Surah/सूरह 2 : Al-Baqarah/अल-बक़रा [गाय / The Cow]
सूरह 2 : अल-बक़रा
[गाय / The Cow]
यह क़ुरआन की सबसे लम्बी सूरह है जिसकी आयतें कई सालों में थोड़ी-थोड़ी उतरी थीं। आयत 67 में एक गाय की कहानी का ज़िक्र आया है जिसके नाम पर इस सूरह का नाम पड़ा है, जिसमें इसराइलियों को गाय ज़िबह करने का हुक्म दिया गया था (आयत 66)।पहली सूरह, “अल-फ़ातिहा” में जो सीधा रास्ता दिखाने की दुआ की गई थी, उसी के जवाब में इस सूरह की शुरुआत हुई है, और फिर इस मार्गदर्शन पर अमल करने के हिसाब से सभी इंसानों को तीन समूह में बाँटा गया है —- सच्चाई पर विश्वास करने वाले (मोमिन), सच्चाई पर विश्वास करने से इंकार करने वाले (काफ़िर), और पाखंडी लोग (मुनाफ़िक़) —- और फिर सूरह की समाप्ति में ईमान के उन सिद्धांतों की पुष्टि की गई है जिसे शुरू की आयतों (3-5) में बताया गया है। जैसे-जैसे सूरह आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे संबोधित किए गए लोग भी बदलते रहते हैं: बहुत बार इंसानों को आम तौर से संबोधित किया गया है (आयत 22), जहाँ उन्हें कहा गया है कि वे केवल अल्लाह की बंदगी किया करें क्योंकि अल्लाह उनके लिए कितनी मेहरबानियाँ करता रहा है (उन्हें याद दिलाया गया है कि किस तरह अल्लाह ने आदम को पैदा किया और उसे फ़रिश्तों पर वरीयता दी), फिर आदम और उसकी संतानों से शैतान की दुश्मनी का ज़िक्र भी हुआ है। इसराईल की संतानों को याद दिलाया गया है (आयत 40) कि किस तरह अल्लाह ने उन पर अपना ख़ास करम किया, और ज़ोर देकर उन्हें उन किताबों पर विश्वास करने को कहा गया है जो उनकी किताब की सच्चाई की पुष्टि करती है, और फिर ईमानवालों को (आयत 136), बहुत सारे मामले में ज़रूरी निर्देश दिए गए हैं —- नमाज़, रोज़ा, हज, रक्षा, शादी-ब्याह के नियम, जिहाद, वसीयत, आर्थिक मामले जैसे क़र्ज़, ब्याज आदि। इस सूरह के बड़े हिस्से में यहूदियों की रीतियों और तौर-तरीक़े के बारे में चर्चा की गई है।
विषय:
02-07: किताब, ईमानवाले और इंकार करने वाले
08-20: ईमान का ढोंग करने वाले
21-25: ईमानवालों को ताकीद
26-29: विश्वास न करने वालों से अपील
30-39: आदम, इबलीस और जन्नत से निकलना
40-48: इसराईल की संतानों से अपील
49-50: इसराइलियों का फिरऔन से छुटकारा मिलना
51-74: इसराइलियों द्वारा आज्ञा न मानने की मिसालें
75-82: यहूदियों द्वारा तौरात में अपनी तरफ़ से कुछ फेर-बदल
83-103: इसराइलियों द्वारा आज्ञा न मानने की मिसालें (जारी)
104-110: किताबवाले लोगों के बारे में चेतावनी
111-121: यहूदियों और ईसाइयों की कड़ी निंदा
122-123: इसराईल की संतानों से अपील
124-129: मक्का में इबराहीम (अलै)
130-141: इबराहीम (अलै) का दीन
142-152: नमाज़ पढ़ने की दिशा [क़िबला] में बदलाव
153-157: जो लोग अल्लाह के रास्ते में लड़ते हुए जान देते हैं
158 : “सफ़ा” और “मरवा” की पहाड़ी
159-162: जो आसमानी किताब का कुछ हिस्सा छुपाते हैं, उन्हें चेतावनी
163-167: बहुदेववादियों को सावधान किया गया
168-173: खाने के बारे में आदेश
174-176: जो आसमानी किताब का कुछ हिस्सा छुपाते हैं, उन्हें चेतावनी
177 : सच्ची भलाई
178-179: जान के बदले जान की सज़ा
180-182: वसीयतें
183-187: रोज़े रखना
188 : धन-दौलत का ग़लत इस्तेमाल
189 (क): नया चाँद
189 (ख): घरों में सामने के दरवाज़े से दाख़िल हो
190-194: अल्लाह के रास्ते में लड़ना
195 : अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना
196-203: हज से जुड़े हुए नियम-क़ायदे
204-207: झूठे और सच्चे बंदे
208-214: एकता के लिए अपील
215 : अल्लाह के रास्ते में (भलाई के लिए) ख़र्च करना
216-218: अल्लाह के रास्ते में लड़ना
219 : शराब और जुआ खेलना
219-220: दान देना
220 (ख): यतीम [अनाथ]
221-237: शादी, तलाक़ और पारिवारिक मामले से जुड़े क़ानून
238-239: नमाज़ को पाबंदी और सही समय पर पढ़ना
240-242: विधवाओं को खाने-कपड़े का ख़र्च मिलना चाहिए
243-245: अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना
246-251: तालूत, जालूत और दाऊद (अलै) की कहानी
252-253: आप उनलोगों में से हैं जिन्हें हमने रसूल बनाकर भेजा
254 : अपने माल में से दूसरों पर ख़र्च करना
255 : “कुर्सी वाली आयत”[आयत-उल-कुर्सी]
256-257: दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं
258-260: अल्लाह मुर्दा पड़े हुए लोगों को भी ज़िंदा कर देता है
261-274: अल्लाह के रास्ते में मदद करना
275-284: सूद/ब्याज, क़र्ज़ और अनुबंध [Agreements]
285-286: ईमान का कारोबार, और एक आख़िरी दुआ
अल्लाह के नाम से शुरू जो सब पर मेहरबान है, अत्यंत दयावान है
अलिफ़॰ लाम॰ मीम॰ (1)
यह [क़ुरआन] एक ऐसी किताब है, जिसकी (किसी बात पर) कोई सन्देह नहीं, यह उन लोगों के लिए (नेकी का) रास्ता दिखानेवाली है, जो अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते हैं, (2)
जो नज़र से ओझल चीज़ों (की हक़ीक़तों) पर ईमान रखते हैं, ठीक ढंग व पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं, और जो कुछ रोज़ी हमने उन्हें दे रखी है, उसे (अल्लाह के रास्ते में दूसरों पर) ख़र्च करते हैं; (3)
और वह लोग जो उस [‘वही’/Revelation] पर ईमान रखते हैं जो [ऐ रसूल] आप पर उतारी गयी, और उन पर भी (विश्वास रखते हैं) जो आपसे पहले उतारी जा चुकी हैं, और (साथ ही) जो आनेवाली दुनिया [आख़िरत] की ज़िंदगी पर भी पक्का विश्वास रखते हैं; (4)
तो यही लोग हैं जो अपने रब के (ठहराए हुए) रास्ते पर हैं, और यही हैं जो (इस दुनिया और आनेवाली दुनिया में) कामयाबी पाएंगे। (5)
जो लोग (सच्चाई पर) विश्वास न करने पर अड़े हुए हैं, आप उन्हें सावधान करें या न करें, उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता: वे विश्वास करने वाले नहीं हैं। (6)
अल्लाह ने उनके दिलों और कानों को बंद करके ठप्पा (seal) लगा दिया है, और उनकी आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ है। उन्हें ज़बरदस्त यातना होगी। (7)
कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि “हम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं, हालाँकि असल में वे (इस बात पर) विश्वास नहीं रखते। (8)
वे अल्लाह और ईमानवालों को धोखा देना चाहते हैं, मगर (असल में) धोखा वे स्वयं अपने आपको ही दे रहे हैं, परन्तु वे इस बात को समझते नहीं हैं। (9)
उनके दिलों में एक रोग है, जिसे अल्लाह ने और बढ़ा दिया है: झूठ बोलते रहने के कारण उन्हें दर्दनाक यातना होगी। (10)
जब उनसे कहा जाता है कि “ज़मीन में बिगाड़ पैदा मत करो”, तो कहते हैं, “हम तो केवल चीजों को सुधार रहे हैं”, (11)
मगर असल में वे बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, हालांकि उन्हें एहसास नहीं होता। (12)
जब उनसे कहा जाता है, “(सच्चाई पर) विश्वास कर लो, जिस तरह दूसरे लोगों ने विश्वास किया है”, तो कहते हैं, “क्या हम भी विश्वास कर लें, जिस तरह (इन) बेवक़ूफ़ लोगों [fools] ने विश्वास कर लिया है?” मगर (असल में) यही लोग बेवक़ूफ़ हैं, हालाँकि वे (जिहालत व घमंड के कारण) इस बात को नहीं जानते। (13)
जब वे ईमान रखनेवालों से मिलते हैं तो कहते हैं, “हम विश्वास करते हैं,” मगर जब अकेले में अपने शैतानों के साथ होते हैं, तो कहते हैं, “हम तो असल में तुम्हारे साथ हैं; हम तो केवल (विश्वास करनेवालों की) हँसी उड़ा रहे थे।” (14)
(मगर सच्चाई यह है कि) उनकी ही हँसी उड़ायी जा रही है, और अल्लाह उन्हें और ढील दिए जा रहा है ताकि वे अपनी सरकशी [insolence] में अंधों की तरह भटकते फिरें। (15)
इन लोगों ने मार्गदर्शन के बदले में गुमराही मोल ले ली, इसीलिए इस व्यापार से न तो उन्हें कोई लाभ पहुँचा, और न ही वे सीधा मार्ग पा सके। (16)
उनकी मिसाल ऐसे लोगों की तरह है जिन्होंने (अंधेरे में बड़ी मेहनत से) आग जलाई हो: फिर जब उनके आसपास की हर चीज़ रौशन हो गयी, तो अल्लाह ने उनकी रौशनी ही छीन ली और उन्हें गहरे अँधेरों में छोड़ दिया, जहाँ कुछ सुझाई न देता हो —– (17)
वे बहरे हैं, गूँगें हैं, और अन्धे हैं: वे (सही रास्ते पर) कभी नहीं लौटेंगे। (18)
या (उनकी मिसाल ऐसे लोगों की है) जो आसमान से बादल फट पड़ने पर होने वाली तेज़ बारिश में घिर गए हों, साथ में अँधेरा हो, और गरज और चमक भी, वह बिजली की भयानक कड़क के चलते मौत के डर से अपने कानों में उँगलियाँ ठूंस ले रहे हों—–अल्लाह ने (सच्चाई से) इंकार करनेवालों को घेर रखा है। (19)
बिजली की चमक मानो उनकी आँखों की रौशनी उचक लेने को है: जब कभी बिजली चमकती है, तो वे (उसकी रौशनी में) चल पड़ते हैं और जब उन पर अँधेरा छा जाता है, तो वे ठिठककर खड़े हो जाते हैं। अगर अल्लाह चाहता तो उनकी सुनने और देखने की शक्ति बिल्कुल ही छीन लेता: अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त हासिल है। (20)
ऐ लोगो! बन्दगी [worship] करो अपने रब की, जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम (अल्लाह से डरते हुए) बुराइयों से बच सको (21)
जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श की तरह बिछा दिया और आसमान को छत की तरह ऊँचा उठा दिया; वही है जिसने आसमान से बारिश उतार भेजी, फिर उस पानी से तुम्हारी जीविका के लिए (खाने-पीने की) चीज़ें पैदा कर दीं। यह जानते हुए (कि उसके सिवा कोई नहीं), ऐसा न करो कि किसी को अल्लाह के बराबर का ठहराओ। (22)
हमने अपने बन्दे पर जो ‘वही’ [Revelation] उतार भेजी हैं, उनकी (सच्चाई के) बारे में अगर तुम्हें कोई सन्देह हो, तो तुम उस जैसी कोई एक सूरह बना लाओ —- अल्लाह के अलावा अपने जो भी सहायक हों, उन्हें भी बुला लो —– अगर सचमुच तुम्हें लगता है (कि तुम यह कर सकते हो)। (23)
अगर तुम यह न कर सको —– और तुम यह कभी नहीं कर सकोगे —— तो फिर डरो उस आग से जो (सच्चाई पर) विश्वास न करनेवालों के लिए तैयार की गई है, जिसका ईधन इंसान और पत्थर हैं। (24)
[ऐ रसूल], जो लोग ईमान रखते हैं और उन्होंने अच्छे कर्म किए, आप उन्हें ख़ुशख़बरी सुना दें कि उनके लिए ऐसे बाग़ होंगे जिनके नीचे नहरें बह रहीं होगी। जब भी उन बाग़ों में से कोई फल उन्हें रोज़ी के रूप में मिलेगा, तो वे कहेंगे, “यह तो हमें पहले भी दिया जा चुका है,” क्योंकि उन्हें इससे मिलता-जुलता (फल दुनिया में) दिया गया था। उनके लिए वहाँ पाक-साफ़ मियाँ/बीवियाँ [spouses] होंगी, और वे हमेशा वहाँ रहेंगे। (25)
अल्लाह इस बात से नहीं शर्माता कि वह (बात समझाने के लिए) मच्छर जैसी कोई छोटी सी छोटी चीज़ की मिसाल पेश करे, या उससे भी बढ़कर किसी तुच्छ चीज़ की: सो ईमानवाले तो जान लेते हैं कि यह उनके रब की तरफ़ से सच्चाई है, मगर (सच्चाई से) इंकार करनेवाले कहते हैैं, “भला ऐसी मिसाल देने से अल्लाह का क्या मतलब हो सकता है?” (अल्लाह की) ऐसी मिसाल के ज़रिए कितने हैं जो रास्ते से भटक जाते हैं, और कितने हैं जिन्हें वह सीधा रास्ता दिखा देता है। मगर जो बाग़ी हो चुके (और कोई बात नहीं मानते), केवल उन्हें वह भटकने के लिए छोड़ देता है: (26)
(बाग़ी वे हैं) जो अल्लाह के आदेश को मानने की प्रतिज्ञा करके उसे तोड़ डालते हैं, जिन रिश्तों को जोड़ने का अल्लाह ने आदेश दिया है उसे काट डालते हैं, जो मुल्क में फ़साद फैलाते हैं, यही हैं जो घाटे में रहेंगे। (27)
तुम अल्लाह (और उसकी बंदगी करने) से कैसे इंकार कर सकते हो, जबकि तुम बेजान थे तो उसने तुम्हें ज़िंदगी दी, फिर वही है जो तुम्हें मौत देगा, फिर मरने के बाद दोबारा ज़िंदा करेगा, फिर अंत में उसी के सामने तुम्हें लौटना है? (28)
वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन की सारी चीज़ें पैदा कीं (ताकि तुम उससे काम लो), फिर आसमान की तरफ़ ध्यान दिया और (तुम्हारे फ़ायदे के लिए) सात आसमान बना दिए; वही है जो हर चीज़ की जानकारी रखता है। (29)
(ऐ रसूल), जब ऐसा हुआ था कि आपके रब ने फरिश्तों से कहा, “मैं ज़मीन पर (आदमी को) खलीफ़ा [उत्तराधिकारी/ Successor] बनाने वाला हूँ,” फ़रिश्तों ने कहा, “तू किसी ऐसे को ज़मीन पर किस तरह (ख़लीफा बनाकर) रख सकता है जो वहाँ बर्बादी फैलाएगा और ख़ूनख़राबा करेगा, जबकि हम तेरा गुणगान करते हैं और तेरी पवित्रता का ज़िक्र करते रहते हैं?” मगर अल्लाह ने कहा, “मैं वह चीज़ें जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।” (30)
अल्लाह ने आदम [Adam] को सभी (चीज़ों के) नाम सिखा दिए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, “अगर तुम सचमुच यह समझते हो (कि तुम बता सकते हो, तो) इन चीज़ों के मुझे नाम बताओ।” (31)
फ़रिश्तों ने कहा, “महिमावान है तू! हमें केवल उतनी ही जानकारी है जितना कुछ तूने हमें सिखाया है। तू ही हर चीज़ का जाननेवाला, हर चीज़ की समझ-बूझ रखनेवाला है।” (32)
तब अल्लाह ने कहा, “ऐ आदम! तुम उन्हें इन चीज़ों के नाम बताओ।” फिर जब आदम ने उन्हें उन (चीज़ों) के नाम बता दिए, तो अल्लाह ने कहा, “क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि मैं जानता हूँ जो कुछ आसमानों और ज़मीन में छिपा हुआ है, और यह कि मैं यह भी जानता हूँ जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छिपाते हो?” (33)
फिर जब ऐसा हुआ था कि हमने फ़रिश्तों से कहा, “आदम के आगे (झुकते हुए) सज्दा करो” तो, वे सब (आदम के सामने) झुक गए, मगर इबलीस [शैतान] ने अपनी गर्दन नहीं झुकायी। उसने (हुक्म मानने से) इंकार कर दिया और वह था भी बड़ा घमंडी: वह विश्वास न करनेवालों में शामिल हो गया। (34)
(फिर ऐसा हुआ कि) हमने कहा, “ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों इस जन्नत [बाग़] में रहो। तुम दोनों जिस तरह चाहो खाओ-पियो, मगर (देखो) इस पेड़ के नज़दीक भी मत जाना, अन्यथा तुम दोनों (मर्यादा तोड़नेवाले) ज़ालिम ठहराए जाओगे।” (35)
मगर शैतान (के प्रलोभन ने) उन्हें फिसलने पर मजबूर कर दिया, और फिर वे जिस (आराम व आनंद की) हालत में वहाँ थे, उससे उन दोनों को निकलना पड़ा। हमने कहा, “तुम सब यहाँ से निकल जाओ! तुम दोनों (शैतान और आदमी) एक-दूसरे के दुश्मन होगे। अब तुम्हारे लिए ज़मीन पर रहने की जगह होगी, और एक निर्धारित समय तक जीने के लिए रोज़ी होगी।” (36)
फिर आदम को अपने रब से (तौबा करने के लिए दुआ के) कुछ शब्द मिल गए और (उसके द्वारा) अल्लाह ने उसकी तौबा [repentance] क़बूल कर ली: वह तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है। (37)
(आदम को माफ़ करने के बाद) हमने कहा, “तुम सब यहाँ से (ज़मीन पर) चले जाओ! (और नयी ज़िन्दगी शुरू करो)। मगर (याद रहे) जब मेरी तरफ़ से कोई मार्गदर्शन (guidance) आ जाए, जो कि ज़रूर आएगा, तो जो लोग मेरे दिखाए हुए रास्ते पर चलेंगे, उन्हें न तो किसी बात का डर होगा और न वे दुखी होंगे —— (38)
जिन लोगों ने (सच्चाई पर) विश्वास नहीं किया और हमारे संदेशों को झूठ समझते हुए ठुकरा दिया, वे आग में रहने वाले हैं, जहां वे हमेशा के लिए रहेंगे।” (39)
ऐ इसराईल की सन्तान! याद करो कि मैंने कैसी-कैसी नेमतें [bounty] तुम पर की थीं। और (देखो) तुम मुझसे ली गई प्रतिज्ञा को पूरा करो, और मैं तुमसे की हुई प्रतिज्ञा को पूरा करूँगा: मैं ही हूं जिससे तुम्हें डरना चाहिए। (40)
मेरे उस संदेश [क़ुरआन] पर विश्वास करो, जो मैंने उतार भेजा है, जो उसकी पुष्टि करता हुआ आया है जो तुम्हारे पास (पहले से) है। (देखो), सबसे पहले तुम ही इस पर (विश्वास करने से) इंकार करनेवाले न बन जाओ, और मेरे संदेशों को थोड़े दाम के बदले न बेच डालो: मैं ही तो वह हूँ जिसकी आज्ञा न मानने से तुम्हें बचना चाहिए। (41)
सच और झूठ को एक साथ मत मिला दिया करो, या जानते-बूझते सच को छिपाया मत करो। (42)
पाबंदी से नमाज़ पढ़ा करो, निर्धारित ज़कात [alms] अदा करो, और जब (अल्लाह के सामने) झुकनेवाले झुकें, तो उनके साथ तुम भी सिर झुका दो। (43)
लोगों को तुम नेकी का उपदेश कैसे दे सकते हो जबकि तुम ख़ुद ही उस पर अमल करना भूल जाते हो, हालाँकि तुम किताब [तोरात/Torah] भी पढ़ते हो? क्या इतनी मोटी सी बात भी तुम्हारी समझ में नहीं आती? (44)
(स्वयं में सुधार लाने के लिए) सब्र [धैर्य] और नमाज़ से मदद लो —– हालांकि यह (नमाज़) किसी के लिए भी सचमुच बहुत कठिन चीज़ है, मगर उन लोगों के लिए (मुश्किल) नहीं, जिनके दिल (अल्लाह के आगे) झुके होते हैं, (45)
जो जानते हैं कि (एक दिन) उन्हें अपने रब से मिलना होगा, और (अंत में) उसी की ओर उन्हें लौटकर जाना होगा। 46)
ऐ इसराईल की सन्तान! याद करो कि कैसी-कैसी नेमतें मैंने तुम पर की थीं और इसे भी (याद करो) कि किस तरह मैंने तुम्हें दूसरे सभी लोगों पर श्रेष्ठता दी थी। (47)
उस दिन की पकड़ से बचकर रहो, जब न तो कोई आदमी दूसरे आदमी के काम आ सकेगा, न किसी की सिफ़ारिश सुनी जाएगी, न किसी को भरपाई [ransom] लेकर छोड़ा जाएगा; और न ही कहीं से किसी तरह की सहायता मिलेगी। (48)
याद करो जब हमने तुम्हें फ़िरऔन [Pharaoh] के लोगों (की ग़ुलामी) से छुटकारा दिलाया था, जो तुम्हें बहुत बुरी यातना देते थे, तुम्हारे बेटों को मार डालते थे और केवल तुम्हारी औरतों को (अय्याशी के लिए) ज़िंदा रहने देते थे —— इसमें तुम्हारे रब की ओर से बड़ी कड़ी परीक्षा थी—- (49)
और याद करो जब हमने (मिस्र से निकल भागने के बाद) तुम्हारे लिए समंदर में रास्ता बनाया था, कि तुम उसमें से बचकर निकल गए, और फ़िरऔन के लोगों को तुम्हारी आँखों के सामने डुबा दिया था। (50)
और (वह घटना भी) याद करो जब हमने मूसा [Moses] से (सीना के पहाड़ पर) चालीस रातों का वादा ठहराया था, और फिर जब वह तुमसे दूर गया हुआ था, तो उसके जाते ही तुम एक बछड़े की पूजा करने लग गए —- जो बड़ा भारी गुनाह था। (51)
इतना होने के बावजूद भी हमने तुम्हें माफ़ कर दिया, ताकि तुम शुक्रिया अदा करनेवाले बन सको। (52)
याद करो जब हमने मूसा [Moses] को किताब [तोरात/Torah], और सही और ग़लत के बीच अंतर करने की कसौटी दी थी, ताकि तुम्हें सही रास्ता दिखाया जा सके। (53)
जब मूसा (चालीस रातों के बाद अल्लाह से किताब लेकर आया, तो) उसने अपने लोगों से कहा, “ऐ मेरी कौम के लोगो! तुमने बछड़े की पूजा करके अपने आपको बड़े गुनाह में डाल लिया है, अतः अपने बनानेवाले से (अपने गुनाह की) तौबा करो, और अपने लोगों (में दोषियों) को क़त्ल करो। तुम्हारे पैदा करनेवाले की नज़र में तुम्हारे लिए यही सबसे उचित होगा।” इस तरह अल्लाह ने तुम्हारी तौबा क़बूल कर ली: वह (मन से की गयी) तौबा क़बूल करनेवाला, बेहद दयावान है।” (54)
याद करो जब तुमने कहा था, “ऐ मूसा, हम तुम पर तब तक विश्वास नहीं करेंगे जब तक अल्लाह को अपने सामने न देख लें।” इस बात पर, बिजली की एक कड़क ने तुम्हें आ पकड़ा था जबकि तुम देखते रह गए थे। (55)
फिर तुम्हारे मुर्दा हो जाने के बाद हमने तुम्हें फिर से ज़िंदा किया, ताकि तुम मेरे प्रति शुक्र अदा करनेवाले बन सको। (56)
(जब तुम सीना [Sinai] के रेगिस्तान में धूप की गर्मी और भूख से बेहाल थे तब) हमने बादलों के ढेर से तुम्हें छाया दी, और तुम पर ‘मन्न’ [manna] और ‘सलवा’ [Quails] उतारा, और कहा था, “जी भर के खाओ उन अच्छी चीज़ों को, जो हमने तुम्हें दे रखी हैं।” (शुक्र न अदा करके) हमारा तो वे कुछ भी बिगाड़ न सके; उन्होंने अपने ही ऊपर ज़ुल्म किया। (57)
याद करो जब हमने कहा था, “इस शहर में दाख़िल हो जाओ और वहाँ तुम जो चाहो, आराम से खाओ-पियो, मगर जब उस (शहर के) दरवाज़े में दाख़िल हो, तो सिर झुकाकर और यह कहते हुए दाख़िल हो, “हमें (गुनाहों से) छुटकारा दे दे!” (अगर तूने ऐसा किया तो) हम तुम्हारे गुनाहों को माफ़ कर देंगे और जो अच्छा व नेक काम करते हैं, उनको दिए जाने वाले इनाम को और ज़्यादा बढ़ा देंगे।” (58)
लेकिन जो शब्द उन्हें कहने के लिए बताया गया था, शैतानी करने वालोंं ने उस शब्द को किसी दूसरे शब्द से बदल दिया। अतः लगातार आज्ञा न मानने के कारण, हमने आसमान से उन पर (प्लेग जैसी) यातना उतार भेजी। (59)
(उस घटना को भी) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम के लोगों के लिए पानी की प्रार्थना की, तो हमने उससे कहा था, “पहाड़ की चट्टान पर अपनी लाठी मारो,” नतीजे में उससे पानी के बारह सोते फूट निकले, और हर गिरोह ने अपना-अपना पानी लेने का घाट पता कर लिया। [तुम से कहा गया], जो रोज़ी अल्लाह ने दे रखी है, उसे खाओ और पियो, और ज़मीन पर झगड़ा-फ़साद पैदा न करते फिरो।” (60)
याद करो जब तुमने कहा था, “ऐ मूसा, हम एक ही तरह के खाने पर संतोष नहीं कर सकते, अतः अपने रब से दुआ करो कि हमारे लिए ज़मीन से उगने वाली कुछ चीज़ें पैदा कर दे, इसकी साग-सब्ज़ियाँ और ककड़ियाँ, लहसुन, दालें और प्याज़।” मूसा ने कहा, “क्या तुम (खाने की) बढ़िया चीज़ को घटिया चीज़ों से बदलना चाहते हो? (अब फिर से) तुम मिस्र चले जाओ, जो कुछ तुमने माँगा है, तुम्हें वहाँ मिल जाएगा।” उन (यहूदियों) पर अपमान और बदहाली की मार पड़ी, और उन्हें अल्लाह का प्रकोप झेलना पड़ा क्योंकि वे अल्लाह की आयतों [संदेशों] को मानने से लगातार इंकार करते रहे और हर सच्चाई का विरोध करते हुए नबियों की अकारण हत्या करते थे। यह सब इसलिए हुआ कि उन्होंने आज्ञा मानने से इंकार किया और वे नियमों को तोड़ने में बेलगाम हो गए थे। (61)
ईमान रखनेवाले [मुस्लिम] हों, यहूदी हों, ईसाई हों या साबी [Sabians] हों—– वे सारे लोग जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं, और अच्छा कर्म करते हैं —— तो वे (अपने कर्मों का) इनाम अपने रब के पास से ज़रूर पाएंगे। उन्हें न तो किसी तरह का डर होगा और न वे दुखी होंगे। (62)
याद करो जब हमने तुमसे (इस हाल में) प्रतिज्ञा ली थी, (कि तुम उस वक़्त नीचे खड़े थे) और तूर पहाड़ की चोटी तुम्हारे ऊपर उठा दी गयी थी, और कहा था, “जो चीज़ [किताब] तुम्हें दी गयी है उस पर मज़बूती के साथ जमे रहो, और उसमें बतायी गयी बातों को याद रखो, ताकि तुम (गुनाहों से) बच सको।” (63)
इसके बावजूद भी तुम (अपनी प्रतिज्ञा से) फिर गए। अगर अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी रहमत तुम्हारे साथ न होती, तो तुम अवश्य ही भारी घाटे में पड़ गए होते। (64)
तुम उन लोगों के बारे में तो जानते ही हो जिन्होंने ‘सब्त’ [Sabbath] के दिन के नियम तोड़े थे, और हमने उनसे कहा था, “बन्दर की तरह हो जाओ! तुम (आदमियों के पास से) दुत्कारे जाओगे!” (65)
हमने इसे उन लोगों के लिए एक उदाहरण बना दिया जो उस वक़्त वहाँ थे, और जो लोग उनके बाद दुनिया में आए, और जो अल्लाह से डरते हुए (गुनाहों से) बचते हैं, उनके लिए भी सीखने का एक सबक़ बना दिया। (66)
याद करो जब मूसा ने अपने लोगों से कहा था, “अल्लाह का आदेश है कि तुम एक गाय को ज़बह करो।” वे (तरह-तरह के बहाने बनाने लगे, और) कहने लगे, “क्या तुम हमारी हँसी उड़ा रहे हो?” मूसा ने जवाब दिया, “अल्लाह बचाए मुझे, कि मैं जाहिलों की-सी बात करुं।” (67)
वे बोले, “हमारे लिए ज़रा अपने रब से पूछकर बताओ कि वह गाय किस तरह की होनी चाहिए?” उसने जवाब दिया, “अल्लाह कहता है कि वह गाय न तो बूढ़ी होनी चाहिए और न ही बछिया, बल्कि दोनों के बीच की हो, सो जैसा तुम्हें हुक्म दिया जाता है, उसे कर डालो।” (68)
वे कहने लगे, “हमारे लिए अपने रब से पूछकर बताओ कि उसका रंग कैसा होना चाहिए?” मूसा ने कहा, “अल्लाह कहता है कि वह गाय सुनहरी पीले रंग की होनी चाहिए, कि देखने वालों को भली लगे।” (69)
वे बोले, “हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हमें बता दे कि असल में वह कौन-सी है: हमारी नज़र में सभी गाय लगभग एक जैसी ही है। अगर अल्लाह की मर्ज़ी रही, तो हम ज़रूर उस तक पहुंचने का रास्ता पा लेंगे।” (70)
मूसा ने जवाब दिया, “वह एक बेहतरीन गाय है जिसमें कोई दाग़-धब्बा नहीं है, वह सधाई हुई नहीं है कि भूमि जोतती हो, या खेतों को पानी देती हो।” वे बोले, “अब तुमने असली बात बताई है,” और इस तरह उन्होंने उसे ज़बह किया, हालांकि वे ऐसा करने में लगभग असफल हो चुके थे। (71)
फिर जब [ऐ इसराइलियो!] तुमने किसी की हत्या कर दी थी और एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाना शुरू कर दिया था —— हालाँकि जो कुछ तुमने छिपाया था, अल्लाह उसे उजागर कर देने वाला था —— (72)
हमने कहा, “(मरनेवाले के) शरीर पर उस (गाय) के एक हिस्से से मारो”: इस तरह अल्लाह मुर्दे को ज़िंदा करता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझ सको। (73)
फिर इसके बाद भी, तुम्हारे दिल पत्थर की तरह सख़्त हो गए, बल्कि उससे भी ज़्यादा सख़्त; क्योंकि कुछ पत्थर तो ऐसे भी होते हैं जिनसे पानी के सोते फूट निकलते हैं, और उन्हीं में से कुछ ऐसी चट्टानें भी हैं जो टूटकर दो टुकड़े हो जाती हैं, और उनमें से पानी अपना रास्ता बना लेता है, और कुछ दूसरी चट्टानें ऐसी भी हैं जो अल्लाह के डर से (काँपती हुई) गिर पड़ती हैं: जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है। (74)
तो (ऐ ईमानवालो), क्या तुम ऐसे लोगों से उम्मीद कर सकते हो कि वे तुम्हारी बात पर विश्वास कर लेंगे, जबकि उनमें से कुछ लोग अल्लाह का कलाम सुना करते थे, फिर उसे भली-भांति समझ लेने के बाद भी उसमें जान-बूझकर तोड़-मरोड़ करते रहे? (75)
जब वे ईमानवालों से मिलते हैं, तो कहते हैं, “हम भी ईमान रखते हैं।” मगर जब आपस में एक-दूसरे से अकेले में मिलते हैं, तो कहते हैं, “अल्लाह की जो निशानियाँ (हम लोगों पर) उतरीं, उनके बारे में तुम उन लोगों को भला कैसे बता सकते हो? वे तो इसे तुम्हारे रब के सामने तुम्हारे ही ख़िलाफ़ बहस करने के लिए इस्तेमाल करेंगे! क्या तुम्हें कोई समझ है?” (76)
क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह अच्छी तरह जानता है, जो कुछ वे छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं? (77)
उनमें से कुछ तो बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं हैं, और उन्हें (आसमानी) किताब [तोरात] का ज्ञान तो बस अपनी इच्छाओं व कामनाओं के द्वारा ही होता है। वे तो बस अटकल से काम लेते हैं। (78)
सो तबाही है उन लोगों के लिए जो ख़ुद अपने हाथों से किताब लिखते हैं और दावा करते हैं कि “यह अल्लाह की तरफ़ से है”, ताकि उसके द्वारा थोड़ा सा फ़ायदा कमा सकें। अफ़सोस उनपर जो कुछ उनके हाथों ने लिखा है! और अफ़सोस उनपर जो कुछ उन्होंने इसके द्वारा कमाया है! (79)
ये (यहूदी) लोग कहते हैं, “जहन्नम की आग हमें केवल कुछ दिनों के लिए ही छुएगी।” उनसे कह दें, “क्या तुमसे अल्लाह ने कोई वादा कर रखा है?—- फिर तो अल्लाह कभी अपना वादा नहीं तोड़ता —– या क्या तुम अल्लाह के बारे में ऐसी बात कहते हो जिसका तुम्हें असल में कोई ज्ञान ही नहीं है? (80)
सचमुच जो लोग शैतानियाँ करते हैं, और अपने गुनाहों से घिरे रहते हैं, तो ऐसे ही लोग (जहन्नम की) आग के वासी होंगे, वे हमेशा वहीं रहेंगे, (81)
जबकि वे लोग जो ईमान रखते हैं, और अच्छा कर्म करते हैं, वे (जन्नत के) बाग़ों में रहेंगे, उन्हें हमेशा वहीं रहना है।” (82)
याद करो जब इसराईल की सन्तान से हमने वचन लिया था: “अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो; माँ-बाप के साथ और नातेदारों के साथ, अनाथों और ग़रीबों के साथ अच्छा व्यवहार करो; सभी लोगों से भली बात कहो; पाबंदी से नमाज़ क़ायम करो और निर्धारित ज़कात [alms] दो।” तो फिर तुममें से थोड़े लोगों को छोड़कर सब ने मुंह फेर लिया, और इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। (83)
याद करो जब हमने तुमसे यह भी वचन लिया था, “एक-दूसरे का ख़ून न बहाओ, और न अपने लोगों को अपनी सरज़मीन से बाहर निकालो।” तुमने उस समय (इन वचनों को) स्वीकार किया था, और तुम स्वयं इसकी गवाही दे सकते हो। (84)
इसके बावजूद, तुम वही हो कि एक-दूसरे की हत्या करते हो और अपने ही लोगों में से कुछ को उनके घरों से बाहर निकालते हो; गुनाहों में एक-दूसरे के सहायक होते हो और उनके ख़िलाफ़ आक्रामक बन जाते हो। अगर वे बन्दी बनकर तुम्हारे पास आते हैं, तब भी तुम उनकी रिहाई के लिए पैसे देने को तैयार रहते हो, हालाँकि तुम्हें उनको घरों से निकालने का कोई अधिकार नहीं था। सो क्या तुम किताब [तोरात] के कुछ हिस्से को मानते हो और दूसरे हिस्सों को नहीं मानते? फिर तुममें से जो ऐसा करे उसकी सज़ा इसके सिवा और क्या हो सकती है कि वह सांसारिक जीवन में अपमानित होगा और क़यामत के दिन ऐसे लोगों को कठोर से कठोर यातना झेलनी पड़ेगी: जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है। (85)
यही वे लोग हैं जिन्होंने आनेवाली दुनिया के बदले इस दुनिया की ज़िंदगी ख़रीद ली है: तो न उनकी यातना हल्की की जाएगी और न उन्हें कोई मदद ही पहुँच सकेगी। (86)
और (देखो!), हमने मूसा [Moses] को किताब दी, और उसके बाद, एक के बाद एक रसूलों को (तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए) भेजा। फिर, हमने मरयम [Mary] के बेटे, ईसा [Jesus] को (सच्चाई की) स्पष्ट निशानियाँ दीं, और पवित्र-आत्मा [Holy Spirit] के द्वारा उसे मज़बूती प्रदान की। फिर आख़िर यह क्या मामला है कि जब कभी कोई रसूल तुम्हारे पास कुछ ऐसी चीज़ लेकर आया जो तुम्हारे मन की इच्छाओं के ख़िलाफ़ हो, तो तुम अकड़ जाते हो, कुछ को झूठा बताने लगते हो और कुछ को क़त्ल कर देते हो? (87)
वे कहते हैं, “(चाहे तुम कुछ भी कहो, पर) हमारे दिलों पर ग़िलाफ़ [आवरण] चढ़ा हुआ है (कि कोई नयी बात इसके अंदर नहीं घुस सकती),” मगर अल्लाह ने उन्हें (सच्चाई को) मानने से इंकार करने के चलते ठुकरा दिया है: उनमें बहुत कम हैं जो (सच्चाई पर) ईमान रखते हों। (88)
जब उनके पास (मार्गदर्शन के लिए) अल्लाह की तरफ़ से एक किताब [क़ुरआन] आ गयी जो उसकी (सच्चाई की) पुष्टि करती है जो (किताब यानी तोरात) उनके पास पहले से थी, और जबकि इससे पहले वे (सच्चाई से) इंकार करनेवालों पर जीत हासिल करने के लिए दुआएं करते रहे थे, मगर इसके बावजूद, जब वह चीज़ उनके पास आ गई जिसकी (सच्चाई के बारे में) वे जान चुके थे, तब भी उन्होंने इस पर विश्वास करने से इंकार कर दिया: अल्लाह ऐसे लोगों को ठुकरा देता है जो (सच्चाई को) मानने से इंकार करते हैं। (89)
अल्लाह की भेजी हुई सच्चाई [क़ुरआन] को मानने से इंकार करके उन लोगों ने अपनी आत्मा को सचमुच बहुत ही कम दाम में बेच डाला है, और वह भी इस जलन के चलते कि अल्लाह अपने बन्दों में से जिस पर चाहता है, अपना (संदेश या) फ़ज़ल [bounty] क्यों भेज देता है। इस तरह, विश्वास न करनेवालों के हिस्से में (अल्लाह का) प्रकोप भी एक के बाद एक आया, और आगे अपमानित कर देने वाली यातना उनका इंतज़ार कर रही है। (90)
जब उनसे कहा जाता है, “अल्लाह ने जो कुछ (आयतें/ Revelations) उतार भेजी हैं, उन पर विश्वास करो”, तो वे कहते हैं, “हम तो उसपर विश्वास रखते हैं जो (किताब) हम पर उतारी गयी है,” मगर वे उस (किताब) पर विश्वास करने से इंकार करते हैं जो (उनकी किताब के) बाद आयी है, हालाँकि यह अल्लाह की सच्ची वाणी है जो उस (तोरात) की पुष्टि करती है जो उनके पास पहले से है। [ऐ रसूल], आप कहें, “अगर तुम सच्चे ईमानवाले हो, तो यह बताओ कि तुम बीते वक़्तों में अल्लाह के पैग़म्बरों [Prophets] की हत्या क्यों करते रहे हो?” (91)
(फिर देखो!), मूसा [Moses] तुम्हारे पास सच्चाई की स्पष्ट निशानियाँ लेकर आया था, मगर उसके बाद, जबकि वह (चालीस दिन के लिए) तुमसे दूर गया हुआ था, तुमने बछड़े की पूजा शुरू कर दी —- ऐसा करते हुए सचमुच तुमने बड़ा ज़ुल्म किया।” (92)
याद करो जब पहाड़ की चोटियों को तुम्हारे ऊपर उठाकर, हमने तुम से प्रतिज्ञा ली थी, और कहा था, “जो किताब तुम को दी गयी है, उस पर मज़बूती से जमे रहो, और (जो कुछ हम कहते हैं उसे) ध्यान से सुनो।” वे बोले, “हमने सुना, और हम (दिल से हुक्म) नहीं मानते!” और उनके द्वारा विश्वास करने से इंकार के कारण उनके दिलों में बछड़े की पूजा रच-बस गयी। आप उनसे कह दें, “अगर तुम सच्चे ईमानवाले हो, तो तुम्हारा ईमान तुम्हें कैसी शैतानी चीज़ें करने का हुक्म देता है!” (93)
आप कहें, “अगर अल्लाह के यहाँ आख़िरी घर किसी और का नहीं, बल्कि केवल तुम्हारे लिए ही है, तो फिर तुम्हें अपनी मौत की कामना करनी चाहिए, अगर तुम्हारा दावा सच्चा है।” (94)
लेकिन ख़ुद अपने हाथों जो कुछ (कुकर्म) उन्होंने जमा कर रखा है, उसके कारण वे कभी भी अपनी मौत की कामना नहीं करेंगे: अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को अच्छी तरह जानता है। (95)
[ऐ रसूल], आप उन्हें सब लोगों से बढ़कर जीवन का लोभी पाएंगे, यहाँ तक कि वे शिर्क करनेवालों [Polytheist] से भी बढ़े हुए हैं। उनमें से कोई भी यही इच्छा रखता है कि उसे हज़ार वर्ष की आयु मिले, हालाँकि इतनी लम्बी ज़िंदगी भी तो उनको कठोर यातना से नहीं बचा पाएगी: अल्लाह देख रहा है, जो कुछ वे करते हैं। (96)
[ऐ रसूल], आप कह दें, “अगर कोई जिबरील [Gabriel] का दुश्मन है —- जिसने अल्लाह के हुक्म से आपके दिल पर क़ुरआन को उतारा है, जो पहले उतरी किताबों की (सच्चाई की) पुष्टि करती है, जो ईमान रखनेवालों के लिए मार्गदर्शन और अच्छी ख़बर सुनाती है —— (97)
अगर कोई अल्लाह का, उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों का, जिबरील [Gabriel] और मीकाइल [Michael] का दुश्मन हो, तो फिर अल्लाह निश्चय ही विश्वास न करनेवाले लोगों का दुश्मन है।” (98)
क्योंकि हमने तुम्हारे पास स्पष्ट संदेशों को उतार भेजा है और केवल वही लोग इस पर विश्वास करने से इंकार करेंगे जो (अल्लाह के हुक्म का) उल्लंघन करने वाले हैं। (99)
यह कैसी बात है कि जब कभी वे कोई प्रतिज्ञा या वचन लेते हैं, तो उनमें से कुछ लोग उसे किनारे फेंक देते हैं? सच्चाई यह है कि उनमें ज़्यादातर लोग ईमान नहीं रखते। (100)
जब अल्लाह ने उनके पास एक रसूल [ईसा] भेजा, जो उस किताब [तोरात] की पुष्टि करता था जो उनके पास पहले से थी, तो उनमें से कुछ लोगों ने, जिन्हें पहले किताब मिली थी, अल्लाह की किताब को इस तरह अपने पीठ पीछे डाल दिया मानो वे कुछ जानते ही न थे, (101)
और इसकी जगह, वे उस (जादू-मंतर) के पीछे चलने लगे जिसे शैतानों ने सुलैमान [Solomon] की बादशाही के ज़माने में गढ़ लिया था। ऐसा नहीं था कि सुलैमान ने ख़ुद (सच्चाई को मानने से) इंकार [कुफ़्र] किया हो; असल में कुफ़्र तो शैतानों ने किया था। वे लोगों को जादू-टोना और जो कुछ बाबिल [Babylon] में दो फ़रिश्तों हारूत और मारूत पर उतरा था, उसे सिखाते थे। हालाँकि इन दोनों ने कभी किसी को बिना पहले सावधान किए हुए कुछ नहीं सिखाया, वे (पहले ही यह बता देते थे कि), “हमें तो केवल बहकाने के लिए भेजा गया है—- तुम (सच्चाई से) इंकार [कुफ़्र] न कर बैठो।” इन्हीं दोनों (फ़रिश्तों) से उन लोगों ने यह सीखा कि कैसे मियाँ-बीवी के बीच झगड़ा पैदा किया जा सकता है, हालाँकि वे इसके द्वारा किसी को नुक़सान नहीं पहुँचा पाते थे, सिवाय इसके कि जब अल्लाह की यही मर्ज़ी हो। उन्होंने (जादू-टोने की) वह चीज़ें तो सीखीं जिससे उन्हें नुक़सान पहुँचा, मगर (अल्लाह की किताब की) वह चीज़ें नहीं सीखीं जिससे उन्हें फ़ायदा पहुँचता, यह जानते हुए भी कि जिस किसी ने (जादू-टोने का ज्ञान) सीखा, उसके लिए आनेवाली दुनिया (की बरकतों) में कोई हिस्सा नहीं होगा। काश! कि वे जान पाते कि कितने घटिया (दाम पर) उन्होंने अपनी जानों को बेच डाला! (102)
अगर उन्होंने (सच्चाई पर) विश्वास किया होता और वे अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते, तो अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाला बदला कहीं ज़्यादा अच्छा होता, काश कि वे इस (सच्चाई को) जानते! (103)
ऐ ईमानवालो! तुम (अपने रसूल को) ‘रा’इना’ [हमारी सुनें] न कहा करो (कि कुछ यहूदी जान-बूझकर इसे ग़लत अर्थ में उपयोग कर रहे हैं), बल्कि ‘उनज़ुरना’ [हमारी तरफ़ थोड़ा ध्यान दें] कहा करो और (उनकी बात) सुना करो: जो (अल्लाह की बातों पर) कोई ध्यान नहीं देते, उनके लिए दर्दनाक यातना तैयार है। (104)
न तो किताबवाले वे लोग जो (सच्चाई पर) विश्वास नहीं करते, और न ही मुश्रिक [बहुदेववादी] लोग कभी ऐसा चाहेंगे कि आपके रब की तरफ़ से कोई भी अच्छी (बरकतवाली) चीज़ आप पर उतारी जाए, मगर अल्लाह जिसे चाहे अपनी ख़ास रहमत [Mercy] के लिए चुन लेता है: उसके फ़ज़ल [Bounty] की कोई सीमा नहीं होती। (105)
हम जिस आयत (या हुक्म) को नए हुक्म से बदलते हैं या उसे भुला देना चाहते हैं, तो उसकी जगह हम उससे बेहतर या उसी तरह के हुक्मवाली (दूसरी आयत) ले आते हैं। [ऐ रसूल] क्या आप नहीं जानते कि अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त हासिल है? (106)
क्या तुम नहीं जानते कि आसमानों और ज़मीन का नियंत्रण (और बादशाही) उसी के पास है? [ईमानवालो], अल्लाह के सिवा तुम्हारा न तो कोई रखवाला है और न कोई मददगार। (107)
(ऐ ईमानवालो! क्या तुम चाहते हो कि अपने रसूल से (दीन के बारे में) ऐसी चीज़ों की माँग करो जैसी माँग मूसा की क़ौम के लोगों ने की थी? जिस किसी ने (सच्चाई पर) विश्वास करने के बदले इंकार की नीति अपनाई, तो वह सीधे रास्ते से बहुत दूर जा भटका। (108)
किताबवालों में से बहुत से लोग अपने भीतर की ईर्ष्या के चलते चाहते हैं कि वे तुम्हें (सच्चाई पर) विश्वास कर लेनेवाले से बदलकर किसी तरह उससे इंकार कर देनेवाला बना सकें, हालाँकि सच्चाई उनके सामने स्पष्ट हो चुकी है। तो जब तक अल्लाह का हुक्म न आ जाए, तुम उन्हें माफ़ कर दो और उन्हें उनकेे हाल पर छोड़ दो: अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त हासिल है। (109)
और (देखो!), पाबंदी से नमाज़ पढ़ा करो और निर्धारित ज़कात [alms] दो। जो कुछ नेकियाँ तुम अपने लिए जमा करते हो, उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे: जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है। (110)
ये यहूदी और ईसाई यह भी कहते हैं, “कोई भी आदमी जन्नत में दाख़िल नहीं होगा, जब तक कि वह यहूदी या ईसाई न हो।” ये उनकी अपनी झूठी कामनाएँ हैं। (ऐ रसूल) आप कहें, “अगर तुम सच बोल रहे हो, तो अपने प्रमाण पेश करो।” (111)
असल में, जो कोई भी अपने-आपको अल्लाह के सामने पूरी तरह झुका देता है और अच्छा व नेक काम करता है, तो इसका इनाम अपने रब के पास से ज़रूर पाएगा: न उन्हें किसी चीज़ का डर होगा और न वे दुखी होंगे। (112)
यहूदी कहते हैं, “ईसाइयों के दीन में किसी तरह की कोई बुनियाद नहीं।” और ईसाई कहते हैं, “यहूदियों के पास कोई बुनियाद नहीं,” हालाँकि वे दोनों अल्लाह की किताब पढ़ते हैं, और वे लोग जिन्हें (ऐसी किताब का) कोई ज्ञान नहीं है, वे भी ठीक वैसी ही बात कहते हैं; जिस (दीन) के बारे में वे झगड़ते रहते हैं, क़यामत के दिन अल्लाह इस बारे में उनके बीच फ़ैसला कर देगा। (113)
और (विचार करो), उससे बढ़कर अत्याचारी और कौन इंसान हो सकता है जो अल्लाह की इबादत करने की जगहों में उसका नाम लेने से रोकता हो, और उसे वीरान कर देने की कोशिश में लगा हो? ऐसे लोगों को इन (इबादत के घरों) में बिना डरे हुए दाख़िल नहीं होना चाहिए: उनके लिए इस दुनिया में भी अपमान है और आनेवाली दुनिया में भी कठोर यातना होगी। (114)
और (देखो), पूरब हो या पश्चिम, (सारी दिशाएं) अल्लाह की ही हैं: जिस दिशा में भी तुम अपना मुँह कर लो, अल्लाह तुम्हारे सामने होगा। अल्लाह की क़ुदरत हर चीज़ पर छायी हुई है, और वह सब कुछ जाननेवाला है। (115)
इन (ईसाई) लोगों ने ज़ोर देकर कहा है, “अल्लाह औलाद रखता है।” महिमावान है वह! नहीं! आसमानों और ज़मीन में जो कुछ भी है, सब उसी का है, हर चीज़ पूरी भक्ति से उसके हुक्म का पालन करती है। (116)
वह आसमानों और ज़मीन का असली (रूप में) पैदा करनेवाला है, वह जब किसी काम को करने का फ़ैसला करता है, तो बस हुक्म देता है कि “हो जा” और वह हो जाता है। (117)
जिन (अरब के बहुदेववादी) लोगों को (अल्लाह की किताब का) कोई ज्ञान नहीं है, वे भी कहते हैं, “काश! कि अल्लाह हमसे बात करता!” या “काश कि कोई चमत्कारवाली निशानी हमारे पास आयी होती!” इनसे पहले के लोग [यहूदी, ईसाई] भी ऐसी ही बातें कहते थे: इन सबके दिल एक जैसे ही हैं। हमने अपनी निशानियाँ उन लोगों के लिए पूरी तरह स्पष्ट कर दी हैं जो (सच्चाई पर) पक्का विश्वास रखते हैं। (118)
[ऐ रसूल], हमने आपको सच्चाई के साथ भेजा है, ताकि आप (ईमान व अच्छे कर्म के नतीजे की) ख़ुशख़बरी सुना दें और (सच्चाई से इंकार के नतीजे से) सावधान कर दें। आपको उन लोगों के लिए ज़िम्मेदार नहीं माना जाएगा जो (जहन्नम की) भड़कती आग में पड़ने वाले हैं। (119)
यहूदी और ईसाई कभी भी आप से ख़ुश नहीं होंगे, जब तक कि आप उनके रास्ते पर न चल पड़ें। आप कह दें, “अल्लाह का मार्गदर्शन ही सच्चा मार्गदर्शन है।” अगर आप उन लोगों की इच्छाओं के पीछे चले, बावजूद इसके कि आपके पास ज्ञान की रौशनी आ चुकी है, तो कोई न होगा जो आपको अल्लाह से बचा सके या आपकी मदद कर सके। (120)
जिन लोगों को हमने (अल्लाह की) किताब दे रखी है, जो उसको पढ़कर उसके (बताए हुए) रास्ते पर इस तरह चलते हैं जैसा कि चलना चाहिए, तो वही हैं जो उसमें पक्का विश्वास रखते हैं। जो लोग उसकी सच्चाई को मानने से इंकार करेंगे, वही घाटे में रहने वाले हैं। (121)
ऐ इसराईल की सन्तान, मेरी उन नेमतों [blessing] को याद करो, जो मैंने तुम पर की और यह कि किस तरह मैंने दूसरे तमाम लोगों की अपेक्षा तुम पर अपना ख़ास फ़ज़ल [favour] किया था, (122)
और उस दिन से डरो, जिस दिन कोई जान किसी दूसरी जान के काम नहीं आएगी। (जान छुड़ाने के लिए) न तो किसी तरह की भरपाई [compensation] स्वीकार की जाएगी, न किसी की सिफ़ारिश ही चल पाएगी, और न उनको कोई मदद ही मिल सकेगी। (123)
और (फिर याद करो) जब इबराहीम [Abraham] के रब ने कुछ बातों में उसकी परीक्षा ली, और वह उसमें खरा उतरा, तो अल्लाह ने कहा, “मैं तुझे सारे इंसानों का पेशवा बनाने वाला हूँ।” इबराहीम ने पूछा, “और क्या तू मेरी नस्ल में से भी पेशवा बनाएगा?” अल्लाह ने जवाब दिया, “मेरे इस वचन के अन्तर्गत वह लोग नहीं आते जो (आज्ञा नहीं मानते और) ज़ुल्म करते हैं।” (124)
और जब ऐसा हुआ था कि हमने (मक्का के) इस घर [काबा] को लोगों के लिए बराबर आने-जाने का केन्द्र और अमन की जगह ठहरा दिया, और हुक्म दिया, “इबराहीम के खड़े होने की जगह [मुक़ाम ए इबराहीम] को नमाज़ की जगह बना ली जाए!” हमने इबराहीम [Abraham] और इसमाईल [Ishmael] को हुक्म दिया था: “मेरे इस घर को इसके चारों ओर चक्कर [तवाफ़] लगाने वालोंं, इबादत के लिए ठहरने वालों, और नमाज़ में (झुककर) रुकू [bow] व सज्दा [prostrate] करने वालों के लिए पाक-साफ़ रखो।” (125)
इबराहीम ने दुआ में कहा था, “ऐ मेरे रब! इस जगह को अमन-शांति का एक आबाद शहर बना दे और ऐसा कर कि अपने फ़ज़ल से यहाँ के बसने वालों में जो लोग अल्लाह और अन्तिम दिन पर विश्वास रखते हों, उनकी रोज़ी के लिए हर तरह की पैदावार उपलब्ध हो जाए।” अल्लाह ने (दुआ क़बूल करते हुए) कहा, “और जो (सच्चाई पर) विश्वास नहीं करते, मैं उन्हें भी ज़िंदगी का मज़ा उठाने दूँगा, मगर थोड़े समय के लिए, और फिर (उनके कुकर्मों के चलते) अंत में उन्हें आग की यातना की ओर खींचकर ले जाउंगा —– और वह कितना बुरा ठिकाना है!” (126)
और (वह क्या दौर था कि) जब इबराहीम और इसमाईल इस घर [मक्का] की नींव डाल रहे थे, (तो उन्होंने दुआ की), “हमारे रब! हमारी ओर से (इसे) स्वीकार कर ले। निस्संदेह तू (दुआओं का) सुननेवाला, सब कुछ जाननेवाला है। (127)
हमारे रब, हमें पूरी भक्ति से केवल तेरे सामने झुकनेवाला बना दे; हमारी नस्ल में से ऐसा समुदाय बना जो पूरी भक्ति से केवल तेरे आगे झुकनेवाला हो। हमें इबादत करने के तरीक़े बता दे और हमारी तौबा क़बूल कर, कि तू ही गुनाहों को माफ़ करनेवाला, बड़ी दया रखनेवाला है। (128)
हमारे रब, ऐसा कर दे कि इस (शहर के बसने वालों) में एक ऐसा रसूल पैदा हो जो उन्हीं में से हो, वह तेरी आयतें पढ़कर उन्हें सुनाए, उनको किताब और सही समझ-बूझ की शिक्षा दे, और उनके दिलों को शुद्ध कर दे: तू सचमुच बड़ी ताक़त का मालिक है, और बेहद समझ-बूझ रखनेवाला है।” (129)
कोई बेवक़ूफ़ ही हो सकता है जो इबराहीम के तरीक़े [दीन] से मुँह मोड़ेगा? हमने तो उसे इस दुनिया में चुन लिया था और आनेवाली दुनिया [आख़िरत] में भी उसकी जगह नेक इंसानों में होगी। (130)
उसके रब ने इबराहीम से कहा था, “अपने आपको मुझ पर पूरी तरह समर्पित कर दे [मेरी हर आज्ञा माननेवाला, मुस्लिम बन जा]।” इबराहीम ने जवाब दिया, “मैं अपना सिर सारे संसार के रब के आगे झुकाता हूँ,” (131)
और इबराहीम ने अपने बेटों को भी ऐसा ही करने का हुक्म दिया था, और याक़ूब [Jacob] ने भी कहा: “ऐ मेरे बेटो! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन [धर्म] पसंद कर लिया है, तो ध्यान रहे कि मरते दम तक, तुम पूरी भक्ति से एक अल्लाह के सामने सिर झुकानेवाले [मुस्लिम] बने रहो।” (132)
[ऐ यहूदियो], क्या तुम उस वक़्त वहाँ मौजूद थे जब याक़ूब [Jacob] की मौत का समय आया था? जब उसने अपने बेटों से पूछा था, “मेरे चले जाने के बाद तुम किसकी इबादत करोगे?” उन्होंने जवाब दिया, “उसी एक अल्लाह की, जिसकी इबादत आपने की है, और आपके बाप-दादा, इबराहीम [Abraham], इसमाईल [Ishmael] और इसहाक़ [Isaac] ने भी की है: हम पूरी भक्ति से उसी (एक अल्लाह के हर हुक्म) के सामने अपना सिर झुकाते [यानी मुस्लिम] हैं।” (133)
वह एक समुदाय था जो गुज़र चुका। जो कुछ उन्होंने (अपने कर्मों से) कमाया, वह उनके लिए था, और जो कुछ तुम (अपने कर्मों से) कमाओगे, वह तुम्हारे लिए होगा: उनके कर्मों के लिए तुम्हें जवाब नहीं देना होगा। (134)
वे (ईमानवालों से) कहते हैं, “यहूदी या ईसाई बन जाओ, तुम सही मार्ग पा लोगे।” [ऐ रसूल], आप कहें, “नहीं, हमारा दीन तो इबराहीम का दीन है, जो सीधे रास्ते पर था, और उसने एक अल्लाह के सिवा किसी और ख़ुदा की इबादत नहीं की।” (135)
अत: [ऐ ईमानवालो], तुम कहो, “हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर और उस [क़ुरआन] पर जो हम पर उतारी गयी, और जो कुछ (शिक्षाएं) इबराहीम [Abraham], इसमाईल [Ishmael], इसहाक़ [Isaac], याक़ूब [Jacob] और उसकी औलाद की ओर भेजी गयीं, और साथ में जो कुछ मूसा [Moses] और ईसा [Jesus], और सारे नबियों को उनके रब की तरफ़ से दी गयीं। हम इनमें से किसी के बीच कोई अन्तर नहीं करते (कि इनमें से किसी को मानें और किसी को न मानें), और हम पूरी भक्ति से केवल उसी (अल्लाह) के आगे अपना सिर झुकाते हैं।” (136)
अत: अगर वे भी तुम्हारी तरह (उन सब नबियों पर) विश्वास कर लें, तो वे सही मार्ग पा लेंगे। लेकिन अगर वे मुँह मोड़ लें, तो फिर इसका मतलब यह होगा कि वे तुम्हारे विरोध में हठधर्म हो गए हैं। (चिंता न करो) अल्लाह उनसे तुम्हारी हिफ़ाज़त करने के लिए काफ़ी है: वह सब कुछ सुननेवाला, और जाननेवाला है। (137)
और [ऐ ईमानवालो], तुम कहो, “(हमारी ज़िंदगी तो) अपना सारा रंग अल्लाह से ही लेती है, और अल्लाह से बेहतर रंग कौन दे सकता है? और हम तो केवल उसी की बन्दगी करते हैं।” (138)
[ऐ रसूल, आप यहूदियों और ईसाइयों से] कह दें, “तुम हमसे अल्लाह के बारे में कैसे बहस कर सकते हो, जबकि वह हमारा भी रब है और तुम्हारा भी? हमारे लिए हमारे कर्म हैं, और तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्म। हम तो पूरी भक्ति से उसी के आगे सिर झुकाते हैं।” (139)
“या क्या तुम यह कह रहे हो कि इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और उनकी औलाद यहूदी या ईसाई थे?” [ऐ रसूल], आप उनसे पूछें, “कौन ज़्यादा जानता है: तुम या अल्लाह? उससे बढ़कर ज़ालिम कौन हो सकता है जिसके पास अल्लाह की (ओर से आयी हुई) एक गवाही [Testament] हो और वह उसे छिपाए? (याद रखो), जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है।” (140)
(और जो कुछ भी हो) वह एक समुदाय था जो गुज़र चुका: जो कुछ उसने (अपने कर्मों से) कमाया, वह उसके लिए था, और जो कुछ तुम (अपने कर्मों से) कमाओगे, वह तुम्हारे लिए होगा। तुम्हें उनके कर्मों के बारे में कोई जवाब नहीं देना होगा। (141)
मूर्ख लोग अब कहेंगे, “इन (मुसलमानों) को किस चीज़ ने नमाज़ पढ़ने की उस दिशा [क़िबला] से फेर दिया जिस (येरूशलम की) दिशा में मुँह करके वे नमाज़ पढ़ा करते थे?” कह दें, “पूरब और पश्चिम अल्लाह के ही हैं, वह जिसे चाहता है उसके लिए सीधे मार्ग पर चलना आसान कर देता है।” (142)
[ईमानवालो], हमने तुम्हें (सच और झूठ के बीच) ‘न्याय करनेवाला समुदाय’ बनाया है, ताकि तुम दूसरों के सामने (सच्चाई की) गवाही दे सको और हमारा रसूल तुम्हारे सामने (इस बात की) गवाही दे सके। जिस (क़िबले) की दिशा में मुँह करके पहले आप नमाज़ पढ़ते थे, उसे तो हमने केवल इसलिए (क़िबला) बनाया था ताकि हम यह देख सकें कि कौन लोग रसूल के बताए हुए रास्ते पर चलते हैं, और कौन हैं जो उल्टे पाँव फिर जाते हैं: वह परीक्षा बहुत कड़ी ज़रूर थी, मगर उन लोगों के लिए (कठिन) नहीं थी जिन्हें अल्लाह ने मार्ग दिखा दिया है। [ईमानवालो], अल्लाह कभी ऐसा नहीं करता कि वह तुम्हारे ईमान को बेकार जाने दे, कि अल्लाह तो इंसानों के लिए बड़ी करूणा रखनेवाला, बेहद दयावान है। (143)
[ऐ रसूल], हमने आपको आसमान की तरफ़ (दुआ में) मुँह उठाए हुए बहुत बार देखा है, अत: हम आपको उसी (मक्का की) तरफ़ मोड़ दे रहे हैं जिस दिशा में मुँह करके (नमाज़ पढ़ना) आपको पसंद है। अब (नमाज़ के लिए) अपना मुँह (मक्का की) ‘पवित्र मस्जिद’ [काबा] की ओर कर लें: [ईमानवालो], तुम चाहे जहाँ कहीं भी हो, (नमाज़ के लिए) अपने मुँह को इसी (क़िबले की) दिशा में घुमा लो। जिन लोगों को (अल्लाह की) किताब दी गयी थी, वे यक़ीन से यह बात जानते थे कि यह सच्चाई है जो उनके रब की ओर से आयी है: जो कुछ वे करते हैं, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है। (144)
इसके बावजूद, अगर तुम उन लोगों के पास जिन्हें किताब दी गई थी, हर एक प्रमाण भी ले आओ, तब भी वे तुम्हारे नमाज़ पढ़ने की दिशा [क़िबले] को नहीं अपनाएंगे, न ही उनके क़िबले को तुम माननेवाले हो, और न ही उनमें से कोई एक-दूसरे के क़िबले को मानने वाला है। [ऐ रसूल], अगर आप उस ज्ञान के बाद, जो आपके पास आ चुका है, उनकी इच्छाओं के पीछे चले, तो निश्चय ही आप ग़लत काम करेंगे। (145)
जिन लोगों को हमने किताब दी थी वे इसको इस तरह जानते हैं जैसे वे अपने बेटों को जानते हैं, मगर उनमें से कुछ लोग सच्चाई को जान-बूझकर छिपाते हैं। (146)
यह सच्चाई तुम्हारे रब की ओर से है, अतः तुम सन्देह करने वालों में से न हो जाना। (147)
हर समुदाय के पास अपनी एक दिशा [क़िबला] है, जिसकी तरफ़ (इबादत के समय) वह अपना मुँह घुमा लेता है: (असल चीज़ यह है कि) तुम भलाई के काम में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की दौड़ लगाओ, तुम जहाँ कहीं भी होगे, अल्लाह तुम सबको (क़यामत के दिन) इकट्ठा करेगा। अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त हासिल है। (148)
[ऐ रसूल], जहाँ कहीं के लिए भी आप (सफ़र पर) निकलें, (नमाज़ के लिए) अपना मुँह ‘पवित्र मस्जिद’ [काबा] की दिशा में घुमा लें —– यह तुम्हारे रब की तरफ़ से सच्चाई है: जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है —– (149)
[ऐ रसूल], जहाँ कहीं के लिए भी आप (सफ़र पर) निकलें, (नमाज़ के लिए) अपना मुँह ‘पवित्र मस्जिद’ [काबा] की दिशा में घुमा लें; तुम में से कोई भी जहाँ कहीं भी हो, अपना मुँह पवित्र मस्जिद की तरफ़ घुमा लो: और जहाँ कहीं भी तुम रहो, उसी की ओर मुँह कर लिया करो, ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ बहस करने का कोई मुद्दा न रहे ——- सिवाय उन लोगों के जो उनमें ज़ालिम हैं: उनसे न डरो; मुझ से डरो —- और ताकि मैं तुम पर अपनी नेमतें [bounty] पूरी कर दूँ और तुम्हें सीधा रास्ता दिखा दूं, (150)
जैसाकि हमने तुम्हारे बीच अपना एक रसूल भेजा है जो तुम्हीं में से है, जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाता है, तुम्हें निखारता है, तुम्हें किताब [क़ुरआन] और (उसकी) समझ-बूझ की शिक्षा देता है, और तुम्हें वह चीज़ें सिखाता है, जो तुम जानते न थे। (151)
अतः मुझे याद करते रहो; मैं भी तुम्हें याद रखूँगा। मेरा एहसान माना करो, कभी नाशुक्री [ungrateful] न करो। (152)
ऐ ईमानवालो! तुम जब (मेरी) मदद माँगा करो, तो धैर्य [सब्र] और नमाज़ के द्वारा (मदद) माँगा करो, क्योंकि अल्लाह सब्र [Patience] करने वालों के साथ होता है। (153)
जो लोग अल्लाह के रास्ते में मारे जाएँ उन्हें मुर्दा न कहो; वे ज़िंदा हैं, हालाँकि तुम्हें (उनकी ज़िंदगी का) एहसास नहीं होता। (154)
हम तुम्हारी परीक्षा ज़रूर लेंगे, (कभी) डर और भूख से, और (कभी) संपत्ति, जान, और पैदावार के नुक़सान से। मगर [ऐ रसूल], आप उन लोगों को ख़ुशख़बरी दे दें जो (मुसीबत में) धीरज के साथ जमे रहते हैं, (155)
वे लोग जब किसी मुसीबत में घिर जाते हैं, तो कहते हैं, “हम तो अल्लाह के ही हैं, और हमको उसी के पास लौटकर जाना है।” (156)
ये वह लोग हैं जिन पर उनके रब की ख़ास कृपा [Blessings] और रहमत [Mercy] होगी, और यही लोग हैं जो सीधे व सही रास्ते पर हैं। (157)
(काबा के नज़दीक) ‘सफ़ा’ और ‘मरवा’ (की पहाड़ियाँ) अल्लाह की निशानियों में से हैं, अतः जो लोग इस घर [काबा] की यात्रा में ‘हज’ या ‘उमरा’ [छोटा हज] के लिए जाएं, तो उनके लिए इसमें कोई दोष नहीं होगा अगर वह इन दोनों (पहाड़ियों) के बीच चक्कर लगा लें। जो कोई अपनी ख़ुशी से कोई भलाई का काम करे तो उसे इसका इनाम दिया जाएगा, कि अल्लाह अच्छे कामों का इनाम ज़रूर देता है, और सब कुछ जानता है। (158)
रहे वे लोग जो हमारी भेजी हुई (सच्चाई की) निशानियों और मार्गदर्शन को छिपाते हैं, इसके बावजूद कि हमने उन्हें किताब में पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है, तो ऐसे ही लोग हैं जिन्हें अल्लाह ठुकरा देता है, और दूसरे लोग भी उन्हें ठुकरा देते हैं, (159)
जब तक कि वे अपने (गुनाहों की) तौबा नहीं कर लेते, अपने में सुधार नहीं करते, और सच्चाई की खुले आम घोषणा नहीं कर देते। (अगर वे ऐसा करते हैं तो) मैं अवश्य ही उनकी तौबा क़बूल करूँगा: मैं (पछताने वालों की) तौबा हमेशा क़बूल करनेवाला, बेहद दयावान हूँ। (160)
जिन लोगों ने (सच्चाई पर) विश्वास करने से इंकार किया और अगर इसी इंकार की हालत में मर गए, तो अल्लाह उन्हें ठुकरा देता है, फ़रिश्ते और सारे लोग भी उन्हें ठुकरा देते हैं। (161)
वे इसी ठुकराई हुई हालत में रहेंगे: उनकी सज़ा हल्की नहीं की जाएगी, और न उन्हें मुहलत ही मिलेगी। (162)
तुम्हारा ख़ुदा तो बस एक अल्लाह है: उसके अलावा पूजने लायक़ कोई ख़ुदा नहीं, वह बेहद दयावान, और सब पर मेहरबान है। (163)
आसमानों और ज़मीन को पैदा करने में; रात और दिन के बारी-बारी से आने जाने में; उन जहाज़ों में जो लोगों के सामान लेकर समुद्र में चलते हैं; उस बारिश के पानी में जिसे अल्लाह आसमान से उतारता है जिससे मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन फिर से जी उठती है, और इस बात में कि हर तरह के जानवर ज़मीन में फैले हुए हैं; हवाओं के बदलने में और उन बादलों में जो आसमान और ज़मीन के बीच नियत रास्तों में तैरते फिरते हैंं: इन सारी चीज़ों में उनलोगों के लिए (क़ुदरत की) बड़ी निशानियाँ हैं जो बुद्धि से काम लेते हैं। (164)
लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह को छोड़कर दूसरे ख़ुदाओं को उसके बराबर ठहराते हैं, उन्हें इतना पसंद करते हैं जितना उन्हें अल्लाह को पसंद करना चाहिए, मगर जो ईमानवाले हैं, उनके दिलों में सबसे बढ़कर प्रेम अल्लाह से ही होता है। काश कि ये [बहुदेववादी] लोग देख पाते —– चूँकि वे तभी देखेंगे जब यातना उनके सामने आ जाएगी —– कि सारी शक्ति तो अल्लाह के ही पास है, और यह कि अल्लाह अत्यन्त कठोर यातना देता है। (165)
जब ऐसा होगा कि वे (पेशवा] जिनके पीछे लोग चलते हैं, अपने अनुयायियों को अपना मानने से इंकार कर देंगे, जब वे सब उस यातना को अपनी आँखों के सामने देखेंगे, तब उनके बीच के सभी संबंध कटकर रह जाएंगे, (166)
वे लोग जो उन (पेशवाओं) के पीछे चलते थे, कहेंगे, “काश! हमें (दुनिया में फिर से जाने का) एक आख़िरी मौक़ा मिल जाए, तो हम भी उन (झूठे पेशवाओं को) पहचानने से इंकार कर दें, जैसा कि उन्होंने अब हमें पहचानने से इंकार कर दिया है।” इस तरह, अल्लाह उनके कर्मों को उनके लिए एक दुखद पछतावे का ज़रिया बना देगा: वे अब किसी भी तरह (जहन्नम की) आग से निकल नहीं सकेंगे। (167)
ऐ लोगो! ज़मीन में जितनी भी अच्छी और हलाल [वैध/ lawful] चीज़ें हैं उन्हें खाओ (और अपने वहम से खाने की चीज़ों से लोगों को न रोको), और शैतान के रास्ते पर न चलो, क्योंकि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। (168)
वह हमेशा तुम्हें बुराई और अश्लीलता के काम करने का हुक्म देता है, और तुम्हें इस बात पर उकसाता है कि तुम अल्लाह के बारे में ऐसी (झूठी) बातें कहो जिसको तुम सचमुच नहीं जानते। (169)
लेकिन जब उनसे कहा जाता है, “अल्लाह ने अपना जो संदेश उतार भेजा है, उसका अनुसरण करो,” तो कहते हैं, “नहीं, हम तो उसी तरीक़े पर चलेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को चलते देखा है।” क्या! तब भी (चलेंगे) अगर उनके बाप-दादा (दीन के बारे में) कुछ समझते-बूझते नहीं थे और न ही उनका मार्गदर्शन हुआ था? (170)
(सच्चाई पर) विश्वास न करनेवालों की मिसाल ऐसी है जैसे कोई चरवाहा जानवरों के आगे चीख़ता-चिल्लाता हो, मगर जानवर सिवाय बुलाने और पुकारने की आवाज़ के कुछ नहीं सुनते हों: वे बहरे, गूँगें, और अंंधे होकर रह गए हैं, और वे कुछ भी नहीं समझते। (171)
ऐ ईमानवालो! जो अच्छी चीज़ें हमने तुम्हें दे रखी हैं उनमें से (बेधड़क) खाओ-पियो और अल्लाह का शुक्र अदा करते रहो, अगर तुम उसकी ही बन्दगी करते हो। (172)
उसने तो तुम पर केवल ये चीज़ें हराम (forbidden) की हैं: मुर्दा जानवर (का सड़ा-गला गोश्त), ख़ून, सूअर का माँस और जिस जानवर पर (काटते वक़्त) अल्लाह के अलावा किसी और का नाम लिया गया हो। इस पर भी, अगर कोई भूख के मारे ऐसी चीज़ खाने के लिए मजबूर हो जाए, तो उस पर कोई गुनाह नहीं, मगर शर्त यह है कि ऐसी चीज़ उसने अपनी इच्छा से न खायी हो, और न वह हद पार करनेवाला हो: अल्लाह बेहद दयावान, बड़ा माफ़ करनेवाला है। (173)
जो लोग अल्लाह की उतारी गई किताब में से कुछ चीज़ें छिपा लेते हैं, और उसके बदले मामूली क़ीमत वसूल कर लेते हैं, तो ऐसे लोग बस अपने पेट में अंगारे भर रहे हैं। क़यामत के दिन अल्लाह न तो उनसे बात करेगा और न उन्हें (गुनाहों से) निखारेगा: बड़ी ही दर्दनाक यातना उनके इंतज़ार में है। (174)
ये वह लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले गुमराही, और माफ़ी की जगह यातना मोल ले ली है। तो क्या चीज़ है जो उन्हें आग का सामना करने के लिए इतना धैर्यवान बना सकती है? (175)
यह इसलिए है कि अल्लाह ने तो सच्चाई के साथ किताब उतारी; मगर जो लोग किताबों के बीच के विभेद में पड़े रहते हैं, वे विरोध में बहुत गहराई तक हठधर्म हो गए हैं। (176)
नेकी व भलाई (का रास्ता) केवल यह नहीं है कि तुम (नमाज़ पढ़ने के वक़्त) अपने मुँह पूरब या पश्चिम की ओर कर लो। सही मायने में नेक व अच्छे लोग तो वह हैं जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन पर विश्वास रखते हैं, (इसी तरह) फ़रिश्तों पर, (अल्लाह की) किताबों पर, और (अल्लाह के) नबियों पर ईमान रखते हैं; जो अपने धन में से कुछ हिस्सा, चाहे उस माल से उनका कितना ही लगाव क्यों न हो, रिश्तेदारों, अनाथों, ग़रीबों, (ज़रूरतमंद) मुसाफ़िरों और भीख माँगनेवालों को देते हैं, और (ग़ुलामों को) आज़ाद कराने के लिए भी देते हैं; वह लोग जो पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं, और निर्धारित ज़कात [alms] देते हैं; और वे जब कभी वचन देते हैं, तो उसे पूरा करते हैं; जो अपना क़दम मज़बूती से जमाए रखते हैं, चाहे तंगी हो, मुसीबत की घड़ी हो, और ख़तरे का समय हो, हर हाल में धीरज रखनेवाले हैं। ये वह लोग हैं जो (नेकी की राह में) सच्चे हैं, और यही हैं जो (अल्लाह से डरते हुए) बुराइयों से बचते हैं। (177)
ऐ ईमानवालो! (जान बूझकर बिना कारण) हत्या के मामले में तुम्हारे लिए मारे गए आदमी की जान के बदले जान की सज़ा [क़िसास/retribution] देना अनिवार्य कर दिया गया है: आज़ाद आदमी के बदले आज़ाद आदमी (की जान), ग़़ुलाम के बदले ग़ुलाम, औरत के बदले औरत। लेकिन अगर मरने वाले का भाई (या वारिस), क़ातिल (की जान) को माफ़ कर दे, (और “ख़ून-बहा” लेने के लिए तैयार हो जाए) तो इसका सही तरीक़े से पालन करना चाहिए, और क़ातिल को भले तरीक़े से उतना (ख़ून-बहा/retribution) अदा करना चाहिए जितना देना उचित हो। यह तुम्हारे रब की तरफ़ से एक आसानी पैदा की गयी है और यह उसकी दयालुता है। फिर इसके बाद भी जो कोई इस सीमा को लांघता है, उसके लिए दर्दनाक यातना होगी। (178)
ऐ बुद्धि और समझवालो! “जान के बदले जान की सज़ा” [क़िसास] असल में तुम्हारी जान बचाने के लिए है, ताकि तुम अपने आपको बुराइयों से बचा सको। (179)
जब तुममें से किसी की मौत का समय आ जाए, और वह कुछ माल छोड़कर जा रहा हो, तो उसे चाहिए कि अपने माँ-बाप और नज़दीकी नातेदारों के लिए सही तरीक़े से वसीयत [bequest] कर दे —– यह उन लोगों का कर्त्तव्य होगा, जो अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते हैं। (180)
अगर कोई उस वसीयत को सुनने के बाद बदल डाले, तो (उसे) बदलने का गुनाह उन्हीं लोगों के सिर पर होगा जो उसे बदलेंगे: अल्लाह सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है। (181)
लेकिन अगर कोई जानता हो, कि वसीयत करनेवाले ने (बँटवारे में) भूल-चूक की है, या उसने पक्षपात किया है, और वह दोनों पक्षों के लोगों को समझा-बुझाकर उनमें कोई समझौता करा दे, तो उस पर कोई गुनाह नहीं: अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला, बेहद दयावान है। (182)
ऐ ईमानवालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य [फ़र्ज़] किए गए हैं, जिस तरह तुमसे पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम बुराइयों से बचने वाले बन सको। (183)
तुम गिने हुए कुछ दिनों में जो निर्धारित हैं, रोज़े रखो, लेकिन अगर तुममें से कोई बीमार हो, या सफ़र में हो, तो वह बाद के दूसरे दिनों में रोज़े रखकर गिनती पूरी कर ले। उन लोगों के लिए जिन्हें (किसी बीमारी या मजबूरी के चलते) रोज़ा रख पाना बहुत ही कठिन हो, उनके लिए (रोज़े की) भरपाई का एक रास्ता है —- एक ग़रीब ज़रूरतमंद को खाना खिलाना। लेकिन अगर कोई अपनी ख़ुशी से कुछ और (ग़रीबों को खाना) दे, तो यह उसके लिए और अच्छा होगा। लेकिन अगर तुम समझ-बूझ रखते हो, तो तुम्हारे लिए रोज़ा रखना (हर हाल में) ज़्यादा अच्छा होगा। (184)
वह रमज़ान का महीना था जिसमें मानव-जाति के मार्गदर्शन के लिए (पहली बार) क़ुरआन उतारी गयी, जो स्पष्ट संदेशों के साथ लोगों को रास्ता दिखानेवाली और सही और ग़लत के बीच अंतर को स्पष्ट कर देनेवाली है। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे इसमें ज़रूर रोज़े रखना चाहिए, और जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो, तो उसे बाद के दिनों में छूटे हुए रोज़े को पूरा कर लेना चाहिए। अल्लाह तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता। वह चाहता है कि तुम (रोज़े की) निर्धारित अवधि पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उसके लिए अल्लाह की बड़ाई का बयान करो, और ताकि तुम (उसकी नेमतों का) शुक्र अदा कर सको। (185)
[ऐ रसूल!], अगर मेरे बंदे आपसे मेरे बारे में पूछें, (तो बता दें कि) मैं तो उसके पास ही हूँ। जो मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता हूँ और उसे क़बूल करता हूँ, अत: उन्हें भी चाहिए कि वे मेरी पुकार का जवाब दें और मुझ पर ईमान रखें, ताकि वे सीधे मार्ग पर आ सकें। (186)
[ईमानवालो], तुम्हें यह इजाज़त दी जाती है कि रोज़े के दिनों में रात के वक़्त तुम अपनी बीवियों के साथ सो सकते हो: वे [औरतें] तुम्हारे (इतने नज़दीक हैं कि) कपड़ों की तरह हैं, और तुम उनके कपड़ों की तरह हो। अल्लाह को इस बात की ख़बर थी कि तुम लोग (रात में औरतों के साथ सेक्स करके) अपने-आपको धोखा दे रहे थे, अत: उसने तुम पर बड़ी कृपा की और तुम्हें माफ़ कर दिया: अब तुम अपनी बीवियों के साथ (रोज़े की रातों में बेझिझक) सो सकते हो —– और जो कुछ अल्लाह ने तुम्हारे (दामपत्य जीवन के) लिए लिख रखा है, उसे पाने की इच्छा रखो —– और रात में (बिना रोक-टोक) खाओ-पियो यहाँ तक कि तुम्हें सुबह की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से साफ़ अलग दिखाई दे जाए। फिर उस वक़्त से रात (शुरू होने) तक रोज़ा पूरा करो। (रोज़े की) रातों में अगर तुम मस्जिदों में इबादत के लिए [‘ऐ’तकाफ़’ में] रुके हो, तो तुम उन (बीवियों) के साथ (वहाँ) न सो जाओ: ये अल्लाह की (तय की हुई) सीमाएँ हैं, अतः इनके पास न जाना। अल्लाह इसी तरह अपने संदेशों को लोगों के सामने स्पष्ट करता है, ताकि वे अपने आपको ग़लत काम करने से रोक सकें। (187)
और (देखो!) तुम एक-दूसरे के माल को अवैध रूप से न खाओ, और न गुनाह के इरादे से इस माल का उपयोग हाकिमों को घूस देने में करो, कि (हक़ मारकर) लोगों के कुछ माल जानते-बूझते हड़प सको। (188)
[ऐ रसूल], वे आपसे नए महीनों के चाँद के बारे में पूछते हैं, आप बता दें, “ये लोगों को समय का हिसाब बताता है, और इससे हज के महीने का निर्धारण हो जाता है।” और (देखो), यह कोई नेकी की बात नहीं है कि तुम (हज के बाद) अपने घरों में (सामने का दरवाज़ा छोड़कर) पीछे के रास्ते से आओ; असल में अच्छा व नेक आदमी तो वह है जो (अल्लाह का) डर रखते हुए बुराइयों से बचता हो। अत: अपने घरों में सामने के दरवाज़ों से दाख़िल हो और अल्लाह की आज्ञा न मानने (के नतीजे) से डरते रहो, ताकि तुम कामयाब हो सको। (189)
और (देखो!), जो लोग तुमसे लड़ाई लड़ रहे हैं, उन लोगों से तुम्हें भी अल्लाह के रास्ते में लड़ना चाहिए, मगर (लड़ाई में) सीमाएं न लाँघो: अल्लाह (लड़ाई की) मर्यादा तोड़ने वालों को पसन्द नहीं करता। (190)
(मक्कावालों ने तुम्हारे ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी है, तो तुम भी लड़ो) और जहाँ कहीं उनसे सामना हो उन्हें क़त्ल करो, और उन्हें निकाल बाहर करो जिस जगह से उन्होंने तुम्हें निकाला था, इसलिए कि उनका (लगातार) अत्याचार करना क़त्ल और ख़ून-ख़राबे से ज़्यादा गम्भीर है। लेकिन पवित्र मस्जिद [काबा] की सीमा में तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे ख़ुद तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अगर वे वहाँ तुमसे युद्ध करने आ ही जाएं, तो उन्हें क़त्ल करो —– सच्चाई से इंकार करनेवाले ऐसे (अत्याचारियों) की यही सही सज़ा है —- (191)
लेकिन अगर वे लड़ाई बंद कर दें, तो फिर अल्लाह भी बड़ा माफ़ करनेवाला, बेहद दयावान है। (192)
उन लोगों से उस वक़्त तक लड़ो जब तक कि ज़ुल्म व अत्याचार समाप्त न हो जाए, और (काबा में) दीन अल्लाह का हो जाए। अगर वे लड़ाई से रुक जाएं, तो तुम्हें भी लड़ाई से अपना हाथ रोक लेना चाहिए, सिवाय उन हमला करनेवाले ज़ालिमों के। (193)
(आदर के चार महीने में अगर दुश्मन हमला न करें, तो तुम भी शांत रहो, और अगर वह हमला कर दे तो फिर बराबरी से मुक़ाबला करो) आदर के महीने का बदला आदर का महीना है: (आदर के महीनों में युद्ध करना मना है, लेकिन) अगर दुश्मन इसकी मर्यादा तोड़ते हुए युद्ध करता है, तो उससे उचित बदला लेना चाहिए। अतः अगर कोई तुम पर हमला कर दे, तो तुम भी उस पर वैसा ही हमला करके बदला लो, मगर अल्लाह से डरते रहो, और जान लो कि अल्लाह उन लोगों के साथ होता है जो उससे डरते हुए बुराइयों से बचते हैं। (194)
अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करो: अपने ही हाथों (कंजूसी करके) अपनी बर्बादी के हिस्सेदार न बनो, मगर अच्छे से अच्छा काम करो, क्योंकि अल्लाह अच्छा काम करनेवालों को पसन्द करता है। (195)
और (देखो!), हज और उमरा [छोटा हज] करने की जब नीयत कर ली जाए, तो उसे अल्लाह के लिए पूरा करना चाहिए। अगर तुम्हें (किसी कारण से हज करने से) रोका जाए, तो जो जानवर क़ुर्बानी के लिए मिल जाए, उसे पेश कर दो, और उस वक़्त तक अपने सिर के बाल न मुंडवाओ जब तक कि वह जानवर क़ुर्बानी की जगह न पहुँच जाए। अगर तुममें से कोई बीमार हो या उसके सिर में कोई तकलीफ़ हो, तो उसे (बाल न उतरवाने की) भरपाई के तौर पर या तो रोज़ा रखना होगा या ग़रीबों को खाना खिलाना होगा या जानवर क़ुर्बान करना होगा। जब तुम अमन की हालत में रहो, तो जो कोई आदमी पहले उमरा करके (इहराम उतार दे, और) फिर साथ में बड़े हज से भी फ़ायदा उठाना चाहे, तो उसे भी जानवर की क़ुर्बानी देनी होगी, जैसी कुछ उसकी क्षमता हो। और अगर उसकी इतनी क्षमता न हो, तो उसे चाहिए कि हज के दिनों में तीन दिन के रोज़े रखे, और (घर) वापस आने पर सात दिन के रोज़े रखे, तो ये मिलकर दस दिन के रोज़े होंगे। (याद रहे) यह हुक्म उन लोगों के लिए है जिनके घरवाले पवित्र मस्जिद के नज़दीक न रहते हों। और (देखो!) हर हाल में अल्लाह की आज्ञा न मानने (के नतीजे से) डरो, और यह जान लो कि अल्लाह सज़ा देने में बहुत सख़्त है। (196)
हज (की तैयारी) के महीने जाने-पहचाने और निर्धारित हैं। जो कोई इन महीनों में हज करने जा रहा हो, तो हज के दौरान न तो औरतों को लुभानेवाली अश्लील बातें हों, न कोई गुनाह का काम, और न लड़ाई-झगड़े की कोई बात होनी चाहिए —- तुम जो कुछ भी अच्छा काम करते हो, अल्लाह उसे अच्छी तरह जानता है। (हज के सफ़र में) अपने साथ (खाने-पीने का और दूसरे ज़रूरी) सामान ले लिया करो: सबसे ज़रूरी सामान जो साथ होना चाहिए वह है अल्लाह का डर रखना —— ऐ समझ-बूझ रखनेवालो! तुम हर हाल में मेरी आज्ञा न मानने (के नतीजे) से डरो—– (197)
इस बात में कोई गुनाह नहीं कि (हज के दौरान) कोई अपने रब का (व्यापार के द्वारा) कुछ फ़ज़ल तलाश करे। फिर जब तुम अरफ़ात नाम की जगह से भीड़ के साथ लौटो, तो (अरफ़ात और मिना के बीच) एक पवित्र जगह [मुज़दलिफ़ा] के नज़दीक ठहरकर अल्लाह को याद करो: जैसा तरीक़ा (अल्लाह ने) तुम्हें बता दिया है। इससे पहले तुम सही रास्ते से भटके हुए थे। (198)
फिर जिस जगह (तक जाकर) लोगों की भीड़ लौटती है, तुम भी वहीं से लौटो, और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगो: वह बड़ा माफ़ करनेवाला, और बेहद दयावान है। (199)
फिर जब तुम हज से जुड़ी सारी रीतियों को पूरा कर चुको, तो जिस तरह पहले अपने बाप-दादाओं (की बड़ाइयों) का बखान करते थे, अब उसी तरह अल्लाह की बड़ाई का बयान करो, बल्कि उससे भी ज़्यादा (अल्लाह को) याद करो। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो (दुआ में) कहते हैं, “हमारे रब! हमें इस दुनिया में भलाई दे दे,” तो (देखो) आने वाली दुनिया [आख़िरत/ Hereafter] में उनका कोई हिस्सा नहीं होगा; (200)
कुछ दूसरे लोग यूँ दुआ करते हैं, “हमारे रब! हमें इस दुनिया में भी भलाई दे और आनेवाली दुनिया में भी भलाई दे, और हमें (जहन्नम की) आग (की यातना) से बचा ले।” (201)
ये वह लोग हैं जिन्होंने अपने कर्मों से जो कुछ कमाया है, उसका हिस्सा उन्हें ज़रूर मिलेगा: अल्लाह (कर्मों का) हिसाब करने में बहुत तेज़ है। (202)
और (क़ुर्बानी के बाद) हज के उन निर्धारित दिनों [ग्यारहवीं तारीख़ से तेरहवीं तक] में अल्लाह की याद में लगे रहो। अगर किसी को दो दिन बाद ही (मिना से वापस) जाने की जल्दी हो, तो इसमें कोई गुनाह की बात नहीं, और न ही उस पर कोई गुनाह है जो (एक दिन और मिना में) ठहरा रहे, शर्त यह है कि वे अल्लाह (की आज्ञा न मानने के नतीजे) से डरते रहें। तो हर हाल में अल्लाह का डर रखो, और यह बात न भूलो कि एक दिन तुम्हें उसी के सामने इकट्ठा होना है। (203)
लोगों में एक तरह का वह भी आदमी है कि इस दुनिया की ज़िंदगी के बारे में उसकी बातें [ऐ रसूल], आपको बहुत अच्छी लग सकती हैं, यहाँ तक कि जो कुछ उसके दिल में होता है, उस पर वह अल्लाह को गवाह भी बनाता है, पर इसके बावजूद वह विरोधियों में सबसे कट्टर है। (204)
जब वह उठकर वहाँ से जाता है, तो ज़मीन पर बिगाड़ और ख़राबी फैलाने के लिए निकल पड़ता है, फ़सलों को बर्बाद करता है और मवेशियों को मार डालता है —— मगर अल्लाह यह कभी पसन्द नहीं करता कि ज़मीन पर ख़राबी फैलाई जाए। (205)
जब उससे कहा जाता है, “अल्लाह से डरो,” तो उसका अहंकार उसे और (अधिक) गुनाह करने पर उकसाता है। (वह ज़ुल्म से हाथ रोकनेवाला नहीं है) उसके लिए जहन्नम ही काफ़ी है: और वह आराम करने की बहुत-ही बुरी जगह है! (206)
मगर लोगों में एक तरह का वह भी आदमी है जो अल्लाह को ख़ुश करने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी (उसकी सेवा में) लगा देता है, और अल्लाह भी अपने (ऐसे) बन्दों पर बहुत मेहरबान है। (207)
ऐ ईमानवालो! तुम पूरी तरह से एक अल्लाह के आगे सिर झुकाने वालों [इस्लाम] में दाख़िल हो जाओ, और शैतान के रास्ते पर न चलो, कि वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। (208)
तुम्हारे पास जो स्पष्ट प्रमाण आ चुका है, उसके बाद भी अगर तुम (सही रास्ते से) फिसल गए, तो फिर यह जान लो कि अल्लाह (की पकड़ से तुम बच नहीं सकते, वह) बड़ा प्रभुत्ववाला, और (अपने काम में) बहुत समझ-बूझ रखनेवाला है। (209)
क्या ये लोग बस इसी इंतज़ार में हैं कि अल्लाह स्वयं ही बादलों की छाँव में उनके सामने आ जाए और उसके साथ फ़रिश्ते भी हों? मगर तब तक तो सारे मामलों का फ़ैसला हो चुका होगा: सारे मामले तो अल्लाह के पास ही लौटकर जाते हैं। (210)
[ऐ रसूल], आप इसराईल की सन्तान से पूछें कि हम उनके पास कितनी सारी खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए। अगर कोई अल्लाह की नेमतों [blessing] को पा लेने के बाद उसे बदल डाले, तो (याद रहे), अल्लाह सज़ा देने में बहुत कठोर है। (211)
विश्वास न करनेवालों के लिए इस दुनिया की ज़िंदगी को बहुत ही लुभावनी बनाया गया है, और वे ईमान रखनेवालों (की ख़राब आर्थिक हालत) पर हँसते हैं। मगर क़यामत के दिन जो लोग अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते हैं, वे उन (विश्वास न करनेवालों से) कहीं ऊपर होंगे: अल्लाह जिसे चाहता है, उसे बेहिसाब रोज़ी देता है। (212)
(शुरू में) पूरी मानव-जाति तो एक ही समुदाय थी, (धीरे-धीरे लोग अलग-अलग टोलियों में बँट गए), फिर अल्लाह ने (एक के बाद एक) अपने नबियों [Prophets] को भेजा ताकि वे लोगों को (ईमान व अच्छे कर्मों की) ख़ुशख़बरी सुना दें, और (सच्चाई से इंकार व बुरे कर्मों के नतीजे से) सावधान कर दें, और उनके साथ ही अल्लाह ने सच्चाई के साथ अपनी किताब [तोरात, इंजील] भी उतारी, ताकि लोगों के बीच होने वाले मतभेदों का फैसला हो सके। ये तो वह लोग थे जिनको किताब दी गई थी और वही लोग इसके बारे में मतभेद करने लगे, और वह भी तब जबकि इसके बारे में स्पष्ट निशानियाँ आ चुकी थीं, और यह (किसी और कारण से नहीं, बल्कि यहूदियों और ईसाइयों की) आपस की दुश्मनी व हठ के कारण था। अतः अल्लाह ने अपनी इच्छा से ईमानवालों को सच्चाई का रास्ता दिखा दिया जिसके बारे में वे मतभेद रखते थे: अल्लाह जिसे चाहता है, उसे सीधा रास्ता दिखा देता है। (213)
क्या तुमने यह समझ रखा है कि तुम (जन्नत के) बाग़ों में यूँ ही दाख़िल हो जाओगे, जबकि तुमने अभी तक वैसी कोई मुसीबत झेली ही नहीं, जैसी कि तुमसे पहले के लोग झेल चुके हैं? उन पर (हिंसा हुई, और) बदक़िस्मती और तंगियाँ डाल दी गयीं, और वे इतने झकझोर दिए गए यहाँ तक कि (उनके) रसूल और उनके साथ ईमानवाले भी पुकार उठे कि, “आख़िर अल्लाह की मदद कब आएगी? जान लो! सचमुच अल्लाह की मदद तुमसे बहुत नज़दीक आ पहुँची है। (214)
(ऐ रसूल), वे आपसे पूछते हैं, “(अल्लाह के रास्ते में) उन्हें क्या ख़र्च करना चाहिए?” कह दें, “अपने माल में से जो कुछ भी तुम दो, वह तुम्हारे माँ-बाप, नज़दीकी रिश्तेदार, अनाथ, ज़रूरतमंद और (मुसीबत में फँसे हुए) मुसाफ़िरों के लिए होना चाहिए।” तुम जो कुछ भी भलाई के काम करते हो, अल्लाह उसे अच्छी तरह जानता है। (215)
तुम्हें (दुश्मनों से) युद्ध करने का आदेश दिया जाता है, हालाँकि तुम इसे पसंद नहीं करते। ऐसा हो सकता है कि तुम कोई चीज़ नापसंद करो मगर वह तुम्हारे लिए अच्छी हो, और कोई चीज़ जो तुम्हें पसंद हो, वह तुम्हारे लिए बुरी हो: अल्लाह जो जानता है, तुम नहीं जानते।” (216)
[ऐ रसूल], वे आपसे पूछते हैं कि आदर के (चार) महीनों में युद्ध करना कैसा है? आप कह दें, उन (महीनों) में लड़ना बड़ा भारी गुनाह है, मगर (याद रखो!), दूसरों को अल्लाह के मार्ग से रोकना, उस पर विश्वास करने से इंकार करना, “पवित्र मस्जिद” [काबा] में जाने से रोकना, और (मक्का से) वहाँ बसे हुए लोगों को निकाल बाहर करना, अल्लाह की नज़र में इससे भी कहीं बड़ा गुनाह है: लोगों पर अत्याचार करना (इस कारण से कि वे अल्लाह पर विश्वास रखते हैं), हत्या करने से भी बुरा है।” [ईमानवालो], वे तुमसे लड़ना बंद नहीं करेंगे, और अगर उनका बस चले, तो तब तक लड़ेंगे जब तक तुम्हें तुम्हारे दीन [धर्म] से फेर न दें। और अगर तुममें से कोई अपने दीन को छोड़ दे, और इंकार करनेवाले के रूप में मरे, तो उसके सारे कर्म, दुनिया और आख़िरत दोनों में बेकार हो जाएंगे, और उसका ठिकाना (जहन्नम की) आग होगा, जहाँ उसे हमेशा रहना है। (217)
लेकिन वे लोग जिन्होंने (सच्चाई पर) विश्वास किया, घर-बार छोड़कर (मक्का से मदीना) चले गए, और (अल्लाह के रास्ते में) संघर्ष [जिहाद] किया, तो यही वे लोग हैं जो अल्लाह की रहमत [mercy] की उम्मीद रख सकते हैं: अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला, बेहद दयावान है। (218)
[ऐ रसूल], लोग आपसे शराब और जुए [gambling] के बारे में पूछते हैं, आप कह दें, “उन दोनों चीज़ों में बड़ा गुनाह है, और लोगों के लिए कुछ फ़ायदे भी हैं: (मगर) गुनाह उनके फ़ायदे से कहीं ज़्यादा है।” और वे आपसे पूछते हैं, “उन्हें (दान में) क्या देना चाहिए?” कह दें, “जो तुम्हारी ज़रूरत से अधिक [surplus] हो।” अल्लाह इसी तरह अपने संदेशों को तुम्हारे लिए स्पष्ट करता है, ताकि तुम सोच-विचार कर सको, (219)
इस दुनिया में भी और आनेवाली दुनिया के बारे में भी। [ऐ रसूल], वे आपसे अनाथों (की संपत्ति) के बारे में पूछते हैं, उनसे कह दें: “यह अच्छा होगा कि उनके मामलों में सुधार किया जाए। अगर तुम उनके मामलों को अपने साथ मिला लो (और उन्हें अपने परिवार के साथ जोड़ लो), तो याद रखो कि वे तुम्हारे भाई-बहन ही हैं: अल्लाह जानता है कि कौन है जो चीज़ों को बिगाड़ने वाला है, और कौन उनमें सुधार लाने वाला है। अगर अल्लाह चाहता तो तुम्हें भी भारी मुश्किल में डाल सकता था: वह बहुत ताक़तवाला और बड़ी समझ-बूझ रखनेवाला है।” (220)
और (देखो!), जब तक मुश्रिक [बहुदेववादी/ Idolatrous] औरतें (सच्चाई पर) विश्वास न कर लें, उनसे शादी न करो: एक ईमान रखनेवाली दासी, निश्चय ही किसी मुश्रिक (आज़ाद) औरत से कहीं बेहतर है, चाहे वह तुम्हें बहुत पसंद क्यों न हो। और अपनी औरतों की शादी मुश्रिक [Idolatrous] मर्दों के साथ न कर दो, जब तक कि वे (सच्चाई पर) विश्वास न कर लें: एक ईमानवाला ग़ुलाम किसी मुश्रिक (आज़ाद) मर्द से निश्चय ही कहीं बेहतर है, चाहे वह तुम्हें कितना ही पसंद क्यों न हो। ऐसे लोग तुम्हें (जहन्नम की) आग की तरफ़ बुलाते हैं, जबकि अल्लाह अपने हुक्म से तुम्हें (जन्नत के) बाग़ और माफ़ी की तरफ़ बुलाता है। वह अपने संदेशों को लोगों के लिए स्पष्ट कर देता है, ताकि वे इन बातों को ध्यान में रखें। (221)
[ऐ रसूल], वे आपसे (औरतों के) मासिक-धर्म [Menstruation] के बारे में पूछते हैं, आप कह दें, “मासिक-धर्म [माहवारी] (औरतों के लिए) एक तकलीफ़ की हालत है, अतः इस दौरान औरतों से अलग-थलग रहो। जब तक कि वे (इसकी अवधि पूरी करके) पाक-साफ़ न हो जाएँ, उनके नज़दीक (सेक्स के लिए) न जाओ; फिर जब वे पाक-साफ़ हो जाएं, तो तुम उनके साथ मिलन कर सकते हो, जिस तरह अल्लाह ने तुम्हारे लिए ठहरा दिया है। अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो (गुनाहों से तौबा के लिए) उसके आगे झुकते हैं, और वह उन्हें भी पसन्द करता है जो अपने आपको साफ़-सुथरा रखते हैं। (222)
तुम्हारी बीवियाँ तुम्हारे लिए (फ़सल उगानेवाले) खेत की तरह हैं, अतः (बीज बोने के लिए आगे से या पीछे से) जिस तरह से चाहो, तुम अपने खेतों में जाओ, और अपने लिए (अच्छे कर्म) आगे भेजो। (देखो!) अल्लाह से डरते रहो: याद रखो, एक दिन तुम्हें उससे मिलना है।” ईमान रखनेवालों को (बेकार के रोक-टोक से बच जाने की) ख़ुशख़बरी दे दो। (223)
[ईमानवालो], अल्लाह के नाम से ऐसी क़समें न खा लिया करो जो तुम्हें किसी के साथ भलाई करने, बुराइयों से बचने की कोशिश करने, और लोगों के बीच समझौता करा देने से रोक ले। अल्लाह सब कुछ सुनता, सब जानता है: (224)
अल्लाह तुमसे उन क़समों का हिसाब नहीं मांगेगा, जो तुमने बिना सोचे-समझे यूँ ही खा ली हो, लेकिन वह उन क़समों का ज़रूर हिसाब लेगा जो तुमने दिल में सोच-समझकर खायी होगी। अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला, सहनशील है। (225)
जो लोग अपनी बीवियों के साथ सेक्स न करने की क़सम खा बैठें, उनके लिए चार महीने इंतज़ार का समय होगा: अगर वे इस दौरान (क़सम तोड़कर बीवी से) मिलन कर लें, तो याद रखो कि अल्लाह उन्हें माफ़ कर देगा, और उन पर दया करेगा, (226)
लेकिन अगर (ऐसा न हो, और) वे तलाक़ की ठान लें, तो (फिर बीवी को तलाक़ हो जाएगी), याद रहे कि अल्लाह सब कुछ सुननेवाला, और जाननेवाला है। (227)
जिन औरतों को तलाक़ दी गयी है, उन्हें चाहिए कि तीन बार माहवारी [Periods] आने की अवधि तक अपने आपको (दूसरी शादी से) रोके रखें, और, अगर वे सचमुच अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखती हैं, तो उनके लिए यह वैध न होगा कि जो चीज़ अल्लाह ने उनके पेट में पैदा कर दी हो, उसे छिपाएँ: इस अवधि के दौरान, उनके पतियों के लिए बेहतर यह होगा कि वे उन्हें (अपनी बीवी के रूप में) वापस ले लें, शर्त यह है कि वे (आपस के) मामलों को ठीक करने की इच्छा रखते हों। और (देखो), सर्वमान्य तरीक़े के अनुसार, बीवियों के (अपने पतियों पर) जैसे अधिकार हैं, उसी तरह की उनकी ज़िम्मेदारियाँ भी हैं, और पतियों को उन पर एक ख़ास दर्जा (अधिकार) दिया गया है: (दोनों को याद रखना चाहिए कि) अल्लाह बहुत ताक़त रखनेवाला, बड़ी समझ-बूझ रखनेवाला है। (228)
[जिस तलाक़ में दोबारा मेल-मिलाप की संभावना है, वैसा] तलाक़ दो बार (एक-एक करके) हो सकता है, और (हर एक बार) बीवियों को या तो क़ायदे के अनुसार रोक लिया जाए (और मेल-मिलाप कर लिया जाए) या भले तरीक़े से छोड़ दिया जाए। [तीसरा तलाक़ अंतिम और पक्का हो जाएगा]। तुम्हारे लिए यह वैध नहीं होगा कि जो कुछ तुम (अपनी बीवियों को पहले) दे चुके हो, उसमें से कुछ (तलाक़ देते समय) वापस ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को यह डर हो कि वे (शादी के लिए) अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे: अगर तुम [फ़ैसला करनेवाले] को यह शक हो कि वे [मियां-बीवी] ऐसा नहीं कर सकेंगे, तो फिर इस बात में दोनों में से किसी का भी दोष नहीं होगा, अगर औरत (तलाक़ के बदले अपने दहेज़/मेहर में से) कुछ देकर अपना पीछा छुड़ाना चाहे। (याद रहे), ये अल्लाह की सीमाएँ हैं। अतः इनका उल्लंघन न करो। और जो कोई अल्लाह की सीमाओं को तोड़ देगा, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी हैं। (229)
अगर कोई पति अपनी बीवी को दूसरे तलाक़ के बाद फिर से [तीसरा] तलाक़ दे दे, तो फिर इसके बाद वह बीवी उसके लिए वैध न होगी, जब तक कि वह (औरत) किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले; फिर अगर ऐसा हो कि वह पति भी उस (औरत) को ख़ुद से तलाक़ दे दे, तो फिर इस बात में कोई गुनाह न होगा अगर वह औरत और उसका पहला पति एक-दूसरे की ओर लौट आएं, अगर वे समझते हों कि वे अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाओं के भीतर रह सकेंगे। और (देखो!), ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं, जिन्हें वह उन लोगों के लिए स्पष्ट कर देता है जो ज्ञान रखते हैं। (230)
जब तुम औरतों को तलाक़ दे दो और उनकी निर्धारित (इद्दत की) अवधि पूरी होने को आए, तो ठीक तरीक़ा अपनाते हुए या (तो मेल-मिलाप करके) उन्हें रोक लो या उन्हें (आख़िरी तलाक़ देकर) विदा कर दो। उन्हें इस इरादे से रोके न रखो कि तुम उन्हें नुक़सान पहुँचाओ और उन पर अत्याचार करो: जो ऐसा करेगा, तो वह ख़ुद अपने हाथों अपना नुक़सान करेगा। और (देखो), अल्लाह के आदेशों को हँसी-खेल न बना लो; याद करो अल्लाह के एहसानों [bounties] को जो उसने तुम पर किया, और उस किताब [क़ुरआन] और गहरी समझ-बूझ [हिकमत] को भी न भूलो, जो तुम्हारी शिक्षा के लिए उसने तुम पर उतारी। अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते रहो और जान लो कि अल्लाह को हर चीज की पूरी जानकारी है। (231)
जब तुम औरतों को (एक या दूसरी बार) तलाक़ दे दो और वे अपनी निर्धारित (इद्दत की) अवधि को पूरा कर लें, तो उन्हें अपने पतियों से दोबारा शादी करने से न रोको, अगर वे दोनों उचित रीति से ऐसा करने के लिए सहमत हों। जो लोग अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं, उन्हें यह हुक्म दिया जाता है कि वे ये बात अपने दिल में बैठा लें: यह तुम्हारे लिए सब तरह से ज़्यादा सही और साफ़-सुथरा तरीक़ा है। अल्लाह जानता है, मगर तुम नहीं जानते। (232)
(कोई आदमी अपनी बीवी को तलाक़ दे दे, और उसकी गोद में बच्चा हो), और वह अगर बच्चे की माँ से पूरी अवधि तक दूध पिलवाना चाहता है, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ, और माँ के खाने-कपड़े की ज़िम्मेदारी, उचित रीति से उसके बाप को उठानी चाहिए। किसी पर भी (ज़िम्मेदारी का) उतना ही बोझ डालना चाहिए जितना बोझ वह (अपनी हैसियत के मुताबिक़) उठा सके: न तो माँ को उसके बच्चे के कारण नुक़सान पहुँचाया जाए, और न ही बाप को उसके बच्चे के कारण। (माँ के लिए) ऐसी ही ज़िम्मेदारी (बच्चे के बाप के मरने के बाद) उसके वारिस पर भी आती है। फिर अगर (ऐसा हो कि) माँ-बाप आपसी सहमति और सलाह-मशविरे से (बच्चे का) दूध (समय से पहले) छुड़ाना चाहें तो उन पर कोई गुनाह नहीं, और न ही इस पर कोई गुनाह होगा अगर तुम बच्चे को (माँ के बदले) किसी दूसरी औरत [wet-nurse] से दूध पिलवाना चाहो, शर्त यह है कि तुमने जो कुछ बदले में देने का वादा किया हो, उचित तरीक़े से उसे चुका दो। और (देखो!) अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचते रहो, और यह जान लो कि तुम जो कुछ भी करते हो, अल्लाह सब देख रहा है। (233)
अगर तुममें से कोई मर जाए और अपने पीछे विधवा छोड़ जाए, तो उन विधवाओं को दोबारा शादी के लिए चार महीने और दस रातों तक इंतज़ार करना चाहिए। जब वे अपनी निर्धारित अवधि [इद्दत] पूरी कर लें, तो वे अपने लिए जो भी ठीक समझें, चुने लें, उसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं। जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है। (234)
तुम्हारे लिए कोई गुनाह नहीं होगा, चाहे तुम इशारे-इशारे में बताओ कि इन औरतों से शादी करना चाहते हो, या बात को अपने मन में छिपाए रखो —– अल्लाह जानता है कि तुम उन्हें शादी का प्रस्ताव देना चाहते हो। उनके साथ छिपकर कोई क़रार न कर लेना; उनके साथ इज़्ज़त से बातचीत करो और जब तक निर्धारित अवधि पूरी न हो जाए, शादी के बंधन की घोषणा मत करो। याद रखो कि अल्लाह तुम्हारे मन की बात भी जानता है, अतः उससे डरते रहो। याद रहे कि अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और सहनशील है। (235)
अगर तुमने औरतों को इस हाल में तलाक़ दे दिया, जबकि शादी के बाद अभी तक तुमने उनके साथ सेक्स न किया हो, और न उनके लिए “मेहर” [bride-gift] तय की हो, तो तुम पर कोई गुनाह नहीं होगा। मगर ऐसी हालत में (उस औरत को रिश्ता जोड़ने और फिर तोड़ देने में जो नुक़सान हुआ, उसकी भरपाई के लिए) उन्हें कुछ तोहफ़ा दे दो, अमीर आदमी अपनी हैसियत के अनुसार और ग़रीब आदमी अपनी हैसियत के मुताबिक़ —– यह उन लोगों पर फ़र्ज़ है जो नेक व अच्छा काम करते हैं। (236)
अगर तुम अपनी बीवियों को सेक्स करने से पहले ही तलाक़ दे देते हो लेकिन अगर उस वक़्त “मेहर” तय हो चुकी हो, तो जो “मेहर” पहले तय हो चुकी थी, उसका आधा उन्हें दे दो, हाँ अगर वे ख़ुद से (अपना हक़) छोड़ दें तो और बात है, या वह मर्द जिसके हाथ में शादी के बंधन की डोर है, वह [पूरी मेहर देकर अपना हक़] छोड़ दे। (देखो) अगर तुम अपना हक़ छोड़ दो, तो यह बुराइयों से बचने के ज़्यादा नज़दीक है, अत: एक-दूसरे के प्रति खुले दिल से लेना-देना न भूलो: (याद रहे) जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उसे देखता है। (237)
अपनी नमाज़ों को (सही वक़्त पर और पाबंदी से) पढ़ने पर ध्यान रखो, ऐसी नमाज़ (जो बीच के वक़्त की हो, या) जो सबसे बेहतर ढंग से पढ़ी जाए, और अल्लाह के सामने पूरी भक्ति से खड़े हुआ करो। (238)
अगर तुम्हें किसी (दुश्मन का) ख़तरा हो, तो चलते-फिरते या सवारी में ही, जिस तरह बन पड़े, नमाज़ पढ़ लो; जब तुम फिर से सुरक्षित हो जाओ, तो अल्लाह को (नमाज़ों में) याद करो, जिस तरह उसने तुम्हें सिखाया है जिसे तुम जानते न थे। (239)
अगर तुममें से कोई मर जाए और अपने पीछे विधवाओं को छोड़ जाए, तो उन्हें चाहिए कि वे उन (विधवाओं) के लिए यह वसीयत [bequest] कर दिया करें: एक साल तक उन्हें खाने-कपड़े का ख़र्च दिया जाए, और उन्हें (उस अवधि में पति के) घरों से न निकाला जाए। लेकिन अगर वे (इस अवधि से पहले) ख़ुद ही घर छोड़ दें (और दूसरी शादी के लिए क़दम उठाएं), तो जो कुछ वे उचित तरीक़े से अपने लिए करना चाहें, उसके लिए तुम दोषी नहीं होगे: अल्लाह बहुत ताक़तवाला, (और हर काम में) समझ-बूझ रखनेवाला है। (240)
और (याद रहे!) तलाक़ दी हुई औरतों को भी खाने-कपड़े का ख़र्चा, जितना उचित समझा जाए, मिलना चाहिए: ऐसा करना अल्लाह का डर रखनेवालों का कर्तव्य होगा। (241)
इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें [Revelations] स्पष्ट कर देता है, ताकि तुम्हारी समझ-बूझ बढ़ सके। (242)
[ऐ रसूल!] क्या आपको उन लोगों की कहानी मालूम नहीं जो मौत की डर से अपने घर-बार छोड़कर भाग खड़े हुए थे, हालाँकि वे हज़ारों की संख्या में थे? अल्लाह ने (उनकी बुज़दिली देखते हुए) उनसे कहा, “मर जाओ!” बाद मेंं अल्लाह ने उन्हें दोबारा ज़िंदा कर दिया; अल्लाह तो लोगों पर सचमुच बड़ा फ़ज़ल [favour] करता है, मगर उनमें अधिकतर लोग शुक्र अदा नहीं करते। (243)
और (देखो!) अल्लाह के रास्ते में (अगर लड़ना पड़े, तो बिना किसी डर के) लड़ो, और याद रखो कि अल्लाह सब कुछ सुननेवाला, जाननेवाला है। (244)
कौन है जो (सच्चाई के रास्ते में ख़र्च करके) अल्लाह को ख़ुशी-खुशी क़र्ज़ दे, ताकि अल्लाह उसका क़र्ज़ कई गुना बढ़ाकर उसे चुका दे? और (अगर माल ख़र्च करने से तंगी का डर हो, तो याद रहे), अल्लाह ही तंगी देता है और वही है जो भरपूर देता है, और उसी के पास तुम सबको लौटकर जाना है। (245)
[ऐ रसूल], आप उस घटना पर विचार करें जो मूसा के बाद इसराईल की सन्तान के सरदारों के साथ घटी, जब उन्होंने अपने एक नबी से कहा, “हमारे लिए एक राजा नियुक्त कर दें और हम (उसके झंडे तले) अल्लाह के रास्ते में युद्ध करेंगे।” नबी ने कहा, “लेकिन अगर तुम्हें लड़ाई का आदेश दिया जाए, तो क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि तुम लड़ने से मना कर दो?” वे कहने लगे, “हम अल्लाह के रास्ते में आख़िर क्यों न लड़ेंगे, जबकि हम और हमारे बाल-बच्चे अपने घरों से निकाल बाहर किए गए हैं?” इसके बावजूद जब उन्हें जंग करने का हुक्म दे दिया गया, तो उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सब पीठ फेरकर चल दिए: अल्लाह हुक्म न मानने वालों की पूरी जानकारी रखता है। (246)
उनके नबी ने उनसे कहा, “अल्लाह ने तुम्हारे लिए तालूत [Saul] को राजा नियुक्त किया है,” मगर वे बोले, “उसकी बादशाही हम पर कैसे हो सकती है, जबकि उसके मुक़ाबले में हम राजा बनने के ज़्यादा हक़दार हैं, उसके पास तो ज़्यादा धन-दौलत भी नहीं है?” नबी ने कहा, “अल्लाह ने उसी को तुम्हारे ऊपर चुना है, और उसे ज़बरदस्त ज्ञान भी दिया है और शारीरिक ताक़त भी। अल्लाह जिसे चाहता है, ज़मीन की बादशाही प्रदान कर देता है: अल्लाह (की क़ुदरत) ने हर चीज़ को अपने घेरे में ले रखा है, वह सब कुछ जाननेवाला है।” (247)
उनके नबी ने उनसे कहा, “उसकी बादशाही की निशानी यह है कि (बरसों पहले खोया हुआ) एक ताबूत [Ark of the Covenant] तुम्हारे पास आ जाएगा। उसके अंदर तुम्हारे रब की तरफ़ से (तोहफ़े में) लड़ाई की घबराहट दूर करनेवाला ‘सुकून’ [Tranquility] और मूसा [Moses] व हारून [Aaron] के मानने वालों की छोड़ी हुई यादगारें होंगी, जिसको फ़रिश्ते उठाए हुए होंगे। अगर तुम पक्के ईमानवाले हो, तो इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी है।” (248)
फिर तब तालूत [Saul] अपनी सेना लेकर चला, तो उसने (अपनी सेना से) कहा, “अल्लाह एक नदी द्वारा तुम्हारी परीक्षा लेने वाला है। जो कोई इस नदी का पानी पियेगा, वह मेरा आदमी नहीं होगा, मगर जो कोई अपने आपको इसे चखने से रोक लेगा, वही मेरा आदमी होगा; हाँ अगर कोई अपने हाथ से एक चुल्लू भर ले ले (तो उसे माफ़ किया जाएगा)।” मगर ऐसा हुआ कि कुछ लोगों को छोड़कर, सभी ने (जमकर) उसका पानी पी लिया। फिर जब तालूत और ईमानवाले जो उसके साथ थे, नदी पार कर गए, तो वे कहने लगे, “आज हममें जालूत [Goliath] और उसके योद्धाओं का मुक़ाबला करने की ताक़त नहीं है।” मगर, जो लोग जानते थे कि (एक दिन) उन्हें अल्लाह से मिलना है, कहने लगे, “कितनी ही बार ऐसा हुआ है कि एक छोटी-सी टुकड़ी ने अल्लाह की अनुमति से, एक बड़ी सेना को हरा दिया है! अल्लाह तो उनके साथ होता है जो धीरज से अपना पाँव जमाए रहते हैं।” (249)
और जब उनका मुक़ाबला जालूत और उसके योद्धाओं के साथ हुआ, तो वे बोले, “ऐ हमारे रब! हम पर धीरज (धरने की ताक़त) उंडेल दे, हमारे क़दम (लड़ाई में मज़बूती से) जमा दे, और (सच्चाई से) इंकार करनेवाले लोगों के ख़िलाफ़ हमारी मदद कर,” (250)
और इस तरह, अल्लाह की अनुमति से उन्होंने जालूत की सेना को हरा दिया। दाऊद [David] ने जालूत [Goliath] को मार डाला, और अल्लाह ने उसे बादशाही और समझ-बूझ [हिकमत] प्रदान की, और जो कुछ सिखाना था, दाऊद को सिखा दिया। अगर अल्लाह एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता, तो धरती पर पूरी तरह से बिगाड़ पैदा हो जाता, मगर, अल्लाह सब के लिए बड़ा फ़ज़ल करनेवाला है। (251)
ये अल्लाह की आयतें हैं जिसे [ऐ रसूल], हम आपको सच्चाई के साथ पढ़कर सुना रहे हैं, और आप सचमुच उन लोगों में से हैं, जिन्हें हमने रसूल [Messenger] बनाकर भेजा है। (252)
इन रसूलों में से हमने कुछ पर दूसरों से ज़्यादा फ़ज़ल [favour] किया था। इनमें कुछ तो ऐसे थे जिनसे अल्लाह ने बातचीत की; कुछ के दर्जे बुलंद कर दिए; हमने मरयम के बेटे, ईसा [Jesus] को खुली निशानियाँ दीं, और पवित्र आत्मा [Holy Spirit] से उन्हें मज़बूती दी। अगर अल्लाह चाहता, तो जो लोग इन रसूलों के बाद पैदा हुए, वे स्पष्ट निशानियाँ पा लेने के बाद भी एक-दूसरे से न लड़ते। मगर (रसूलों के बाद) उनमें मतभेद हो गया: कुछ ने विश्वास कर लिया और कुछ (सच्चाई से) इंकार करने पर अड़ गए। (यहाँ सबको सोचने और फ़ैसला करने की आज़ादी दी गयी है, वरना) अगर अल्लाह चाहता, तो वे एक-दूसरे से न लड़ते, मगर अल्लाह जो चाहता है, करता है। (253)
ऐ ईमानवालो! जो कुछ (माल व दौलत) हमने तुम्हें दे रखा है, उसमें से (दूसरों पर भी) ख़र्च करो, इससे पहले कि वह दिन आ जाए जिसमें न कोई मोल-भाव होगा, न कोई दोस्ती-यारी (काम आएगी), और न कोई सिफ़ारिश हो सकेगी। (सच्चाई से) इंकार करनेवाले ही वे लोग हैं जो भारी ग़लती पर हैं। (254)
अल्लाह के सिवा कोई पूजने के लायक़ (ख़ुदा) नहीं: वह हमेशा ज़िंदा रहनेवाला, पूरी कायनात को सम्भाले रखनेवाला, (और हर चीज़ पर नज़र रखनेवाला है)। उसे न तो झपकी लगती है और न उस पर नींद हावी होती है। आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है, सब उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी इजाज़त के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ हालात उन (इंसानों) के आगे हैं और जो कुछ उनके पीछे (गुज़र चुके) हैं, वह सब जानता है, मगर वे उसके ज्ञान में से किसी चीज़ को नहीं समझ सकते, सिवाय उतने ज्ञान के जितना वह बताना चाहे। उसका तख़्त [साम्राज्य] समूचे आसमान और ज़मीन में फैला हुआ है; इन दोनों पर नज़र रखने और उसकी हिफ़ाज़त करने में उसे कोई थकान नहीं होती। वह सबसे ऊँचा और सबसे महान है। (255)
दीन [धर्म] के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है: सही व सीधा रास्ता ग़लत रास्ते से अलग होकर साफ़ और स्पष्ट हो गया है, तो अब जिस किसी ने झूठे ख़ुदाओं को ठुकरा दिया और अल्लाह पर ईमान रखा, तो उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटने वाला नहीं है। अल्लाह सब कुछ सुनने, जाननेवाला है। (256)
अल्लाह उन लोगों का साथी (और मददगार) है, जो ईमान रखते हैं: वह उन्हें अँधेरे की गहराई से बाहर निकालकर रौशनी में ले आता है। रहे वे लोग जो (सच्चाई को मानने से) इंकार करते हैं, उनके साथी व मददगार तो वे झूठे ख़ुदा हैं जो उन्हें रौशनी से निकालकर अँधेरे की गहराई में पहुँचा देते हैं। वे (जहन्नम की) आग में रहने वाले हैं, और वे हमेशा उसी में रहेंगे। (257)
[ऐ रसूल], क्या आपने उस आदमी के बारे में विचार किया है जिसने इबराहीम [Abraham] से उसके रब के बारे में झगड़ा किया था, इसलिए कि अल्लाह ने उसको हुकूमत चलाने की शक्ति दे रखी थी? जब इबराहीम ने कहा, “मेरा ‘रब’ वह है जो ज़िंदगी और मौत देता है।” तो उसने कहा, “मैं भी तो ज़िंदगी और मौत देता हूँ।” अत: इबराहीम ने कहा, “अल्लाह सूरज को पूरब से उगाता है; तो तू उसे पश्चिम से उगाकर दिखा।” (सच्चाई पर) विश्वास न करने वाला (बादशाह) इस पर भौंचक्का रह गया: अल्लाह उन्हें सीधा रास्ता नहीं दिखाता जो शैतानी (और ज़ुल्म) करते हैं। (258)
या उस आदमी की हालत पर भी विचार करें जिसका गुज़र एक ऐसी बस्ती से हुआ जिसके घरों की छतें गिरी हुई थीं। (यह हाल देखकर) उसने कहा, “अल्लाह इस वीरान पड़ी हुई बस्ती को फिर से किस तरह ज़िंदा करेगा?” अत: अल्लाह ने उसे सौ वर्ष की मौत दे दी, फिर उसे उठा खड़ा किया, और पूछा, तुम इस हालत में कितनी अवधि तक रहे।” उसने जवाब दिया, “एक दिन या एक दिन का कुछ हिस्सा।” अल्लाह ने कहा, “नहीं, बल्कि तुम सौ सालों तक इस हालत में रहे हो। तुम अपने खाने-पीने की चीज़ों को ध्यान से देखो: ये अब तक ख़राब नहीं हुए हैं। तुम अपने गधे को देखो —– (यह सब इसलिए हुआ ताकि) लोगों के लिए हम तुम्हें (सच्चाई की) एक निशानी बना दें —- उन हड्डियों को देखो: किस तरह हम उन्हें एक साथ (ढाँचे के रूप में) ले आते हैं, और फिर उन पर माँस चढ़ा देते हैं!” जब सारी बातें उसकी समझ में आ गयीं, तो वह पुकार उठा, “अब मैं जान गया हूँ कि अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त है।” (259)
और जब ऐसा हुआ कि इबराहीम ने कहा था, “ऐ मेरे रब! मुझे दिखा कि तू मुर्दों को कैसे ज़िंदा करेगा?” अल्लाह ने कहा,” तो क्या तुझे विश्वास नहीं?” इबराहीम ने कहा, “विश्वास तो है, पर चाहता हूँ कि मेरे दिल को बस ज़रा इत्मिनान हो जाए।” अत: अल्लाह ने कहा, “अच्छा, तो चार चिड़ियों को ले, फिर उन्हें अपने साथ हिला-मिला ले ताकि बुलाने पर वे तुम्हारे पास आ सकें। फिर उन्हें (ज़बह करके) अलग-अलग पहाड़ियों पर रख दे, फिर उनको बुला, और वे उड़ते हुए तेरे पास चले आएँगे: जान लो कि अल्लाह बहुत ताक़तवाला, और (अपने हर काम में) समझ-बूझ रखने वाला है।” (260)
जो लोग अल्लाह के रास्ते में अपना माल ख़र्च करते हैं, उनकी मिसाल ऐसी है जैसे अनाज के एक दाने से सात बालियाँ [ears] उग जाएं, और हर बाली में सौ-सौ दाने हों। अल्लाह जिस किसी को चाहता है, कई गुना बढ़ाकर देता है: अल्लाह के फैलाव की कोई सीमा नहीं, वह सब कुछ जाननेवाला है। (261)
जो लोग अल्लाह के रास्ते में अपना माल ख़र्च करते हैं, फिर ख़र्च करके अपने किए गए एहसान को जताते नहीं हैं, और न (लेने वाले को) अपनी बातों से दिल दुखाते हैं, तो वे अपने रब के पास इसका बदला ज़रूर पाएंगे: न तो उनके लिए कोई डर होगा, और न वे (किसी बात पर) दुखी होंगे। (262)
मुँह से एक भली बात कहना, और (दया करते हुए) ग़लतियों को माफ़ कर देना, उस दान [सदक़ा] से कहीं अच्छा है, जिसको देने के बाद (बातों से) दिल को चोट पहुँचाई जाए: अल्लाह तो आत्म-निर्भर है, बहुत सहनशील है। (263)
ऐ ईमानवालो! तुम अपने दान व ख़ैरात को एहसान जताकर और (बातों से) चोट पहुँचाकर उस आदमी की तरह बर्बाद न करो, जो लोगों को बस दिखाने के लिए अपना माल ख़र्च करता है और अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान नहीं रखता। ऐसे आदमी की मिसाल उस चट्टान जैसी है जिस पर कुछ मिट्टी की तह जमी हुई हो (जिस पर कुछ पौधे उग आते हैं): फिर जब ज़ोर की बारिश हुई (तो सब मिट्टी, पौधा बह गए और) एक साफ़ (और सख़्त) चट्टान के सिवा कुछ बाक़ी न रहा। ऐसे (दिखावा करनेवाले) लोगों को उनके (दान के) कामों के लिए कुछ भी इनाम नहीं मिलने वाला: अल्लाह (सच्चाई पर) विश्वास न करनेवालों को सीधा रास्ता नहीं दिखाता। (264)
मगर जो लोग अपने माल को अल्लाह की ख़ुशी हासिल करने और अपने विश्वास को और पक्का करने के लिए ख़र्च करते हैं, उनकी मिसाल उस बाग़़ की तरह है जो किसी ऊँची पहाड़ी पर हो: जब ज़ोर की बारिश हुई, तो उसमें दुगुने फल-फूल पैदा हो गए; अगर ज़ोरदार वर्षा नहीं भी हुई, तो हल्की फुहार ही उसे हरा-भरा करने के लिए काफ़ी होगी। (याद रहे), तुम जो कुछ भी करते हो, अल्लाह सब देख रहा है। (265)
क्या तुममें से कोई भी यह चाहेगा कि उसके पास खजूरों के पेड़ों और अंगूरों की बेलों का एक बाग़ हो, जिसके नीचे नहरें बह रही हों, और उसमें हर तरह के फल-फूल पैदा होते हों, और फिर ऐसा हो कि जब बुढ़ापा आ जाए और उसके बच्चे अभी कमज़ोर ही हों, कि अचानक उस बाग़ पर एक झुलसा देनेवाला बवंडर [whirlwind] आ जाए और बाग़ जलकर वीरान हो जाए? अल्लाह ऐसी ही मिसालों के द्वारा तुम्हारे सामने (सच्चाई की) निशानियों को स्पष्ट करता है, ताकि तुम उन पर सोच-विचार करो। (266)
ऐ ईमानवालो! जो कुछ तुमने कमायी की हो और जो कुछ हमने ज़मीन से तुम्हारे लिए पैदा किया है, उनमें से अच्छी चीज़ें दान में दिया करो। (अल्लाह के रास्ते में) ख़राब चीज़ें मत दान किया करो जो ख़ुद तुम्हें (इतनी नापसंद हों) कि उन चीज़ों को तभी ले सकते हो जब तुमने (जान-बूझकर) आँखें बंद कर ली हों: याद रखो कि अल्लाह आत्म-निर्भर है, सारी तारीफ़ों के लायक़ है। (267)
शैतान तुम्हें ग़रीबी से डराता है और बुरे (व गंदे) काम करने पर उभारता है; जबकि अल्लाह तुम्हें ऐसे रास्ते की तरफ़ बुलाता है जिसमें उसकी माफ़ी और उसके फ़ज़ल [bounty] करने का वादा है: (देने में) अल्लाह की कोई सीमा नहीं है, और वह सब कुछ जाननेवाला है, (268)
और वह जिसे चाहता है, ‘गहरी समझ-बूझ’ [हिकमत] दे देता है। और जिस किसी को ‘गहरी समझ-बूझ’ मिल गयी, तो उसे सचमुच बड़ी भलाई की चीज़ मिल गई, मगर नसीहत तो केवल वही लोग लेते हैं जो समझ-बूझ से काम लेते हैं। (269)
और (देखो!) दान के लिए तुम जो कुछ भी दो, या मन्नत के रूप में जो ख़र्च करो, अल्लाह उसे अच्छी तरह जानता है, और जो लोग (दिखावे का) ग़लत काम करते हैं, उन्हें मदद करने वाला कोई न होगा। (270)
अगर तुम सबके सामने दान देते हो, तो यह अच्छी बात है, लेकिन तुम अगर इसे गुप्त रखते हुए किसी ज़रूरतमंद को अकेले में दो, तो यह अधिक अच्छा होगा, और यह तुम्हारे कुछ गुनाहों को मिटा देगा: (याद रखो!) जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह को उसकी पूरी ख़बर है। (271)
[ऐ रसूल], इन (इंकार करनेवालों) को सीधे मार्ग पर लाने की ज़िम्मेदारी आप पर नहीं है; यह काम अल्लाह का है, वह जिसे चाहता है सही मार्ग पर लगा देता है। जो कुछ भी दान में तुम दोगे, वह तुम्हारे अपने ही भले के लिए होगा, बशर्ते कि तुम इस काम को अल्लाह की ख़ुशी के लिए करो: (दान में) जो कुछ भी तुम दोगे, तो (अल्लाह का क़ानून यह है कि) उसका बदला पूरा-पूरा तुम्हें चुका दिया जाएगा, और तुम्हारा हक़ नहीं मारा जाएगा। (272)
उन ज़रूरतमंदों को ख़ास करके दान दो जिन्होंने अपने आपको पूरी तरह से अल्लाह के रास्ते में लगा दिया है, और वे शहरों में (व्यापार के लिए) एक जगह से दूसरी जगह दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनके स्वाभिमान के कारण अनजान लोग उन्हें मालदार समझते हैं, मगर तुम उन्हें उनके चेहरे के लक्षणों से पहचान सकते हो, वे पीछे पड़-पड़कर लोगों से नहीं माँगते। (याद रखो!) तुम नेकी के रास्ते में जो कुछ भी ख़र्च करोगे, अल्लाह को उसकी पूरी ख़बर होगी। (273)
जो लोग अपने माल में से दान देते हैं, रात में भी और दिन में भी, ढके-छिपे भी और सबके सामने भी, तो इसका इनाम उन्हें उनके रब के पास ज़रूर मिलेगा: न तो उन्हें किसी (यातना का) डर होगा और न वे दुखी होंगे। (274)
मगर जो लोग (क़र्ज़ देकर) ब्याज [usury] लेते हैं, वे क़यामत के दिन इस तरह उठेंगे जैसे (मिर्गी का रोगी हो, या) किसी को शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो, और यह इसलिए होगा कि वे कहते हैं, “व्यापार [Trade] और ब्याज दोनों एक ही चीज़ है,” मगर अल्लाह ने व्यापार को वैध और ब्याज लेने को अवैध [forbidden] ठहराया है। अतः अल्लाह की तरफ़ से चेतावनी मिलने के बाद, जो कोई ब्याज लेने से रुक गया, तो जो कुछ उसने (ब्याज से) पहले कमाया था, वह उसे रख सकता है ——अल्लाह ही उसका फ़ैसला करेगा —- मगर जिस किसी ने फिर से ब्याज लेना शुरू किया, तो ऐसे ही लोग (जहन्नम की) आग में पड़ने वाले हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे। (275)
अल्लाह ब्याज को मिटाता है, मगर दान के कामों को (अपने फ़ज़ल से कई गुना) बढ़ाता है: ऐसे लोग जो (अल्लाह की नेमतों का) शुक्र अदा नहीं करते और गुनाहों में लगे रहते हैं, उन्हें अल्लाह पसन्द नहीं करता। (276)
जो लोग (अल्लाह पर) ईमान रखते हैं, अच्छे काम करते हैं, पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं, और निर्धारित ज़कात देते हैं, तो उन्हें उनके रब के पास ज़रूर इसका इनाम मिलेगा: न तो उनके लिए किसी तरह का डर होगा, न वे दुखी होंगे। (277)
ऐ ईमानवालो! अल्लाह से डरो: अगर तुम सच्चे ईमानवाले हो, तो जो कुछ ब्याज वसूल करना बाक़ी रह गया है, उसे छोड़ दो। (278)
अगर तुमने ऐसा न किया, तो अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। अगर तुम (ब्याज से) तौबा कर लो, तो (ब्याज छोड़कर) अपना मूलधन [Principal] लेने का तुम्हें हक़ है, न तुम्हें कोई घाटा उठाना पड़े और न तुम दूसरों को घाटे में पड़ने पर मजबूर करो। (279)
अगर क़र्ज़दार तंगी की हालत में है, तो उसकी (आर्थिक) हालत ठीक होने तक उसे मुहलत देनी चाहिए; इसके बावजूद, अगर तुम समझ रखते हो, तो तुम्हारे लिए बेहतर तो यह होगा कि दान-पुण्य का काम समझकर, (ऐसी तंगी में डूबे हुए आदमी का) पूरा क़र्ज़ माफ़ कर दो। (280)
डरो उस दिन से जिस दिन तुम सब लौटकर अल्लाह के सामने हाज़िर होगे: फिर हर एक आदमी ने (अपने कर्मों से) जो कुछ कमाया होगा, उसका बदला पूरा-पूरा उसे मिल जाएगा, और किसी के साथ भी कोई अन्याय नहीं होगा। (281)
ऐ ईमानवालो! तुम जब किसी निश्चित अवधि के लिए आपस में क़र्ज़ के लेन-देन का क़रार [Contract] करो, तो उसे लिख लिया करो: तुम्हारे बीच एक लिखनेवाला [Scribe] हो जो ईमानदारी से दस्तावेज़ लिख दे। किसी लिखनेवाले को लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए: उसे लिख देना चाहिए जैसा कि अल्लाह ने उसे सिखाया है। जिस पर क़र्ज़ अदा करने का भार है [यानी क़र्ज़दार], वह बोल-बोलकर लिखाए [dictation], और उसे अपने रब, अल्लाह का डर रखना चाहिए, और उस (क़र्ज़ की राशि) को कम करके नहीं बताना चाहिए। अगर क़र्ज़दार मंद बुद्धि हो, कमज़ोर हो या वह बोलकर न लिखा सकता हो, तो ऐसी हालत में उसके अभिभावक [Guardian] को चाहिए कि वह ईमानदारी से बोलकर लिखा दे। (अब दस्तावेज़ पर) अपने आदमियों में से दो को गवाह बना लो, अगर वहाँ दो आदमी न हों, तो जिन्हें तुम गवाह बनाना पसंद करो, उनमें से एक मर्द और दो औरतों को गवाह बना लो, (दो औरतें इसलिए) ताकि दोनों में से एक अगर भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। गवाहों को जब बुलाया जाए, तो उन्हें आने से इंकार नहीं करना चाहिए। क़र्ज़ के मामले को लिख लिया करो और साथ में क़र्ज़ की निर्धारित अवधि भी, और लिखने में सुस्ती न करो, चाहे मामला छोटा हो या बड़ा: यह तरीक़ा अल्लाह की नज़र में ज़्यादा न्यायसंगत, गवाही में अधिक भरोसेमंद, और इसमें तुम्हारे बीच पैदा होने वाले संदेह को रोकने की अधिक संभावना है। लेकिन अगर कोई सामान बिक्री करने का हो और उसका लेन-देन तुम नक़द में हाथों-हाथ करते हो, तो तुम पर कोई दोष न होगा, अगर तुम इसकी लिखा-पढ़ी नहीं करते। जब कभी तुम एक-दूसरे के साथ कारोबार करो, तो गवाहों को वहाँ ज़रूर रखा करो। और (देखो!), चाहे लिखनेवाला हो या गवाह हो, उसे किसी क़िस्म का नुक़सान न पहुँचाया जाए, क्योंकि अगर तुमने किसी एक को भी कोई नुक़सान पहुँचाया, तो तुम्हारी तरफ़ से यह एक अपराध होगा। अल्लाह का डर रखो, और वह तुम्हें सिखाएगा: अल्लाह को हर चीज़ की पूरी जानकारी है। (282)
अगर तुम सफ़र में हो, और कोई लिखनेवाला न मिल पाए, तो ज़मानत [security] के रूप में कोई चीज़ गिरवी रख देना चाहिए। लेकिन अगर तुम एक-दूसरे पर भरोसा करने का फ़ैसला करो, तो फिर जिस पर भरोसा किया गया है उसे चाहिए कि वह उस भरोसे को बनाए रखे; उसे अपने रब, अल्लाह का डर रखना चाहिए। और (देखो!) गवाही को न छिपाओ: जो कोई ऐसा करता है, उसका दिल गुनाहगार है, और (याद रखो!) तुम जो कुछ भी करते हो, अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है। (283)
जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, सब अल्लाह का है और, चाहे तुम अपने मन की बातें सबके सामने ज़ाहिर करो या छिपाकर रखो, अल्लाह तुमसे उनका हिसाब ज़रूर लेगा। फिर वह जिसे चाहे माफ़ कर देगा और जिसे चाहे सज़ा देगा: अल्लाह को हर चीज़ करने की ताक़त है। (284)
जो कुछ रसूल [मुहम्मद सल्ल.] पर उनके रब की तरफ़ से उतारा गया, वह उस पर ईमान रखते हैं, और वैसे ही सारे मुसलमान भी (उस पर ईमान रखते हैं)। वे सब अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर, और उसके रसूलों पर ईमान रखते हैं। वे कहते हैं, “हम उसके रसूलों के बीच आपस में कोई फ़र्क़ नहीं करते” (कि किसी एक को मानें और दूसरे को न मानें), वे कहते हैं, “हमने सुना और हमने आज्ञा मान ली। हमारे रब! तू अपनी तरफ़ से हमें माफ़ी दे दे। तेरे ही पास हम सबको लौटकर आना है!” —– (285)
अल्लाह किसी जान पर (ज़िम्मेदारी का) उतना ही बोझ डालता है, जितना बोझ उठाने की उसमें ताक़त होती है: हर एक ने जो कुछ भी भलाई की होगी उसका फ़ायदा उसी को होगा, और जो कुछ बुराई की होगी उसकी यातना भी उसी को झेलनी होगी —- [तुम्हारी दुआ यह होनी चाहिए] “हमारे रब! अगर हम कुछ भूल जाएं या हमसे ग़लती हो जाए, तो हमारी पकड़ न कीजियो। ऐ रब! हम पर ऐसा बोझ न डाल जैसा तूने हमसे पहले के लोगों पर डाला था। हमारे रब! हम पर उतना बोझ न डाल, जिसको उठाने की हममें ताक़त न हो। हमारी ग़लतियों पर ध्यान न दे, हमें माफ़ कर, और हम पर दया कर। तू ही हमारी रक्षा करनेवाला है, अत: विश्वास न करनेवालों के ख़िलाफ़ हमारी मदद कर।” (286)
नोट:
1: यह अरबी के तीन अक्षरों के नाम हैं: अलिफ़, लाम, मीम. सब मिलाकर क़ुरआन की उन्तीस (29) सूरह ऐसी हैं जो ऐसे अलग-अलग पढ़े जाने वाले अक्षरों [हुरूफ़ ए मुक़त्तेआत] से शुरू हुई हैं, उनमें एक अक्षर से लेकर पाँच अक्षर तक इस्तेमाल हुए हैं जिन्हें अलग-अलग पढ़ा जाता है। विद्वानों ने इन अक्षरों के बहुत से मतलब निकाले हैं, मगर साथ में यह भी लिखा है कि इसका सही मतलब अल्लाह ही को मालूम है, उनमें से यहाँ दो दिए जा रहे हैं:
(i) अरब के लोग जिन्होंने यह क़ुरआन सबसे पहले सुनी थी, उन्हें इन अक्षरों से शायद यह बताया गया कि क़ुरआन में जो अक्षर और शब्द इस्तेमाल हुए हैं, वे उनकी अपनी भाषा यानी अरबी के हैं, हालाँकि ये उनकी भाषा में लिखे गए किसी भी कलाम से बहुत ऊँचे दर्जे का था क्योंकि ये अल्लाह का कलाम है।
(ii) इन अक्षरों से शायद हैरत या आश्चर्य प्रकट होता था, जिसे शुरू में कहने से सुननेवाले का ध्यान आकर्षित हो जाता था। कुछ इसी तरह का प्रयोग उस ज़माने की अरबी कविताओं में भी होता था जिनमें शुरू में ही “नहीं! या “यक़ीनन” कहकर बात आगे बढ़ायी जाती थी।
2: “ला रैबा फ़ीहि” का एक मतलब तो यह है कि इस किताब में ऐसी कोई चीज़ नहीं है जिस पर शक या संदेह किया जाए, या यह भी मतलब हो सकता है कि इस किताब (की सच्चाई) पर शक नहीं किया जा सकता है, चाहे बात इसके लिखने वाले की हो या इसकी विषयवस्तु [content] की या consistency की हो।
“तक़वा” का अनुवाद ‘अल्लाह से डरते हुए बुराइयों से बचना’ किया गया है। असल में “तक़वा” का मतलब हर समय अल्लाह का खटका लगा रहना, या अपने आपको हर तरह की बुराइयों से बचाना होता है।
3: नज़र से ओझल चीज़ [ग़ैब] जो आदमी के अनुभूति [perception] से परे है, यानी उसे छूकर, देखकर या सूंघकर नहीं महसूस किया जा सकता है, जो एक दूसरी ही दुनिया की चीज़ें हैं, जैसे अल्लाह, आख़िरत, जन्नत, जहन्नम इत्यादि। ऐसी चीज़ों को केवल अल्लाह ही जानता है, सिवाय इसके कि जितना वह अपने रसूलों/नबियों को “वही” द्वारा बताना चाहे (जैसे देखें 2:33, 3:179, 6:59,73; 19:78; 72: 26-27)
4: एक ईमानवाले के लिए ज़रूरी है कि वह क़ुरआन के साथ-साथ मुहम्मद (सल्ल) से पहले आए नबियों पर उतारी गयी किताबों जैसे तोरात, इंजील, ज़बूर आदि पर भी विश्वास रखे कि वे भी अल्लाह की तरफ़ से भेजे गए संदेश थे।
आनेवाली ज़िंदगी [आख़िरत] से मतलब “आख़िरी” या अंत” है, यानी क़यामत के बाद की ज़िंदगी है जो हमेशा के लिए होगी और उसमें हर आदमी को अपने कर्मों का हिसाब देना होगा, उसी बुनियाद पर आदमी को जन्नत की ख़ुशियाँ मिलेंगी या जहन्नम की मुसीबत झेलनी होगी (जैसे देखें 7:38-51; 41:19-24; 55:33-78; 56:11-44; 69:19-36; 76:4-22; 83:15-22)
6: यहाँ ऐसे लोगों का ज़िक्र है जिन्होंने तय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए, उन्हें मुहम्मद (सल्ल) द्वारा लाए हुए संदेश को न सुनना है, न मानना है। अब ऐसे आदमियों को बुरे काम के नतीजे से सावधान किया जाए या न किया जाए, वे सच्चाई पर विश्वास नहीं करने वाले।
7: अगर कोई आदमी किसी कारण से कोई गुनाह कर बैठे और फिर अपने किये पर शर्मिंदा हो, तो उसमें सुधार के उम्मीद की जा सकती है, मगर कोई आदमी अगर ग़लती पर अड़ जाए, और यह ठान ले कि सही बात माननी ही नहीं है, तो फिर उसकी ज़िद्द का आख़िरी नतीजा यह होता है कि अल्लाह उसके दिल को बंद करके उस पर ठप्पा लगा देता है जिसके बाद सच्चाई को क़बूल करने की उस आदमी की सलाहियत ख़त्म हो जाती है।
“अज़ाब” यानी ऐसी चीज़ जो बड़ी दर्दनाक हो, यातना, सज़ा आदि, यह शब्द क़ुरआन में 300 से भी ज़्यादा बार आया है।
8: यहाँ से मदीना में रहने वाले एक तीसरे समूह का ज़िक्र है जिन्हें पाखंडी [मुनाफ़िक़/Hypocrite] कह सकते हैं जो ऊपर से तो यह कहता था कि वह मुहम्मद (सल्ल) की शिक्षाओं पर विश्वास रखता है, पर असल में वह इस पर ईमान नहीं रखता था।
10: उन लोगों ने अपनी मर्ज़ी से पाखंड का रास्ता चुना और उस पर अड़े रहे, और इसी के चलते अल्लाह ने उन्हें भटकता छोड़ दिया।
11: जब मदीना के पाखंडियों की इस बात पर आलोचना होती कि उनके संबंध मक्का के बुतपरस्तों से बहुत मधुर हैं, जबकि वे मुसलमानों के दुश्मन हैं, तो वे कहते कि हम मुसलमानों और उनके दुश्मनों के बीच सुलह कराने की कोशिश कर रहे हैं।
14: यहाँ “अपने शैतानों” का मतलब उनके जो पेशवा और लीडर थे जो उनको गलत रास्ते पर चलने की सलाह देते थे।
17: जब इस्लाम की शिक्षाएं सामने लायी गईं तो एक तरह से पूरे माहौल में रौशनी हो गई और सारी सच्चाइयाँ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगी, मगर केवल अपनी ज़िद्द और हठधर्मी के चलते कुछ पाखंडियों ने उन सच्चाइयों को मानने से इंकार कर दिया और उस पर अड़े रहे। तो फिर अल्लाह ने भी उनकी समझ-बूझ में अंधेरा लिख दिया और उन्हें अंधेरे में भटकने के लिए छोड़ दिया।
19: यहाँ वैसे पाखंडियों की मिसाल दी गई है जो अपने विश्वास में पक्के नहीं थे। जब इस्लाम की सच्चाई की दलीलें सामने आयीं और जन्नत के वादे किए गए, तो उनका झुकाव इस्लाम की ओर हो गया और वे उसकी तरफ़ क़दम बढ़ाने लगे, मगर फिर उसके साथ जब उसके आदेशों को मानने की ज़िम्मेदारियाँ आयीं, तो फिर अपनी ख़ुदग़र्ज़ी के चलते उन कर्मों से अपने आपको रोक नहीं पाए जिन्हें करने से रोका गया था। इस तरह कभी जब बिजली कड़कती और रौशनी होती, तो वह उससे फ़ायदे की लालच में थोड़ा चल लेते, मगर जब अल्लाह के आदेश मानने की बात आती, तो उन पर अपनी इच्छाओं का अंधेरा छा जाता, और वहीं क़दम रोककर खड़े रह जाते।
22: आयत 21-22 में इस्लाम की बुनियादी सिद्धांत “तौहीद” के बारे में बताया गया है, यानी इबादत के लिए केवल एक अल्लाह को मानना। अरब के लोग भी यह मानते थे कि सारी कायनात अल्लाह की पैदा की हुई है, मगर इसके साथ वे यह भी मानते थे कि अल्लाह ने अपने बहुत से काम छोटे-छोटे देवी-देवताओं को सौंप रखे हैं जो अपने कामों में ख़ुद से फ़ैसले कर सकते हैं। अत: उन लोगों ने इन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बना रखी थीं और अपनी ज़रूरतों के लिए उनके सामने हाथ फैलाते थे। अल्लाह ने कहा है कि जब सारी चीज़ें मेरी बनायी हुई हैं, तो इबादत केवल मेरी ही होनी चाहिए।
23: इस आयत में इस्लाम की एक और बुनियादी मान्यता ‘रिसालत” के बारे में कहा गया है, यानी यह कि मुहम्मद (सल्ल) अल्लाह के रसूल हैं जिन पर अल्लाह की तरफ़ से संदेश [क़ुरआन] आता है। जब अरब के लोगों ने क़ुरआन की सच्चाई को मानने से इंकार किया, तो उन्हें यह चुनौती दी गई कि अगर यह एक आदमी का गढ़ा हुआ कलाम है, तो वे लोग जो अरबी भाषा में माहिर हैं, ऐसी एक सूरह ही लिखकर दिखाएं, और इसके लिए अपने सभी मददगारों (मूर्तियों या अपने नेताओं) की भी सहायता ले लें। ऐसी चुनौती क़ुरआन में कई जगह आयी है, देखें 10:38; 11:13; 28:49; 52:34.
24: ‘आग’ जहन्नम/दोज़ख़ के कई उपनामों में से है। “पत्थर” को आग का ईंधन कहने से मतलब शायद ‘पत्थर की मूर्तियाँ’ हैं। देखें 66:6
25: इस दुनिया के बाद आने वाली ज़िंदगी [आख़िरत] में मिलने वाले इनाम के बारे में यहाँ बताया गया है।
जन्नत में लोगों को हर बार खाने के लिए इतना मज़ेदार फल मिलेगा कि जब कभी फिर से उन्हें वह दिया जाएगा तो वे उस पसंदीदा फल को देखकर बहुत ख़ुश हो जाएंगे। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि जब वहाँ उन्हें फल दिए जायेंगे तो वह देखने में दुनिया के फल जैसे ही जाने-पहचाने होंगे, मगर मज़े में बहुत ज़्यादा अच्छे होंगे। ….. जन्नत में रहने वालों को हर तरह की —- शारीरिक गंदगियों जैसे बीमारी, पिशाब-पाख़ाना, मासिक-घर्म आदि से या आध्यात्मिक गंदगियाँ जैसे नफ़रत, ईर्ष्या आदि से मुक्ति मिल जाएगी।
26: यह आयत उन लोगों के जवाब में है जिन्होंने इस बात पर आपत्ति की थी कि ऐसी तुच्छ चीज़ों की मिसाल देना अल्लाह के लिए उचित नहीं है।
27: ज़्यादातर विद्वानों ने इंसानों द्वारा अल्लाह के सामने प्रतिज्ञा लिए जाने को उस प्रतिज्ञा से जोड़ा है जिसका उल्लेख सूरह अ’राफ़ (7: 172) में आया है, जब अल्लाह ने इंसानों को पैदा करने से बहुत पहले उनकी रूहों को जमा करके उनसे अपने आदेशों को मानने का वचन लिया था। दुनिया में समय-समय पर आकर नबियों ने भी इंसानों को उस प्रतिज्ञा को न तोड़ने की बात याद दिलायी थी। एक और बात यह है कि हर इंसान पैदा होते ही ख़ुद ही अपने पैदा करने वाले के साथ एक प्रतिज्ञा से बंध जाता है कि वह उसके आदेश के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारेगा। कुछ लोगों ने इसका मतलब इसराईल की संतानों द्वारा ली गई उस प्रतिज्ञा से लिया है जिसका ज़िक्र नीचे 2:40-48 में है।
यहाँ अपने रिश्तेदारों से रिश्ता जोड़कर रखने की बात भी कही गई है, ताकि उनका जो हक़ है वह अदा हो जाए।
30: इंसान को पहली बार पैदा किए जाने का क़िस्सा कई बार आया है, (देखें 7:10-25; 15:28-48; 20:115-123).
इंसान को “ख़लीफ़ा” बनाने का कई मतलब हो सकता है, एक तो यह कि वह ज़मीन पर अल्लाह का प्रतिनिधि [Deputy] होगा, मगर इसका बुनियादी मतलब उतराधिकारी है, या उसे अस्थायी सरपरस्त [Trustee] भी कहा जा सकता है। विद्वानों का कहना है कि इंसानों से पहले जिन्नों को पैदा किया जा चुका था जो आपस में ख़ून-ख़राबा करते रहते थे, इसलिए फ़रिश्तों ने इंसानों के बारे में भी ऐसा सोचा था।
अल्लाह जानता था कि बहुत सारे लोग होंगे जो भलाई का काम करेंगे, शांति फैलाएंगे और इंसाफ़ के लिए खड़े होंगे। चूँकि इंसानों को अच्छा-बुरा रास्ता चुनने की आज़ादी है, इसलिए जो कोई सच्चाई पर विश्वस करते हुए अच्छे कामों में लगा रहेगा, वह अल्लाह की नज़र में दूसरे सभी जीवों से बेहतर होगा, और जो कोई विश्वास नहीं करेगा और बुरे कामों में लगा रहेगा, वह सभी जीवों से बुरा होगा। देखें 98: 6-8.
31: नाम सिखाने का मतलब अल्लाह ने आदम को प्रकृति में फैली हुई सारी चीज़ों के नाम और उनकी विशेषताएं सिखा दीं।
34: इबलीस ही शैतान के नाम से भी जाना जाता है। फ़रिश्तों के साथ वह भी शामिल था, मगर वह जिन्नों में से था (18:50), जिन्न भी इंसानों की तरह अल्लाह की पैदा की हुई जाति है जो फ़रिश्तों से इस मामले में अलग है कि वह अपनी मर्ज़ी से अच्छा-बुरा काम करने के लिए आज़ाद है, उसे अल्लाह ने बिना धुएं की आग से बनाया है, जो इंसानों को नहीं दिखायी देते। आदम को सज्दा करने का हुक्म उसके लिए असल में एक परीक्षा थी कि वह हुक्म मानता है कि नहीं। उसने घमंड में आदम के आगे सज्दा करने से इंकार कर दिया, क्योंकि वह अपने को आदम से बेहतर मानता था, देखें 7: 12;
यहाँ सज्दे से मतलब बंदगी करना नहीं है बल्कि इज़्ज़त देने का तरीक़ा है, जैसे यूसुफ़ (अलै) के सामने याक़ूब (अलै), उनकी बीवी और उनके 11 बच्चों ने सज्दा किया था (सूरह 12).
36: शैतान ने आदम और उनकी बीवी को बहकाकर उस पेड़ का फल खाने के लिए तैयार कर लिया जिसे खाने के लिए अल्लाह ने मना किया था, उसने बात यह बनायी कि इसे खाने से आप फ़रिश्तों की तरह हमेशा ज़िंदा रहेंगे। इसका ज़िक्र थोड़े विस्तार से सूरह अ’राफ़ (7: 19-23) और सूरह ताहा (20: 120) में भी आया है। यह गुनाह दोनों से ही हुआ था, और इस्लाम में ईसाई धर्म की तरह “Original sin” की परिकल्पना नहीं है।
37: आदम (अलै) को अपनी ग़लतियों के लिए तौबा करने की दुआ भी अल्लाह ने ही सिखायी थी, दुआ के शब्द सूरह अ’राफ़ (7: 23) में आये हैं।
40: “याक़ूब [Jacob] (अलै) का एक नाम “इसराईल” भी है। यहाँ मदीना के यहूदियों को याद दिलाया जा रहा है कि अल्लाह ने उन पर कैसी-कैसी नेमतें की थीं जिनका बयान आयत 49-50 में और उसके आगे की आयतों में दिया गया है। उन नेमतों के बदले उन्हें अल्लाह का शुक्र अदा करना चाहिए और तौरात के आदेशों को सही तरीक़े से मानने की प्रतिज्ञा पूरी करनी चाहिए, मगर एक तरफ़ उन लोगों ने तोरात व इंजील में अपनी मर्ज़ी से फेर-बदल किया और दूसरी तरफ़ आख़िरी नबी के आने की ख़बर को छिपाते हुए क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल) को मानने से इंकार कर दिया। शायद उन्हें डर था कि अगर क़ुरआन पर विश्वास कर लिया तो उनकी क़ौम के लोग ही उन पर भड़क जाएंगे, सो वे उनसे तो डर गए मगर अल्लाह से नहीं डरते।
41: यहूदियों से कहा गया है कि जो आसमानी किताबें यानी तौरात और इंजील [Torah & Gospel] उनके पास पहले से थीं, उनमें भी एक अल्लाह की इबादत करने को कहा गया है, क़ुरआन उन बातों की सच्चाई की पुष्टि करती है कि ये किताबें भी अल्लाह ने ही उतारी थीं, भले ही इनमें कुछ फेर-बदल कर दिया गया है, और साथ में आख़िरी नबी के आने की जो ख़बर इनमें दी गई थी उसे भी क़ुरआन ने सच्चा कर दिखाया है, इसलिए उन्हें क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल) की सच्चाई पर सबसे पहले विश्वास करना चाहिए था।
दुनिया के मामूली फ़ायदे के लिए अल्लाह की आयतों का सौदा कर लेने के बारे में क़ुरआन मेंं बार-बार ज़िक्र है, ख़ासकर पहली कुछ सूरतों में। यहाँ मदीना के कुछ यहूदी धर्म-गुरुओं के यहाँ चली आ रही परम्परा के अनुसार वे लोग धन के बदले में लोगों को ख़ुश करने के लिए तौरात के कुछ कड़े नियमों की जगह पर हल्के-फुल्के नियमों का पालन करने का मशविरा दे देते थे।
43: “ज़कात”: यह एक टैक्स है जो ऐसे मुसलमान मर्द/औरत पर लगता है जिसकी बचत की रक़म 85 ग्राम सोने या 595 ग्राम चाँदी के मूल्य के बराबर या ज़्यादा हो, और बचत की वह रक़म पूरे एक इस्लामी साल (क़रीब 355 दिन) तक उसके पास मौजूद [untouched] हो, अगर यह शर्त पूरी होती हो, तो बचत के ऊपर 2.5% ज़कात देना होगा।
48: “सिफ़ारिश”: फ़ैसले के दिन किसी के द्वारा किसी दूसरे आदमी के हक़ में माफ़ी के लिए अल्लाह से वकालत करने को कहते हैं।
49: फ़िरऔन मिस्र का बादशाह था जहाँ इसराईल की संतानें बड़ी संख्या में आबाद थीं, मगर वहाँ वे ग़ुलामी के दिन गुज़ार रही थी। फिर एक भविष्यवक्ता ने फ़िरऔन के सामने बताया कि इस साल इसराइलियों में एक बच्चा पैदा होगा जो फ़िरऔन की बादशाहत ख़त्म कर देगा। यह सुनकर उसने हुक्म दे दिया कि इसराइलियों के यहाँ जो भी लड़का पैदा हो, उसे मार दिया जाए, मगर लड़कियों को छोड़ दिया जाए ताकि उनसे दासियों के काम लिए जा सकें। देखें 20:36
51: अल्लाह ने मूसा (अलै) को तूर पहाड़ पर चालीस रातों की गहन इबादत के लिए बुलाया था ताकि उन्हें तोरात दी जा सके। इधर वह तूर पर गए और पीछे उनकी अनुपस्थिति में सामरी ने ज़ेवरों को गलाकर एक बछड़ा बना लिया और इसराईल की संतानों को उसकी पूजा करने के लिए तैयार कर लिया था। इस घटना का वर्णन थोड़े विस्तार से सूरह अ’राफ़ (7: 148-153) और सूरह ताहा (20: 83-97) में आया है।
57: इसराईल की संतानों ने जब अल्लाह के हुक्म को न मानते हुए “अमालक़ा” की क़ौम से युद्ध करने से इंकार कर दिया, तो इसके नतीजे में उन्हें सीना [Sinai] के रेगिस्तान में चालीस साल तक गर्मी और भूख के मारे भटकते रहना पड़ा, फिर अल्लाह ने उन पर मेहरबानी की, बादल से उन पर छाया की, और खाने के लिए “मन्ना” (एक मीठी रोटी या मीठे बर्फ़ जैसी चीज़ जो पत्तियों पर ओस की तरह गिरती थी) और “सलवा” (मुर्ग़े जैसी चिड़ियों/ बटेर का भुना गोश्त) उतारा।
58: शहर का नाम नहीं बताया गया है, शायद “येरुशलम” की बात हो। इसका ज़िक्र 7:161 में भी है।
60: यह घटना भी उसी समय की है जब वे सीना के रेगिस्तान में मारे फिर रहे थे। हज़रत याक़ूब (इसराईल) अलै. के बारह बेटे थे जो आगे चलकर बारह क़बीले में बँट गए थे। अत: सभी क़बीले के लिए एक-एक पानी का सोता था! (7:160)
61: इसराईल की संतानों के बारे में यह बात कई जगह आयी है कि वे बेवजह नबियों का क़त्ल कर देते थे, (देखें 2:87,91; 3:21,112, 181, 183; 4:155; 5:70). यही इल्ज़ाम New Testament (Luke 11:39-52; 13:34-35) में भी देखा जा सकता है।
62: “साबी” [Sabians] के बारे में बताया जाता है कि ये लोग “एक सर्वशक्तिमान ख़ुदा को मानने वाले” [Monotheistic community] थे जो ज़्यादातर दक्षिणी इराक़ के मूल निवासी थे, ज़बूर [Psalms] पर विश्वास रखते थे और ख़ुद को नूह अलै. का वंशज मानते थे। यह भी कहा जाता है कि वे हज़रत यह्या [John, the Baptist] को अपना मसीहा मानते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार वे अरब में तारों की पूजा करने वाले लोग थे।
63: मूसा (अलै) को अल्लाह ने तौरात दी और यह हुक्म दिया कि उनकी क़ौम के लोगों को इसमें दिए गए आदेशों को मानना चाहिए। मगर हुआ यूँ कि लोग हल्के आदेशों को तो मान लेते मगर जो कड़े आदेश होते, उनको मानने में आना-कानी करते। फिर अल्लाह ने तूर पहाड़ को उनके ऊपर करके उनसे इन आदेशों को मानने का वचन लिया था। (देखें 2:93; 4:154; 7:171)
65: शनिवार [Saturday] को अरबी और सीरियाई भाषा में “सब्त” [Sabbath] कहा जाता है। यहूदियों के लिए यह एक पवित्र दिन होता था जिस दिन पैसा कमाने के लिए कारोबार करना मना था। जिन यहूदियों का यहाँ उल्लेख है, वे शायद दाऊद (अलै) के ज़माने में समंदर के किनारे रहते थे, और मछलियाँ पकड़ा करते थे। शनिवार के दिन मछली पकड़ना उनके लिए वैध नहीं था। शुरू में तो उन लोगों ने कुछ न कुछ बहाने से मछलियाँ पकड़नी शुरू की, फिर बाद में खुलकर अल्लाह के आदेशों को न मानते हुए उन लोगों ने शनिवार के दिन मछ्लियाँ पकड़नी शुरू कर दीं। कुछ अच्छे लोगों ने समझाया भी, मगर वे न माने। फिर अल्लाह की यातना आ पहुँची, और उन लोगों को बंदर (या बंदर जैसा) बना दिया गया। देखें (7:163-166).
क़ुरआन में एक जगह है कि ऐसे लोग जो अल्लाह का हुक्म नहीं मानते, उनमें से कुछ लोगों को अल्लाह ने बंदर और सुअर बना दिया (5:60)। कुछ लोग मानते हैं कि उन्हें सचमुच का बंदर बना दिया गया था, जबकि कुछ विद्वान कहते हैं कि असल में यह बात कहने का तरीक़ा है, जैसे 17: 50 में कहा गया है, “तुम पत्थर या लोहा बन जाओ” या जैसे विश्वास न करने वालों को “अंधा, बहरा और गूंगा (2:18)” कहा गया है, उसी तरह यहाँ नियम तोड़नेवालों को बंदर कहा गया है।
71: इस घटना से यह शिक्षा दी गई है कि बिना कारण ऐसे काम की खोज-पड़ताल में नहीं लगना चाहिए जो ज़रूरी न हो, बल्कि जो बात सीधी-सरल हो, उसे सादगी से ही कर लेना चाहिए।
73: इस सूरह का नाम शायद इसी गाय की कहानी पर पड़ा है। बताया जाता है कि मूसा (अलै) के ज़माने में एक आदमी ने संपत्ति के बंटवारे के मामले में अपने भाई या चाचा को क़त्ल करके उसकी लाश को किसी बेगुनाह आदमी के दरवाज़े पर रख दिया। फिर ख़ुद ही मूसा (अलै) से गुहार लगाई कि मेरे भाई के क़ातिल को सज़ा मिलनी चाहिए, मगर क़ातिल का कोई सुराग़ नहीं मिल पा रहा था। फिर अल्लाह के हुक्म से मूसा (अलै) ने लोगों को एक गाय ज़बह करके उसके गोश्त को मरे हुए शरीर पर मारने की सलाह दी। जैसे ही गोश्त मुर्दा शरीर पर लगा, वह आदमी ज़िंदा होकर उठ बैठा, और उसने क़ातिल का नाम बता दिया।
76: तौरात में आगे आने वाले समय में जिस नबी के बारे में भविष्यवाणियाँ की गई थीं, उन पर मुहम्मद (सल्ल) पूरी तरह सही उतरते थे। कुछ यहूदी लोग जो अपने आपको ईमानवाला कहते थे, वे तौरात में आई ऐसी बातों की जानकारी कभी-कभी मुसलमानों को दे देते थे। जब अकेले में यहूदी लोग आपस में मिलते थे तो वहाँ ऐसे लोगों की निंदा की जाती थी कि अगर ऐसी बातें मुसलमानों को बताई जाएंगी, तो क़यामत के दिन वे अपनी दलीलों में ये बात हमारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल करेंगे।
85: मदीना में यहूदियों के दो प्रमुख क़बीले आबाद थे: बनु क़ुरैज़ा और बनु नज़ीर, इसी तरह वहाँ के मूल निवासियों (बहुदेववादियों) के भी दो क़बीले थे: ओस और ख़ज़रज। शुरू से ओस क़बीले की दोस्ती बनु क़ुरैज़ा से थी, और ख़ज़रज की दोस्ती बनु नज़ीर से थी। ओस और ख़ज़रज क़बीले के बीच जब कभी लड़ाइयाँ होती, तो यहूदियों के दोनों क़बीले अपने दोस्तों की तरफ़ से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ भिड़ जाते थे, यहाँ तक कि उनका क़त्ल करने और उन्हें घरों से बाहर निकालवाने में भी सहायक होते। फिर जब दूसरे गुट के यहूदी, युद्ध के बाद बंदी बनाकर लाए जाते, तो फिर ये यहूदी लोग भरपाई में पैसा ख़र्च करके उसे छुड़ा लेते, क्योंकि तौरात में हुक्म था कि अगर कोई यहूदी दुश्मन के क़ब्ज़े में चला गया है, तो उसे छुड़ाना चाहिए। मुहम्मद (सल्ल) के मदीना आने के बाद वहाँ शांति स्थापित हो गई।
87: “स्पष्ट निशानियों” का मतलब वे चमत्कार हैं जो अल्लाह के हुक्म से ईसा (अलै) ने दिखाए थे, (देखें 5:110). क़ुरआन में “रूहुल क़ुद्स” यानी ‘पवित्र आत्मा’ हज़रत जिबरील (अलै) के लिए आया है, (देखें 16:102), जिनका असल काम अल्लाह के संदेश रसूलों तक पहुँचाना था।
89: जब यहूदियों का बहुदेववादियों से झगड़ा होता, तो वे दुआएं माँगते थे कि तौरात में जिस नबी के आने की ख़बर दी गई है, वह आ जाता तो हम लोगों को कामयाबी मिलती। मगर जब सचमुच नबी के रूप में मुहम्मद (सल्ल) आ गए, तो केवल जलन के चलते उन लोगों ने उन पर विश्वास करने से इंकार कर दिया कि वह नबी इसराइलियों में से क्यों नहीं हुआ?
92: बछड़े को पूजने का वर्णन आयत 2:53 में गुज़रा है।
93: प्रतिज्ञा के लिए देखें 2:63.
94: यहूदियों की जो मान्यता रही है कि वे ही अकेले अल्लाह की चुनी हुई क़ौम हैं, इस पर यहाँ व्यंग्य किया गया है, देखें 62: 6-7
95: उनके कुकर्मों में अल्लाह का हुक्म न मानना, कुछ नबियों जैसे हज़रत ज़करिया और यह्या अलै का क़त्ल करना, ईसा अलै. को सूली चढ़ाने का दावा करना, हज़रत मरयम पर लांछन लगाना और सूद का कारोबार करना। देखें 4: 153-158.
97: कुछ यहूदियों ने मुहम्मद (सल्ल) से कहा था कि अगर आपके पास जिबरील अल्लाह का संदेश लेकर आते हैं तो हम उसे नहीं मानेंगे, हम जिबरील को अपना दुश्मन समझते हैं क्योंकि वह हमारे लिए बहुत कड़े हुक्म लाया करते थे।
102: बाबिल (Babylon) इराक़ का मशहूर शहर था, और वहां के यहूदी लोग जादू-टोने में दिखाए गए खेल-तमाशे और नबियों द्वारा सच्चाई को सिद्ध करने के लिए दिखाए गए चमत्कार (मोजिज़ा) में कोई अंतर नहीं समझते थे। अल्लाह ने वहां दो फ़रिश्ते “हारूत और मारूत” को इंसानों के रूप में भेजा ताकि उनमें जादू-टोने की बुराइयों की समझ पैदा हो। फ़रिशतों ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्हें जादू भी सिखाया और उससे होने वाली बुराइयों को भी बताया, मगर लोगों ने उनसे जादू सीखकर ग़लत मक़सद के लिए इस्तेमाल किया जिससे समाज में बिगाड़ पैदा हुआ, यहाँ तक कि मियां-बीवी में अलगाव तक हो जाता था।
यह परम्परा सुलैमान (अलै) के ज़माने तक चलती रही, जब कुछ शैतान आदमियों और जिन्नों ने जादू-टोना गढ़ लिया और यहूदियों के बीच यह बात फैला दी थी कि सुलैमान (अलै) की सारी ताक़त और हुकूमत जादू-टोने की वजह से है, अत: आम लोग भी ऐसी ताक़त और हुकूमत की लालच में जादू-टोने जैसी बुरी चीज़ को सीखने और उस पर अमल करने में लग गए, यहां तक कि कुछ लोग जादू-मंतर के चक्कर में एक ख़ुदा को छोड़कर बुतों की पूजा तक करने लगे। सुलैमान अलै के बारे में कहा जाने लगा कि वह ख़ुद ही बड़े जादूगर हैं जिन्होंने जिन्नों को और हवा को अपने क़ाबू में कर रखा है। बाइबल में है कि बाद के वर्षों में वह भी बुतों की पूजा करने लगे थे, हालांकि क़ुरआन ने इस बात को ग़लत बताया है।
यहां समझने की बात यह है कि इंसानों को अपनी मर्ज़ी से ग़लत या सही काम को चुनने का हक़ दिया गया है। अल्लाह का क़ानून (मशीयत) यह है कि जब कोई आदमी बुरा या अच्छा काम करना चाहता है तो उसे वह करने दिया जाता है, और उसमें अल्लाह की मर्ज़ी भी शामिल हो जाती है, जिससे कि उसे गुनाह या सवाब (पुण्य) हो सके। मगर अल्लाह पसंद केवल अच्छे कामों को ही करता है।
104: मदीना के कुछ शरारती यहूदियों ने जान-बूझकर मुहम्मद (सल्ल) को गालियाँ देने के लिए “राइना” कहना शुरू किया जिसका मतलब है “हमारी तरफ़ देखें”, मगर बोलने में थोड़ा सा फेर-बदल करने से मतलब यह होता था कि “तुम बेवक़ूफ़ हो” या तुम मेरी भेड़ों के चरवाहे हो।” 4:46 भी देखें।
106: अल्लाह का तरीक़ा रहा है कि हर दौर में उस ज़माने के हालात के मुताबिक़ नियम-क़ायदे (शरीयत) में थोड़ा फेर-बदल होता रहा है जबकि दीन की बुनियादी बातें वही रहती हैं। मूसा (अलै) और ईसा (अलै) के ज़माने में नियम-क़ायदे थोड़े अलग थे। इसी तरह से मुहम्मद सल्ल जब नबी हुए तो शुरुआत के ज़माने में हालात के मुताबिक़ जो हुक्म दिए गए, बाद में उसमें ज़रूरत के अनुसार आहिस्ता-आहिस्ता बदलाव लाया गया। कुछ यहूदियों को इस बात पर आपत्ति थी कि जब सारे नियम-क़ायदे उसी एक अल्लाह की तरफ़ से आते हैं, तो फिर इसमें समय-समय पर बदलाव क्यों हो रहा है? यहां इसी बात का जवाब दिया गया है।
इसी आयत और कुछ और आयतों जैसे 13:39; 16:101; 22:52 से बाद में “नासिख़ व मंसूख़”[Theory of Abrogation] का सिद्धांत बनाया गया, जिसके मुताबिक़ माना जाता है कि क़ुरआन के कुछ पुराने आदेश को बाद की आयतों में आये हुए आदेशों से बदल दिया गया [नस्ख़], इस तरह पुराने आदेश रद्द [मंसूख़] मान लिए गए। उदाहरण के लिए शराब पीने को एक झटके में नहीं, बल्कि तीन चरणों में हराम किया गया था, देखें 2:219; 4:43 और 5:90.
108: मूसा अलै. की क़ौम ने उनसे कैसे-कैसे सवाल पूछे थे, जैसे अल्लाह को देखने की माँग, फ़रिश्तों से बात करने की माँग आदि, इसके लिए देखें 2: 55; 4:153 और 2:67-71
114: इस आयत में शायद यहूदियों, ईसाइयों और मक्का के मुशरिक तीनों समूह का ज़िक्र आया है जिन्होंने अलग-अलग समय में इबादत की जगहों पर हमला किया और लोगों को वहां जाने से रोका। (देखें 22:40). शाह तैतूस [Titus] के ज़माने में ईसाइयों ने “बैतुल मक़दिस” पर हमला करके उसे तहस-नहस किया, उसी तरह, अबरहा जो कि ईसाई था, उसने काबा को बर्बाद करने के इरादे से हमला किया, और मक्का के मुशरिक लोगों ने मुसलमानों को काबा में जाकर नमाज़ पढ़ने से रोका।
लेकिन यहाँ मालूम होता है कि यह आयत मदीना के यहूदियों के बारे में है जिन्होंने मुसलमानों को मस्जिद ए नबवी में येरूशलम (बैतुल मक़दिस) की जगह काबा की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ने से रोकना चाहा। (देखें 2:115 और 2:142)
115: अल्लाह असल में हर दिशा में मौजूद है, इसलिए उसकी इबादत करने के लिए किसी दिशा में भी मुंह करके इबादत हो सकती है, असल बात है अल्लाह का हुक्म मानना। अगर अल्लाह ने कहा कि फ़लां दिशा में मुंह करके इबादत करो, तो जो उसका हुक्म बिना किसी हिचकिचाहट के मान ले, वह सही है।
116: ईसाई कहते थे कि ईसा (अलै) अल्लाह के बेटे हैं, देखें 4:171; 10:68; 19:88-92; 21:26; 25:2). कुछ यहूदियों का मानना था कि हज़रत उज़ैर अल्लाह के बेटे हैं (9: 30), उसी तरह, अरब के मुशरिक लोग देवियों को या फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियां मानते थे (16: 57) ।
121: इसराईल की संतानों में बहुत बड़ी संख्या तो ऐसे लोगों की थी जो कि नियमों को तोड़ने वाले थे, मगर उनमें कुछ लोग ज़रूर ऐसे थे जो कि तौरात और इंजील के नियमों को मानते भी थे और उन पर अमल भी करते थे। ऐसे लोगों ने जब मुहम्मद सल्ल की लायी हुई शिक्षा को सुना तो तुरन्त उसकी सच्चाई को पहचान लिया और उसको दिल से सही मानते हुए उस पर अमल किया।
124: यहाँ अल्लाह ने इबराहीम अलै. की जिस परीक्षा लेने का हवाला दिया है, वह शायद उनके द्वारा बेटे की क़ुर्बानी वाला मामला है (देखें 37:102-107).
यहां से हज़रत इब्राहीम अलै के हालात बयान किए गए हैं। असल में यहूदी, ईसाई और अरब के मूर्तिपूजक सभी इब्राहीम अलै को अपना पेशवा मानते थे, और कहते थे कि हम उनके बताए हुए मार्ग पर चलते हैं। मगर यहां अल्लाह ने साफ़ कर दिया कि इब्राहीम केवल एक अल्लाह को मानने वाले थे, और उन्होंने अल्लाह द्वारा ली गई हर परीक्षा में कामयाबी हासिल की थी। तब अल्लाह ने उन्हें पेशवा बनाया, फिर यह बात साफ़ कर दी कि तुम्हारी औलाद में जो अल्लाह का हुक्म नहीं मानकर अपने आप पर ज़ुल्म करेगा, उसे पेशवाई नहीं दी जाएगी। इस तरह, जब तक इसराईल की संतानों ने अल्लाह का हुक्म माना, तब तक वे अपनी क़ौम के पेशवा बने रहे, फिर जब उन्होंने मनमानी शुरू कर दी, तो पेशवाई उनके ख़ानदान से लेकर इस्माइल अलै के ख़ानदान यानी मुहम्मद (सल्ल) को सौंप दी गई।
125: “काबा”को अल्लाह का पवित्र घर कहा जाता है। अल्लाह ने इस मस्जिद को और इसके इर्द-गिर्द के बड़े इलाक़े को अमन की जगह (हरम) बनाया है (5:95), जहां न तो किसी इंसान को क़त्ल किया जा सकता है, न किसी जानवर का शिकार किया जा सकता है और न ही उसे क़ैद करके रखा जा सकता है, न किसी पौधे को उखाड़ा जा सकता है, और न ही कोई युद्ध किया जा सकता है सिवाय इसके कि अगर दुश्मन हमला कर दे तो अपनी सुरक्षा में लड़ने की इजाज़त है।
“मक़ाम ए इबराहीम” उस पत्थर का नाम है जिस पर चढ़कर हज़रत इब्राहीम ने काबा को बनाया था। यह पत्थर काबा से 11 मीटर पूरब की दिशा में आज भी मौजूद है, और काबा का सात बार चक्कर लगाने (तवाफ़) के बाद, इस पत्थर के पास काबा की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ना बहुत अच्छा माना जाता है।
127: काबा को पहली बार हज़रत आदम अलै ने बनाया था, मगर बहुत ज़माने के बाद जब वह टूट-फूट गया था, तब हज़रत इब्राहीम ने इस्माईल अलै के साथ मिलकर उसे फिर से बनाया था।
128: पूरी भक्ति से अल्लाह के सामने झुकनेवाले को “मुस्लिम” कहते हैं, और इस तरह जितने भी नबी हुए हैं सब मुस्लिम थे। देखें 3:64; 26:89; 37:84.
129: मुहम्मद सल्ल का उन्हीं लोगों में से रसूल बनकर आना हज़रत इब्राहीम अलै की दुआ के क़बूल होने के नतीजे में हुआ था।
130: इबराहीम का दीन (तरीक़ा) असल में पूरी तरह से केवल एक अल्लाह के सामने झुकने वाला था, इसलिए देखा जाए तो इस्लाम ने इसी तरीक़े को दोबारा बहाल किया है, और इस लिहाज़ से बाद के यहूदी और ईसाई दीन से यह बढ़कर है। (देखें 2:135)
131: इस्लाम का शाब्दिक अर्थ अपने आपको अल्लाह के हर हुक्म के आगे झुका देना होता है।
133: कुछ यहूदियों का कहना था कि हज़रत याक़ूब (इसराईल) अलै ने मरते समय अपनी औलाद से यहूदियत बनाए रखने के लिए कहा था, यह आयत उसी के जवाब में है। देखें 3:65
135: इबराहीम अलै. के साथ “हनीफ़” आता है, जिसका मतलब शुद्ध [Pristine] या असली [Original] “केवल एक अल्लाह को माननेवाला।”
138: इस आयत में शायद ईसाइयों के रिवाज बेपतिस्मा (Baptism) की तरफ़ इशारा किया गया है, जिसे “रंग चढ़ाना” भी कहते हैं। किसी आदमी को ईसाई बनाते समय उसे रंग चढ़े हुए पानी से नहाया जाता है। बच्चों के लिए माना जाता है कि जब तक बपतिस्मा न हो तो वे गुनाहगार होते हैं। क़ुरआन कहता है कि अगर रंग लेना है तो अल्लाह का रंग लेना चाहिए कि उससे बेहतर किसी का रंग हो ही नहीं सकता।
142: मक्का की तेरह साल की ज़िंदगी में मुसलमानों को “काबा” की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म था। फिर जब मुहम्मद (सल्ल) और उनके सहाबी मक्का छोड़कर मदीना (हिजरत) चले गए, तो वहाँ अल्लाह के हुक्म से वे येरुशलम स्थित “बैतुल मक़दिस” की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने लगे, ऐसा उन्होंने सतरह महीने किया और फिर अल्लाह की तरफ़ से हुक्म आया कि अब हमेशा के लिए मुसलमानों को “काबा” की तरफ़ ही मुँह करके नमाज़ पढ़नी है। इस आदेश पर सबसे ज़्यादा एतराज़ यहूदियों को था क्योंकि वे भी अपनी इबादतें बैतुल मक़दिस की तरफ़ ही मुँह करके करते थे, जबकि ईसाई आम तौर से पूरब यानी उगते हुए सूरज की तरफ़ मुँह करते हैं। वैसे तो अल्लाह हर दिशा में मौजूद है और कोई एक दिशा अपने आप में कोई कमाल नहीं रखती है, मगर अल्लाह ने मुसलमानों को अलग क़ौम की पहचान देने के लिए अपना एक अलग क़िबला [इबादत करने की दिशा]”काबा” को बनाया जिसकी तरफ़ मुँह करके हर मुसलमान को नमाज़ पढ़नी होती है।
143: मुसलमानों को यहाँ “बीच की क़ौम” [moderate, balanced] कहा गया है जिसका मतलब “न्याय करने वाले समुदाय” से है। यहाँ यह बताया गया है कि जब मुसलमानों को यह हुक्म दिया गया था कि उन्हें अपनी नमाज़ “काबा” की तरफ़ नहीं बल्कि “बैतुल मक़दिस” की तरफ़ मुँह करके पढ़नी है, तो यह असल में अल्लाह की तरफ़ से एक परीक्षा थी कि देखें कौन अल्लाह के हुक्म के आगे अपना सिर झुका लेता है, और कौन है जो पुराने क़िबले को सही मानते हुए क़िबले को बदलने से इंकार कर देता है।
कुछ लोगों को शक हुआ कि जिन लोगों ने येरुशलम की तरफ़ मुँह करके नमाज़ें पढ़ीं और वे इस दुनिया से चले गए, उनकी नमाज़ें क्या बेकार हो जायेंगी, जवाब में यहाँ अल्लाह ने उन्हें बताया है कि उनका ईमान और उनका अमल बेकार नहीं जायेगा।
144: “काबा” चूँकि बैतुल-मक़दिस से ज़्यादा पुराना था, और उसके साथ हज़रत इब्राहीम और इसमाईल अलै. की यादें जुड़ी हुई थी, इसलिए मुहम्मद सल्ल. की दिली ख़्वाहिश थी कि काश फिर से ‘काबा’ को ही हमेशा के लिए क़िबला बना दिया जाए। इसी उम्मीद पर वह आसमान की तरफ़ मुँह उठाकर दुआएं मांगा करते थे।
146: अरब में रह रहे यहूदी और ईसाई लोग तौरात और बाइबल में दी गई जानकारी और निशानियों को ध्यान में रखते हुए मुहम्मद सल्ल को एक रसूल/नबी के रूप में अच्छी तरह पहचानते थे, जिस तरह कोई अपने बेटों को पहचानता है, मगर केवल अपनी ज़िद्द और हठधर्मी के चलते उन्हें मानने से इंकार करते थे।
149: “काबा” की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने के हुक्म को तीन बार दुहराया गया है, इससे इसकी अहमियत का पता चलता है।
150: जब तक मुसलमान येरूशलम स्थित “बैतुल मक़दिस” की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते थे, तब तक यहूदियों को लगता था कि मुसलमानों ने उनकी बड़ाई के आगे सिर झुका दिया, दूसरी तरफ़ मक्का के काफ़िर लोग कहते थे कि मुसलमान अपने आपको इबराहीम के तरीक़े पर चलने वाला बताते हैं, पर नमाज़ के लिए इन लोगों ने इबराहीम के बनाए गए “काबा” को छोड़कर बैतुल मक़दिस की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ते हैं। इस तरह, क़िबला बदलकर दोनों तरह के लोगों को जवाब दे दिया गया। मगर बेकार की बहस करने वालों का मुँह बंद करना तब भी मुमकिन नहीं था।
153: यहाँ मुसलमानों को धीरज [सब्र] से काम लेने का हुक्म दिया गया है। यह दौर ऐसा था कि जब मुसलमानों को अपने दीन पर चलने में और इसके प्रचार-प्रसार में बहुत सी रुकावटें आ रही थीं, और साथ में युद्ध लड़ने का सिलसिला भी लगा हुआ था जिनमें काफ़ी मुसीबतें और सख़्तियाँ झेलनी पड़ रही थीं, अपनों के शहीद हो जाने का दुख भी बराबर लगा हुआ था। मगर उन्हें बताया गया है कि सच्चाई के रास्ते में आने वाली परेशानियों को अल्लाह की मर्ज़ी समझते हुए धीरज के साथ अपने काम में लगे रहना है।
154: अल्लाह के रास्ते में लड़ते हुए जो मारे जाते हैं, उन्हें मरा हुआ नहीं समझना चाहिए, बल्कि वह ज़िंदा हैं, और उन्हें अपने रब से रोज़ी मिलती है। देखें 3:169
158: “सफ़ा” और “मरवा” मक्का की दो पहाड़ियों के नाम हैं। जब हज़रत इबराहीम (अलै) अपनी पत्नी बीबी हाजरा को उनके दूध-पीते बच्चे इस्माईल के साथ छोड़कर चले गए थे, तब बच्चे के लिए पानी की खोज में बीबी हाजरा (रज़ि) “सफ़ा” और “मरवा” के बीच दौड़ी थीं। कुछ लोग इन दो पहाड़ियों के बीच दौड़ने से हिचकिचाते थे, क्योंकि बहुदेववादियों ने दोनों पहाड़ियों पर मूर्तियाँ स्थापित कर दी थीं, मगर यहाँ बता दिया गया कि हज और उमरा [छोटे हज] दोनों में इन दो पहाड़ियों पर दौड़ने में कोई ख़राबी नहीं, बल्कि यह ज़रूरी है।
“उमरा” यानी ‘छोटा हज’ तो हज के ज़माने में भी किया जा सकता है, और साल भर में किसी भी समय किया जा सकता है।
इस्लाम में घर यानी “काबा” की केंद्रीय भूमिका है, चाहे उसकी तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने की बात हो या वहाँ जाकर हज करने की बात हो जैसा कि हज के तरीक़े इबराहीम अलै. ने अल्लाह के हुक्म से स्थापित कर दिए थे।
159: यहाँ इशारा यहूदियों और ईसाइयों की तरफ़ है जिनकी आसमानी किताबों में मुहम्मद (सल्ल) के आने और उनके संदेशों की सच्चाई के बारे में ख़बरें सुनायी गई थीं जिन्हें ये लोग छिपाते हैं, उन्हें अल्लाह, फ़रिश्ते और इंसान सब लानत भेजते हैं (3:87).
168: अरब के लोगों ने अपने मन से बहुत सी खाने की चीज़ों को हराम [अवैध] घोषित कर रखा था जिसका वर्णन सूरह अनाम में आगे आयेगा, और कुछ चीज़ें जो हराम थीं उन्हें अपने मन से हलाल [वैध] ठहराया हुआ था, जैसे मरे हुए जानवर का (सड़ा-गला) मांस हलाल था।
169: शैतान अश्लील कामों [sexual immorality] के लिए उकसाता है (2:268; 7:28,30; 24:21). अल्लाह के नाम से झूठी बातों के लिए देखें 6:138, 145
171: इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि जैसे विश्वास न करनेवाले देवी-देवताओं को पुकार रहे हों, मगर वे जवाब नहीं दे सकते।
173: किसी जानवर को ज़बह करते समय अगर अल्लाह को छोड़कर किसी दूसरे देवता का नाम लिया गया है, तब भी उसका गोश्त खाना हराम (अवैध) होगा। हराम खानों की पूरी लिस्ट 5:3 में देखी जा सकती है। सूअर के गोश्त [Pork] खाने को बाइबल में भी हराम कहा गया है। (देखें Old Testament में Leviticus 11:7-8 और Deuteronomy 14:8)
177: यहाँ अब संबोधन किताबवालों यानी यहूदियों और ईसाइयों से किया गया है, जो मुसलमानों द्वारा बैतुल मक़दिस को छोड़कर काबा की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने के बारे में इतना वाद-विवाद कर रहे थे जैसे यह चीज़ कोई बहुत ज़्यादा अहम हो, हालाँकि अल्लाह ने कहा है कि असल चीज़ नेकी और भलाई के काम हैं जिसे ज़्यादा से ज़्यादा करने में सबको एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करनी चाहिए।
178: “क़िसास” [Law of Retaliation] का मतलब बराबर का बदला लेना। इस्लाम से पहले भी अरब में जान के बदले जान लेने की परम्परा थी, मगर होता यह था कि जो क़बीला ज़्यादा मज़बूत होता, वह ज़्यादा की माँग करता था। अगर किसी छोटे दर्जे के आदमी ने किसी बड़े दर्जे के आदमी को मार डाला, तो मारे गए आदमी के वारिस यह माँग करते थे कि बदले में हमें क़ातिल की जान नहीं बल्कि उस क़बीले के कोई ऊँचे दर्जे के आदमी की जान चाहिए। इसी तरह, अगर किसी औरत ने क़त्ल किया, तो मारे गए आदमी के वारिस की तरफ़ से यह माँग होती थी कि बदले में हमें औरत की जान नहीं बल्कि किसी मर्द की जान चाहिए। इसी तरह ग़ुलाम के बदले आज़ाद मर्द की माँग करते। इस्लाम ने इस तरह के भेदभाव को हटाकर सीधे तौर पर इसे क़ातिल से जोड़ दिया, अर्थात जिसने भी किसी की जान ली है तो उस जान का बदला भी उसे ही भुगतना होगा।
अगर मरने वाले के वारिसों [सबसे नज़दीकी उत्तराधिकारी] ने क़िसास के बदले क़ातिल से “ख़ून-बहा”[blood money] लेना तय कर लिया तो फिर क़ातिल की जान लेना उनके लिए उचित नहीं होगा।
180: इस आयत में मरने से पहले अपनी संपत्ति में से माँ-बाप और रिश्तेदारों के लिए वसीयत करने का हुक्म है। असल में यह आयत उस समय उतरी थी जब संपत्ति के बंटवारे के बारे में कोई हुक्म नहीं आया था। फिर कुछ साल बाद सूरह निसा (4: 11-14) में विस्तार से बता दिया गया कि छोड़ी गई संपत्ति में सभी वारिसों का कितना हिस्सा होगा। इस तरह, उनके लिए वसीयत की ज़रूरत नहीं रही। मगर कोई इंसान अगर किसी ऐसे आदमी को कुछ देना चाहे जो शरीअत के हिसाब से हक़दार नहीं है, तो वह अपनी संपत्ति का ज़्यादा से ज़्यादा एक तिहाई हिस्सा दे सकता है।
183: रोज़े तुम से “पहले के लोगों” मतलब यहूदियों पर भी फ़र्ज़ किए गए थे।
184: इस्लामी कैलेंडर का 9वाँ महीना “रमज़ान” होता है जिसके पूरे महीने में रोज़ा रखना होता है।
187: मियाँ-बीवी एक दूसरे के लिए “लिबास” यानी कपड़े के समान हैं, यहाँ कपड़े को आराम, पवित्रता और सुरक्षा से उपमा दी गई है। ‘मुलाबिसात’ का मतलब ‘एक दूसरे से बहुत नज़दीक होना’ भी होता है।
शुरू में रमज़ान के महीने में रात के समय भी सेक्स करना मना था, कुछ मुसलमानों ने मुहम्मद (सल्ल) के सामने इस बात को स्वीकार किया था कि उन लोगों ने रमज़ान की रातों में सेक्स करके अपने रोज़े को ख़राब कर दिया। अब यहाँ इसकी इजाज़त दे दी गई।
189: कुछ अरबों में एक अजीब रिवाज था कि हज करके जब घर लौटते, तो वे सामने का दरवाज़ा छोड़कर पीछे के रास्ते से जाते थे और इसे बड़ा नेक काम मानते थे। यहाँ बताया गया है कि पुरानी रीतियों को आँख बंद करके मानने के बजाय अल्लाह के सामने पूरी भक्ति से झुकना कहीं महत्वपूर्ण है।
190: यह आयतें उस समय उतरी थीं जब हुदैबिया की संधि (6 हिजरी/628 ई) के बाद मक्का वालों ने मुसलमानों को छोटा हज [उमरा] करने से रोक दिया था, और यह तय हुआ था कि वे अगले साल आकर अपना हज पूरा करें। अगले साल जब हज का समय आया तो कुछ मुसलमानों को शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मक्का वाले संधि से पलट जाएं और फिर हज करने से रोकें, तो फिर युद्ध करना पड़ेगा। अगर ऐसा हुआ तो वह आदर का महीना होगा जिसमें युद्ध करना मना है, साथ में काबा-परिसर में ऐसे भी युद्ध करना मना है, मगर अल्लाह ने इस आयत में ऐसे समय में और ऐसी जगह पर भी अपने बचाव में युद्ध करने की इजाज़त दे दी।
“लड़ाई में सीमाएं न लांघो” के मतलब में कई बातें शामिल हैं जिनसे रोका गया है, यानी अपनी तरफ़ से लड़ाई न शुरू करना, उससे नहीं लड़ना जो नहीं लड़ रहा हो, हमले के जवाब में उससे बहुत ज़्यादा हिंसा करना , बच्चों, बूढ़ों और औरतों को नहीं मारना आदि।
191: इस आयत को अक्सर ,ग़लत तरीक़े से पेश किया जाता है, इसको इसके सही संदर्भ में ही समझने की ज़रूरत है। मुसलमानों को इस बात की चिंता थी कि हज के दौरान अगर मक्का के उन बहुदेववादी लोगों ने काबा परिसर में हमला कर दिया तो क्या बदले की कार्रवाई करने की इजाज़त होगी, देखें 2: 196. यहाँ उन्हें इजाज़त दी गई है कि जब उन्हें हमला करने वालों से पाला पड़ ही जाए, तो उन्हें अपने बचाव में ज़रूर लड़ना चाहिए, चाहे मक्का परिसर के अंदर लड़ना पड़े या बाहर, क्योंकि “तुम्हारे ऊपर ग़लत तरीक़े से [unlawfully] उनका लगातार अत्याचार करना, मक्का परिसर में तुम्हारे द्वारा उनका क़त्ल करने से कहीं बुरा है।”
193: यहाँ काबा में उस वक़्त तक लड़ने का हुक्म दिया गया है जब तक कि “दीन अल्लाह का न हो जाए”, इसका मतलब यह नहीं है कि उस लड़ाई का मक़सद किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना था, बल्कि इस संदर्भ में यह कहा गया है कि अत्याचारियों से उस वक़्त लड़ें जबतक कि काबा परिसर में एक अल्लाह की इबादत करने की आज़ादी स्थापित न हो जाए। देखें 8: 39
195: अपने बचाव में युद्ध की तैयारी पर होने वाले ख़र्च में कंजूसी करना अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा, क्योंकि उसके नतीजे में दुश्मन मज़बूत होकर तुम्हारी ही बर्बादी का कारण बनेगा। इस आयत का आम तौर से यह भी मतलब समझा जाता है कि ख़ुदकुशी [आत्महत्या] करना या किसी भी तरीक़े से अपने आपको नुक़सान पहुँचाना भी अवैध है।
196: मक्का की तीर्थयात्रा, यानी “हज” करना हर मुसलमान के लिए ज़िंदगी में कम से कम एक बार ज़रूरी है, अगर वह शारीरिक और आर्थिक रूप से इस लायक़ हो। ‘उमरा’ यानी छोटा हज के लिए भी जाया जा सकता है, मगर यह ज़रूरी नहीं है। जब कोई आदमी हज या उमरे के इरादे से इहराम बाँध ले, तो जब तक हज की सारी रीतियाँ पूरी न हो जाए, उन्हें इहराम उतारना मना है। लेकिन अगर किसी कारण से उन्हें काबा तक जाने से रोक दिया जाए, तो ऐसी सूरत में कुर्बानी करके इहराम खोला जा सकता है, जैसा कि आप (सल्ल) ने हुदैबिया में रोके जाने पर किया था।
जब हज की ज़्यादातर रीतियाँ पूरी हो जाती हैं, तब हज में गए मर्दों को अपना बाल कटवाना या मुंडवाना होता है। जब तक हाजी इहराम पहने हुआ होता है, तो ऐसी हालत में सिर के बाल मुंडवाना सही नहीं है, अगर बीमारी के कारण ऐसा करना पड़े, तो फिर इसकी भरपाई इस तरह होगी कि या तो तीन दिन रोज़ा रखे, या छ: ग़रीबों को उचित दान (सदक़ा) दे या एक बकरी कुर्बान करे।
197: यूँ तो हज इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से 12वें महीने में कोई चार दिनों के लिए होता है, मगर हज करने का इरादा 10वें, 11वें और 12वें महीने के शुरू में किया जा सकता है।
198: हज के दौरान रोज़ी-रोटी के लिए व्यापार करना कोई गुनाह नहीं, अगर इससे हज के ज़रूरी कामों पर कोई असर न पड़ता हो।