साहित्य

क़ितराह: एक सुगंध, जो सबके मन मस्तिष्क को खुशनुमा बना देना चाहती है-लेखिका- Sushma Gupta

चित्र गुप्त
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क़ितराह: एक सुगंध, जो सबके मन मस्तिष्क को खुशनुमा बना देना चाहती है।
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उपन्यास की नायिका क़ितराह या कितारा एक ऐसी लड़की है जिसका वर्णन पढ़कर एक बार, बस एक बार उसे देख लेने की चाह ही पूरे जीवन का उद्देश्य बन जाए। कितारा वही कस्तूरी है जिसकी तलाश में मृग जीवन भर भटकता है। कितारा वह ज्ञान है जिसकी प्राप्ति के लिए तथागत ने घरबार छोड़ दिया था और बुद्ध कहलाए। कितारा वही जिन है जिसकी प्राप्ति के बाद महावीर और उनके अनुयाई जैन कहलाए। कितारा वही शास्त्र है जिसे पढ़कर सुकरात ने विष का घूंट पी लिया होगा। कितारा वह यश है जिसकी प्राप्ति के लिए सिकंदर भारत तक दौड़ा आ गया था। कितारा वह समाधि है जिसकी प्राप्ति के बाद आचार्य रजनीश ओशो हुए।

कितारा कवि हृदय में घूमती हुई वह लड़की है जिसकी याद में नए नए छंदों का जन्म होता है। कितारा वह स्वच्छंदता है छंद मुक्त कविताओं की जान है। कितारा हर सुख का प्राण तत्व है।

किसी नायिका के शृंगार का वर्णन जिस प्रकार से प्रस्तुत उपन्यास की लेखिका ने किया है वह अन्यत्र लेखिकाओं में विरले ही मिलता है। हां पत्नी पीड़ित लेखक गण ऐसे वर्णन अक्सर किया करते हैं जो उनके अवचेतन में छुपे उनके सौंदर्य बोध का द्योतक होता है। किसी महिला की कलम से नायिका के रूप लावण्य का ऐसा वर्णन दूभर है।
तुलसी बाबा का कथन–‘मोहै न नारि नारि कै रूपा’ यहां अपवाद सिद्ध हुआ है।

स्पीति घाटी हिमाचल प्रदेश के जोगिंदर नगर रेलवे स्टेशन के पास स्थित है। स्टेशन से घाटी तक जाने के लिए बस या टैक्सी का सहारा लेना पड़ता है। साल के आठ महीने यह इलाका देशी विदेशी पर्यटकों से भरा रहता है। वहीं बाकी के चार महीने यहां जमकर बर्फबारी होती है इस समय यह इलाका बिल्कुल सुनसान हो जाता है।

प्रस्तुत उपन्यास दिल्ली से चलकर स्पीति घाटी तक मोटर साइकिल से जाने का सिलसिलेवार वर्णन है।

किशोरावस्था में तोता मैना की कहानियां पढ़ी थी। उसमे एक कहानी तोता कहता है और दूसरा मैना कहती है। क़ितराह की कहानी भी कुछ इसी तरह आगे बढ़ती है। एक पाठ कितारा की डायरी है तो वहीं दूसरा त्रिजल की डायरी। उपन्यास नायक और नायिका दोनो की भावनाओं को समेटते हुए आगे बढ़ता है।

दिल्ली से बाइक से चलकर स्पीति घाटी तक पहुंचने के विभिन्न पड़ाओ का वर्णन इतने बारीकी से किया गया है कि कहीं कहीं ये उपन्यास से ज्यादा यात्रा वृत्तांत लगने लगता है। फिर भी भाषा की तरलता उपन्यास को आगे पढ़ने की उत्कंठा जगाए रखती है।

कितारा के मुंह से सीरिया में घटित घटनाओं का वर्णन और त्रिजल का अपने सैन्य ऑपरेशन के बारे में बताना उपन्यास में छौंक या तड़के का काम करते हैं। जिससे पाठक उन किरदारों और घटित हो रही घटनाओं से बंधा रहता है।

त्रिजल आर्मी ऑफिसर है। वह उपन्यास का नायक है एक सुलझा हुआ चरित्र। जो कितारा को पसंद भी करता है लेकिन आधुनिक प्रेमियों जैसी कोई ओछी हरकत नहीं करता।
त्रिजल की मोटरसाइकिल के कैरियर की बेल्डिंग करने वाले बिहारी लड़के की दुकान में एक रात मैं भी रुका था। वर्णन पढ़कर हूबहू यही लगा। प्राकृतिक सौंदर्य मंदिरों होटल्स रास्तों आदि का वर्णन पढ़कर लगा जैसे ये उपन्यास इन रास्तों पर घूमते हुए ही लिखा गया हो। प्रस्तुत उपन्यास काल्पनिक कम सच्ची घटनाओं पर प्रेरित अधिक लगा।

चाहे बुरहान वानी वाली घटना का जिक्र हो या सीरिया के वीभत्स घटनाओं का वर्णन यह लेखिका के विस्तृत अध्ययन और वृहद जागरूकता को दर्शाता है। कहानियों में ‘उसने कहा था’ और उपन्यासों में ‘ऑपरेशन बस्तर’ को अगर छोड़ दिया जाए तो हिंदी साहित्य में सैन्य पृष्ठ भूमि पर कलम चलाने वालों हमेशा अभाव रहा है। इस मामले में भी यह उपन्यास काबिले तारीफ है। उपन्यास पढ़कर लगा जैसे सैन्य पृष्टभूमि पर लिखी कहानियों का शून्यकाल अब समाप्त होने वाला है।

एक हिंदी फिल्म में (नाम याद नहीं) व्यभिचार के दृश्य को इस प्रकार से फिल्माया गया था जिसमे गुंडे द्वारा नायिका को खींचते ही वहां टंगी टॉर्च जमीन पर गिर जाती है और कमरे में अंधेरा हो जाता है। उसके बाद पीछे चीखने की आवाजें आती रहती हैं और टॉर्च की रोशनी अंधेरे में इधर से उधर घूमती हुई दिखाई देती रहती है। निर्देशक ने स्पष्ट रूप से कुछ भी न दिखाकर भी सब कुछ दिखा दिया था।

प्रस्तुत उपन्यास में भी नायक और नायिका के प्रणय का एक दृश्य है। लेकिन फूहड़ कुछ नहीं है। सास ननद टाइप लोगों के मुंह बिचकाने लायक कुछ नहीं।

“रेशम के धागों से ढकी प्रीत की हांडी से मीठा शहद टपकता रहा। अनछुए मेहराबों की रोशनी ने दस अंगुलियों में बीस आंखे उगा दीं। उन आंखों ने शब भर बिखरी हुई गुलाबी पंखुड़ियों पर चुन चुन कर तारे सजाए। रात के तीसरे पहर नदी ने अपना रुख फिर मोड़ा। अंबर ने करवट ली और अंबु में खुद को छोड़ दिया। नीले ने नीले से पूछा, तू नीला कि मैं नीला!

हवा में महकती लाली मुसकाई और सर पर हाथ मारा, बुद्धू प्रेम! तू कितना सुंदर है रे!

आलिंगन खिलखिलाया, खुशबू ने साए किए। कस्तूरी ने बांध खोला बांधा और फिर खोला। दिशाओं ने सब झिर्रियों यकायक प्रवेश किया। छोटे छोटे अनगिनत मोती धवल मोती दमकने लगे। अग्नि सुलगी दहकी और फिर महकने लगी। मोतियों ने झालरें सजा लीं… भाप के गोलों ने बादलों को निहारा बादलों ने इनायत की और बादलों को छोड़ दिया।
ईश्वर ने उन नन्हें ईश्वरों को देखा और सुकून से आंखें मूंद लीं।”

बातें व्यंजना में कही जाएं और वो समझ भी ली जाएं यह एक दुष्कर कार्य है।

डायरी के अलग अलग पन्नों के शीर्षक भी काफी आकर्षक हैं।

जिंदगी की कशिश थी, यह जो जिंदगी पर भारी थी/ सहरा में खुलती बारिशें/तुम मेरी आत्मा का सबसे सटीक अनुवाद हो/संवाद के कोटर में मौन ने घर बना लिया/साबुत तस्वीरों का टुकड़ा टुकड़ा तकरीरें थीं और थीं सब मुख्तलिफ…

246 पृष्ठों का एक बढ़िया उपन्यास जो न तो इतना बड़ा है कि पढ़ते पढ़ते ऊब हो जाए और न ही इतना छोटा है कि कब खत्म हुआ यह पता ही न चले।

बहुत कुछ है उपन्यास में जिसने अब तक भी न पढ़ा हो पढ़िए। तीन सौ रुपए का पिज्जा ऑर्डर करके अच्छा नहीं है कहकर डस्टबिन में डाल देने वाली पीढ़ी के लिए 249 रुपए का उपन्यास कोई बड़ी बात नहीं है। फिर भी यह प्राथमिकताओं का संकरण काल है। क्या प्रथम और क्या अंतिम यह पीढ़ी तय नहीं कर पा रही है।

बात तो दिल्ली का ताज बदल देने की होगी लेकिन अपने ही कूलर का पानी बदलने के लिए किसी छोटू या राजू के इंतजार में बैठे हमारे युवा अपने समस्त संभावनाओं को अमली जामा कब पहनाएंगे? देखते हैं…?

किताब- क़ितराह
लेखिका- Sushma Gupta
प्रकाशन- हिन्द युग्म
मूल्य- 249
#चित्रगुप्त