साहित्य

#कांटों_की_उलझन_क्या_जानों, तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!

मनस्वी अपर्णा
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एक नज़्म आप सभी की पेश ए ख़िदमत है जिसका उनवान है..
#कांटों_की_उलझन_क्या_जानों
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
पनपे हो सुख के साए में
ये दुःख के बंधन क्या जानो
इस महके संवरे गुलशन में
है ख़ास तुम्हारी इक क्यारी
माली ने सींचा है तुमको
अपनी सारी मेहनत वारी
हमको चाहा था कब किसने
दामन झटका इसने उसने
हम तीखे चुभने वालों के
कितने है दुश्मन क्या जानो
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
महफूज़ रहे हो सुख-दुख में
हिक़मत से सहेजे जाते हो
हक़ पूरा मिलता है तुमको
इज़्ज़त विज़्ज़त भी पाते हो
हम जैसे ख़ुद मुख़्तारों से
दुनिया की अन-बन क्या जानो
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
इस पार नहीं है कोई भी
तो कोई भी उस पार नहीं
वो ठौर ठिकाना क्या बोले
जिसका कोई घर-बार नहीं
तुम मर्ज़ी का खाने वाले
आख़िर की खुरचन क्या जानो
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
हम लोग अधूरे जो अक्सर
महफ़िल की मुश्किल बनते हैं
गर घुलना-मिलना भी चाहें
तो सब के चेहरे तनते हैं
बेगाने हैं, बेगानों की
ये ज़हनी अड़चन क्या जानो
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
हम से बेनामी रिश्तों को
ठोकर से तोड़ा जाता है
फिर बद से बद्तर हालत में
मरने को छोड़ा जाता है
जो बीच नदी में टूट गया
उस पुल की टूटन क्या जानो
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
कुछ टूट रहा किरचा किरचा
क्या बात करें उस मुश्किल की
कोई भी जान नहीं सकता
हर आहट से सहमे दिल की
बढ़ती है धड़कन क्या जानो
किस ख़ौफ़ में हर पल रहता है
मिट्टी का बर्तन क्या जानों
तुम फूल बने हो, क़िस्मत है!
कांटों की उलझन क्या जानो
कांटों की उलझन क्या जानो

मनस्वी अपर्णा

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