देश

“क़ानून के शासन में बुलडोज़र न्याय की कोई जगह नहीं है”, नागरिकों की संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर उनकी आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता : बुलडोज़र एक्शन पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख़ : रिपोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोज़र एक्शन पर सख्त रुख़ अपनाया है.

उत्तर प्रदेश में एक मकान को ध्वस्त करने से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को फै़सला सुनाते हुए कहा कि ‘बुलडोज़र जस्टिस’ की कोई जगह नहीं है.

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, “क़ानून के शासन में बुलडोज़र न्याय की कोई जगह नहीं है.”

उनका कहना था, “अगर इसकी अनुमति दी गई तो अनुच्छेद 300ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता ख़त्म हो जाएगी.”

छह नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने यह फै़सला सुनाया, जिसकी कॉपी शुक्रवार रात को सामने आई.

कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को मुआवजे़ के रूप में पीड़ित व्यक्ति को 25 लाख रुपये देने का निर्देश भी दिया है.

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज के रहने वाले मनोज टिबड़ेवाल आकाश का घर साल 2019 में सड़क चौड़ीकरण परियोजना के तहत ध्वस्त कर दिया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

कोर्ट का कहना है कि नागरिकों की संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर उनकी आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता है.

कोर्ट ने कहा कि बुलडोज़र न्याय न केवल क़ानून के शासन के ख़िलाफ़ है बल्कि यह मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है.

अपने फै़सले में कोर्ट ने कहा, “लोगों की संपत्तियों और उनके घरों को तोड़कर उनकी आवाज़ को नहीं दबाया जा सकता है. एक व्यक्ति के पास जो सबसे बड़ी सुरक्षा होती है, वह उसका घर ही है.”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार को किसी भी व्यक्ति की संपत्ति ध्वस्त करने से पहले क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए और उन्हें सुनवाई का मौक़ा देना चाहिए.

कोर्ट का कहना है कि अगर किसी विभाग या अधिकारी को मनमाने और गै़रक़ानूनी व्यवहार की इजाज़त दी जाती है तो इस बात का ख़तरा है कि प्रतिशोध में लोगों की संपत्तियों को ध्वस्त किया जा सकता है.

अवैध तरीके़ से मकान तोड़ने करने वालों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश दिए हैं.

कोर्ट ने ऐसा करने वाले सरकारी अधिकारियों और ठेकेदारों के ख़िलाफ़ जांच और अनुशासनात्मक कार्रवाई करने को कहा है.

कोर्ट का कहना है कि न सिर्फ इस मामले में बल्कि इस तरह के अन्य मामलों में भी अगर कोई अधिकारी शामिल पाया जाता है तो उस पर कार्रवाई की जानी चाहिए.

इस मामले में कोर्ट ने मुख्य सचिव से राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) के आदेश के तहत एफ़आईआर दर्ज करवाने के लिए भी कहा है, जिसकी जांच सीबी-सीआईडी करेगी.

सीबी-सीआईडी का नेतृत्व पुलिस महानिदेशक स्तर के आईपीएस अधिकारी करते हैं.

सड़क चौड़ीकरण के लिए निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकार को सड़क चौड़ीकरण परियोजना लागू करने से पहले कुछ ख़ास बातों का पालन करना चाहिए.

कोर्ट का कहना है कि आधिकारिक रिकॉर्ड और मैप के मुताबिक़ सड़क की मौजूदा चौड़ाई का पता लगाना चाहिए.

फै़सले में कहा गया है कि चौड़ीकरण के समय सर्वे करना चाहिए और पुराने रिकॉर्ड्स को देखकर यह पता लगाना चाहिए कि कितना अवैध अतिक्रमण हुआ है.

अगर अवैध अतिक्रमण पाया जाता है तो ऐसा करने वाले को उचित तरीके़ से लिखित नोटिस जारी कर, अतिक्रमण हटाने के लिए कहा जाना चाहिए.

कोर्ट का कहना है कि अगर सड़क चौड़ीकरण के समय राज्य सरकार को भूमि की ज़रूरत है तो क़ानून के मुताबिक़ भूमि का अधिग्रहण किया जाना चाहिए.

क्या है पूरा मामला?

13 सितंबर 2019 को उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले में जिला प्रशासन ने मनोज टिबड़ेवाल आकाश का दो मंजिला घर बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया था.

मनोज टिबड़ेवाल पेशे से पत्रकार हैं, जो दिल्ली से डाइनामाइट नाम की एक न्यूज़ वेबसाइट चलाते है.

बीबीसी से बातचीत में मनोज कहते हैं, “मेरे पैतृक मकान को जिला प्रशासन ने बिना किसी नोटिस और गै़रक़ानूनी ढंग से ज़मींदोज कर दिया था. उस वक्त ज़िला प्रशासन ने भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया था. हर तरफ दहशत का माहौल था और चंद ही मिनटों में चारों तरफ से घर ढहा दिया गया.”

वे कहते हैं, “दो मंज़िला मकान के नीचे तीन दुकानें थींं. दुकानों के पीछे और पहली मंजिल पर हमारा घर था. ये क़रीब पांच डिसमिल जगह है, जो क़रीब 2200 वर्ग फीट बनती है. ये महाराजगंज जनपद मुख्यालय के मुख्य चौराहे का घर था. उस वक्त इस जमीन की क़ीमत पांच करोड़ थी. आज के समय में इसकी क़ीमत 10 करोड़ है.”

मनोज आरोप लगाते हैं, “1960 में मेरे दादा जी ने रजिस्टर्ड बैनामे से ज़मीन खरीदकर घर बनाया था. पहले वहां तीन मीटर की सड़क थी. हमारे घर के सामने 16 मीटर की सरकारी ज़मीन है, लेकिन सड़क चौड़ीकरण के समय जो डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई गई उसमें इस 16 मीटर की जगह को 30 मीटर बता दिया गया और यहीं से सारी समस्या की शुरुआत हुई.”

वो आरोप लगाते हैं, “ऐसा इसलिए किया गया ताकि लोगों को 14 मीटर के लिए मुआवज़ा न देना पड़े. प्रोजेक्ट की क़ीमत कम आएगी और आसानी से परियोजना पास हो जाएगी. यह प्रोजेक्ट 185 करोड़ रुपये का था जिसमें 21 किलोमीटर सड़क आनी थी. इस 21 किलोमीटर में से 4 किलोमीटर सड़क शहर के बीच से जाती है, और इसके दोनों तरफ दुकानें और घर हैं.”

मनोज कहते हैं, “ज़िला प्रशासन ने लाउडस्पीकर से मुनादी करवाई कि सभी लोग 30 मीटर चौड़ी जमीन पर पड़ने वाले अपने-अपने मकानों और घरों को खुद ही तोड़ लें नहीं तो ज़िला प्रशासन बुलडोज़र चला देगा. किसी को भी क़ानूनी नोटिस नहीं दिया गया.”

“यहां तक की ये भी कहा गया कि जो व्यक्ति खुद अपना मकान या दुकान नहीं तोड़ेगा तो उसे वह पैसा भी देना होगा जो बुलडोज़र पर खर्च होगा.”

वे कहते हैं, “मानवाधिकार का उल्लंघन किया गया. बुलडोज़र चलने की वजह से हमारा परिवार बिजली, शौचालय और पानी से महरूम हो गया है. हमें कई रातें सड़क पर गुज़ारनी पड़ी. वो अत्याचार आज भी हमें रह रहकर याद आता है.”

सुप्रीम कोर्ट से गुहार

13 सितंबर की घटना के बाद मनोज ने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया.

मनोज कहते हैं, “4 अक्टूबर 2019 को मैंने देश के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा और शिकायत की कि इस अत्याचार के ख़िलाफ़ वो स्वत: संज्ञान लें.”

वे कहते हैं, “7 दिसंबर 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया और तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सुनवाई की. 9 नवंबर 2024 को इस मामले में पूरा आदेश आया है.”

मनोज कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट के फै़सले से हम बहुत खुश हैं. कोर्ट ने राज्य सरकार को 25 लाख रुपये का अंतरिम मुआवज़ा देने का निर्देश दिया है.”

वे कहते हैं, “न सिर्फ मुआवज़ा बल्कि कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव से इस मामले में ज़िम्मेदार अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने और अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया है.”

मनोज कहते हैं, “अब मुझे देश भर से लोगों के फ़ोन आ रहे हैं. लोग मुझसे मिलने के लिए समय मांग रहे हैं. ये एक लंबी लड़ाई थी जिसे हमने जीत लिया है.”

‘उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ना सुनी’

मनोज टिबड़ेवाल का कहना है कि उन्होंने इस मामले की शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) से भी की थी.

वे कहते हैं, “4 अक्टूबर 2019 को मैंने एक पत्र एनएचआरसी को भी लिखा था. उस समय वहां देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू चेयरमैन थे. उन्होंने इस मामले में एक जांच कमेटी बनाई और एक टीम को जांच के लिए महाराजगंज भेजा.”

मनोज दावा करते हैं कि जांच टीम ने अपनी रिपोर्ट दिल्ली जाकर जमा की और उसे देखने के बाद जस्टिस दत्तू ने कहा था कि शिकायतकर्ता मनोज के साथ घनघोर अत्याचार हुआ है.

वे कहते हैं, “6 जुलाई 2020 को एनएचआरसी का फै़सला आया. एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश सरकार को मेरी शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज करने और 5 लाख रुपये का दंडात्मक मुआवज़ा देने का निर्देश दिया था. उनका कहना था कि इस मामले की जांच सीबी-सीआईडी से करवाई जाए और दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए.”

मनोज कहते हैं, “उत्तर प्रदेश सरकार ने एनएचआरसी के फै़सले पर अमल नहीं किया और न ही मुझे किसी तरह की राहत मिली. इसके बाद मैंने उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर राहत की मांग की. राज्य सरकार ने एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को जांच सौंपी.”

वे दावा करते हैं, “27 फरवरी 2020 को वरिष्ठ जांच अधिकारी ने मौके़ पर आकर सभी पक्षों को सुना और अपनी रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट को दोषी पाया गया और उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की सिफारिश की गई.”

मनोज आरोप लगाते हैं, “लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने किसी की नहीं सुनी. अगर समय रहते राज्य सरकार कार्रवाई करती तो सुप्रीम कोर्ट से सुनना नहीं पड़ता.”

====================
अभिनव गोयल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता