Kavita Krishnapallavi
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कला व साहित्य पर माओ के येनान भाषण की दुर्व्या्ख्या की ओर बढ़ते ‘प्रतिबद्ध’ सम्पादक के क़दम
यह क्या बीमारी है?
— कात्यायनी
कायर लोगों की आदत होती है कि वे किसी भी बहस में सीधे अपने विरोधी पर बात नहीं कह पाते। सुरजीत पातर पर जारी बहस की प्रक्रिया में, कला व साहित्य की राजनीति और विचारधारा से सापेक्षिक स्वायत्तता के सिद्धान्त को समझ पाने में शर्मनाक नाकामी के बाद, अब ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक महोदय अपनी पुरानी आदत से मजबूर होकर जहाँ-तहाँ से उद्धरण छाँट-छाँटकर डाले जा रहे हैं, सिर्फ़ यह साबित करने के लिए कि सच्ची कला/क्रान्तिकारी कला वही मानी जायेगी जो सीधे क्रान्ति के प्रति प्रतिबद्ध हो, या क्रान्ति के प्रति प्रतिबद्ध लेखक द्वारा लिखी गयी हो, या क्रान्तिकारी कार्य के मातहत हो, इत्यादि। मैंने अपनी एक विस्तृत पोस्ट में कला व साहित्य के प्रति इस ख़तरनाक यान्त्रिक व ग़ैर-मार्क्सवादी समझदारी की एक आलोचना पेश की थी जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं:
https://www.facebook.com/share/p/19pxqHS5G2/ (हिन्दी भाषा में)
https://www.facebook.com/share/p/19XvgsXrR2/ (पंजाबी भाषा में)
पहले मिस्कोट करने, सन्दर्भ से काटकर कोट करने और दुर्व्याख्याा करने का निशाना लोर्का को बनाया गया था, जहाँ लोर्का की बातों को सन्दर्भ से काटकर ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक ने मनमानी व्याख्या की थी। मैंने अपनी उपरोक्त पोस्ट में लोर्का के उस पूरे उद्धरण को और उसके सन्दर्भ को पेश किया था। इस बार ‘अक्कड़-बक्कड़’ करके ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक महोदय की उंगली सीधे माओ त्से-तुंग पर जा गिरी! इस बार उन्होंने माओ के ही उद्धरण को सन्दर्भों से काटकर पेश कर दिया, जिससे किसी को यह लग सकता है कि माओ यहाँ विचारधारा व राजनीति तथा कला व साहित्य के रिश्तों पर आम तौर पर कोई प्रस्थापना दे रहे हैं। यदि पाठक ने माओ के उस भाषण को पढ़ा न हो व उसे उसका सन्दर्भ न पता हो, तो वह इस ग़लतफ़हमी में पड़ सकता है कि माओ की कला व साहित्य के बारे में ऐसी कोई उपकरणवादी (instrumentalist) समझदारी है। इसलिए, एक बार फिर, स्पष्टीकरण देना एक मार्क्सवादी के तौर पर अपना कर्तव्य समझती हूँ।
इस बार सम्पापदक महोदय ने माओ का यह उद्धरण पेश किया है:
“साहित्य व कला समूची क्रान्तिकारी मशीनरी के एक अभिन्न अंग के रूप में अच्छी तरह फिट हो जाएँ, वे जनता को एकताबद्ध और शिक्षित करने तथा दुश्मन पर प्रहार करने और उसे नष्ट कर देने वाले शक्तिशाली हथियार बन जाएँ, तथा वे जनता को इस योग्य बना दें कि वह एकदिल होकर दुश्मन का मुक़ाबला कर सके।”
पहले ऐतिहासिक सन्दर्भ जान लेते हैं, फिर माओ की इस बात के राजनीतिक और विचारधारात्मक सन्दर्भ को भी देखेंगे और उनके भाषण से विस्तृत उद्धरणों से समझने की कोशिश करेंगे कि माओ ने उपरोक्त शब्द क्यों कहे, किससे कहे और किस सन्दर्भ में कहे।
माओ ने यह बात कला व साहित्य पर येनान फ़ोरम में कही थी, जो 2 मई और 23 मई 1942 को येनान में दिये गये भाषणों के दौरान कही गयी थी। 1937 के बाद से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का भारी विस्तार हुआ था और बहुत से नये तत्व पार्टी में शामिल हुए थे। साथ ही, कई लोग अन्य क्षेत्रों से भी चीनी पार्टी के इस मुक्त क्षेत्र में आये थे। इनमें कई निम्न-पूँजीवादी विचारधारा से प्रभावित बुद्धिजीवी, साहित्यकार व कलाकार भी थे, जिन्होंने औपचारिक तौर पर मार्क्सवाद को अपना लिया था व पार्टी के नेतृत्व को भी स्वीकार करते हुए क्रान्ति के साथ अपनी पक्षधरता जतायी थी। उपरोक्त भाषण वास्तव में ऐसे नये पार्टी व ग़ैर-पार्टी (जिन्हें अभी पार्टी की सदस्यता नहीं दी गयी थी) कलाकारों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच दिया गया था। भाषण का विषय यह था कि पार्टी साहित्य, यानी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में काम करने वाले कलाकारों व साहित्यकारों द्वारा क्रान्तिकारी प्रोजेक्ट के आम अंग के तौर पर किये जाने वाले कलात्मक और साहित्यिक सृजन की क्या समस्याएँ हैं और उन्हें सर्वहारा नज़रिये से और विशेष तौर पर चीनी क्रान्ति की तत्कालीन मंज़िल और उसके मद्देनज़र बनने वाले रणनीतिक वर्ग मोर्चे के मद्देनज़र किस प्रकार से हल किया जाना है। इस भाषण का यह विषय नहीं था कि माओ और चीनी पार्टी कला व साहित्य और राजनीति व विचारधारा के बीच आम तौर पर किस प्रकार के रिश्ते की समझदारी रखते हैं। यह भाषण मार्क्सवादी कलाकारों व साहित्यकारों के बीच ही दिया गया था, जिसका उद्देश्य ही था पार्टी साहित्य की समस्याओं को क्रान्ति के उस विशिष्ट सन्धि-बिन्दु पर हल करना, जिसमें उस समय चीनी क्रान्ति थी। इसे सुरजीत पातर के मूल्यांकन पर जारी बहस में और कला व साहित्य के राजनीति व विचारधारा से रिश्ते पर जारी विवाद में जिस तरीक़े से इस्तेमाल करने की मंशा ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक द्वारा प्रदर्शित की जा रही है, न सिर्फ़ वह इतिहास व राजनीति के साथ आम तौर पर अन्याय है, बल्कि माओ के विचारों के साथ भी अन्याय है। इससे माओ के बारे में तमाम साहित्यकार व कलाकार बेहद ग़लत धारणा विकसित कर सकते हैं। मैं इसी भाषण से कुछ उद्धरण पेश करूँगी, जिससे कि बात स्पष्ट हो सके।
अपने सम्बोधन में ही माओ लिखते हैं:
“साथियो! इस गोष्ठी में भाग लेने के लिए आज आप लोगों को इसलिए निमंत्रित किया गया है ताकि हम अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें तथा साहित्य व कला के क्षेत्रों में किये जाने वाले कार्य और आम क्रान्तिकारी कार्य के आपसी सम्बन्धों को जाँच-परख सकें। हमारा उद्देश्य इस बात की गारण्टी करना है कि क्रान्तिकारी कला-साहित्य अपने विकास का सही रास्ता अपनाएँ, तथा हमारे राष्ट्रीय दुश्मन का तख़्ता उलट देने और हमारी राष्ट्रीय मुक्ति का कार्य पूरा करने में सहायक बनकर अन्य क्रान्तिकारी कार्यों में पहले से अधिक अच्छी तरह सहयोग दें।”
इसके ठीक आगे माओ लिखते हैं:
“चीनी जनता की मुक्ति के लिए किये जाने वाले हमारे संघर्ष में विभिन्न प्रकार के मोर्चे मौजूद हैं, इनमें कलम के मोर्चे हैं और बन्दूक के मोर्चे हैं, सांस्कृतिक मोर्चे हैं और फौजी मोर्चे हैं। दुश्मन को शिक़स्त देने के लिए हमें मुख्य रूप से बन्दूकधारी सेना पर निर्भर रहना चाहिये। लेकिन केवल-मात्र ऐसी सेना का होना ही काफ़ी नहीं है, हमारे पास एक सांस्कृतिक सेना भी होनी चाहिये, जो हमारी अपनी पाँतों को एकताबद्ध करने के लिए और दुश्मन को शिक़स्त देने के लिए निहायत ज़रूरी है।”
जैसा कि उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है, भाषण का उद्देश्य पार्टी के सांस्कृंतिक मोर्चे पर पार्टी से जुड़े सदस्य व ग़ैर-सदस्य साहित्यकारों व कलाकारों के कार्यभारों को स्पष्ट करना था। इन्हें स्पष्ट करना इसलिए ज़रूरी था क्यों कि 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध से बहुत-से साहित्यकार व कलाकार पार्टी द्वारा स्थापित मुक्त-क्षेत्रों में आते जा रहे थे, जो निम्न-पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व के मातहत थे, जनता से कटे हुए थे, वे चीनी क्रान्ति के राष्ट्रीय जनवादी चरण के अनुसार निश्चय ही एक राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तिकारी चरित्र रखते थे, क्योंकि वे जापान-विरोधी थे और अक्सर सामन्तवाद-विरोधी व जनवाद-समर्थक थे, लेकिन उनका मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण में दिशा-निर्धारण (ओरियण्टेशन) नहीं हुआ था। माओ लिखते हैं:
“यह एक बहुत अच्छी बात है कि जापानी-आक्रमण-विरोधी युद्ध शुरू होने के बाद, अधिकाधिक क्रान्तिकारी लेखक और कलाकार येनान और अन्य जापान-विरोधी आधार-क्षेत्रों में आते जा रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं होता कि आधार-क्षेत्रों में आने भर से ही वे वहाँ की जनता के साथ पूर्ण रूप से एकरूप हो गये हैं। अगर हमें अपने क्रान्तिकारी कार्य को आगे बढ़ाना है, तो इन दोनों को पूर्णतया एकरूप हो जाना चाहिये। हमारी आज की सभा का उद्देश्य वस्तुत: इस बात की गारण्टी करना है कि साहित्य व कला समूची क्रान्तिकारी मशीनरी के एक अभिन्न अंग के रूप में अच्छी तरह फ़िट हो जाएँ, वे जनता को एकताबद्ध और शिक्षित करने तथा दुश्मन पर प्रहार करने और उसे नष्ट कर देने वाले शक्तिशाली हथियार बन जाएँ, तथा वे जनता को इस योग्य बना दें कि वह एकदिल होकर दुश्मन का मुक़ाबला कर सके।”
उपरोक्त उद्धरण के बाद वाले हिस्स को ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक ने सन्दर्भों से काटकर पेश किया है ताकि एक निहायत ग़लत समझ को माओ पर आरोपित कर सकें। कोई सन्देह न रह जाये, इसलिए माओ के निम्न उद्धरण पर ग़ौर करें, जहाँ वह स्पसष्ट करते हैं कि वह पार्टी से जुड़े साहित्यकारों व कलाकारों के सन्दर्भ में और पार्टी साहित्य के सन्दर्भ में चर्चा कर रहे हैं :
“वर्ग दृष्टिकोण की समस्या। हमारा दृष्टिकोण सर्वहारा वर्ग और आम जनता का दृष्टिकोण है। कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के लिए इसका मतलब है पार्टी के दृष्टिकोण पर क़ायम रहना, पार्टी की भावना को क़ायम रखना और पार्टी की नीति पर क़ायम रहना। क्या कला-साहित्य़ के क्षेत्र में काम करने वाले हमारे कुछ कार्यकर्ता ऐसे नहीं है जो इस समस्या को सही रूप से नहीं समझ पाते अथवा स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते? मैं समझता हूँ कि ऐसे लोग ज़रूर हैं। हमारे अनेक साथी सही दृष्टिकोण से बार-बार भटकते रहे हैं।”