अपने स्थान की जनता के जीवन में प्राप्त किये गये साहित्यिक और कलात्मक कच्चे माल के आधार पर किया था। हमें अपनी साहित्यिक और कलात्मक विरासत की तमाम श्रेष्ठ चीज़ों को अपना लेना चाहिए, गुण-दोष विवेचन करके उसकी तमाम उपयोगी चीज़ों को आत्मसात कर लेना चाहिए और जब हम अपने समय और अपने स्थान की जनता के जीवन में मौजूद साहित्यिक और कलात्मक कच्चे माल से अपनी रचनाओं का सृजन कर रहे हों, उस समय उसे एक उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए। इस बात से कि हमारे पास इस प्रकार के उदाहरण हैं अथवा नहीं हमारे साहित्यिक और कलात्मक सृजन के कार्य में बड़ा फ़र्क पड़ जाता है, एक ऐसा फ़र्क जो अपरिष्कृत और परिष्कृत रचनाओं के बीच होता है, अनगढ़ और सुगढ़ रचनाओं के बीच होता है, निम्न स्तर और उन्नत स्तर की रचनाओं के बीच होता है, तथा धीमी रफ़्तार और तेज़ रफ़्तार से सृजन की जाने वाली रचनाओं के बीच होता है। इसलिए हमें किसी भी हालत में प्राचीन रचयिताओं और विदेशियों की विरासत को हरगिज़ ठुकराना नहीं चाहिए अथवा उसे उदाहरण के रूप में इस्तेमाल करने में हरगिज़ आनाकानी नहीं करनी चाहिए, चाहे वे रचनाएँ सामन्ती वर्ग अथवा पूँजीपति वर्ग की ही क्यों न हों।”
इस टिप्पणी से एक हल्का अन्दा‍ज़ा मिलता है कि माओ का कला व साहित्य तथा राजनीति व विचारधारा के रिश्तों के बारे में कोई यान्त्रिक विचार कतई नहीं था। लेकिन इस भाषण में इस विचार को विस्तारित कर पाना निश्चय ही माओ के लिए सम्भव नहीं था, क्योंकि भाषण का लक्ष्य और विषय-वस्तु ही अलग थी, जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं।

यह भी स्प्ष्ट करना यहाँ ज़रूरी है कि “क्रान्तिकारी साहित्य” एक ऐसा विशेषण है, जिसका इस्तेमाल स्वयं सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों ने निर्धारण के कई भिन्न स्तरों पर किया है। मसलन, यहाँ माओ पार्टी साहित्य के क्रान्तिकारी चरित्र का निर्धारण दो स्तरों पर करते हैं, पहला, मार्क्सवादी विचारधारा, और दूसरा, चीन में क्रान्ति की मंज़िल। इसी भाषण में एक स्थान पर माओ बताते हैं कि राजनीति का और कोई अर्थ नहीं होता, बल्कि ‘वर्गों के बीच का संघर्ष’ होता है (“राजनीति, चाहे वह क्रान्तिकारी हो अथवा प्रतिक्रान्तिकारी, वस्तुत: विभिन्न वर्गों के बीच का एक संघर्ष है”) और इन अर्थों में कला व साहित्य इस वर्ग संघर्ष से स्वतन्त्र नहीं होते, बल्कि उनके मातहत होते हैं। मार्क्स व एंगेल्स ने बाल्ज़ाक के लेखन को भी क्रान्तिकारी द्वन्द्वात्मकता से भरपूर बताया था। लेनिन ने 1905 की क्रान्ति के दर्पण के रूप में तोलस्तोय के साहित्य को देखा था, लेकिन उसके बाद के दौर में भी तोलस्तोय के साहित्य को सर्वहारा वर्ग की विरासत का अंग माना और समाजवादी क्रान्ति के बाद भी उसे बड़े पैमाने पर छपवाकर वितरित करने की हिमायत पुरज़ोर शब्दों में की। आम तौर पर, जनता के पक्ष में खड़े साहित्य के लिए भी ‘क्रान्तिकारी साहित्य’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, क्रान्ति के किसी विशिष्ट चरण में क्रान्ति के मित्र वर्गों की प्रकृति और चरित्र के अनुसार भी अलग-अलग साहित्यिक रचनाओं के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है, पार्टी के साथ खड़े और मार्क्सवाद को मानने वाले ऐसे साहित्यकारों के साहित्य के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया है जो पार्टी सदस्य नहीं थे; और, पार्टी के सदस्य व कलात्मक मोर्चे पर काम करने वाले पार्टी कलाकारों व पार्टी साहित्यकारों की रचनाओं के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया है।

जो बात ‘प्रतिबद्ध’ सम्पादक की समझ में नहीं आ रही है वह यह है कि कला और साहित्य की राजनीति और विचारधारा से एक सापेक्षिक स्वायत्तता होती है, जैसा कि लेनिन ने तोलस्तोय-सम्ब‍न्धी अपने लेखन में स्पष्ट किया था। माओ ने अपने येनान के भाषण में वही बात अलग चीनी सन्‍दर्भों में दुहरायी है, जो लेनिन ने पार्टी साहित्य के विषय में अपने 1905 के लेखन में कही थी। ये दोनों ही स्रोत कला व साहित्य के राजनीति और विचारधारा से रिश्तों के बारे में मार्क्सवाद की आम समझदारी को स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनकी विषय-वस्तु ही यह नहीं है। मुद्दा यह नहीं है कि तोलस्तोय 1905 की रूसी क्रान्ति के दर्पण थे, लेकिन 1917 की अक्टूबर क्रान्ति के दर्पण नहीं थे (कैसे हो सकते थे! 1910 में तोलस्तोय की मृत्यु हो गयी थी!); मुद्दा यह भी नहीं था कि तोलस्तोय की रचनाओं की महानता, उनकी युगान्तरता की बात करने के बावजूद लेनिन उसमें निहित विचारधारा की आलोचना भी करते हैं। यह आलोचना तो किसी सर्वहारा उपन्यासकार द्वारा लिखित उपन्यास की भी की जायेगी, क्योंकि यह मानकर चलना कि कोई सर्वहारा उपन्यासकार जो उपन्यास लिखेगा वह सर्वहारा विचारधारा का मूर्त रूप होगा, एक बार फिर यही दिखलायेगा कि ऐसा दावा करने वाले व्याक्ति को साहित्य की राजनीति व विचारधारा से सापेक्षिक स्वायत्तता के बारे में कुछ नहीं पता है। कलात्मक रचनाएँ एक वर्ग समाज में हर-हमेशा विचारधारात्मक व राजनीतिक वर्ग संघर्ष का एक लोकेशन ही हो सकती हैं। ऐसे में, सर्वहारा रचनाकार की रचना की भी सर्वहारा आलोचना कर, उसमें प्रतिबिम्बि‍त होने वाले विचारधारात्मतक व राजनीतिक वर्ग संघर्ष का अमूर्तन व सामान्यीकरण करना एक साहित्यालोचक का कार्यभार होगा। जो यह नहीं समझते उन्हें मानना होगा कि कलात्मक तकनीकों के मसले को छोड़कर किसी सर्वहारा रचनाकार द्वारा रची गयी कलात्मक रचना के विषय में साहित्यालोचक का कोई भी कार्यभार नहीं होगा! ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक महोदय ने अपनी एक पोस्ट के नीचे किसी के द्वारा किये गये कमेण्ट का जवाब देते हुए तोलस्तोय की विचारधारा की लेनिन द्वारा आलोचना की बात को ऐसे कहा है, मानो वह केवल तोलस्तोेय व अन्य ग़ैर-मार्क्सववादी कलाकारों पर ही लागू होती है, लेकिन गोर्की या फ़देयेव पर नहीं। यह भी प्रचण्ड मूर्खता और साहित्य के मसलों में निपट अपढ़पन की ही निशानी है।

‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक पातर के मूल्यांकन पर जारी बहस में और उस प्रक्रिया में कला व साहित्य तथा राजनीति व विचारधारा के रिश्तों के बारे में पेश की गयी अपनी बेहद भोंड़ी, यान्त्रिक और अधिभूतवादी समझदारी के मसले पर अपनी आलोचना के जवाब में तोपा-तोपी करने की कवायद करते हुए लगातार उद्धरणों को सन्दर्भों से काटकर उनकी दुर्व्याख्या (misinterpretation) और दुर्विनियोजन (misappropriation) कर रहे हैं। पहले उन्होंने अपनी मूर्खता और बेईमानी के रथ से लोर्का को रौंद दिया और अब वह माओ पर हमला कर रहे हैं।

माओ ने जो बात यहाँ पर पार्टी के कलात्मक मोर्चे पर काम करने वाले मार्क्सवादी व पार्टी से जुड़े कलाकारों व साहित्यकारों के कार्यभार और चीनी क्रान्ति की एक विशिष्ट मंज़िल में पार्टी साहित्य के कार्यभारों के सन्दर्भ में की है क्या उसे सुरजीत पातर पर जारी बहस में किसी भी तरह से लागू किया जा सकता है? क्या पातर कोई मार्क्सवादी व पार्टी साहित्यकार या कलाकार थे? क्या वे किसी पार्टी के कलात्मक मोर्चे पर काम करने वाले पार्टी लेखक थे? क्या‍ जो लेखक ऐसे नहीं होंगे, उन सबको कोई कम्युनिस्ट पार्टी या आम तौर पर कम्युनिस्ट ख़ारिज कर देंगे? क्या माओ द्वारा इस भाषण में एक विशिष्ट विषय-वस्तु पर पेश विचार को आम तौर पर कला व साहित्य तथा राजनीति व विचारधारा के रिश्तों पर लागू किया जा सकता है? कतई नहीं। फिर ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक ऐसा क्यों कर रहे हैं? बेईमानी और मूर्खता की वजह से। अपने कार्यकर्ताओं के सामने लाज बचाने के लिए कुछ तो कहना ही होगा! लेकिन यह करके वह इतना ही दिखा रहे हैं कि वह पतन के किस गर्त में पहुँच चुके हैं। क्योंकि ऐसे तुच्छ उद्देश्यों के लिए क्लासिक्स और महान शिक्षकों के उद्धरणों को सन्दर्भों से काटकर पेश करना, उन्हें काट-छाँटकर पेश करना, उनका दुर्विनियोजन करना, उनकी दुर्व्याख्या करना और कुछ नहीं बल्कि भयंकर पतन का ही लक्षण है।